समकालीन हिंदी लघुकथा: कलात्मक उत्कर्ष के आयाम / अशोक भाटिया

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किसी भी रचना की कसौटी उसका आकार-प्रकार नहीं, उसका विजन, संघर्ष और विडंबनाओं के उभार की उसकी क्षमता होती है। हिन्दी लघुकथा के सौ से अधिक वर्षों के लेखन में ऐसी अनेक लघुकथाएँ हैं, जो अपनी संवेदना, शिल्प और भाषा-तीनों दृष्टियों से मील का पत्थर साबित होती हैं। यहाँ उनमें से कुछ लघुकथाओं का विवेचन उदाहरण के रूप में किया जा रहा है। इनके अतिरिक्त विष्णु प्रभाकर, रमेश बतरा, सिमर सदोष, रवीन्द्र वर्मा, रामकुमार आत्रेय, जसबीर चावला, चैतन्य त्रिवेदी, श्याम सुन्दर दीप्ति, श्याम सुन्दर अग्रवाल आदि अनेक लेखक हैं, जिनकी लघुकथाओं की समृद्वि विवेचन की माँग करती है। यहाँ निम्नलिखित लघुकथाओं का विवेचन-विश्लेषण किया जा रहा है-

  • बात - हरिशंकर परसाई
  • डूबते लोग - युगल
  • फूली - भगीरथ
  • गरीब की मां - चित्रा मुद्गल
  • दया - पृथ्वीराज अरोड़ा
  • गोभोजन कथा - बलराम अग्रवाल
  • कपों की कहानी - अशोक भाटिया
  • गोश्त की गंध - सुकेश साहनी
  • मुक्त करो - मुकेश वर्मा

1. हरिशंकर परसाई: बात

लघुकथा की रूढ़ मान्यताओं की चुनौती

रचनात्मक साहित्य अपना मार्ग स्वयं बनाता है। शास्त्रीय मान्यताओं का बंधन रचना पर लागू नहीं हुआ करता। कभी महाकाव्य के लिए आठ सर्ग होने अनिवार्य थे, किन्तु तुलसीदास का विश्व-विख्यात महाकाव्य 'रामचरितमानस' ही सात सर्गो का है। रचना की आवश्यकता मर्यादा है, न कि शास्त्रों के रूढ़ बंधनों की जकड़न।

हरिशंकर परसाई भारतीय साहित्य के शीर्षस्थ व्यंग्यकार हैं। व्यंग्य की प्रवृत्ति उनकी प्रत्येक विधा की कृति में उपलब्ध है। उनका साहित्य आलोचकों के लिए भी चुनौती है। परसाई की 'बात' लघुकथा इसका अपवाद नहीं है।

हिन्दी लघुकथा-क्षेत्र में नवें दशक के प्रारंभ से ही कुछ लेखक / आलोचक अपनी गढ़ी हुई बेड़ियाँ लघुकथा को पहनाने और श्रेय लूटने को तत्पर रहे हैं। इस तथ्य को वे समझ नहीं पा रहे थे कि शास्त्रीय और अकादमिक किस्म के ऐसे फरमान रचनात्मकता के लिए बड़े हानिकारक होते हैंे। बहरहाल, परसाई की 'बात' लघुकथा का विवेचन करते हैं।

इस रचना में मध्यवर्गीय दफ़्तरी जीवन का एक सत्य उद्घाटित किया गया है कि इस वर्ग को कोई भी बात एक तो पचती नहीं, दूसरे उस बात को लेकर अपने नंबर बनाने से वह नहीं चूकता। फिर यदि कहीं उस पर जवाबदेही आ जाए, तो वह पल्ला झाड़ने से भी नहीं चूकता।

एक दफ़्तर से वर्मा जी किसी कारण बम्बई जाते हैं। उनके सहयोगी रमेश, दिनेश और फिर कमलेश बारी-बारी से 'मैं' को बताते हैं कि एक बात सिर्फ़ उन्हें मालूम है, उसे अपने तक रखना। वर्मा जी की जगह खाली हो रही है, फौरन उस जगह के लिए अर्जी दे दो। 'तीनों पात्र' मैं' को सुबह, दोपहर, शाम को मिलकर यह बताते हैं। स्थिति में से व्यंग्य की धार स्वयं ही फूट रही है।

दूसरे दिन का दृश्य-बंध देखिए. सुबह, दोपहर और शाम रामलाल, शामलाल और मोहनलाल 'मैं' को मिलते हैं और वर्मा जी की जगह के लिए कोशिश करने को कहते हैं। 'मै' द्वारा पूछने पर कहते हैं कि उन्हें क्रमशः रमेश, दिनेश और कमलेश ने बतलाया है। यहाँ व्यंग्य की दूसरी परत तैयार होती है।

दो दिन बाद वर्मा जी आकर सीधे 'मैं' से मिलते हैं और उनके द्वारा दी अर्जी पर आपत्ति करके पूछते हैं-तुमसे किसने कहा कि मैं नौकरी छोड़ रहा हूँ?

यहाँ परसाई ने नाटकीयता का सहारा लेकर रमेश, दिनेश व कमलेश को घूमते-घामते 'मैं' के घर पहुँचता दिखाया है। वर्माजी के पुनः पूछने पर 'मै' उन तीनों का नाम लेता है। अंतिम पंक्तियाँ गौर करने लायक हैं।

वर्मा जी ने कहा-"क्यों यारो, ऐसी अफवाह तुमने क्यों उड़ा दी?" और वे तीनों एक स्वर में बोले-"हम क्यों उड़ाएंगे? सारे शहर में तो बात फैल रही है।"

इस रचना की चरम परिणति हास्यजनक लगती है, किन्तु एक क्षण बाद यह पाठकीय चेतना के द्वार पर व्यंग्य के ज़रिए दस्तक देती है। जिसे 'कांफिडेंशियल' कहा जा रहा था, वह बात सारे शहर में कैसे फैल गई? यह मध्यवर्गीय मानसिकता का कमाल है, जो स्वयं को सबसे ज़्यादा आदर्शवादी और नैतिकता का ठेकेदार मानता है।

इतने छोटे आकार की रचना में कुल आठ पात्र आए हैं। उनके बिना अफवाह फैलने की बात को असरदार ढंग से दिखाया नहीं जा सकता था। लघुकथा-क्षेत्र में जो लकीर के फकीर चिंतक हैं, उन्हें यह आठ पात्रों वाली बात नहीं पचेगी। दूसरे, इसमें तीन दिनों की घटनाओं का उल्लेख है। पहले दो दिनों में तो सुबह-दोपहर-शाम करके छः स्थितियाँ बना दी गई हैं। लघुकथा की लकीर पीटने वालों को यह सब जानकर अपना माथा पीट लेना पड़ेगा। वे पिछली शताब्दी से 'लघुकथा में काल-दोष' का जो काला झंडा फहरा रहे हैं, उसका क्या होगा?

यहां परसाई का रचना-कौशल सिर चढ़कर बोलता है। एक बात पर इतनी स्थितियों और पात्रों को अपनी कलम पर नचाकर चरम परिणति पर पहुँचाने वाला रचनाकार कोई हरिशंकर परसाई जैसा सिद्धहस्त ही हो सकता है। ज़रा शब्द-प्रयोग की सजगता का एक उदाहरण देखं। इस लघुकथा में पाँच लोग दूसरे को कहते हैं कि वर्मा जी लम्बी छुट्टी पर गए है, इसलिए वह उनकी जगह अर्जी दे दें। पाँचवें व्यक्ति द्वारा कही गई इसी बात की शब्दावली में भिन्नता और लेखक की सजगता का प्रमाण देखिए-

1. तुम उनकी जगह के लिए दरखास्त दे दो।

2. तुम उस जगह के लिए फौरन अर्जी दे दो।

3. तुम फौरन उस जगह के लिए कोशिश करो।

4. वर्मा वाली जगह के लिए कोशिश क्यों नहीं करते?

5. वर्मा वाली जगह के लिए दरखास्त दी कि नहीं?

नवें दशक में व्यंग्यात्मक लघुकथाओं को 'लघु व्यंग्य' के अस्तित्वहीन खाते में डालने वाले लेखक यह विचार करें कि ऐसी श्रेष्ठ रचनाओं को दरकिनार करने का प्रयास करके वे लघुकथा का हित कर रहे थे या अहित? उसके दायरे को विस्तृत कर रहे थे या संकीर्ण?

2. युगल: डूबते लोग

निर्धन दर्द का कलात्मक दस्तावेज

युगल की यह लघुकथा अति निर्धनता में चुप्पी और चीत्कार की अद्भुत रचना है। भूख और गरीबी किस तरह आदमी की नैतिकता और संवेदना को निगल जाती है-इसे यहाँ सजग संवेदना के साथ उद्घाटित किया गया है। जिस बिहार राज्य से युगल का सम्बंध है, वह अकाल और भुखमरी की मार से त्रस्त रहा है, इसलिए युगल के जेहन में ऐसे संदर्भ रहे होंगे। मनुष्य की एक सबसे बड़ी त्रासदी वह विवशता होती है, जो पत्नी को पति की सहमति से अपना शरीर बेचने की ओर धकेलती है। संभवतः इस विषय पर यह एकमात्र लघुकथा उपलब्ध है। मूल्यचेता दम्पत्ति द्वारा विवशता में नैतिक मूल्य छोड़ने की वेदना की छटपटाहट को युगल ने आश्चर्यजनक संतुलन के साथ प्रस्तुत किया है।

हड़ताल और तालाबंदी के कारण पति घर बैठा है। चार महीने का खोली का किराया देना बकाया है, इसमें हड़ताल की अवधि का संकेत छिपा है। 'जिन्दगी नरक बना दी है'-पति का यह कथन तब आता है, जब रचना की हृदय-विदारक घटना का दोनों सामना कर चुके हैं। पत्नी जीवित रहने के अंतिम विकल्प यानी शरीर बेचने की पीड़ा से अभी-अभी गुजरी है। लघुकथा का आरंभ देखिए-पिछले एक घंटे से वह जाने क्या-क्या कितनी बातें सोच रही थी। फिर उसे लगा कि वह अथाह पानी में है और उसके पाँवों के नीचे ज़मीन नहीं है। वह तैरना नहीं जानती। डूबना ही उसकी नियति है। '

पति बाहर से आता है, तो युगल लिखते हैं-दरवाजे पर ठहरे क्षण बहुत भारी होने लगे। पति ने आहिस्ता से दरवाजा धकेला। कुछ क्षण थमा रहा। 'इसके बाद पति-पत्नी की क्रियाएं और उनके संवाद रचनाकार की कलात्मक प्रौढ़ता को रेखांकित करते हैं। जहाँ हिन्दी की अधिकतर लघुकथाएं गंभीरता और संवेदना को छोड़ लफ्फाजी में आकंठ डूबी नज़र आती हैं, वहाँ' डूबते लोग' जैसी संवेदना में पगी लघुकथाएं देखकर संतोष होता है।

रचना की संवाद-योजना अद्भुत है। एक-एक संवाद अपने आप में एक बात को मुकम्मल करता जाता है। ज़रा देखिए-

1. कुछ क्षणों बाद पति ने दुखी भाव से कहा-तुम भी क्या सोचती होगी?

'सोचने से क्या होता है?' पत्नी का स्वर निःसंग था। ' यह पीड़ा का एक पूरा बयान है।

2. कुछ देर बाद पति ने पूछा-'कितनी देर रहा?'

'मैं' समय को नहीं सोच रही थी। पत्नी का ध्यान परिवार, भविष्य और वर्तमान पीड़ा पर है।

3. 'कितने दिए?'

'मैंने गिने नहीं।'

यहाँ पीड़ा घनीभूत होकर व्यक्त हुई है। जयशंकर प्रसाद की घनीभूत पीड़ा दुर्दिन में आँसू बनकर बरसती थी, लेकिन यहाँ दुर्दिन में जीवन की गाड़ी को किसी तरह चलाने का उपक्रम करना है; आँसुओं से काम नहीं चलने वाला। अब पति-पत्नी धीरे-धीरे खुलते हैं। एक-दूसरे के खान-पान की सुध लेते हैं। फिर राशन की चिंता, खोली के किराए की चिंता, कुछ काम न मिल पाने का दुःख-यह रचना के मध्य भाग में है, जो पूर्वार्ध और उत्तरार्ध में रची अतिरिक्त संवेदनशीलता के बीच पाठक को थोड़ा सांस लेने का अवसर देता है। लघुकथा फिर भयावह यथार्थ की तरफ मुड़ जाती है। संवाद देखिए-

"वह बोल गया है, दो दिनों बाद फिर आएगा।"

"तुम मुँह खोलकर माँगना।" पति ने दोनों बाहुओं में अपना सिर छिपा लिया।

इसके बाद दो मिनट का सन्नाटा और फिर पति द्वारा अपना सिर चौकी पर ज़ोर-ज़ोर से पटकना, पत्नी द्वारा उस जगह दोनों तलहथियाँ डालकर उन्हें रोकना और कहना-"इस तरह घबराओगे तो...मैं मर तो नहीं गयी हूँ। वैसे जीने के लिए जाने कितनी बार मरना पड़ता है।"

इस अंतिम संवाद में जहां पृष्ठभूमि में पीड़ा है, वहीं परिवार बचाने का हौसला भी। पत्नी, जिसे देह-विसर्जन के बाद लगा कि डूबना ही उसकी नियति है, रचना के अंत तक आते-आते वह पति को ही डूबने से बचा लेती है।

'डूबते लोग' संवेदनाओं की कलात्मक अभिव्यक्ति की चरम परिणति है। बिहार में जहाँ लघुकथा को लेकर इतनी सक्रियता है, वहाँ पाँच लघुकथा-संग्रह देने वाले युगल जैसे सजग संवेदनशील रचनाकार पर अब तक एक लेख तक नहीं लिखा जाना आश्चर्य में डालता है।

3. भगीरथ: फूली

पांखड पर तर्क की विजय की प्रतिमानक रचना

(भगीरथ की एक लघुकथा पर टिप्पणी के लिए 'फूली' , 'आग' और 'युद्ध' -तीन में युद्ध था। 'युद्ध' की बौद्धिकता ने रोक दिया, तो 'फूली' लघुकथा की आम पाठक पर असर डालने की शक्ति ने 'आग' की व्यापकता को भी पीछे धकेल दिया)

हमारा देश ईश्वर और धर्म और अनगिनत देवताओं के नाम पर पाखंड में आकंठ डूबा है, बल्कि पानी सिर से ऊपर जा चुका है। लेकिन इस पाखंड के पीछे छिपे स्वार्थ का एहसास नहीं होताः स्वार्थी ताकतें भी ऐसा एहसास नहीं होने देतीं। वे भारत को ऐसा मूढ़मति ही बनाए रखना चाहती हैं। भगीरथ की रचना 'फूली' राजस्थानी पृष्ठभूमि पर रची गयी ऐसी लघुकथा है जिसमें लेखक भानियां जैसों के पाखंड को फूली जैसी अग्नि से भस्म कर देना चाहता है।

फूली और भानियाँ की यह कथा राजस्थान ही नहीं, उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड, बल्कि अन्य राज्यों का भी उतना ही बड़ा सच है। फूली घर-बाहर के काम निपटाती है, जबकि भानियाँ ने वीर बावजी का उसमें भाव आने का पाखंड ओढ़ रखा है। रचना के चरम परिणति तक पहुँचते-पहुँचते न केवल भानियां के इस पाखंड का पर्दाफाश हो जाता है, बल्कि उसके साथ उसकी कामचोरी, घर के प्रति उपेक्षा और गैर-जिम्मेदारी का भाव जैसी दूसरी कमजोरियां भी अपने आप सामने आ जाती हैं।

भगीरथ को अपनी रचना को चरम परिणति तक ले जाने की कोई जल्दी नहीं, इसी कारण संवेदनशील विषय पर लिखी इस रचना के अंत से साधारण पाठक भी सहमत होता है। भानियाँ के शरीर में वीर बावजी के तथाकथित प्रवेश पर पहले तो फूली मिन्नत करती है-हे वीरजी! मैं थारा हाथ जोडूं, क्यों म्हारे पीछे लागौं हों। " पर सब व्यर्थ। भाव उतरने पर (?) भानियाँ फूली से शरीर दबवाता है।

दूसरे कदम पर फूली द्वारा घर और खेत-दोनों में काम करने का ज़िक्र करके उसके साथ कई बार वीरजी के मंदिर जाकर मिन्नतें करने का उल्लेख है-'खूब हाथ जोड़े, पांव पड़ी मगर भानियां में कोई फर्क नहीं पडा़।'

तीसरे कदम पर फूली काम छोड़कर भानियाँ के पास जाकर हाथ जोड़कर इससे अलग होने की प्रार्थना करती है।

यहाँ से लघुकथा मोड़ ले लेती है, जिसकी अग्रणी फूली बनती है। वह सुलगता कंडा उठाकर आग भानियां के मुंह तक ले गयी और बोली-जाएगा कि नहीं जाएगा। '

भानियां की मूंछों के बाल जल गए. वह होश में आया। पाखंड की पहली पर्त हटी. यदि भानियां में कोई देवता आया था, तो वह क्यों भागा और भानियां क्यों होश में आया!

भानियां कहता है कि 'वह कोई भूत-प्रेत नहीं, देव है, देव।' यह पाखंड को बनाए रखने, बीवी और समाज को मूर्ख बनाए रखने की आखिरी चाल थी। अब फूली इस रचना में अपना पाँचवाँ कदम उठाती है-"आज तो वीरजी को भगा के ही मानूंगी। मेरा घर बरबाद हो रहा है और मैं देखती रहूँ।" कहते हुए आग को उसकी ओर बढ़ाया। भानियां के पीछे हटने के कारण आग उसके मुंह में घुसने से बच गई.

रचना की अंतिम पंक्तियाँ गौर करने लायक हैं-"भानियाँ एकदम पलटा, दालान में आया और चरी उठाकर दूध दुहने लगा।"

भगीरथ ने अंत में भानियाँ को दूध दुहने के लिए जाता दिखाया है। फूली ने तीसरा कदम उठाने से पहले गाय की टांगों में बंधी रस्सी खोल दी थी और चरी वहीं पटक दी थी। भानियाँ की यह क्रिया वहीं जुड़ती है।

भगीरथ की यह लघुकथा भारतीय समाज के बड़े क्षेत्र में फैली इस समस्या का तर्कपूर्ण समाधान करती है। दरअसल देश का विकास जीन्स पहनने, डॉक्टर-इन्जीनियर बना देने से नहीं, बल्कि तर्कपूर्ण वैज्ञानिक दृष्टि और उसे व्यवहार में लागू करने से होगा। रचना में आंचलिक भाषा के संवाद पाठक को अपने से न सिर्फ़ सहजता से जोड़ने में सहायक हुए हैं, बल्कि, उनसे रचना में छिपे आंतरिक तर्क का प्रभाव भी पाठक पर उतना अधिक पड़ता है।

4. चित्रा मुद्गल: गरीब की माँ

नाटकीय प्रस्तुति की कारीगरी

चित्रा मुद्गल हिन्दी साहित्य की प्रतिनिधि कथाकार हैं। आंचलिक उपन्यास 'आवाँ' से वे विशेष रूप से चर्चित हुई हैं। चित्रा मुद्गल की लघुकथाएं निम्नवर्ग की विवशताओं को बड़ी संवेदनशीलता से उकेरती हैं। उनकी ऐसी लघुकथाओं में 'बोहनी' , 'गरीब की माँ' , 'नसीहत' , 'नाम' आदि प्रमुख हैं।

'गरीब की माँ' का भयावह यथार्थ पाठक को विचलित करने वाला है। इस कारण भी कि इस रचना में कोई भूमिका, कोई विस्तृृत वर्णन नहीं है। तीखेपन से शुरुआत, तीव्रता से निर्वाह और मार्मिक अंत लिए यह रचना देर तक पाठक को मथती रहती है। निम्नवर्ग की आर्थिक विवशताएँ इस कदर मानव व्यवहार को बदलती हैं कि वह एक झूठ को कई बार बोलकर अपने वर्तमान को बचाने का प्रयास करते हैं।

कथानक मात्र इतना है कि पति-पत्नी छह-सात महीने से खोली का किराया नहीं दे पा रहे। सेठानी खोली खाली करने को कहती है। पति-पत्नी दोनों एक-दूसरे को सेठानी से बात करने को कहते हैं कि अगले महीने भाड़ा चुकता कर देंगे।

दूसरे भाग में पत्नी बताती है कि सेठानी आई थी। पत्नी ने कहा कि मलप्पा (पति) की माँ मर गई है, उधर पैसा भेजा है। सेठानी ने कहा कि छह महीने पहले माँ मरी थी, तो मलप्पा 50 रुपये उधार भी ले गया था, जो आज तक नहीं लौटाए. दो महीने पहले फिर कहता था कि माँ मर गई. तब मलप्पा ने कहा था कि उसके बाप ने दो शादियां की थीं। सेठानी के पूछने पर कि तीसरी माँ किधर से आई, वह बोली कि दो मांओं के मरने के बाद बाप ने तीसरी शादी की।

निम्न वर्ग को अपना अस्तित्व बनाए रखने को कैसे दयनीय बचाव करने पड़ते है? इनके जीवन में कैसी संस्कृति और कौन-सी परंपरा, वहाँ मात्र भयावह वर्तमान और निगल लेने वाला भविष्य मौजूद है। विश्व की सबसे अनमोल रचना-अपनी माँ-को तीन बार मर गया बताना, विवशताजन्य संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है।

पूरी लघुकथा में केवल संवाद हैं और है आंचलिक (बम्बइया) भाषा का असरदार प्रयोग। इस रचना में वर्णनात्मकता इसके असर को कम कर देती, अतः लेखिका ने अपने को रचना से बाहर रखा है। इन रचना में बम्बइया शब्दावली, जैसे-अक्खा दिन (सारा दिन) , हलकटू, डिपासन, जास्ती (ज्यादा) , दुप्पर (दोपहर) , पन्नास (पचास) , मेना (महीना) , मुलुक, पिच्चू (फिर) , अजुन तलक (आज तक) आदि से भाषा की सहजता और प्रभाव दोनों बढ़ गए हैं। हिन्दी में केवल संवाद-शैली की यह सम्भवतः एकमात्र उल्लेखनीय लघुकथा है, जो पुरानी लकीर न अपनाकर रचना की आवश्यकतानुसार नया मार्ग अपनाती है। संवाद भी इतने छोटे हैं कि तीर की नोक जितने नुकीले और बेंधने का असर रखते हैं।

5. पृथ्वीराज अरोड़ा: दया

तुलनात्मक आख्यान का कलात्मक दस्तावेज

पृथ्वीराज अरोड़ा ने नवें दशक (1981-90) में 'सारिका' में प्रकाशित अपनी उत्कृृष्ट लघुकथाओं के माध्यम से हिन्दी लघुकथा के सहज-स्फूर्त आंदोलन को बहुमूल्य योगदान दिया। उसी समय की उनकी एक लघुकथा 'दया' अपनी श्रेष्ठता का लोहा पाठक और समीक्षक-दोनों से मनवा लेती है।

अरोड़ा की 'दया' नामक रचना ऐतिहासिक पृृष्ठभूमि पर आधारित है। इतिहास स्वयं को दोहराता हो या नहीं, उसमें नवीनीकरण, परिवर्तन आदि की गुंजाइश सदा रहती है। महाभारत, रामायण के साथ-साथ पंचतंत्र और हितोपदेश आदि भी रचनात्मक साहित्य के लिए स्त्रोत-ग्रंथ हैं। 'दया' लघुकथा पाठक को इतिहास का पुनरीक्षण करने की प्ररेणा देती है। इतिहास के पुनर्पाठ की यह रचना एक प्रश्न यह भी उठाती है कि प्राचीन काल के इतिहास को हम कब तक उसी युग के संदर्भ में उठाए घूमेंगे? उनकी वर्तमान प्रासंगिकता क्या है? इस पर विचार करना भी बड़ा ज़रूरी है।

कक्षा में हिन्दी अध्यापक दया-भाव का महत्त्व बता रहे हैं। राजकुमार गौतम से मछुआरे द्वारा पकड़ी गई मछलियों का तड़पना नहीं देखा गया। वे सोने की अंगूठी देकर मछलियां लेते हैं और दोबारा पानी में फेंक देते हैं।

लघुकथा के पूर्वार्ध में यह आम घटना है। किन्तु उत्तरार्ध में इसके समकक्ष वर्तमान के आम जन की घटना रख कर इसमें से एक बड़ा सत्य उजागर किया गया है। एक छात्र, जो मछुआरे का बेटा है, रोज मछली खाने को विवश है। वह बड़े निर्धन परिवार से है, जो शाक-सब्जी खरीदने में असमर्थ है। छात्र का संकेत में प्रश्न है कि धन के अभाव में वह मछलियों पर दया-भाव कैसे दिखा सकता है? अध्यापक के पास इसका कोई जवाब नहीं।

यह लघुकथा बताती है कि दया-भाव भी प्रायः धन पर निर्भर होता है। इससे यह भी व्यंजित होता है कि बिना तर्क या प्रासंगिकता के ऐतिहासिक संदर्भ को प्रस्तुत करना विवेकहीनता है। यह लघुकथा शिक्षा-पद्धति में तर्कहीन, निरर्थक और वायवीय शिक्षण के खोखलेपन को भी अनायास ही उजागर कर देती है। 'दया' लघुकथा ऐतिहासिक संदर्भ के तुलनात्मक आख्यान का अनुपम उदाहरण है। चीज़ों को अब किसी राजकुमार की नज़र से नहीं, आम आदमी की नज़र से देखे जाने का समय है। 'दया' लघुकथा एक साथ ही अध्यापक, उसके द्वारा पढ़ाया जाने वाला साहित्य, शिक्षा-पद्धति और इतिहास में राजाओं-राजकुमारों की प्रचलित अनर्गल कहानियां-सब पर सवालिया निशान खड़ा करती है। यह रचना दो प्रसंगों के माध्यम से दो भिन्न समयों, दो युगों की तुलना कर लघुकथा में अभिव्यक्ति का एक नया आयाम स्थापित करती है।

6. बलराम अग्रवाल: गोभोजन कथा

संकीर्णता से उदात्तता तक की यात्रा

श्रेष्ठ रचना वह है, जिसके माध्यम से लेखक की प्रगतिशील चेतना की दस्तक पाठकीय चेतना पर पड़ती है और जिसे पढ़कर पाठक लेखकीय चेतना के उस आयाम पर विमर्श करने लगता है, जो उस रचना में आया है। इस दृष्टि से बलराम अग्रवाल की लघुकथा 'गोभोजन कथा' का विवेचन करना ज़रूरी है। इसमें हिन्दुस्तान ही नहीं, दुनिया की सबसे बड़ी समस्या की ओर संकेत कर उसके व्यावहारिक समाधान के एक बिंदु को उभारा गया है। दुनिया की सबसे बड़ी समस्या नफ़रत की है। हिंसा, संकीर्णता वगैरह इसी के बायप्रोडक्ट हैं। इसका समाधान प्रेम है। भारतीय समाज की सबसे बड़ी विशेषता ही इसकी विविधता और साझी संस्कृति रही है। विश्व के सबसे प्रमुख सातों धर्मो के लोग भारत में रहते हैं। सभ्यता और संस्कृति के रूप में हमने एक-दूसरे से इतना कुछ ग्रहण किया है कि अब शुद्धतावादी नज़रिए की बात दूर की कौड़ी और हवाई किले बनाने जैसी लगती है, समाज-विरोधी तो वह है ही। वैश्वीकरण के उपकरण देश में आ रहे हैं, तो उनसे जुड़ी सभ्यता और संस्कृति के आयाम भी उसके साथ आएँगे ही।

लेखक इस रचना में सामासिक संस्कृति की विरासत को मजबूत करने पर बल देता है, लगे हाथ इसके रास्ते में आने वाली संकीर्णताओं की बाड़ को भी तीखी कलम से 'कलम' करता जाता है। 'गोभोजन कथा' लुप्त हो रही व की जा रही मानवता के पुनर्संस्कारीकरण की गाथा है। इंदर की पत्नी माधुरी संतान-प्राप्ति के लिए गर्भवती गाय की तलाश में गोशाला से भी निराश लौटती है। फिर इंदर के कहने पर बशीर के घर जाती है। पर बशीर की गाय को आटा-गुड़ खिलाने की बजाय वह बशीर की विधवा गर्भवती की दुर्दशा देख उसी को आटा-गुड़ दे आती है। अपने बच्चे के लिए गई थी, गाय को देने गई थी; पर विधवा और उसके बच्चे के लिए दे आई. इंसान-इंसान है, चाहे किसी धर्म या जाति का हो। सामासिक संस्कृृति की सहज रचनात्मक पैरोकारी यहाँ श्रेष्ठ रूप में मौजूद है। इस रचना में लेखक इन्सान और गाय में से इंसान को चुनता है। गाय निस्संदेह हमारी संस्कृति का महत्त्वपूर्ण पक्ष है, लेकिन इस सृष्टि का श्रेष्ठ प्राणी मनुष्य है। संकीर्ण, मानव-विरोधी बयानों को 'गोभोजन कथा' जैसी रचनाएँ निरर्थक सिद्ध करती हैं। हमारे संस्कार बेशक हमारे गिरेबाँ की तरह माने जाते हों, लेकिन संस्कार जब रूढ़ियों पर आरूढ़ होकर आते हैं, तो धीरे-धीरे सामाजिक विकृति का एक कारण भी बन जाते हैं। बलराम अग्रवाल ने माधुरी को रूढ़ि पर आरूढ़ दिखाया है। किन्तु 'तन्द्रा' से पहले वाली माधुरी जब सामाजिक सच्चाई से टकराती है, तो वह 'तन्द्रा' से जाग उठती है। उसका व्यवहार ही बदल जाता है। इस प्रकार इस लघुकथा में समाज की तन्द्रा को एक 'शॉक् ट्रीटमेंट' दिया गया है। सामाजिक बेहतरी के लिए यह परिवर्तनशीलता ही प्रगतिशीलता है। बेहतर समाज बनाने के लिए रूढ़िग्रस्तता को तोड़ना-छोड़ना आवश्यक है-यह संदेश सहज ही 'गोभोजन कथा' में से निकलता है। लेखक के मन में स्वस्थ समाज का सपना पलता है, इसलिए वह हिन्दू संस्कृति के अहम् पक्ष-गाय को भी इन्सान की तुलना में दरकिनार करता है। संभव है, कुछ संकीर्णता व्यक्ति आपत्ति करें कि पूरी लघुकथा में गाय को एक चुटकी भी नहीं खिलाई या गाय मुसलमान के घर बँधी क्यों दिखाई? लेकिन एक काल्पनिक यथार्थ भी होता है। मूल्य-सौन्दर्य की दृष्टि से 'गोभोजन कथा' हिन्दी की श्रेष्ठ लघुकथाओं में आती है। समृद्ध और आत्म-विस्तार करने वाली रचनाएँ मनुष्य की स्मृतियों में जीती हैं। 'गोभोजन कथा' भी ऐसी ही लघुकथा है।

7. अशोक भाटिया: कपों की कहानी

द्वन्द्वात्मक अभिव्यक्ति का उत्कर्ष

बलराम अग्रवाल के शब्दों में, " गत कुछ वर्षो से शैल्पिक दृष्टि से समकालीन हिन्दी लघुकथा में कुछ चमत्कारिक परिवर्तन देखने में आ रहे हैं। घटनाशीलता गौण और विचारशीलता प्रमुख होती जा रही है जो कि इसके गुणात्मक उत्कृष्टता की ओर बढ़ जाने का संकेत है-कथ्य के विकास में मनोभावों और मानसिक-उद्वेलनों ने प्रमुख भूमिका निभानी शुरू कर दी है। लघुकथा को 'कौंध' की तरह दो वाक्यों में समाप्त कर डालने का या दो विपरीत स्थितियों के चित्रण तक कथ्य को सीमित रखने के दिन जैसे लद ही गए हैं। आकार और गुणवत्ता, दोनों के मद्देनज़र, कई बार तो लगता है कि लघुकथा कहानी के कन्धे से अपना कन्धा मिलाकर चलने लगी है। देख और पढ़कर सन्तोष का अनुभव होता है।

शिक्षा और उस शिक्षाजनित ज्ञान की सार्थकता इस बात में निहित है कि वह हमें अपने भीतर देखना, अपने भीतर विचरना और विचारना सिखाए, गलित मान्यताओं के खिलाफ द्वंद्व की स्थिति उत्पन्न करें। समकालीन हिन्दी लघुकथा में द्वंद्व का यह चित्रण नई ऊँचाइयाँ प्राप्त कर रहा है। अपनी इस मान्यता की पुष्टिस्वरूप अशोक भाटिया की 'कपों की कहानी' नामक लघुकथा विचारणीय है। यह द्वंद्वात्मक शैली में लिखी गई मनोविश्लेषणपरक लघुकथा है।

'कपों की कहानी' का नायक वर्तमान समय की उस अभिजात्य अथवा बुर्जुआ पीढ़ी का प्रतीक है, जो विचार के स्तर पर तो गलित मान्यताओं को छोड़ने के द्वंद्व में फँसे होने और सामाजिक-समरसता को कायम करने की मुहिम में जुटे होने का ढोंग रचती है, लेकिन व्यावहारिकता के स्तर पर उसका हाथ कभी अपने कप से छोटे, तो कभी 'क्रैक' पड़े हुए'कपों पर ही पड़ता है। रसोई की रुकी नाली के गंद को यह पीढ़ी अपने हाथों से साफ कर रही है लेकिन उसी रसोई में परम्परा की तरह सजाकर रखे' क्रैक' कपों को कूडे़दान का रास्ता दिखा देने का साहस भी यह पीढ़ी नहीं कर पा रही है। यह सवर्णों द्वारा अवर्णो के प्रति सदियों से किए जा रहे असमान व अमानवीय व्यवहार और अन्याय आदि का उल्लेख अवश्य करती है। यह तथ्य मानसिक धरातल पर परिवर्तन की आहट का संकेत तो है किन्तु व्यावहारिक धरातल पर यह सोच और उत्साह बुझ जाता है। सोच और विवेक की दृष्टि से उसके सभी तर्क अकाटय हैं। घर से बाहर सफाईवालों के सामने जाकर उस पर विवेक हावी रहता है, तो पानी चाय के लिए रसोई में आने पर संस्कार जोर मारते हैं। कभी-कभी बाहर का विवेक भीतर जाकर भी ज़ोर मारता है। जब वह तीन कम चाय बनाता है तो दो कप छोटे उठाता है। फिर स्वयं कहता है-यह भेदभाव ठीक नहीं। उन्हें चाय की ज़रूरत मुझसे ज़्यादा है। लेकिन उसका यह विवेक तुरन्त ही संस्कारों के सामने दब जाता है और वह एक कप साबुत और दो कप वह उठाता है, जिसमें क्रैक पड़े हुए हैं।

अपनी जिन अनेक विशेषताओं के कारण 'कपों की कहानी' समकालीन लघुकथाओं के बीच अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में सक्षम है, उनमें एक यह भी है कि यह अस्पृश्यता को त्यागने सम्बन्धी सामाजिक दायित्व के उस उफान की ओर संकेत करती है, जो पिछले अनेक वर्षो से हमारे मन व मस्तिष्क में रह-रहकर आता है, लेकिन अपनी अभिजात्य-संकीर्णताओं के चलते कार्यान्वित न होने देकर हम ऐन मौके पर बदलाव का उफान पैदा करने वाली उस आँच को धीमा कर देते हैं।

अशोक भाटिया की यह लघुकथा अपने समय का प्रतिनिधित्व करती हुई द्वंद्वात्मक अभिव्यक्ति का उत्कर्ष प्रस्तुत करती है। इस विषय पर यह हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ लघुकथा है। "

8. सुकेश साहनी: गोश्त की गंध

फैटेसी और प्रतीक के ज़रिए संवेदनात्मक विस्तार

सुकेश साहनी की रचना 'गोश्त की गंध' सन् 1988 की है। इस लघुकथा का विषय जाना-पहचाना है-भारतीय मध्यवर्ग में दहेज और दामाद नाम के चूहे का आतंक। इस आतंक पर सुकेश 1984 में भी 'अपने-अपने संदर्भ' लघुकथा लिख चुके हैं, किन्तु 'गोश्त की गंध' की कलात्मकता ने उसे एक श्रेष्ठ रचना बना दिया है।

लघुकथा का आरम्भ घर का दरवाज़ा खोलने से होता है। इस रचना को चार हिस्सों में बाँटकर परख सकते हैं। पहले भाग में साले द्वारा दरवाजा खोलना और जीजा का प्रवेश करते हुए हैरानी के साथ साले के पिचके गाल व अस्थिपंजर शरीर को देखना। दूसरे दृश्य-बंध में जीजा द्वारा बदरंग दरवाज़े, जगह-जगह से झड़ते प्लास्टर और जर्जर सोफे पर नज़र पड़ना। इसके बाद उसे एहसास होता है कि भीतर पत्नी व सास-ससुर उसके अचानक आ जाने से आतंकित हैं और कांपती आवाज़ों में फुसफुसा रहे हैं। यह एहसास आरोपित न होकर पहले वर्णित स्थिति से स्वयं 'जस्टीफाई' हो रहा है। तीसरे दृश्य-बंध में लेखक स्वयं वर्णन के लिए खुलकर सामने आता है और फैंटेसी को वर्णन में बुनकर संवेदनात्मक विस्तार का ताना-बाना बुनता है। यहाँ ससुर, सास और साले के माध्यम से घर की दयनीय आर्थिक स्थिति के, प्रत्येक सदस्य पर पड़े दुष्प्रभाव को एक विशेष कोण से प्रस्तुत करने में लेखक का कौशल झलकता है। वह कोण है-जिसे जीजा देख और महसूस कर सकता है और जिसे पाठक एक एहसास के रूप में ग्रहण कर सकता है। ये पंक्तियाँ देखने में वर्णन-मात्र लगती हैं, किन्तु इनके पीछे सुकेश साहनी की विश्लेषण-क्षमता छिपी है। उसी पर आरूढ़ ये पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-"ससुर महोदय पूरी आस्तीन की कमीज पहनकर बैठै हुए थे, ताकि वह (दामाद) उनके हाथ से उतारे गए गोश्त-रहित भाग को न देख सके. अपनी तरफ से उन्होंने शुरू से ही काफी होशियारी बरती थी। उन्होंने अपने गालों के भीतरी भाग से गोश्त उतरवाया था, पर ऐसा करने से गालों में पड़ गए गड्ढों को नहीं छिपा सके थे। सास भी बड़ी चालाकी से एक फटा-सा दुपट्टा ओढ़े बैठी थी ताकि कहाँ-कहाँ से गोश्त उतारा गया है, समझ न सके. साला दीवार के सहारे सिर झुकाए उदास खड़ा था और अपनी ऊँची-ऊँची नेकर से झांकती गोश्त रहित जांघों को छिपाने का असफल प्रयास कर रहा था।"

लेखक यहाँ दो स्तरों पर सजग रहा है। एक, रचना के सौन्दर्य को बनाए रखना' दूसरे, रचना के पाठक पर पड़ने वाले सकारात्मक प्रभाव को बनाए रखना। इसलिए ऊपर उद्धृत पंक्तियों से पहले जब खाने में दामाद को प्लेटों में खून के बीच आदमी के गोश्त के बिलकुल ताजा टुकड़े तैरते दिखाई देते हैं, तो पाठक में जुगुप्सा भरने का खतरा लगता है। लेखक तुरन्त यह ऊपर उद्धृत वर्णन करता है कि ताजा गोश्त का क्या अर्थ है? इसलिए पाठक जुगुप्सा से एहसास की तरफ चल देता है, जबकि लघुकथा में दामाद एहसास से ग्लानि तक की यात्रा करता है।

दामाद को प्रसन्न रखने के लिए घर-भर को दरिद्र भी हो जाना है, लेकिन दामाद से उस दरिद्रता को छिपाना भी है-भारतीय मध्यवर्ग की इस दोहरी विवशता का वर्णन और विश्लेषण फैंटेसी और प्रतीक विधियों के यथावश्यक प्रयोग द्वारा सुकेश साहनी ने 'गोश्त की गंध' लघुकथा को एक रचनात्मक ऊँचाई प्रदान की है, जहाँ अन्त में एक संवेदना पाठक के मन-मस्तिष्क में मानो घर कर जाती है।

9. मुकेश वर्मा: मुक्त करो

लघुकथा के कमरे में नयी खिड़की

हिन्दी लघुकथा में यदि आपको भरी-पूरी ज़िन्दगी की धड़कन सुननी हो, तो सबसे पहले मुकेश वर्मा की लघुकथाओं के पास जाएँ। जहां लेखक अपनी छिलकेनुमा लघुकथाओं को प्रतिमानक सिद्ध कर रहे हों, वहाँ मुकेश वर्मा की लघुकथाएं अपनी समृद्धि के चलते लघुकथा के कमरे में नयी खिड़की की तरह खुलती हैं।

'मुक्त करो' लघुकथा व्यंग्य की महीन बनावट से बुनी गई रचना है। एक धनी के नज़रिए से एक निहायत गरीब लड़के का रेखाचित्र इस तरह बनाया गया है कि वह धनी आदमी पर सहज व्यंग्य की व्यंजना बन जाता है। धनी की क्रूरताएं और गरीब लड़के की विवशताओं को ऐसी शैली में बुना गया है कि पाठक हतप्रभ रह जाता है। इस लघुकथा की शैली में ऐसी लय है कि यह पाठक से अपने को बड़ी तेज़ी से पढ़वा लेती है।

'मुक्त करो' लघुकथा की शुरुआत ही एक धनी व्यक्ति की तरह से होती है-'देखो, उस लड़के का पीछा करो, जो तेज साइकिल चलाता हुआ। सूरत से छटा हुआ बदमाश लगता है, बल्कि है। वह सतरह-अठारह साल का होगा, लेकिन चेहरा बैरौनक। मुंह से बदबू आती है। बीड़ी पीता है। महीनों नहाता नहीं। कपड़े कभी धोता नहीं। उस पर नज़र रखो। वह रोजगार की तलाश में है। उसने सुबह से कुछ नहीं खाया है। इसलिए वह कहीं भी चोरी कर सकता है।' इस प्रकार उस लड़के (संजय बाबू) की भूख, बेरोजगारी आदि का ज़िक्र करके लेखक पाठक को सोचने पर विवश करता है कि क्या वह वास्तव में बदमाश है।

दूसरे पैराग्राफ में दूसरा दृश्य-बंध, पहले के बरक्स, उस अमीर आदमी की स्थिति बयान करता है। उसकी कुछ पंक्तियाँ भी देखें-'आपने अपनी ज़िन्दगी में सिर्फ़ एक कुत्ते को बंदूक की गोली से मारा था। वह पागल हो गया था। यह एक हिंसा आपके पुण्य खाते में है। वैसे सभी जानते हैं कि आप दयालु हैं। इत्मीनान से धीरे-धीरे मीठा बोलते हैं जैसे नरक-भरी ज़िन्दगी की यातना से किसी बकरे को मुक्त कर रहे हों। इस नीच संसार में दिन-रात आपा-धापी करके आप अपने फूल-से बच्चों और फल जैसी पत्नी को चार चीजें दे पाते हैं जो इस हरामजादे ने कभी सपने में देखीं न सुनीं।' इस अंतिम वाक्य का विश्लेषण किया गया जाए तो ज़ाहिर है कि लेखक अमीर आदमी की सोच के विद्रूप को किस रचनात्मक तरीके से उजागर करता है।

तीसरा दृश्य-बंध दोनों पात्रों पर केंद्रित है। भूखे बेरोजगार लड़के से यह शुरू होता है-वह नौकरी करना चाहता है। लेकिन मूर्ख समझता नहीं कि जब नौकरियाँ ही नहीं हैं तो कौन उसे नौकरी देगा। 'और इस पैराग्राफ का अंत अमीर पर केन्द्रित देखिए-अगला और पिछला संसार कैसा हो, यह आपकी आँखों में ही नहीं, मुट्ठी में भी बंद है।'

चौथा पैराग्राफ अमीर को उस लड़के की ओर से होने से होने वाले खतरे की आशंका को व्यक्त करता है-'वह कुछ भी कर सकता है। ...पुलिस को चकमा देगा। चोरी और खून करेगा।' इससे अगला दृश्यबंध उस भूखे बेरोजगार की वस्तु स्थिति का चित्रण करता है। 'उसकी जेब में से बीड़ी का बंडल, माचिस, रोजगार-दफ़्तर का कार्ड, कुछ इश्तिहार, सस्ता लाल रुमाल और उसकी औकात के बराबर चिल्लर होगी...हरामी पर पूरी नज़र रखना ज़रूरी है।' उसकी पेंट में मुसी-तुसी चिट्ठी है, जिसका संदर्भ के हिसाब से ज़रूरी अंश लेखक पाठकों के सामने लाता है उसमें उसके घर की जमीन गिरवी पड़ी होने, अनाज न उगने, उसकी बहन को ससुराल से निकाल देने, खाने की दिक्कत होने, छोटे भाई-बहन को स्कूल निकाल देने का जिक्र है। रचना की चरम परिणति अभी बाकी है। अमीर आदमी को सम्बोधित कर निर्धन वर्ग के प्रतिनिधि उस लड़के के बारे लेखक मुकेश वर्मा लिखते हैं-ओफ्फोह, नरक बढ़ रहा है। वह नरक का कीड़ा बन जाएगा। उसे मुक्त करो। हां, जैसी आपकी मर्जी हो, बकरे की तरह हो या कुत्ते की तरह। लेकिन करो और जल्दी करो। समय कम है। आपको डिनर पर भी जाना है और समाज के दूसरे संकटों को भी निपटाना है।'

यहां रचना का अंत है। लेखक ने वास्तविक संकट को जाहिर कर दिया। जाहिर है, लेखक की कलम अंत तक उस स्वार्थी, क्रूर और पाखंडी अमीर आदमी का पीछा करती है और पाठक की संवेदना को उस भूखे, बेरोजगार और विवश लड़के के पक्ष में ले जाने का भरसक कलात्मक प्रयास करती है।

जहाँ लघुकथा की कसौटी प्रायः दो शब्दों के घेरे, (लघु और कथा) से बाहर नहीं जाती, वहाँ प्रस्तुत लघुकथा 'मुक्त करो' न तो लघु है, न ही कथा है। इसका न तो भीड़ वाली लघुकथाओं जैसा आरंभ है न ही अंत। मुकेश वर्मा बात कहने की अपनी शैली निर्मित करते हैं, जिसमें जीवन का स्पंदन है, रचनात्मक समृद्धि है और है अपनी रचना को पढ़वा लेने की ताकत।