समकालीन हिन्दी लघुकथा का सामाजिक परिप्रेक्ष्य / अशोक भाटिया

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हिन्दी लघुकथा के सामाजिक वितान पर एक आलेख में पूरी बात नहीं की जा सकती। व्यापक दृष्टि से देखने पर राजनीति और परिवार की रेखाएँ भी समाज में आ मिलती हैं। यहाँ ‘समाज’ को कुछ सीमित अर्थो में लेकर समकालीन हिन्दी लघुकथा के केवल वस्तुपक्ष का विवेचन किया जा रहा है। हिन्दी लघुकथा-साहित्य में वरिष्ठ रचनाकारों की एक पीढ़ी है, जिनकी लघुकथाएँ मार्गदर्शक की भूमिका निभाने वाली हैं। इस दृष्टि से सर्वश्री विष्णु प्रभाकर, हरिशंकर परसाई, युगल, सतीश दुबे, रमेश बतरा, पृथ्वीराज अरोड़ा, जगदीश कश्यप, कृष्ण कमलेश, चित्रा मुद्गल, सुरेन्द्र मंथन, भगीरथ, बलराम, विक्रम सोनी, बलराम अग्रवाल, अशोक भाटिया, कमल चोपड़ा, सुकेश साहनी, सिमर सदोष, मधुदीप, माधव नागदा, रामकुमार आत्रेय, मोहन राजेश, रवीन्द्र वर्मा, मुकेश वर्मा, जसबीर चावला, महेश दर्पण, श्यामसुंदर दीप्ति, श्यामसुंदर अग्रवाल आदि की सामाजिक धरातल की लघुकथाओं का अध्ययन करना अपेक्षित है। कुछ और वरिष्ठ लघुकथाकारों का उल्लेख यहाँ आवश्यक है। पूरन मुद्गल की रचना ‘निरन्तर इतिहास’ पुरातत्व की पृष्ठभूमि पर लिखी गई है। यह बताती है कि हजारों वर्ष के इतिहास में श्रमिक वर्ग सदा शोषण की मार से त्रस्त रहा है। सूर्यकांत नागर की लघुकथा ‘बाजार’ में विज्ञापनों के दौर में घरों पर पड़ते प्रभाव का एक कोण से जायजा लिया गया है। कमलेश भारतीय की लघुकथा ‘आधा विवाह’ में शैक्षणिक संस्थानों में डोनेशन के नाम पर हो रही लूट को दर्शाया गया है। अशोक जैन की लघुकथा ‘डर’ में एक बेरोजगार और नौकरी-प्राप्त व्यक्ति की मनोदशा का अंतर सूक्ष्मता से दिखाया गया है। बाजार आम आदमी को किस प्रकार अपने मकड़जाल में उलझा रहा है, इसे सुभाष नीरव की ‘मकड़ी’ लघुकथा खूबसूरती से बयां करती है। सतीशराज पुष्करणा की लघुकथा ‘वजूद की तलाश’ में मंदिरा के माध्यम से स्त्री के अस्तित्व के संघर्ष को सहज रूप में रूपायित किया गया है। रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की लघुकथा ‘एजेण्डा’ व्यंग्यात्मक बुनावट के साथ बताती है कि दफ्तरों में होने वाले कार्यक्रमों के पीछे असली एजेण्डा क्या होता है। हीरालाल नागर की ‘बौना आदमी’ में माँ को साथ न लाने वाले एक व्यक्ति को एक भिखारी यह एहसास करा देता है कि वह कितना बौना है। वेदप्रकाश अमिताभ की लघुकथा ‘न्याय’ बहुत कम शब्दों में हमारी भ्रष्ट न्याय-व्यवस्था की वास्तविकता उजागर कर देती है। ज्ञानदेव मुकेश की लघुकथा ‘मन पर हमला’ सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक रचना है, जिसमें अराजक तत्वों का व्यक्ति की कार्यशैली पर पड़ता हुआ दुष्प्रभाव दिखाया गया है। अमरीक सिंह दीप की ‘आजादी का तराना’ में जन-साधारण को मिली तथाकथित आजादी को व्यंग्यात्मक लहज़े में चित्रित किया गया है। प्रबोध कुमार गोविल की ‘खौफनाक गह्वर’ समाज-मनोवैज्ञानिक लघुकथा है, जिसमें ‘मुलायम आदमियत’ का पक्ष लिया गया है। विपिन जैन की लघुकथा ‘शहर और सहारा’ बेरोजगारी की भयावहता का हृदय विदारक चित्र प्रस्तुत करती है। किशोर काबरा की लघुकथा ‘क कमल का’ शब्दों से खिलंदड़ा व्यवहार करती हुई बताती है कि वंचित वर्ग को जीवन-भर कमल रूपी सुख-समृद्धि ढूँढ़ने से भी नहीं मिलती। रत्नकुमार सांभरिया की लघुकथा ‘स्वर्ग का मार्ग’ बिल्ली के माध्यम से स्पष्ट करती है कि समाज में स्वर्ग-नरक, पाप-पुण्य, परलोक आदि ब्राह्मणवादी अवधारणाएँ कितनी घातक हैं। उर्मि कृष्ण की लघुकथा ‘स्त्री की जीत’ में स्त्री के दो सशक्त रूप दिखाए गये हैं। पहला वह, जिसकी शासन करने की वृत्ति से तंग आकर पति घर छोड़ देता है। दूसरा वह, जो स्त्री बरसों से अस्पतालों के कमरे में अकेली रहकर लोगों के सुख-दुख बाँटती है। मधुकांत की लघुकथा ‘नंगी’ में स्त्री के प्रति समाज के उस संवेदनहीन रूप को उघाड़ा गया है, जिसमें वह पहले स्त्री की हया से खेलता है, फिर उसे देखकर नज़रें झुकाने का पाखंड करता है। प्रताप सिंह सोढ़ी की लघुकथा ‘शक्ति बिखर गई’ जाति के पाश में जकड़े समाज की कमजोर नस पर हाथ रखने वाली प्रभावशाली रचना है। इसी विषय पर हरनाम शर्मा की लघुकथा ‘संस्कार’ भारतीय समाज में जाति की जकड़न का एक धारदार चित्र उकेरती है। अशोक लव की ‘सलाम दिल्ली’ स्थितियों से पलायन की अपेक्षा संघर्ष का ऐलान करने वाली लघुकथा है। रामकुमार घोटड़ की ‘मर्दगाथा’ पुरुषों की संकीर्ण मानसिकता की एक खिड़की बहुत कम शब्दों में खोलकर सामने रख देती है। महेश दर्पण की लघुकथा ‘मिट्टी की औलाद’ सांप्रदायिक सद्भाव के खूबसूरत आयाम को बड़ी सजगता से प्रस्तुत करती है।

रामनिवास ‘मानव’ की ‘शो-पीस’ रचना में ऐसे संवेदनहीन लोगों की पर्त खोली गई है, जो जीते-जी पिता को उपेक्षा और पीड़ा देते है, लेकिन मृत्यु के बाद शो-पीस की तरह पिता की तस्वीर घर में सजाते हैं। विजय की लघुकथा ‘जाति’ खाप पंचायतों के बहाने जातिगत संकीर्णता पर व्यंग्य करती है। प्रेमी-प्रेमिका को फांसी दी जाती है। भूत बना लड़का खुश था-‘अब ये दुनिया हमारे प्रेम के बीच नहीं आएगी। ‘सुनकर भूतनी बनी लड़की ने कहा-शायद! अगर भूतों में जाति-पाति नहीं होगी तो’ सूर्यकांत नागर की लघुकथा ‘मर्दानगी’ में सड़क-किनारे मर्दानगी की दवा बेचने वालों की स्वयं की मर्दागनी पर प्रश्नचिह्न लगाया गया है। राजकुमार गौतम की लघुकथा ‘उधार लिया विश्वास’ में स्त्री को लेकर पुरुष-मानसिकता सर्वत्र एक सी है-इसे दो स्थितियों द्वारा स्पष्ट किया गया है।

चैतन्य त्रिवेदी की लघुकथा ‘संबंध जिए जाते हैं’ में स्पष्ट किया गया है कि भारतीय समाज में, विशेष रूप से स्त्री के रूप में, जीना बड़ा ही दुष्कर होता है। गंभीर सिंह पालनी की लघुकथा ‘छुट्टे पैसे’ यह एहसास कराती है कि नैतिक मजबूती ही हमारे समाज को फिर से मजबूत बना सकती है। रणजीत टाडा की ‘नास्तिक’ में हवन के माध्यम से पुजारी की लूट और पाखंड को प्रभावशाली ढंग से उघाड़ा गया है। मांघीलाल यादव की ‘शिकंजे’ में जाति के शिकंजे में जकड़े एक दलित का पंचायत में प्रतिकार पाठकों में चेतना जागृत करने वाला है। विभा रश्मि की ‘चाबी का खिलौना’ प्रकारान्तर से भीष्म साहनी की ‘खिलौने’ कहानी का स्मरण कराती है। मध्यवर्ग बच्चों को अपनी छवि के लिए इस्तेमाल करता है। बेटी के जन्मदिन पर बेटी ही भूखी रह जाती है। वीरेन्द्रकुमार भारद्वाज की लघुकथा ‘प्यार’ पति-पत्नी की अनबन में भी लगाव की धार को सहजता से रेखांकित करती है। सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा की ‘बेहूदगी’ में पति द्वारा स्वयं एक महिला से बेमतलब कही गई बात का स्मरण हो आने पर उसे पत्नी से उसके ऑफिस के व्यक्ति द्वारा कही बात भी उतनी बेहूदा नहीं लगती। यह सूक्ष्म यथार्थ की लघुकथा है। सुरेन्द्र गुप्त की ‘दादा भाई नहीं रहे’ नई और पुरानी पीढ़ी के द्वन्द्व और अंतर को उभारती है। रिश्तों में आ रही संवेदनहीनता इस रचना का कथ्य है। सुशांत सुप्रिय की लघुकथा ‘सबके लिए’ कथ्य और भाषा के नए द्वार खोलती है। पुरुष के पास स्त्री को पहचानने वाली आँखें नहीं हैं-यही इस रचना कथ्य है। घनश्याम अग्रवाल की लघुकथा ‘चमत्कार’ पाखंड से यथार्थ की ओर ले जाने वाली लघुकथा है। वास्तव में गणेश नाम का व्यक्ति ही दूध पी सकता है, गणेश की मूर्ति नहीं। पवन शर्मा की लघुकथा ‘बोध’ में होटल के मालिक के सामने नौकर का स्वाभिमान जागने, इसलिए मुँह खुलने की प्रभावशाली स्थिति का चित्रण किया गया है। विजय अग्रवाल की लघुकथा ‘सुनवाई’ अदालती कार्यवाही के दौरान वेश्या से जिरह करते हुए सम्भ्रान्त लोगों का पर्दाफाश कर जाती हे। गोविन्द शर्मा की लघुकथा ‘फाइल’ हरिशंकर परसाई की ‘खेती’ की याद दिलाती है। वहाँ फाइलों में खेती होती दिखाई है, यहाँ वृक्षारोपण। भगवान वैद्य ‘प्रखर’ की लघुकथा ‘बु़द्धिजीवी’ इस सच पर प्रकाश डालती है कि देश के बुद्धिजीवी को भारतीय समाज की कमजोरियों की चिन्ता तो है, पर वे इसके लिए कुछ करने को तैयार नहीं है। दामोदर खड़से की ‘बिवाई’ एक मार्मिक लघुकथा है। ट्रेन में पॉलिशवाले को एक भिखारी की भूख का एहसास होता है। शहर किनके कारण गंदा है, यह अंत में ध्वनित हो जाता है। शराफत अली खान की लघुकथा ‘शोर’ स्पष्ट करती है कि धर्मों के बाहरी रूप और उनकी स्पर्धा समाज के लिए व्यर्थ है, घातक है।

अंतरा करवड़े की लघुकथा ‘एकान्तवास’ व्यंजना और व्यंग्य का सुदंर मिश्रण है। आजकल एकान्तवास के लिए शहर ही उपयुक्त है, हर कोई अपने में अत्यंत व्यस्त है। शील कौशिक की लघुकथा ‘खबर’ बताती है कि मीडिया में खबर का हिस्सा बनने के लिए विकास नहीं, कोई घपला, झगड़ा, छेड़छाड़, तोड़फोड़ के मामले चाहिएं। रूपसिहं चन्देल ने अपनी लघुकथा ‘गरीब बौद्धिक’ में तथाकथित गरीब बौद्धिक वर्ग की रचनात्मक ढंग से लानत-मलामत की है। सुरेश शर्मा की लघुकथा ‘राजा नंगा है’ सक्षमता से बताती है कि जब प्रजा बोलने लगती है, तो राजा को अपनी असलियत का पता चल जाता है। अंजना अनिल की लघुकथा ‘भक्षण’ के अनुसार शोषण वास्तव में भक्षण का ही पर्याय है। राधेश्याम भारतीय की लघुकथा ‘औकात’ बताती है कि ईमानदार व्यक्ति एक दुर्ग की भांति है, जिसकी एक ईंट भी बेईमान आदमी नहीं हिला सकता। सन्तोष सुपेकर की लघुकथा ‘महंगी भूख’ दो वर्गों के अंतर के माध्यम से निम्न वर्ग की आर्थिक त्रासदी का मार्मिक बयान है। शोभा रस्तोगी ने ‘मुट्ठी-भर धूप’ में मालकिन और कामवाली के संवादों के माध्यम से दोनों वर्गों में स्त्री की घुटन को वाणी दी है। अंत में उनकी दृढ़ इच्छा-शक्ति की ओर भी संकेत किया गया है। रेणुचन्द्रा माथुर की लघुकथा ‘बाबूजी का श्राद्ध’ नई स्थितियों में भूखे आदमी को खिलाकर श्राद्ध का नया आयाम प्रस्तुत करती है। प्रद्युम्न भल्ला की ‘बड़े साहब’ अफसर की भलमनसाहत को उभारने वाली लघुकथा है, जिसे जाने बिना कर्मचारी अकारण उनसे डरते और बाबुओं की जेब भरते रहते हैं। सुदर्शन रत्नाकर की लघुकथा ‘साझा दर्द’ निम्न वर्ग के दो अनजान निर्धन व्यक्तियों की संवेदना को उजागर करने वाली आकर्षक लघुकथा है। अनवर सुहैल की लघुकथा ‘देशभक्ति’ में देशभक्ति के नाम पर संकीर्ण सोच पर व्यंग्य किया गया है। सतीश राठी की ‘जिस्मों का तिलिस्म’ फैंटेसी के प्रयोग से रचना को प्रभावशाली बनाती है। इसमें लोकतंत्र में जनता की भूख-जनित विवशता का मार्मिक चित्रण हुआ है। वीरेंदर भाटिया की ‘बड़ा लेखक’ में पाखंडी लेखकों की खबर ली गई है। एक नामी लेखक महिला उत्पीड़न पर लिखते हैं, पर घर में वही सब स्वयं करते हैं। संपादिका के शब्द-”लिखने वाले बहुत हैं यहाँ। लिखे को भोगने और लागू करने वाले ही नहीं मिल रहे“ लघुकथा को चरम परिणति पर पहुँचाते हैं। सुभाष सलूजा की लघुकथा ‘जमींदारी’ में किसान को जमीन एक्वायर होने से मिले पैसे की कोई खुशी नहीं, किसानी हाथ से चले जाने का दुःख है। राजकुमार निजात की लघुकथा ‘दूसरा एकलव्य’ में जब पिछड़े और दलित वर्ग के छात्र अपनी प्रतिभा दिखाते हैं, तो अध्यापक की सोच बदल जाती है। उसके भीतर एक विदुर जागृत हो जाता है। सुरेश बरनवाल की लघुकथा ‘खेद के लिए’ सब्जी बेचने वाले के माध्यम से बताती है कि निम्न वर्ग जिस शाक-सब्जी को बेचता है, उसका बचा-खुचा ही उसके हिस्से आता है। रामयतन यादव की लघुकथा ‘बाजार’ शिक्षा-क्षेत्र में पसर चुके बाजारवाद को रेखांकित करती हैं। प्रशासनिक सेवा में सफल होने वाले अभ्यर्थियों को विभिन्न कोचिंग सेंटर, अपने से जुड़ा दिखाने की होड़ में हैं, इसके बदले बड़ी रकम देने को तैयार हैं। हरभगवान चावला की लघुकथा ‘बैल’ कुशल बुनावट के जरिए बताती है कि मनुष्य संवेदनहीन होता जा रहा है, जबकि पशु-जगत में लगाव और संवेदना के स्रोत बदस्तूर बरकरार हैं। अमृतलाल मदान की लघुकथा ‘आयाम’ कुत्तों और चिड़ियों के दो प्रसंगों के माध्यम से मानव-मन की दो वृत्तियों का तुलनात्मक अध्ययन करती है। रूप देवगुण की लघुकथा ‘जगमगाहट’ सामाजिक संबंधों में एक सकारात्मक संदेश को उभारने वाली रचना है। ओमप्रकाश करूणेश की लघुकथा ‘गोरखधंधा’ गलत तरीकों से पैसा कमाकर समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति बनने वालों की पोल खोलती है। लॉटरी, सट्टा, प्रापर्टी, फाइनेंसिंग के जरिए शोषण ऐसी ही सीढ़ियाँ हैं तथाकथित बड़ा आदमी बनने की। उषा लाल की लघुकथा ‘स्वाभिमान’ रेखांकित करती है कि निम्न वर्ग अभावों में भी मध्य या उच्च वर्ग के सामने अपने स्वाभिमान को बनाए रखने का भरसक प्रयास करता है। ज्ञानप्रकाश विवेक की लघुकथा ‘जेबकतरा’ बुरा समझे जाने वाले लोगों में भी मानवीयता खोजने का कलात्मक प्रयास है।

महिला लेखिकाओं की कलम सिर्फ घर की चारदीवारी का ही वर्णन नहीं करती, वह राजनीति और समाज के विभिन्न आयामों का सूक्ष्म, सचेतन वर्णन-विश्लेषण करने में भी उतनी ही सक्षम है। कमल कपूर की रचना ‘आधुनिका’ में बहू गृह-प्रवेश से पहले सास के आदेश को अकाट्य तर्कों से छलनी कर देती हैं-”मम्मा! इस कलश पर श्रीणेशजी की आकृति बनी हुई है ,जो हमारे आदिदेव हैं और इसमें धन का-सा धान भरा है, वह भी देवता की तरह है। मैं इन्हें कैसे ठोकर मार सकती हूँ? और इस पानी में वही सिन्दूर मिला है, जिसे मैंेने अपनी मांग में सजाया है…इसमें पाँव कैसे डालूँ?“ अंजु दुआ जैमिनी की लघुकथा ‘किसके’ में एक बुजुर्ग की पीड़ा के जरिए बताया गया है कि किसी के भी बेटे साथ नहीं रहते। संवादों और भाषा के लिहाज़ से इस लघुकथा का अध्ययन करना आवश्यक है। इंदिरा खुराना की लघुकथा ‘युगों-युगों का मैल’ नये समय में जाति-प्रथा के संस्कारों पर सवालिया निशान लगाने वाली सहज और शक्तिशाली रचना है। इसी विषय पर त्रिलोक सिंह ठकुरेला की लघुकथा ‘ढोंग’ में ठाकुर के दोगलेपन को उघाड़ कर चम्पा कहती है-”यह ढोंग कब तक चलेगा ठाकुर साहब?“

कलात्मक आयाम रचना को जीवन्त और असरदार बनाते हैं। इस संदर्भ में दो लघुकथाएँ विशेष उल्लेखनीय हैं। महावीर ‘राजी’ की ‘सेल्समैन’ एक मार्मिक लघुकथा है, जिसकी शैली संवेदना को उभारने में सहायक होती है। लड़की को लड़के वाले देखने क्या आते हैं, ”एक-एक करके टीम के सभी सदस्यों की पोस्टमार्टमी नज़रें कैक्टसी तासीर लिए उसका नख-शिख मुआयना करने लगीं।“ अंत में यह दसवाँ कारवाँ भी उठकर जाने लगा, तो लड़के के भाई प्रशांत, जो एंपोरियम का सीनियर सेल्समैन था, अपनी भरपूर कलात्मक क्षमता का प्रयोग करते हुए ‘डॉल’ बेचने की तर्ज़ पर अपनी बहन का वर्णन करता है। क्या समाज पर ऐसी रचनाएँ असर डाल पाएंगी?

दूसरी रचना कुमार शर्मा ‘अनिल’ की ‘मुजरिम’ लाजवाब लघुकथा है। एक रिटायर्ड मेजर की कुतिया उनके सर्वेण्ट हाजी अली के कुत्ते के साथ आपत्तिजनक हालत में दिख जाती है। मेजर हाजी के कुत्ते को मारने के लिए लोडिड राइफल लिए उसे ढँूढते हैं। पर गेराज़ में मेजर का लड़का सर्वेण्ट की लड़की के साथ आपत्तिजनक अवस्था में मिलता है। अब मेजर साहब की आँखें झुक जाती हैं। इस रचना का आकार बड़ा है, कोई तीन पृष्ठ। यह अपनी जरूरत के मुताबिक आकार का अतिक्रमण करती है। लघुकथा के लिए हमें अपनी संकीर्ण मानसिकता से पार पाना होगा।

उपेन्द्र प्रसाद राय की लघुकथा ‘अंधा मनु और वह’ इस तथ्य को सामने लाती है कि पुरुष अंधा हो या आँखों वाला-स्त्री के प्रति उसका नज़रिया संकीर्ण और पूर्वाग्रह ग्रस्त ही होता है। मुरलीधर वैष्णव की लघुकथा ‘जवाबदावा’ भारतीय न्यायालयों में होने वाली बहस की खिल्ली बड़े प्रभावशाली ढंग से उड़ाती है। मधु संधु की ‘बिगडै़ल औरत’ में स्त्री की क्रांतिकारी स्वभाव और साहसिकता का शानदार चित्रण हुआ है, जो समाज की हर टीका-टिप्पणी का अपने कार्यों और परिश्रम से उत्तर देती है। सुशील चावला की लघुकथा ‘गोत्र’ सहज रूप में बताती है कि स्त्री-पुरुष के जीवन के सहज प्रवाह में गोत्र कितनी बड़ी बाधा हे। एक प्रकार से गोत्र की व्यर्थता की ओर संकेत किया गया है। राजेन्द्र साहिल की रचना ‘घिसाई’ में नम्बरदार द्वारा एक बुजुर्ग अध्यापक का काम करा दिया जाता है। वह मास्टर जी पर अपने शब्दों द्वारा एहसान के बाण चलाना नहीं भूलता। सैली बलजीत की लघुकथा ‘दुनियादारी’ में पति-पत्नी को भविष्य में काम कराने के लिए चुनाव में जीतने और इस बार हारने वाले-दोनों के घर जाना ठीक लगता है। कृष्णचन्द्र महादेविया की लघुकथा ‘बस और नहीं’ निम्न वर्ग द्वारा अन्याय के प्रतिकार की रचना है। परम्परा से देवता का ढोली रॉकी को सवर्गों द्वारा पीटने पर उसका बाप ढोली का काम छुड़वाकर पढ़ाने का निर्णय लेता है। माणक तुलसीराम गौड़ की लघुकथा ‘उलटे पाँव’ घर में बेटी न होने को उत्सव की तरह लेने वाले लड़के के पिता को लड़की की माँ खरी-खरी सुनाकर भेजती है।

रत्नेश कुमार की लघुकथा ‘अखबार’ में पशु-समाज के माध्यम से पत्रकारिता के संसार के छल-छद्म, विकृतियों आदि का कलात्मक चित्रण किया गया है। संपादक सियार कला संस्कृति विभाग भी कोयल की अपेक्षा बिल्ली को दे देता है। वाणी दवे की रचना ‘कवच’ संवेदनात्मक विस्तार की लघुकथा है। 10-11 वर्ष का बच्चा श्मशान में सर्दी से निदान पाने के प्रयास में एक लाश से लिपट जाता है। भूकंप में मारे गए लोगों में से एक लाश की साड़ी उसकी माँ की साड़ी जैसी होती है। रात-भर बच्चा उसी से लिपटकर सोता है। पूर्णिमा मित्रा की लघुकथा ‘भले घर की बेटी’ में समाज की एकपक्षीय, विकृत सोच को उजागर किया गया है। प्रेम जनमेजय की लघुकथा ‘माँगने वाले’ भारतीय समाज में बेरोजगारी की भयावहता को दर्शाती है। नौकरी मांगने वाले से नीचे भी पेट भरने के लिए मांगने वाले लोग हैं।

पूरनसिंह की बहुत-सी लघुकथाएँ जातिसूचक भेदभाव, पाखंड को केन्द्रित कर लिखी गई हैं। ‘सुराही’, ‘वचन’, ‘सुरक्षित सीट’ आदि रचनाएँ बताती है कि ब्राह्मण तथाकथित नीची जाति की स्त्रियों से शारीरिक संबंध बनाने में देर नहीं लगाता, लेकिन रसोई, पानी आदि के मामले में उसमें फिर अपनी अलग जाति का दंभ भर जाता है। अरुण कुमार की रचना ‘गाली’ इसी पाखंड को उभारती है। बड़ा बाबू चपरासी को जातिसूचक गाली से नवाज देता है। पुलिस चौकी में उसे माफी मांगनी पड़ती हे। लेकिन अपमानित बड़ा बाबू अचानक कहता है-”अब क्या तू ब्राह्मण हो गया?“ लेखक ने समाज को बाँटने वाली इस संकीर्ण सोच को शिद्दत से उभारा है। दीपक मशाल की लघुकथा ‘दखल’ एक दूसरी तरह की तंग-दिली सामने लाती है। गाँव से एक युवक को पहली बार लंदन में नौकरी करने का अवसर हाथ लगा। सोशल साइट पर बधाइयाँ मिलने लगीं। पर जब पता चला कि अपने गाँव से एक और युवक उससे पहले वहाँ नौकरी पर है, तो उसका उत्साह स्तब्धता में बदल जाता है। मुकेश शर्मा की लघुकथा ‘सच्ची कमाई’ ट्रैफिक पुलिस के सब-इंस्पैक्टर द्वारा स्थिति अनुसार मानवीय हो जाने की सहज-स्वाभाविक रचना है। कृष्ण कुमार यादव की ‘एन.जी.ओ.’ लघुकथा एन.जी.ओ के पीछे छिपी कारस्तानियों को सामने लाती है, जिसमें समाज-सेवा सिर्फ एक बहाना है। आकांक्षा यादव की लघुकथा ‘भिखारी’ में एक बार-डांसर की भिखारी के साथ तुलना की गयी है। वास्तव में कोई भी काम भीख मांगने से तो अच्छा है। देवेन्द्र कुमार ‘देवेश’ की लघुकथा ‘जाति’ भारतीय समाज में जातिगत आधार पर बदलते व्यवहार पर उँगली टिकाती है। एक ही राहगीर पानी के लिए आते और जाते हुए एक ही आदमी से अपनी भिन्न-भिन्न जाति बताकर पानी माँगता है। दोनों बार व्यवहार में उसे सम्मान और अपमान दोनों का अनुभव हो जाता है।

मार्टिन जॉन की लघुकथा ‘डिस्चार्ज’ में चिट्ठी और मोबाइल के संवादों के माध्यम से समाज में आ रहे बदलावों को खूबसूरती से चित्रित किया गया है। आज स्पीड, ग्लोरियस लाइफ, पॉवर, प्रोग्रेस, फास्ट कम्युनिकेशन का दौर है। चिट्ठियों के जमाने में दिल, एहसास, संवेदना, अपनेपन की खुशबू, रिश्तों में संजीदगी हुआ करती थी। तुलना वास्तविक होकर भी जमाना बदला नहीं जा सकता। बी.एल.आच्छा लघुकथा के संजीदा आलोचक होने के साथ-साथ कभी कभार लघुकथा पर भी हाथ आजमा लेते हैं। उनकी लघुकथा ‘अस्तित्व’ रेलवे प्लेटफार्म पर रह रहे एक लड़के के माध्यम से अत्यन्त निर्धन और वंचित वर्ग की दारुण स्थिति का सहज-सजग कलात्मक बयान है। लघुकथा में हर समय ‘कथा’ तत्व ढूँढ़ने वाले निराश हो सकते हैं, लेकिन पाठक इस रचना से अवश्य प्रभावित होते हैं।

रश्मि तरीका ने अपनी लघुकथा ‘भूख’ में बाल-श्रम कानून के बावजूद बाल और उनके श्रम का शोषण करने वाले सेठों व दलालों की विकृत व स्वार्थी मानसिकता को उभारा है। नीलिमा शर्मा ने ‘किन्नर ही तो था’ लघुकथा में किन्नर रूप में जन्म लेने वाली संतान के माता-पिता की पीड़ा को वाणी दी है।

जितेन्द्र जीतू की लघुकथा ‘शिष्टाचार’ अपनी सूक्ष्म पड़ताल के द्वारा बताती है कि हम किसी को अनजाने में ही भिखारी बना देने का अपराध करके भी उसे उस रूप में स्वीकार नहीं करते। फज़ल इमाम मलिक की सहज प्रवाह की लघुकथा ‘सवेरा’ में बच्चों को चुराकर बेचने वाले का एक मौलाना की तकरीर से ह्नदय-परिवर्तन होता दिखाया गया है। रचना बताती है कि धर्म का उचित उपयोग हो तो उसमें बहुत शक्ति छिपी है। रमेश गौतम की ‘फरिश्ता’ सांप्रदायिक सद्भाव को उभारने वाली एक प्रेरक लघुकथा है। हरीश नवल की रचना ‘संस्कार’ सांस्कृतिक कविता के कथित पोषक कवियों के विकृत संस्कारों को उघाड़ देती है। अशोक गुजराती की लघुकथा ‘स्पर्श’ बताती है कि इंसान में ही देवता और शैतान-दोनों होते हैं। दंगे की खबर के बीच रिक्शावाला हनीफ शैतान होने से पहले जग जाता है, जो पाठक को सकारात्मक संदेश दे जाता है। आनंद की लघुकथा ‘स्वाभिमान’ में रिक्शावाली सवारी की तथाकथित दया-भावना को झटका देते हुए अपने स्वाभिमान को रुपये के बरक्स बनाए रखता है।

यहाँ चंद्रेशकुमार छतलानी की लघुकथा ‘तीन संकल्प’ के माध्यम से कुछ बातें साझा की जाएँ। एहसास और चिन्तन मिलकर रचना का शिल्प और भाषा गढ़ते हैं। हिन्दी में जहाँ-जहाँ इन दोनों में से एक या दोनों गायब रहे हैं, वहाँ-वहाँ लघुकथाएँ बिना सिर की भीड़ बनती चली गई हैं। ‘तीन संकल्प’ रचना एहसास और चिन्तन से गुजरकर शिद्दत से रची गई है। इसीलिए इसका शिल्प और भाषा असर छोड़ते हैं और रचना को स्थापित करते हैं। जो व्यक्ति बुरा न देखने, न सुनने, न बोलने के अपने गुरु के दिलाए संकल्प तोड़ देता है, वह दूसरों से भी ऐसी आशा न रखे कि तुम्हारी इन बुराइयों को वह नज़रअंदाज़ कर देगा। वह गुरु महात्मा गाँधी है और पूरा प्रसंग स्वप्न में घटित होता है। हिन्दी में ऐसी प्रयोगधर्मी लघुकथाओं की बड़ी ज़रूरत है।

नीरज सुधांशु की लघुकथा ‘चाल’ में समाज और पुलिस के बीच दलाली करने वाले लोगों की भूमिका को दिखाया गया है। यह रचना ऐसे लोगों से हमें सावधान करती है। कान्ता रॉय की लघुकथा ‘हड्डी’ में सुनीता अपने पति अशोक की अनुपस्थिति में ससुर के आने और बदतमीजी करने पर नई युक्ति का प्रयोग करती है। वह घर में बच्चों के लिए झूला-घर खोल लेती है। सीमा जैन की लघुकथा ‘हद हो गई’ सामाजिकता के विस्तार की जरूरी रचना है। गाड़ी में बुजुर्ग दम्पत्ति के अपनत्व भरे व्यवहार को देखकर बाद में एक स्त्री को मर्यादा के नाम पर अपनी संकीर्णता का बोध होता है। रचना अपनी पूरी बात कह जाती है। कपिल शास्त्री की ‘शोषण का इंश्योरेंस’ लघुकथा में निम्न वर्ग के प्रति उच्च-मध्य वर्ग की संवेदनहीनता व स्वार्थ को वाणी दी गई है। काजल कुमार की लघुकथा ‘आढ़तिया’ बताती है कि हमारे देश के लोग मंदिर के नाम पर कुछ भी मानने व करने को तैयार हो जाते हैं। संध्या तिवारी की लघुकथा ‘सम्मोहित’ में दिखाया गया है कि योग सीखने आई स्त्रियाँ निन्दा-रस में निमग्न होकर आनन्द अनुभव करती हैं। इस प्रकार दुनिया की असुंदरता की दीवानी हैं। लता कादम्बरी की लघुकथा ‘क्या करूँ?’ में खलील जिब्रान से स्वप्न में मुलाकात के बहाने स्त्री के संदर्भ में पुरुष की बेवकूफियों और संस्कारहीनता के इतिहास का एहसास कराया गया है। आभा सिंह की ‘वारफेर’ में बरातों के समय हंडे पकड़कर चलने वाले बच्चों के प्रति अमानवीय व्यवहार को दिखाया गया है। बीना माधव ‘वीणा’ की लघुकथा ‘बदलाव’ में झूठ बोलने व कम तौलने वाले सेठ के माध्यम से एक वर्ग का पाखंड दिखाया गया हैं। वह प्रतिदिन मंदिर जाने पर भी धंधे में बेइमानी यथावत रखता है। ज्योति जैन की ‘लाठी’ में पार्क में एक वृद्ध दम्पती को हाथ पकड़े देख लोग उन पर ताने कसते हैं। किन्तु दम्पती अचल भाव से चलते रहते हैं। दृष्टि-बाधित महिला कोमल वाधवानी ‘प्रेरणा’ की संवेदना से भरपूर लघुकथाओं में से एक लघुकथा ‘बंदर और इंसान’ की बात करें। दृष्टिहीन महिला एक बंदर के रास्ते में आई तो उसने धीरे-से महिला को दूर खिसकाया और भाग गया। लेकिन इंसान जानबूझकर उस महिला से टकराया। दोनों में यही अंतर है।

ऋतु सारस्वत की लघुकथा ‘सीढ़ियाँ’ बदलती सामाजिक सोच का एक टुकड़ा लेकर आती है। लड़कियों का लड़कों से बिदकना एक दकियानूसी विचार माना गया है। इसमें बुआ शारदा को कहती हैः ”बडे़ लोगों से संबंध सीढ़ियों की तरह काम करते हैं।“ प्रमोद कुमार चमोली की लघुकथा ‘होड़’ बताती है कि गाँवों में बी.पी.एल कार्ड बनवाने के लिए अमीर लोग अपने रसूख का इस्तेमाल कर गरीबों में शामिल होने की होड़ में शामिल हैं। रमेश आज़ाद की लघुकथा ‘ढेलवा गोसाईं’ इस तथ्य को रेखांकित करती है कि हमारा समाज विकृति की तरफ बढ़ रहा है। लावारिस लाश को कोई ठिकाने लगाने वाला नहीं, पर उसी पर बने टीले के प्रति श्रद्धा हर कोई रखता है। पल्लवी प्रकाश की लघुकथा ‘सांताक्लाज़’ बताती है कि ईश्वर और देवता चाहे किसी भी धर्म के हों, जाते अमीरों के घर ही है। अरुण मिश्रा की लघुकथा ‘पावर विन्डो’ में सत्ता के बेजा इस्तेमाल का आम आदमी पर क्या असर पड़ता है-इसे यथार्थपरक तरीके से दिखाया गया है। चने की रखवाली को तैनात लाठीधारी शिवधारी की सारी बलिष्ठता साहब की हरे चने खाने की इच्छा के सामने धरी रह जाती है। खेत का एक कोना ही उजाड़ दिया जाता हे। शिवधारी कहता है-‘हुजूर कह दे हैं रात में नींद लग गयी, जंगली सुअर खाय गए।’ रोहिताश्व शर्मा की ‘अहम का अर्घ्य’ अफसरों की दूषित मानसिकता का परिचय देती है। अफसर इतना भी नहीं सह सकता कि उसके मुंसिफ के घर पानी आता रहे, जबकि उसके अपने घर का नल बंद हो जाए। महेश शर्मा की ‘नेटवर्क’ बताती है कि आभासी संसार का नेटवर्क असली होकर भी नकली है। एक व्यक्ति फेसबुक पर खूब ‘लाइक्स’ देखकर बड़ा प्रसन्न होता है। लेकिन शाम को सामने वाले वन रूम सेट से अधेड़ उम्र का आदमी उसका हाल पूछने को दरवाज़ा खटखटाता है, तो उसे वास्तविक सामाजिकता का पता चलता है। जीवन सिंह ठाकुर की लघुकथा ‘लड़की का अधिकार’ सामाजिक विज्ञान की उत्तर-पुस्तिका के अंश के माध्यम से संविधान के कागज़ी अधिकारों पर सवाल खड़े करती है। संपत्ति का अधिकार, पढ़ने का अधिकार, विवाह करने न करने का अधिकार-इन मुद्दों पर एक लड़की अपनी बेबाक राय रखते हुए अपने जीवन के सामाजिक विज्ञान का खुलासा करती है। प्रकुरा पूर्वानिल की लघुकथा ‘पहली बार’ में एक नौकरीपेशा को पहली बार अहसास होता है कि वह बॉस की गुडबुक में नहीं है। तब घर की प्रत्येक वस्तु के प्रति उसका आर्थिक दृष्टिकोण बदल जाता है। दिनेश कुमार की लघुकथा ‘खौफ’ भारतीय विद्यालयों में अकारण ही खौफ़ज़दा वातावरण को कलात्मक ढंग से उभारती है। फैंटेसी शैली ने रचना का प्रभाव बढ़ा दिया है। ब्रजेश बड़ोले की लघुकथा ‘रास्ते अपने अपने’ बताती है कि देश में दो अलग धर्मों वाले मित्र भी वर्तमान विषाक्त वातावरण के चलते कभी न कभी दूर हो जाते हैं। अरुण नैथानी की लघुकथा ‘गुरु-लघु शिष्टाचार’ शिष्टाचार के नाम पर शोषण की रवायत को व्यंग्यात्मक शैली में उभारती है। कंवल नयन कपूर की लघुकथा ‘डकैती’ भारतीय न्याय-व्यवस्था पर सवाल खड़ा करती है। संतोष दीक्षित की लघुकथा ‘संज्ञान’ में एक संवेदनशील लेखक के सामाजिक जुड़ाव को उभारा गया है। नदी में डूब रहे युवक को बचाने की गुहार लगाने वाला सारी तमाशबीन भीड़ में वही अकेला व्यक्ति होता है।

समकालीन हिन्दी लघुकथा में समाज के विभिन्न पहलुओं को समेटकर लेखकों ने एक प्रतिसंसार निर्मित किया है। इनमें वर्तमान संदर्भों में बेरोजगारी की भयावहता, भूखजन्य विवशता, विज्ञापन और बाजारवाद, मीडिया और पत्रकारिता के छल-छद्म, दफ्तरों और न्याय व्यवस्था की दुर्दशा, धर्म के नाम पर पाखंड और लूट, स्त्री के प्रति पुरुष का तथाकथित मर्दवादी व संकीर्ण नज़रिया आदि के आयामों का उद्घाटन किया गया है। बर्बर सच्चाइयों का ज़िक्र इनमें दुरभिसंधियों और नरक के घेरों से बाहर निकलने के प्रयास भी सर्चलाइट की तरह दिखाई देते हैं। नैतिकता, सांप्रदायिक सद्भाव, ईमानदारी, भूल का एहसास के अतिरिक्त विभिन्न स्थितियों में तर्क से सकारात्मक संदेश देने वाली लघुकथाएँ भी हैं जो कहीं संवेदना, तो कहीं चेतना के विस्तार की कारक बनती हैं। रूढ़ियों की व्यर्थता दर्शाती और पुरानी दूषित मान्यताओं को चुनौती देने वाली लघुकथाएँ सामाजिक परिवर्तन के आलोक-द्वार खोलती हैं। कुछ लघुकथाओं के शिल्पगत व भाषायी आयाम इनकी वस्तु को स्थापित करने में विशेष भूमिका निभाते हैं।

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