समन्वयवादी सन्त परम्परा में कबीर / शुकदेव सिंह

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प्रो. शुकदेव सिंह

'मेरी एक आँख गंगा है, दूसरी यमुना जिसको पूजना है मेरे पास आए।'

इस तरह की बात कभी हमारे शहर बनारस के सबसे ज्यादा सम्मानित बुजुर्ग कवि और सूफी शायर 'नजीर बनारसी' ने कही तो लोगों को लगा कि यह कौन-सी परम्परा है, जिसमें विकसित होने वाला चौरासी बरस का एक बूढ़ा अपने को गंगा-यमुना संस्कृति का देवमंदिर, इबादतखाना मानकर बैठा हुआ है। अगर यह बात नजीर बनारसी ने नहीं कही होती तो लोग उसे बड़बोलापन कहते। लेकिन यह वक्तव्य उस आदमी का है जो सत्तर वर्ष से कविता की दुनिया में अपनी भाषा, शैली और अपनी रचना-दृष्टि के कारण अलग से पहचाना जाता है। नजीर साहब के कमरे में सजाकर रखा हुआ गुलदस्ता नहीं है, एक बड़े से वृक्ष हैं जो जाति, धर्म और वर्ग में क्यारी-क्यारी बँटे हुए एक बड़े मैदान में बरगद की तरह खड़े हैं। इस पेड़ की जड़ें बहुत गहरी हैं। कम से कम हजार साल पुरानी भारतीयता की परम्परा से सीधे जुड़ी हुई हैं। इस परम्परा को हम सिद्ध, नाथ, सूफी, जोगी परम्परा के रूप में याद करते हैं। यह परम्परा भाषा की भी है - चिन्तन, सोच-विचार और सही समय की भी है। संकीर्णताओं और सम्प्रदायवाद, कट्टरता, शास्त्रावाद और मूर्ति-मन्दिरवाद के बीच सबको इन्कार करती हुई यह परम्परा एक जीवित परम्परा है। तमाम तरह के निषेध, नकार और स्थापना और पुनर्स्थापना से संघर्ष करने वाली यह परम्परा हिन्दी-जाति की अपनी शक्ति है। हर बन्द दरवाजे पर यह परम्परा थाप देती है और कहती है कि खिड़कियाँ खोलो, बाहर आओ, जो बदल रहा है, उसे छोड़ो, जो कभी नहीं बदल सकता, उसे कभी मत छोड़ो अर्थात्‌ इंसानियत-मनुष्यता और परम्परा की चरितार्थता को।

परम्परा की चरितार्थता को समझना थोड़ा कठिन है क्योंकि यह संग्रह में नहीं, त्याग में विकसित होती है। किसी ने शब्द कहा, अनुयायियों ने उसे आर्ष मान लिया। अक्षर से बाँधा। बाँधा अर्थात्‌ ग्रंथन किया। गठियाना है तो ग्रंथ है फिर इस ग्रंथ के लिए दीवारें खड़ी कीं, देवता बना, मन्दिर बना, छत ढाली, पुरोहित पुजारी बनाया। शंख घड़ियाल भर लिया। टीका, चंदन, माला, तस्वीह, ताबीज, स्वर्ग और मुक्ति का सपना अर्थात्‌ पूरे धर्माचार अर्थात्‌ पाखण्ड को रच लिया। धाम बनाये, तीर्थ खड़े किये, पूजा, प्रसाद और चढ़ावा सब कुछ को ग्रंथ किया। ग्रंथ केवल शब्दार्थ को बाँधना नहीं होता, स्वार्थ को, तृष्णा को, धर्म के कवच के भीतर तह तहकर बाँधना ही ग्रंथ है। मन्दिर, पूजा, पोथी इसीलिए ग्रंथ है। ग्रंथ का एक अर्थ, संग्रह भी होता है। यह संग्रह ऐसे ही सम्भव नहीं होता। उसके लिए चुराना पड़ता है। छिपाना पड़ता है। छीनना पड़ता है और चोटी को बचाने के लिए आक्रमण करना पड़ता है। दूसरे की निन्दा करनी पड़ती है और किसी व्यक्ति, समूह या समाज के प्रति घृणा-प्रचार के साधनों का विकास करना पड़ता है। घृणा के प्रचार के लिए 'ग्रंथ' से अधिक बड़ा साधन और कोई हो नहीं सकता। यह साधन भी है। शास्त्र भी है। दुःख न हो तो कहूँ 'ग्रंथ' से बड़ी कोई 'हिंसा' हो नहीं सकती। 'ग्रंथ' हिंसा का ही नाम है। क्या आपको बहुत खोलकर बताना होगा कि गुरुओं के वचन को जब 'ग्रंथ' में बाँधा गया, तखत पर बिठाया गया तो किस तरह अन्ततः कुछ लोगों ने उसे हथियार की धार, बन्दूक राइफल, गोली की वेधकता से जोड़ दिया।

कहाँ कबीर, कहाँ नानक, कहाँ गुरु गोविन्द सिंह की असली ओट कहाँ ग्रंथ से माँजी हुई तलवार की धार कृपाण। कहाँ बन्दूक की गोलियाँ?

इससे बड़ा दुःख क्या हो सकता है कि जिन संतों के वचन कृपा के लिए उच्चारित हुए उन्हीं वचनों को कुछ लोगों ने 'कृपाल' की धार के लिए शान बना लिया। दरअसल ग्रंथ किसी भी धर्म, परम्परा या पूजा का हो वह कृपा के लिए बनता है और अन्ततः कृपाण बन जाता है। कबीर और उनसे जुड़ी हुई परम्परा ने इसी कृपा और कृपाण के सम्बन्ध को समझते हैं, पोथी पढ़ने को इन्कार किया था। अगर कबीर ने मसि कागद नहीं छुई, कलम नहीं गही, पोथी पढ़ने वाले को 'मुरदा' कहा तो किस लिए? ग्रंथ से बचने के लिए। मन्दिर और मस्जिद से हटने के लिए। हिन्दू हो या मुसलमान हो, सिख हो या सुन्नत, पूजा हो, या नमाज इस सबसे जुड़ी हुई तारीकी और अन्धेरे की दहशत को समझाने के लिए कबीर ने अक्षर का, वेद का, संस्कृत का, ग्रंथ से जुड़ी हुई श्रद्धा का विरोध किया, उपहास किया, निन्दा की और लुकाठी लेकर खड़े हो गये सरेआम। अपना हाथ अपने सिर से सजाकर उन्होंने एक ऐसा घर बनाया, जिसमें घुसने के लिए 'सीस उतारे कर गहे' तब उसे अपने पास पहुँचने के योग्य बनाया। अब देखिए जिस कबीर के घर में 'सीस' उतार कर ही पहुँचा जा सकता था उसके घर में लोग जूता उतारकर प्रवेश करते हैं। कबीर के मठों के द्वार पर 'फाटक दास' मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा हुआ निर्देश पढ़वाता है,

कृपया जूते उतारिए। यह कौन-सा छूत है जिसमें सिर उतारने की जगह को जूते उतारने की जगह में बदल दिया गया। मेरा समझना है वह कि जगह ग्रंथ, पोथी। चाहे वह 'बीजक' हो या 'आदि-ग्रंथ'। पंचवानी हो 'पांजीपंथ-प्रकाश', 'घट-रामायण' हो या 'कुल्जम स्वरूप'। शिव का मन्दिर हो या ठाकुरवाड़ी, मस्जिद हो या कीर्तनस्थल सभी जूते उतरवाते हैं। कहाँ अन्तर है, 'वेद' वालों से और 'बीजक' अथवा 'गुरुग्रंथ' वालों से। सबने पोथी बाँध ली और उससे हवा जोड़ ली। निषेध का नियम बना दिया, कुछ भी खुला नहीं छोड़ा, आचार, व्यवहार, ज्ञान, विवेक सबको 'ग्रंथ' कर लिया 'बांध' दिया।

इस बन्धनवाद या ग्रंथवाद के ठीक समानान्तर मुक्ति और खुलेपन की एक जीवित परम्परा है, जिसे सूफी, जोगी, सिद्धनाथ, यायावर जातियों की गायन-कला, फेरी लगाने की परम्परा में, भिक्षा माँग, गायन और बोधन से जोड़ा गया है। यह परम्परा कर्म और श्रम को धर्म से जोड़ती है। क्या सिद्ध मठों में रहते थे? जोगी आश्रमों में बसते थे? अगर ऐसा था तो मसान में मुरदे की पीठ पर बैठकर मसान कौन जगाता था? द्वार-द्वार घूमकर सारंगी रेतकर अलख कौन जगाता था? घाट, बन, निचाट, ऊसर में बैठा हुआ परती के प्रेम के रूप में पीपल पर झण्डा बनकर कौन टंगा रहता था। इसी पेड़ में डोरा बाँधकर किसी मजार पर अर्जी बनकर कौन समर्पित हो रहा था। दरअसल इसमें दो तरह के लोग थे, बिना घर वाले और घर वाले। जोगी बेघर थे और संत घर-घर में रहते हुए बिना माँगे झीनी-झीनी चादर बुनते, जूता बनाते हुए, दाढ़ी हजामत करते हुए, कसाई का धंधा करते हुए, सबद-विवेकी बने बैठे हुए थे। जोगी और संतों की वास्तविकता को समझने के लिए भारतीय संस्कृति की दोनों परम्पराओं को समझना आवश्यक है। घर छोड़ना है तो घर बनाने के लिए। जोगियों ने यह किया। घर में रहना है तो घर से जुड़ी हुई लालचों से मुक्ति पाने के लिए। सूफियों ने यही किया। संतों ने यही किया। इन दोनों को एक में जोड़ने की जरूरत है। दोनों अलग-अलग स्तर पर ढाई आखर वाले 'प्रेम' की बात दुहराते हैं

। इस प्रेम या मानवीय संस्कृति को कुछ लोग भक्ति मान बैठे हैं। लेकिन भक्ति तो समर्पण है। दासता है। वह देवता की दासता है और ग्रंथ की भी दासता है। इसलिए ऐसे तमाम भक्त दास हैं और सभी संत साहब। संत स्वयं को दास माने यह दूसरी बात है लेकिन दूसरे लोग उन्हें तो साहब ही मानते हैं। कबीर स्वयं तो दास हैं लेकिन इनके अनुयायियों और प्रेमियों के लिए 'साहब' हैं। क्षमा करें भक्तों को तो चाहे लोग जितना आदर करें दास ही कहते हैं। अगर उन्हें कोई स्वामी भी मानता है तो इन्द्रियों का। तुलसी दास को कोई साहब नहीं कहता, स्वामी नहीं कहता है - गोस्वामी कहता है। इसलिए कि हमारे भक्त अधिकांशतः ग्रंथ बनाते हैं। लेकिन संत, 'बानी' बोलते हैं। 'संत' और 'भगत' का भेद 'बोल' और 'लिखत' को लेकर है। बड़े अर्थ में बोल 'वचन-वाचन' बिकता है और लिखत ग्रंथन। आखिर बोल और लिखत कविता के ही भीतर दो दुनिया में कैसे बँट गये? यह साधारण जन के लिए अमूर्त है। विवेकी के लिए भी बहुत स्पष्ट नहीं है। इसके लिए उस परम्परा को समझने की आवश्यकता होगी जिसे हम आज की भाषा में 'समन्वय की परम्परा' कहते हैं। स्पष्ट करना चाहूँगा कि समन्वय का अर्थ सबको समेटना नहीं, सही-सही ढंग से विश्लेषित करना ही समन्वय है। आप जानते हैं कि 'अन्वय' के नाम पर कविता में, राग धर्मी तंत्र या वाक्य-विन्यास को गद्य-धर्मी विन्यास में बदला जाता है। उसे आगे पीछे स्पष्ट करने के लिए खोला जाता है। समन्वय, अन्वय का श्रेष्ठ रूप है। वह समूह नहीं है। ग्रंथन नहीं है, समन्वय तो स्पष्टीकरण है। व्याख्या की पहली सीढ़ी है।

आखिर ऐसा हुआ क्यों? उसे समझने का समय आ गया है। कबीर को समझने के लिए यह जरूरी भी है। क्योंकि अब तो लोग मन्दिर भी गिरा रहे हैं। इस विश्वास के साथ कि जो मन्दिर को पूजता है, उसे मन्दिर तो गिराने का अधिकार है। यह कुछ ऐसे ही हैं जैसे जो बच्चे को पैदा करता है, उसे बच्चे के कत्ल का भी अधिकार है। शायद यह सब इस भरोसे के साथ किया जा रहा है कि देखो हम अपना मन्दिर गिरा रहे हैं, तुम अपना मस्जिद भी गिरा लो। यह बहुत अच्छी बात है। अगर यही हो और इसी उद्देश्य के लिए हो तो बहुत अच्छा है। अपने मन्दिरों को वे गिरायें, अपने मस्जिद को ये गिराएँ। आदमी को बाँटने वाली दीवारें हम ढहा दें और वेहदी के मैदान में 'अरध से उरध' तक अनहद बाजा बजा दे। लेकिन मेरा ख्याल है कि लोगों का मन साफ नहीं है। वे छोटे मन्दिर गिरा कर बड़ा मन्दिर बनाना चाहते हैं। या डराना चाहते हैं कि देखो हम मन्दिर गिरा सकते हैं मस्जिद क्यों नहीं गिरा सकते? यही होता है। अगर एक बड़े उद्देश्य के पीछे कोई गर्हित कामना हो तो पूरा सन्दर्भ ही बदल जाता है। मन्दिर और ग्रंथ को मस्जिद और कितेब के गिराने और फेंकने की बात तो कबीर ने कही थी। इसलिए कि उनकी कामना बड़ी थी और उद्देश्य भी बड़ा था। जब संकल्प और उद्देश्य में दूरी होती है तो वह एषणा में बदल जाता है। मैं किसी के ऊपर कोई गलत संकेत नहीं कर सकता हूँ। मैं तो यह चाहता हूँ कि मन्दिर भी न रहे और मस्जिद भी न रहे। रहे भी तो एक दूसरे का रहना, एक दूसरा अनुभव न करे। मन्दिर वालों के लिए मस्जिद निरस्त हो और मस्जिद वालों के लिए भी मन्दिर निरस्त हो। कम से कम उसे मस्तिष्क से उतारना होगा। भाई चारे का सपना तभी पूरा होगा। दोनों को बटोरने के लिए दोनों को बिल्कुल एक दूसरे से अलग कर देने के लिए यह जरूरी है कि एक दूसरे अपने धर्म को अस्वीकार कर दें तभी एक दूसरे के बीच निहित मनुष्य का चेहरा 'परिचय' का अंग बनेगा। संतों ने इसी 'परिचय' (परचा को अंग : देखिए ग्रन्थों में कबीर ग्रन्थावली में) का आह्नान किया था। वहाँ कुछ नहीं था, न पोथी न इबादतखाना। सरोकार था और सरोकार से कुछ बड़ा नहीं था उनके लिए। इस पूरे सरोकार की परम्परा को जरा और समझिए।

आठवीं, दसवीं शताब्दी के आसपास जब ग्रंथ-साधना और तंत्र ने बौद्ध धर्म को वज्रयान बना दिया और इसके ठीक उल्टे महायान भी बना दिया, हीनयान बना दिया। तब संस्कृति और ग्रंथ के कारण मठ और रहस्य-साधनाओं की भयावनी वृत्ति के कारण बौद्ध परम्पराओं में पतन के लक्षण स्पष्ट होने लगे। इन्हीं बौद्ध मठों में बैठकर शंकराचार्य ने संस्कृत पढ़ी शास्त्र बाँचा। कुमारिल यह ने भी बौद्ध गुरुओं से 'पालि' नहीं संस्कृत पढ़ी थी। ग्राम दिशा से नगर की ओर जाने वाली बौद्ध-भाषा की पलट को शंकराचार्य और कुमारिल भट्ट ने पढ़ा। कितनी विचित्र बात है कि बौद्ध गुरुओं के ये शिष्य उनसे संस्कृत पढ़ने गये और फिर वही हुआ जो आज गुरुग्रंथ का हो रहा है। 'आतंक' पढ़ने जाते, अमि धम्म पिटक पढ़ने जाते, पालि पढ़ने जाते, बौद्धों की चर्या पढ़ने जाते तो वे बौद्ध भी होते परन्तु संस्कृत की संस्कृति थी जिसने श्रमण के घर में 'ब्राह्मण' खड़ा किया और फिर श्रमण के घर में पढ़े होने वाले ये ब्राह्मण मन्दिर और शास्त्र के लिए प्रस्थान बिन्दु बन गये। स्थापना-कर्ता बन गये। श्रृंगेरी से लेकर बदरी धाम तक द्वारिका से लेकर पुरी तक संस्कृतवादी मन्दिरों का एक समूह खड़ा हुआ। चार धाम और धामों से जुड़े हुए मन्दिर और संस्कृत विद्या-मन्दिर खड़े हुए। अभिधम्म की और धम्म-पद की समाप्ति के लिए शास्त्र और धर्म खड़े हुए। भिक्षु, भिक्षु-संस्कृति के विरोध में उन्हीं का गौरव धारण किये हुए संन्यासी खड़े हो गये। उनमें से कई को गिरि कहा अर्थात्‌ पर्वत की तरह साधु खड़े हो गये।

बौद्ध देवता जो वज्र की तरह तीक्ष्ण थे वे वज्र की तरह कुन्द हो गये। बुद्ध से बुद्धु बने, भद्र से भद्दा, वज्र की तरह वेधक बुद्धि वाले वज्रबुद्धि कहे गये और बौद्धों के बड़े-बड़े आराम विहार, मठ, सुन्दर मूर्तियाँ, अमिताभ-मुद्राएँ, हिन्दू देवताओं में बदलने लगे। जो ग्रंथवाद बौद्ध को संकीर्ण बना रहा था, वही ग्रंथवाद उसका शत्रु बन गया। तद्भव को छोड़कर जब बौद्धों ने 'तत्सम' को स्वीकार किया तो उसका 'तत्सम' ही उन्हें खाने लगा। कितना दिन लगा, कुछ वर्षों में ही संस्कृत विजय से तृप्त होकर कुमारिल भट्ट तुषाग्नि में प्रवेश कर गये और इच्छा-मृत्यु वाले शंकराचार्य ने अपने युवा शरीर का परित्याग कर दिया। पर-काया प्रवेश की विद्या स्वकाय की रक्षा के लिए भी आवश्यक नहीं समझी गई। क्योंकि ऐसे कामों के लिए बहुत थोड़ा ही समय चाहिए। नहीं बनने में बहुत समय लगता है। बौद्ध बनने में कुछ महीने। जब बौद्ध बन गये तो उसके अभियंता स्वर्ग देव-पुरुष बन गये। यही वह क्षण था जब सिद्धों ने बौद्ध-विचार लेकर और तद्भव भाषा अर्थात्‌ संस्कृत को छोड़कर जन-भाषा में जिह्ना-जिह्ना में विचरण करने वाला 'चर्यापद' लिखा, दोहे लिखे, प्राण-संकली, बानी, नाम से सिद्धों और नाथों की हजारों रचनाएँ, संस्कृत को छोड़कर लोक-भाषा में स्थापित हुईं और इस तरह का काम संयोगवश सूफियों ने भी किया। जब लोग मकबरों पर मस्जिदों में नीले पर्शियन रंग से कुरान की आयतें लिख रहे थे और यहाँ वहाँ मस्जिद बना रहे थे उस समय गाँव-गाँव की भाषा में गाँव-गाँव की कहानियों को उठाकर सूफियों ने एलहाम की मस्ती का तराना छेड़ा। घर गाँव की कहानी लिखी और यह कहानी घर गाँव की भाषा में लिखी गई। लोक से लोक-भाषा एवं लोक-संस्कृति के साथ जो जुड़ा था उसने सिद्धों, नाथों जोगियों और सूफियों से सच्ची भारतीयता के साथ सम्प्रदायवाद से मुक्ति, संस्कृत और शास्त्रा का निषेध, मन्दिर और मस्जिद का निरोध, जाति और वर्ण का खण्डन जैसे महत्त्वपूर्ण चरित्रा-पाठ सिखाया। यह वह जमीन है जिस पर संतों का उद्भव हुआ, और संत लोकभाषा और जन मानस के वाक्‌ और वाक्य अर्थात्‌ उच्चारण और अर्थ के प्रतीक बन गये।

क्या किया संतों ने...? ये छोटे घरों के ओछे कसब के लोग थे। जुलाहा, कोरी, दरजी, जाट, कसाई, नाई, अंसार, सब्जीफरोश, कान्दू, बनिया इत्यादि। समाज के निचले तह के लोग थे। इसमें अधिकांशतः मन्दिर में नहीं जा सकते थे अगर कुछ जा भी सकते थे तो पूजा स्वयं नहीं कर सकते थे। अपना और अपने बच्चों का नाम तत्सम शब्दों से नहीं धारण कर सकते थे। नाम के आगे शर्मा, त्रिापाठी इत्यादि उपाधि जैसे प्रतिष्ठा परक शब्द नहीं लगा सकते। इनके नाम से इनकी प्रतिष्ठा का पता कट जाता था। इन्हें पढ़ने नहीं दिया जाता था, इसलिए इन्होंने पढ़ने के लिए संकल्प लिया और अपढ़ लोगों की एक संस्कृति बनाई। इन संतों ने अपने को 'रामधारी संस्कृति' से सम्बद्ध किया। आश्चर्य नहीं है कि तमाम छोटी जातियाँ आजादी के पहले 'राम' लगाकर अपनी जाति की नीचता को व्यक्त करती थीं। अगर किसी का नाम ईश्वर राम भी है तो उसका अर्थ शूद्र ही होता था, पिछड़ा हुआ होता था। आकस्मिक नहीं है कि कबीर जैसे मुसलमान संत ने 'राम' शब्द को धारण कर लिया। क्योंकि इसके पहले सिद्धों, सूफियों, जोगियों के यहाँ 'राम' नहीं दिखाई पड़ते। निरंजन है, अलख है, अलह है, अकाल है, सत्पुरुष है, तमाम तरह के निराकार ईश्वर सूचक है। यहाँ तक कि गोविन्द और हरि जैसे शब्दों को भी निराकार, निरमोलक, अपशास्त्रीय, असंस्कृति देवता के रूप में प्रतिष्ठा मिलती है। इन ओछे कसब के जुड़े हुए संतों ने दो काम किये। सूफी जोगियों और सिद्धों जैसा मन रखा लेकिन घर नहीं छोड़ा, भीख नहीं माँगी, संग्रह नहीं किया। ग्रंथ नहीं स्थापित किये। इस प्रकार मन्दिर, शास्त्र, संस्कृत, विरोधी जो परम्परा चली आ रही थी उस परम्परा को संतों ने गृहस्थों के बीच रखा और गृहस्थों के बीच रहते हुए भी यह समझाया कि सांसारिक तृष्णाएँ माया होती हैं। पहले साधु, संन्यासी बताया करते थे कि सब कुछ क्षणिक है, सब कुछ मिथ्या है जैसे कोई चिकित्सक बताए कि तुम्हें बुखार है, तुम्हें प्लेग हुआ है। संतों ने कुछ ऐसे किया जैसे घर का कोई भाई कहे कि तुम्हारा सिर तप रहा है तो तुम्हें बुखार आ गया है क्या...? जरा धूप में जाना बन्द करो, बदन ढककर सो जाओ, अपनी ही शीतलता से अपनी गरमी शान्त करो। साधु, संन्यासी तो कुछ दूसरा ही बताते थे। तुम्हारा शरीर तप रहा है, तुम्हें तप करना चाहिए। मोक्ष और ज्ञान पढ़ना चाहते हो तो शरणागति को भी छोड़ दिया। यह शरणागति भाव तो बौद्धों से आया या 'बुद्धम्‌ शरणम्‌ गच्छामि' से आया इसे भक्तों ने लिया, संतों ने नहीं। संतों के यहाँ तो स्वसंवेद्य ज्ञान है, अनभय सांचा। कबीर को समझने के लिए उस समय से जुड़ने की जरूरत है, जिसकी जमीन को शास्त्र, मूर्तिवाद से बचने के लिए सिद्ध, नाथ, सूफी, योगी, मजबूत करते हैं लेकिन इस जमीन के संत अलग-अलग तरह के हैं, जो पिछड़ी जातियों और शूद्र कही जाने वाली जातियों से आते हैं। रैदास अपने को चमार कहते हैं, कबीर जुलाहा, धर्मदास बनिया, पल्टू बनिया, सेन अपने को नाई कहते हैं। अपना जाति-भाव लेने का मतलब ही यह है कि कोई जाति के कारण बड़ा नहीं होता, विचार के कारण बड़ा होता है। लोग गलत समझते हैं कि इन संतों ने जाति-पाँति को महत्त्व नहीं दिया। संतों ने तो जाति को सबसे अधिक महत्त्व दिया है लेकिन जाति के दंभ को तोड़ते हुए वे जाति का नाम ही इसलिए लेते थे कि जाति का दंभ और जाति-जनित पाखण्ड टूट जाय।

मुझे ऐसा लगता है कि आजादी के बाद खास तरह से पिछले दस वर्षों में जातियाँ टूटी हैं और जाति के दंभ का विकास हुआ है। किसी आचरण के लिए, किसी जाति के लोग, किसी का हुक्का पानी नहीं काटते। अर्न्तजातीय विवाहों के नाम पर हंगामा खड़ा नहीं करते। सार्वजनिक स्थानों पर खा पीकर खानपान से जुड़ी जातिगत घृणा को हमारे समाज ने जी लिया है। लेकिन जाति के नाम पर अब भी दंगे होते हैं। सामूहिक नर-संहार होते हैं, इसका सीधा मतलब है कि जाति का मान नष्ट हुआ और जाति का दंभ बढ़ गया है। यही हमें कबीर की जरूरत है। कबीर जाति के भाव को मिटाकर कुछ नहीं करते लेकिन जाति के दम्भ पर थूकते हैं। शायद कहीं-कहीं ठीक युक्ति के साथ अगर यह बात समझाई जाय तो समझ में आ जाएगा कि नमी जाति-हिंसा और ग्रंथ में एक घनी मैत्री बढ़ी है। जब सिख हथियार उठाता है तो उसके दूसरे हाथ में ग्रंथ होता है, चेहरे पर वेश होता है, जब हिन्दू हिंसा पर उतारू होता है, उसके हाथ में राम की रामायण दिखाई पड़ने लगी है। जब हरिजन अपनी अस्मिता के लिए संघर्ष करता है तब उसके हाथ में रैदास बानी और रैदास मन्दिर का संकल्प दिखाई देता है। जब डोम या मेहतर अपनी जाति के दम्भ से जुड़ता है तो अपने को वाल्मीकि कहता है। कबीर और उनके जमाने के संत और उनके अनुयायी सब अपने को 'राम' से जोड़ते हैं, राम की पोथी से नहीं, उनके लिए जाति एक निराकार व्याप्ति है। क्या इस बात को बार-बार समझाना होगा कि कबीर-पंथियों में संस्कृत के प्रति अनुराग बढ़ा है, पोथी और वेद के प्रति आसक्ति बढ़ी है। ये भी एक खास दम्भ से जुड़ते जा रहे हैं। अब तो हालत यह है कि हिन्दू और मुस्लिम दोनों के लिए सूफियों के बने हुए मजार जलाल और जमाल का निजंधर छोड़कर कुरान खानी का केन्द्र बनते जा रहे हैं। कबीर ने कभी यह नहीं सिखाया था। उन्होंने तो जाति को चरित से जोड़ा था और तिरस्कार निषेधक ऊर्जा के रूप में बार-बार अपने को जुलाहा कहा था। लेकिन कबीर के कहने से होना क्या...? जनाब नजीर बनारसी कहते हैं -

'दुआ कीजिएगा, दवा कीजिएगा।/न अच्छे हुए हम तो क्या कीजिएगा॥'