समय-चक्र / सुरेन्द्र प्रसाद यादव

Gadya Kosh से
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बाँका जिला के एकटा पाकिटमार, जेकरो नाम गोनू छेलै। दुबला-पतला, गोरा-चिट्ठा। कद सें लम्बा। हँसमुख चेहरा। कभियो काल मायूसी हंसमुख चेहरा केॅ ढकी लै छेलै।

झब्बन-यादव, वही गाँव के कुट्टीदार, धान खरीद करै छेलै आरो चावल बनाय केॅ अगल-बगल बाजारोॅ में बेचै छेलै। मुनाफा कमाय छेलै। गाड़ी ठीक-ठाक चली रहलोॅ छेलै।

झब्बन यादव नें चावल बेची केॅ तीन हजार रुपया आपनोॅ पास रखी चली देलकै। मुरारी सेठ सें लेन-देन करै छेलै। ओकरै दै लेॅ बैलगाड़ी कसलकै आरो चली पड़लै। गाड़ी पर बासमती चावल के दू बोरी लादी लेलकै। गाँव के सड़क पार करी केॅ ऊराजपथ पर चढ़ी ऐलै। कि वहीं ठियाँ गोनू सें भेंट होय गेलै। झब्बू नेॅ तेजी सें गाड़ी केॅ पक्की सड़क पर हाँकना शुरू करलकै।

"भैया हम्मु बाँका जैबै, गाड़ी पर चढ़ाय लेॅ नी।" गोनू निहोरे स्वरोॅ में झब्बू सेेॅ कहलेॅ छेलै।

झब्बन याव के दिमाग जेना एकबारिये झनझनाय गेलोॅ रहेॅ। मतरकि पड़ोस के आदमी छेलै, छोड़तियै भी केना। अछताय-पछताय केॅ गाड़ी रोकी देलकै। तबेॅ टेडुआ पुलोॅ के नगीच गोनू झा बिजली के झटका नाँखी गाड़ी पर चढ़ी गेलै आरो बोललै-"भैया कहाँ जाय रैल्होॅ छोॅ?"

"तोरा सें तेॅ बोलै में डोॅर लागै छै।" झब्बन नेॅ कहलेॅ छेलै।

"से कहनें?"

" रो गोनू! तोहें पाकिटमारी कैन्हें करै छैं? पकड़ैला पर मार-घुस्सा, थप्पड़-लप्पड़ खाय छै आरो आखिरी में गाँव के नामो बेची केॅ राखी दै छै। झब्बन बातोॅ में थोड़ोॅ मोड़ लानतेॅ कहलेॅ छेलै।

मतरकि गोनु कम समझदार नै छेलै। झब्बन के डर आरो आशंका केॅ समझतेॅ हुवेॅ ही ऊशहुरुआ अन्दाज में कहना शुरू करलकै-"कैन्हौं केॅ गुजर-बसर करी लै छियै। केकरो कर्ज-ऋण नै खाय छियै। फिट-फाट सेॅ रहै छियै, केकरो दरवाजा नै खटखटाय छियै आरो ई सच छै भइया कि दूसरा के पाकिट मारबै, मतरकि गाँव-समाजोॅ के नै। गाँव-समाजोॅ के मारबै तेॅ रहेॅ नै पारबै। शेर जंगल में आग लगाय केॅ कबेॅ तक रहेॅ सकै छै! वें तेॅ मौतोॅ के मुँह खुद ही खुद खोली लेतै। यही वास्ते कहै छियै कि गाँववाला हमरा पर शक नै करौ।"

गोनू के बात सुनी केॅ झब्बन आश्वस्त होय केॅ कहेॅ लागलै, जेना ऊवर्तमान-भविष्य के सब विपती में सावधान रहेॅ-"आय तक हमरोॅ कोय पाकिटमारी नै करेॅ सकलकै। केना करी लै छै? हमरा तेॅ अचरज होय छै, लोग एत्तेॅ अचेत केना रहै छै कि पैसा खोलि लै छै ।"

" गोनु के ई विद्यो अपनो आप में अजब ही छै। जे आदमी केॅ देखै छियै, ओकरोॅ चाले-ढाल सेॅ समझी जाय छियै कि ओकरोॅ पास माल छै। आरो समय बीतै नै छै कि ओकरोॅ जेब पर सेंध मारी दै छियै। भीड़-भाड़, मेला-ठेला में आपनोॅ काम करी लै छियै । तोहों पूछभौ भैया, पुलिस के बात। ऊभी पहचानै छै। जबेॅ पकड़े छै तेॅ झुण्ड सेॅ बाहर निकाली लै जाय छै। धमकैलकौं आरो कुच्छू मार-पीट करलकौं, दर्शक केॅ दिखैलकौं। बादोॅ में कुछ कमीशन देलियौं आरो छूटी गेलियौं। पहनें तेॅ पकड़ावै नै छियै। कभी-कदाल बदकिस्मिते होय छै जे पकड़ावै छियै । होना तेॅ तोहो अभी मुरारी सेठ के यहाँ ही जाय रहलोॅ छोॅ। '

"हों अभी तेॅ मुरारी सेठ के यहाँ ही जाय रहलोॅ छियै। हुनका तीन हजार रुपया आरोॅ दू क्विंटल बासमती चावल देना छै।" गोनू के बातोॅ में रस लै रहलोॅ झब्बन यादव नें कहलकै।

"बौंसी मेला, गोड्डा मेला, झूलन, दशहरा, काली पूजा, हाट रोॅ दिन, मोटर, ट्रेन के खचाखच भीड़ में कहीं आपनोॅ हाथ के सफाई दिखावेॅ सकै छियै।" गोनू ने आपनोॅ बात पहलोॅ के बातोॅ सेॅ जोड़तेॅ कहलकै। गाड़ी पर दोनों के बीच आपबीती होय रहलोॅ छेलै। दोनों आपनोॅ-आपनोॅ अक्लमंदी के परिचय एक दूसरा केॅ दे रहलोॅ छेलै। बैलगाड़ी बढ़ी रहलोॅ छेलै। गोनू झब्बन सेॅ एक हाथ पीछुवे बैठलोॅ छेलै। जबेॅ गाड़ी चन्दन पुल पर गेलै। झब्बन बैलेोॅ के पुछड़ी अमेठलके आरो निचित होयकेॅ गोनू केॅ बिना देखनै कहेॅ लागलै-"गोनू है पुल ब्रिटिश जमाना के बनलोॅ छेकै। पुल कत्तेॅ पुरानोॅ होय गेलै। कत्तेॅ सॅकरोॅ आरो जर्जर। गाड़ी पुल के ओहरान पर कुछु देर लेली ठहरलेॅ मोटर-गाड़ी केॅ पास दै लेॅ कि आदमी, रिक्सा, साइकिल रोॅ आना-जाना ठप्प। ई तेॅ हालत छै। जब तांय कोय घटना नै घटतै तब तांय सरकारोॅ के कुम्भकरनी नींदो की टूटतै? तभिये पुलो बनैतै।" झब्बन यादव आपनोॅ बैलगाड़ी केॅ रिक्शा, बस, मुसाफिर सबसेॅ बचैतेॅ हुवेॅ, साईड लेतेॅ आगू बढ़ी रहलोॅ छेलै। ओकरोॅ सबटा ध्यान आगू के तरफ ही जमलोॅ छेलै। करीब बीस मिनट पुल पार करै में लागलै। ई बीच झब्बन यादव के खाली टिटकारिये ही गूंजतेॅ रहलै। पुल पार करतेॅ ही गोनू ने झब्बन सेॅ कहलकै-"झब्बन भैइया गाड़ी रोकी दौ। कुछ काम छै, यहीं उतरी जैबै।"

झब्बन नेॅ बैलोॅ के रास खींचलकै आरो गोनू गाड़ी सेॅ उतरी, नदी के उत्तर बाँध पर बढ़ी गेलै।

बैलगाड़ी आगू बढ़लै तेॅ सीधा मुरारी सेठ के घरोॅ के नगीच ही झब्बन नें गाड़ी रोकलकै। बड़ी खुशी सें ऊगाड़ी सें नीचे उतरलै, बैल केॅ आरेगज में बाँधलकै। पैना गाड़ी पर राखलकै आरो चावल के बोरा द्वारोॅ पेॅ बैठलोॅ सेठ के सामने रखतेॅ हुवेॅ कहलकै-"सेठजी, ई रल्हौं, बासमती चावल आरो रुपयौ लइये ला।"


"कत्तेॅ लानलेॅ छोॅ।"

"तीन हजार।"

"दै दा।"

जबेॅ झब्बन यादव आपनोॅ फेड़ा सें रुपया निकालेॅ लागलै तेॅ " मनेमन सोचतें-झूंझलैतेॅ झब्बन आय रहलोॅ छेलै।

बिजली खंभा सें सटलोॅ गोनू खड़ा छेलै। वैं झब्बन यादव केॅ देखलकै मतरकि वें भागै के कोशिश नै करलकै शायद ई सोची केॅ कि ऊहमरा देखी लै। ऊआरा लहरैतेॅ हुवेॅ स्थिर रहलै। झब्बन नें ओकरा देखलकै तेॅ दौड़तेॅ हुवेॅ ओकरोॅ पास पहुंचलै।

"अरे पंडित, तोहों की नाटक करी देलै?"

"की होलौं?"

"तोहें हमरोॅ टाका मारी लेलै, तोरो सिवाय गाड़ी पर कोय नै छेलै।"

झब्बन यादव लाल-पीला होय रहलोॅ छेलै। ऊओकरा मारै लेॅ तैयार होय गेलै। मतरकि ई सोची केॅ जों कुच्छू हाथा-पाई करै छी तेॅ लोगों के भीड़ होय जैतै आरो बेकारोॅ में हल्ला होय जैतै। ऊलोगों केॅ तेॅ कुच्छू नै बुझैतै मतरकि गाँववाला की कहतै। यहीं सें वें मुलायम स्वरोॅ में कहना शुरू करलकै, घंटा भर गिड़गिड़ैलकै, निहोरा करलकै तेॅ गोनू लड़खड़ैलोॅ स्वरोॅ में कहना शुरू करलकै-"देखोॅ भैया, एक समय छेलै जबेॅ हमरोॅ बाबू समूचा गाँवोॅ में पूजा करबाबै छेलै। आबेॅ बाबू नै रहलै। हमरोॅ माय बूढ़ी होय गेलोॅ छै। बाबू पूजा-पाठ के एक-एक पैसा जोड़ी केॅ पढ़ैलेॅ छेलै, पढ़ी-लिखी केॅ बेरोजगार छीं। नौकरी नै मिललोॅ। कमाय के कोय रास्ता भी नै छै। पूंजी भी तेॅ नै छै। लाचार होय केॅ ई धंधा अपनाय लेलेॅ छियै। झब्बन भैया, तोहों कुच्छू मदद करी दौ। हम्में नशा में नै कही रहलोॅ छियौं। तोहों मदद करी दौ तेॅ एम.एल.ए होय जैवै। आरो एम.एल.ए होलियै तेॅ तोरा मालामाल करी देभौं। पाकिटमारी में बड़ी बेज्जती होय छै भैया। पाकिटमारी में मंत्री-विधायक के धंधा अच्छा। गर्दन भी काटोॅ, सलामियो लेॅ। एम.एल.ए होय के गेलियै तभियो ज़रूरते भर ही जेब काटबै भैया।"

ई कही केॅ गोनू नें पैसा-पैसा निकाली के झब्बन के हाथोॅ में राखी देलकै। झब्बू नें रुपया गिनलकै तेॅ तीन हजार में पचास रुपया कम छेलै। वैं गोनू दिस बड़ी कृतज्ञता सें देखलकै तेॅ गोनू नेॅ कहलकै-"झब्बन भैया, हौं तेॅ तोहों हमरा जल्दिये मिली गेलौ, नै तेॅ आरो अधिक खर्च होय जैतियौं। अभी तेॅ एक्के घंटा बितलो छेलौं। यही वास्तें ... हमरोॅ पास टाका पानी रं आवै छै आरो बही जाय छै। जबेॅ जिन्दगीये बही रहलोॅ रहेॅ तेॅ टाका के डैम बनाय केॅ की होतै? झब्बन भैया, सब पानी, हम्में पानी, तोहों पानी, पैसा पानी। पानी बहतेॅ रहेॅ तेॅ ठीक छै। रूकलै तेॅ सड़ांध फैलतै।" आरो यही सब दुहरैतेॅ गोनू बस स्टैण्ड दिस बढ़ी गेलै। झब्बन यादव केॅ ओकरोॅ कुच्छू बात समझ में नै ऐलै। वें टाका केॅ मुट्ठी में दबैलकै आरो भीड़ोॅ केॅ चीरते हुवेॅ मुरारी सेठ के दरवाजोॅ दिस दौड़ी पड़लै।