समर्पण / श्यामास्वप्न / ठाकुर जगमोहन सिंह

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श्यामास्वप्न

अर्थात् गद्य प्रधान, चार खंडों में एक कल्पना

“तन तरु चढ़ि रस चूसि सब फूली फूली न रीति।

पिय अकास बेली भई तुअ निरमूलक प्रीति।।”

“है इत लाल कपोत व्रत कठिन प्रीति की चाल।

मुख से आह न भाषि हैं निज सुख करहु हलाल।।”

(हरिश्चंद्र)

श्रीमत् हृदयंगम बाबू मंगलप्रसाद मणिजू-कन्हौकली

प्रियतम!

तुम मेरी नूतन और प्राचीन दशा को भलीभाँति जानते हौ - मेरा तुमसे कुछ भी नहीं छिपा तो इसके पढ़ने, सुनने और जानने के पात्र तुम ही हौ तुम नहीं तो और कौन होगा? कोई नहीं। श्या मलता के वेत्ता तो आप हौ न? यह उसी संबंध का श्यामास्वप्न? भी बनाकर प्रकट करता हूँ। रात्रि के चार प्रहर होते हैं - इस स्वाप्नं में भी चार प्रहर के चार स्वपप्न हैं। जगत् स्वप्नवत् हैं - तो यह भी स्वप्न ही है। मेरे लेख तो प्रत्यक्ष भी स्वप्न हैं - पर मेरा श्यामास्वप्न स्वप्न ही है। अधिक कहने का अवसर नहीं।

प्रेमपात्र! तुम इसके भी पात्र हौ। मेरे तुम्हारी प्रीति की सचाई और दृढ़ता का व्यौ्रा तुमही करोगे। यहाँ कोई निर्णय करने वाला नहीं।

यह मेरी प्रथम गद्यरचना है, क्यार इसे अंगीकार न करोगे? तुम्हा रा 'मोती मंगल' और यह मेरा 'श्यापमास्वप्नक' हम दोनों के जीवनचरित की सरिताकल्लोल का चक्रवाक-‍मिथुन का हंस जोड़ा आजीवान्त कल्लोल करैगा। जिसके सरस तीर के निकुंजमंडप पर 'श्यामालता' सदा लहलहाती रहैगी - जिस कुंज के 'प्रेससंपत्ति' और 'श्यांमासरोजिनी' रूपी विहंगम सदा चहक चहक कर 'श्यागमालता' की शोभा बढ़ावैंगे -'श्याकमसुंदर' चातक सदा प्यारसे ही बनकर 'पापी' रटैंगे - 'मकरंद' कोकिल सदा हितके मीठे बोल बोलैंगे - और दुर्जन द्विरेफ दारुण झंकार के मचाने में कभी न चूकैंगे - यह अपूर्व सरिता की धारा कभी न रुकैगी - अंत को प्रेमब्रह्मा के कमंडलु में समा कर हम दोनों को दैहिक दु:ख और संसार के बंधन से मुक्तर करैगी, अब दिन आ रहे हैं। ज्ञान का दीप भ्रमतिमिर को नाश करैगा और प्रतिदिन मार्ग सुगम होता जायगा। चिंता नहीं, इस संसार में तुम्हैंभ छोड़ और कोई मेरा सर्वस्वव नहीं - तुम्हािरा ही कहा करता हूँ।

“मिल्यौ न जगत् सहाय विरह चौरासी भटक्यौ ”

तुम्हारे अद्वितीय पिता सरयूपारप्रदीप कविराजराजिमुकुटों के अलंकार के हीरे और मेरे गुरु श्रीपंडित गयादत्तमणि वैय्याकरण शेषावतार के चरणारविंद की दया जैसी मेरे पर रही तुम्हैं भलीभाँति ज्ञात है। तुम कविशिरोमणि हो। इसको बाँच के शोधन कर देना - और शुद्ध भाव से इसे एक अपने जन की रचना जान और उनकी आन से अंगीकार कर लेना - बस

केवल तुम्हारा,

जगमोहन सिंह

रायपुर, मध्यदेश

25 दिसंबर, 1885