समोसे में आलू, रिश्ते में खालू / जयप्रकाश चौकसे

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समोसे में आलू, रिश्ते में खालू
प्रकाशन तिथि :26 जनवरी 2016


लालू यादव हमेशा कहते आए हैं कि 'समोसे में आलू और बिहार में लालू।' बिहार के अवाम ने हमेशा लालू का साथ दिया है और पिछले चुनाव में विरोधियों के सारे साम, दाम, दंड, भेद के बावजूद उन्होंने लालू का साथ दिया। बिहार में धर्मांन्धता की अनेक रथयात्राएं रोकी गई हैं। आज लालू यादव की सरकार ने बिहार में समोसे पर ही टैक्स लगा दिया। जिस वृक्ष की डाल पर बैठे हैं, वही काट रहे हैं। दरअसल, दुख इस बात का है कि अपनी अपार प्राकृतिक सम्पदा और दो नदियों के बीच बसे उपजाऊ बिहार को भारत का सबसे खुशहाल और विकसित प्रांत होना चाहिए था। फणीश्वरनाथ रेणु, नागार्जुन और शैलेन्द्र की भूमि को भारत की सांस्कृतिक राजधानी होना चाहिए था, परन्तु वह पिछड़ा प्रदेश ही है। बिहार के लोग पंजाब की फसलें मजदूर बनकर काटते हैं, जबकि उन्हें अपनी फसलें काटना चाहिए। सारे देश में जाने कैसी हवा चली है कि 'बिहारी' शब्द हिकारत से बोला जाता है, जबकि बिहार के लोग अत्यंत सीधे और सरल लोग हैं। यह भी अफवाह है कि अब बिहार में 'हीरामन' नहीं रहता और वहां किसी नौटंकी में 'हीराबाई' अब नहीं गाती 'उफ़क (क्षितिज) पर खड़ी है सहर, दिल में अंधेरा है इधर, तू भी आ जा'।

लालू और नीतीश मिलकर विचार करें कि पांच वर्ष तक वे अपने किसी खालू (मामू) की मदद नहीं करेंगे और बिहार भारत को विकास का ऐसा मॉडल देगा जो सीमेंट का जंगल नहीं होगा और इस विकास में प्रगति के सच्चे-झूठे आंकड़े नहीं होंगे, वरन मनुष्य की खुशहाली उसके आर्थिक विकास के केंद्र में होगी। व्यवस्था के मकड़जाल को छिन्न-भिन्न करना होगा। ज्ञातव्य है कि बिहार में गांधीजी ने अपने आंदोलन शुरू किए थे और उसी का शुकराना अब बिहार इस तरह करे कि उसके ठेठ स्वदेशी विकास को अन्य प्रांत अपनाएं। जरा बिहारी ही स्वयं विचार करें कि राजकुमार सिद्धार्थ गया में ही महात्मा बुद्ध क्यों बने थे। कैसी पावन मिट्‌टी है वहां की। यह नीतीश और लालू को देखना होगा कि कोई औद्योगिक घराना वहां केवल सरकारी सुविधाएं लूटने नहीं आए, वरन् ठोस काम करे। इस राह पर इस खतरे से भी बचना होगा कि बिहारी अस्मिता जगाते हुए उसे ऐसे संकीर्ण बिहारवाद में न बदलें कि अन्य प्रांत के प्रति हिकारत दिखाएं। उन्हें बाला साहेब के रास्ते से बचकर निकलना होगा। बकौल बिहारी शैलेन्द्र 'बहुत कठिन सीधी राह पर चलना, देख के उलझन बच के निकलना, आ अब तुझको अपना देश पुकारे, बाहें फैलाए, नजरें बिछाए, तुझको तेरा देश पुकारे'। जब सचमुच में बिहार अंगड़ाई लेगा, तब देश में सूरज उगेगा।

बिहार के पास सब कुछ है। लालू और नीतीश याद रखें कि विगत चुनाव में बिहार ने वोट बैंक के मिथ को तोड़ा है। सभी धर्मों और जातियों के लोगों ने उन्हें मिलकर जिताया है, इसलिए भाई-भतीजावाद को ठुकराएं। प्राय: विकास की लोकप्रिय बनाई धारणा में धुआं उगलती कारखानों की चिमनियां और गेट खुलते ही भागते मजदूर जैसे जेल से छूटे हैं की रचना की जाती है। शोषण से बचते हुए मुस्कराकर निकले कारखानों से मजदूर और खेत में ठहाका लगाते किसान दिखाई दें।

इस राह पर भोजपुरी फिल्मकारों को भी अपना दायित्व समझना चाहिए कि भोजपुरी फिल्में मुंबइया मसाला फिल्मों की तरह न हों। उनकी फिल्में उनकी धरती से अंकुरित हुए पौधे की तरह हों। 'रेणु' की कहानियां फिल्मांकन के लिए दशकों से मुंतजिर हैं। उमाशंकर भी समझें कि उन्हें कोई 'डॉली की डोली' उठाने के लिए मुंबई नहीं भेजा है, वे अपने बिहार की माटी की कहानी लिखें। इसी तरह प्रकाश झा को 'मृत्युदंड' और 'अपहरण' की ओर लौटना होगा और गॉडफादर से प्रेरित 'राजनीति' को तिलांजलि दें। लालू और नीतीश को बिहार में फिल्म संस्थान के निर्माण के पूर्व देशी भाषा और शैली में रचे फिल्म-पाठ्यक्रम की किताबें रचना होंगी। हर छात्र को नवेन्दु घोष की रेणु की कथा 'तीसरी कसम' की पटकथा लेखन का आधार बनाना होगा कि हीरामन की तरह कोई पात्र कहे 'हिस्स... ये तो परी है और हम चाय नहीं पीते, उससे धात पतली होती है'।