सम्बन्ध -सिन्धु : कुमुद बंसल / ज्योत्स्ना शर्मा

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कण से कण का सम्बन्ध संसार रचता है, जलबिन्दु से जलबिन्दु मिल जलधार बनती है, श्वास से श्वास का सम्बन्ध प्राण रचता है और मन से मन का मधुर सम्बन्ध सुन्दर जीवन का सर्जन करता है। इस प्रकार सकल सृष्टि का आधार परस्पर सम्बन्ध ही है या कहिए कि समस्त संसार सम्बन्ध-पारावार है। कवयित्री कुमुद बंसल जी का हाइकु संग्रह 'सम्बन्ध-सिन्धु' इस संसार-सागर की गहराई में उतर अनुभूत सत्यों का उदघाटन है, शब्द-अर्थ के सुन्दर संयोजन के साथ। आत्मा का परमात्मा से यदि एकत्वभाव है तो परस्पर मानव का मानव से सम्बन्ध परिवार, फिर समाज तदुपरान्त देश का निर्माण करता है। मानव मात्र का प्रकृति से घनिष्ठ सम्बन्ध तो है ही। आज के सन्दर्भ में इन सम्बन्धो का निर्वहन किस प्रकार हो रहा है कुमुद जी ने अपनी पुस्तक के तीन खण्डों–भूल-भुलैया, अवलेह और 'मैं भी जग में' इसका बहुत सरस लेकिन यथार्थपरक विवेचन किया है। सम्बन्धों के मधुर और तिक्त दोनों स्वरूप सम्मुख रखते हुए उनका यथोचित निर्वहन मंतव्य है।

'भूल-भुलैया' रिश्तों के कटु यथार्थ को कहता है। वास्तव में परस्पर अविश्वास से परिपूर्ण, भीतरघात करते रिश्ते ऐसे मूषक के सामान हैं जो कुतर-कुतर कर सब कुछ नष्ट करदेते हैं जो शेष छोड़ा वह भी किसी काम का नहीं। ऐसे रिश्तों की दरकती नींव को सँवारने में सफलता विरले ही मिलती है इन रिश्तों से तृप्ति की आशा मृगमरीचिका ही है-

फूँक–फूँकके / रिश्तों में निज प्राण / गँवाई जान।

रही मैं प्यासी / रिश्ते–दरिया–नीर / बढ़ती पीर।

स्नेह सम्बन्धों के आवरण में छुपे इन रिश्तों की वास्तविकता को समझना सरल नहीं होता। कितना भी देकर पाने की उम्मीद न रहे तभी जीवन सहज है अन्यथा इस भंवर से निकलने का कोई मार्ग नहीं, मात्र अश्रान्ति, उपालंभ ही शेष। रिश्तों में पड़ी गाँठ खोलने के प्रयास में अक्सर शेष तार भी टूट जाया करते हैं। वास्तव में इन रिश्तों की अपेक्षाएँ समझ से परे हैं। कुमुद जी कहती हैं–

हुई थकान / क्या खोया क्या पाया / नहीं मिलान।

टूटते रहे / गाँठ के भरे रिश्ते / खुलते हुए.

समझी नहीं / रिश्तों की माँगँ कभी / लाश–सी बही।

बाहर से ख़ूबसूरत दिखाई देते रिश्तों की नाटकीयता अद्भुत है। अविश्वास की दरकती दीवारों पर टिके रिश्ते भला कैसे दीर्घजीवी हों, प्रश्न है। परस्पर कुटिल जाल बुनते इन सम्बन्धों के बीच नींव की व्याकुलता सहृदय पाठक के मन को भी व्याकुल कर देती है-

लिपा–पुता–सा / है रिश्तों का मकान / दीवारें कच्ची।

सेंध लगी है / घर की दीवार में / नींव व्याकुल।

बेहद कष्टकारी है ऐसे रिश्तों की मृतदेह को अपने कन्धों पर ढोना, सतत धोखे खाना फिर भी निभाना-

काँधे लदी हैं / रिश्तों की सर्द लाशें / ठण्डी हैं रातें।

रिश्ते दरके, / साथ न रह पाए / धोखे हैं खाए.

...और फिर एक समय, स्वार्थ की धरा पर टिके इन रिश्तों को छोड़ के जाना ही होता है, जाते हैं। इन रिश्तों को मन में बसाए, उन्हें पुनः जोड़ने में तत्पर व्यथा की कथा अकथ है। ज़िंदगी बीत जाती है कहाँ मिलती है सहज-सरल, सच्ची आत्मीयता? क्या करे इन झूठे मोतियों की लड़ी का-

छाई विरानी / अपने ही घर में / मैं अनजानी।

रिश्तों के खग / छोड़ के गए छत / ताकती पथ।

कुटुम्ब–पग / फट गई बिवाई, / करूँ सिलाई.

रिश्तों का प्यार / झूठे मोती की लड़ी / गले में पड़ी।

जिन्दगी बीती / अपना नहीं मिला / क्या करूँ गिला।

निराशा ही तो नियति नहीं। तमाम कड़वी सच्चाइयों से परे 'अवलेह' खंड में कवयित्री ढूँढ़ लाती हैं समाधान भी। रिश्तों को गोंद बना लें कि उनमें स्वार्थ त्याग का सुमधुर गीत भरें। बीती ताहि बिसार नया मिसरा लिखें। वार्तालाप का पुल बना सम्बन्ध दरिया पार करें। कवयित्री की दृष्टि में रात है तो उजाले का चंद्रमा भी है, नहीं तो तारे, जुगनू दीप्त करते हैं रात-

सम्बन्ध–सिन्धु / तट-बैठ निहारूँ, / गगन–इन्दु।

सूर्य छिपता / बादलों की ओट में / फिर निकलता।

रिश्तों की संध्या / जुगनू—सी चमकी / रही दमकी।

सम्बन्धों में करकती फांस को निकाल अवलेह लगाती कवयित्री समाधान अपने हाथ रखती हैं। उनके अनुसार हम चाहें तो स्वच्छता अभियान चला परस्पर मन की कलुषता दूर कर रिश्तों के घाट को जीवन नैया हेतु सुन्दर, आनंददायक हाट में बदल सकते हैं-

रिश्तों के बाँस / बाँस में भरी फाँस, / बाँसुरी बना।

रिश्तों के घाट / बाँध जीवन नाव / आनन्द हाट।

और फिर, अंतिम खंड 'मैं भी जग' में कवयित्री का सम्पूर्ण जग से तादात्म्य है। सामाजिक परिवेश में व्याप्त कुरीतियों से एकरूप मन शपथ लेता है कि भटके राही को पथ मैं दिखाऊँगी। बोझा, कचरा ढोते व्यक्ति के साथ उनकी संवेदना एकाकार है। बहू-बेटियों की पीड़ा तो गरीब का दर्द, धनी-निर्धन के बीच बढ़ती खाई तो युवा पीढ़ी का आक्रोश, व्यथित किसान, आरक्षण, बाल श्रम सभी उनकी लेखनी का विषय बने हैं-

बहू–बेटियाँ / ससुराल-चूल्हे पर / सिकें रोटियाँ।

अनुचरी का / सुकुमारी–सा मन, / कठोर तन।

एक दृश्य देखिए–

समाज-ताल / भयभीत हंस / बगुले–कंस।

पर्यावरण के प्रति सचेत मन प्रकृति की चिंतनीय स्थिति पर व्यथित है। उत्थान हो लेकिन किस कीमत पर?

सूखी नदियाँ / वन लहूलुहान / कैसा उत्थान

करें विनती / दूषित पंचतत्त्व / रुके उन्नति।

फिर भी आश्वस्ति के स्वर सभी कुंठाओं, विद्रूपताओं को दूर कर नई उड़ान देते हैं और कवयित्री कह उठती हैं–

मीठे दो बोल / जब उसने सुने / पंख थे उगे।

दीप जलाया / राह ढूँढ़ ले कोई / मन हर्षाया।

अस्तु, यह त्रिवेणी सहृदय पाठक को सम्बन्धों के ऐसे सिन्धु तक ले जाती है जहाँ अवगाहन कर सुन्दर-मधुर भाव, रस की आभा से दीप्त मोतियों की प्राप्ति सुनिश्चित है। उत्कृष्ट सर्जन के लिए कवयित्री को हार्दिक बधाई, शुभ कामनाएँ!

सम्बन्ध-सिन्धु (हाइकु-संग्रह) : कुमुद रामानंद बंसल पृष्ठ: 108 (पेपर बैक) , मूल्य: 250 रूपये, संस्करण: 2014, प्रकाशक: पराग बुक्स, ई-28, लाजपत नगर साहिबाबाद-201705, उत्तर प्रदेश