सम्मान की भूख / राजेन्द्र वर्मा

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मनुष्य नामक सामजिक पशु को जीवन में दो वस्तुओं-धन और यश, की कामना करनी पड़ती है, अन्यथा समाज के ठेकेदार उसका जीना दूभर कर देते हैं। इन दोनों से यदि किसी एक को चुनना हो, तो वह धन है, क्योंकि उससे यश के साधन क्रय किये जा सकते हैं। ... प्रश्न यह है कि धन की कामना तो कोई भी कर सकता है, पर कामना की पूर्ति कैसे हो?

यों तो लक्ष्मी का व्यवसाय ही भक्तों की धन की कामना की पूर्ति करना है, पर समस्या यह है कि उनके सामने याचकों की बहुत लम्बी लाइन है। आजकल याचक भी प्रतीक्षा नहीं करना चाहता। वह भूल जाता है कि आदमी भले ही जल्दी में हो, पर देवी-देवताओं को कोई जल्दी नहीं रहती! वे हर कार्य आराम से करते हैं। आशीर्वाद भी देना हो तो, पहले वे स्नान करते हैं, फिर वस्त्र धारण कर सिंगार करते हैं। फिर कुछ खाते-पीते हैं और हाथ-मुँह धोकर पान-सुपारी ग्रहण करते हैं! ... फिर डकार-वकार लेकर कहीं आशीर्वाद देते हैं-वह भी कोई लिखित नहीं। याचक यह सुनिश्चित नहीं कर सकता कि उसे आशीर्वाद मिल चुका है या नहीं! मन-ही-मन सन्तोष कर लेता है कि या तो आशीर्वाद मिल चुका है, या शीघ्र-ही मिलने वाला है, क्योंकि पूजा करवाने वाले पंडित ने दो सौ इक्यावन की 'दक्षिणा' अपनी जेब की हवाले कर देवी-देवताओं को अपने झोले में रख लिया है!

पढ़े-लिखे लोग याचना भी करते हैं, तो थोड़ी ऐंठ के साथ, जैसे यह उनका जन्मसिद्ध अधिकार हो! मानो, बैंक आये हों-अपने खाते में जमा धन में से कुछ अंश निकलने! लेकिन लक्ष्मी को ऐसे याचकों के साथ निपटना आता है-इतनी प्रतीक्षा करायेंगी कि वे जीवन में पुनः धन की याचना करना ही भूल जायेंगे!

मेरे साथ कुछ ऐसा ही हुआ और जब लक्ष्मी को पता चला कि मेरी और उनकी पुरानी अनबन है, जिससे सम्बंधित लेख पहले ही आपके सम्मुख आ चुका है, उन्होंने मेरी याचना को तत्काल अपने सिंहासन के दाहिने रखे सोने के बने 'डस्ट बिन' डाल दिया।

नैराश्य सागर में डूबने से अच्छा था कि मैं देवी ही बदल देता! मैंने वही किया। लक्ष्मी का दरबार छोड़ मैं सरस्वती के सामने आ खड़ा हुआ, क्योंकि सरस्वती धन नहीं दे सकतीं, परन्तु बुद्धि तो दे ही सकती हैं जिससे धन से भी टिकाऊ वस्तु- 'यश' मिल जाता है। उन्होंने विवाह भी नहीं किया है, इसलिए बुद्धि बाँटने के लिए उन्हें पति जैसे किसी परमेश्वर का मुखापेक्षी भी नहीं होना पड़ता!

सरस्वती के यहाँ अपेक्षाकृत लाइन छोटी थी! मैं लाइन में लग गया! मेरे आगे अनेक नास्तिक कवि-कवयित्रियाँ, लेखक, चित्रकार, नाटककार, फ़िल्मों के निर्माता-निर्देशक, अभिनेता-अभिनेत्रियाँ, छायाकार, नृत्य-निर्देशक आदि लज्जा से गड़े खड़े थे! ।लाइन ख़त्म होने का नाम न ले रही थी। याचक दिन भर न जाने कहाँ ग़ायब रहते और शाम ढलते लाइन में लग जाते! ...

दिन में मेरे पास पर्याप्त समय था। इसलिए परिचितों और मित्रो की सलाह पर मैंने वरिष्ठ साहित्यकारों से दोस्ती गांठनी प्रारंभ कर दी। विरोधी साहित्यकारों से भी मेरी जान-पहचान हो गयी, क्योंकि बुराई करने वाले साहित्यकार से लेकर बुराई किये जाने वाले साहित्यकार तक मेरी बराबर की पहुँच थी।

आदमी को जब यश की भूख लगती है, तो वह सम्मान पाना चाहता है। पौराणिक काल से यह प्रमाणित होता आया है कि सम्मान ही मनुष्य को यशस्वी बनाता है। आज भी ड्राइंग रूम में टंगे सम्मान-पत्र पर जब किसी की दृष्टि जाती है, तो वह सम्मान पाने वाले का प्रत्यक्ष प्रशंसक बन जाता है, भले ही पीठ पीछे निंदा करता फिरे! पीठ पीछे तो निंदा भगवान की भी होती है, आदमी की होती है, तो क्या फ़र्क पड़ता है! व्यावहारिक जीवन के विशेषज्ञ इसे प्राकृतिक नियम मानते हैं। मानव-व्यवहार के विशेषज्ञ इसे मनोविज्ञान का विषय मानते हैं। विषय चाहे जिस विज्ञान का हो, मैं विशेषज्ञों का विशेष सम्मान करता हूँ। उनके सुझावों पर अमल भी करता हूँ।

जब से मुझे यह पता चला कि दोनों विशेषज्ञों ने संयुक्त रूप से यह बयान जारी किया है कि आदमी को कभी-कभी घास भी खा लेनी चाहिए ताकि उसके जीवन में हरियाली की कमी न आने पाये। सो, मैंने पक्का इरादा कर लिया कि अगर कोई मुझे घास डालेगा, तो मैं उसे अवश्य ही खा लूँगा। पर जैसे ही मैंने घास खाने का इरादा पक्का किया, सारे घसियारों को इसकी ख़बर हो गयी और पता नहीं किस रिपुता के चलते उनमें से किसी ने भी मुझ पर घास डाल कर कृपादृष्टि नहीं फेंकी। ... कुछ सम्मानित लेखकों के संपर्क में आने पर मेरे कान बजने लगते-'अरे! तू ब्राह्मण कुल में नहीं जन्मा है, फिर भी लिख रहा है! क्या तेरा दिमाग़ फिर गया है?'

लोग जातिवादी और स्वार्थी भले ही हो गये हों, पर अभी भी कुछ लोग दुनिया में बचे हुए हैं जिनके प्रताप से ही यह पृथ्वी रसातल में नहीं गयी है। ऐसे ही एक भले आदमी ने मुझे घास खिलवाने में मेरी सहायता की। मगर अफसोस! जब मौका मिला, तो मेरा हाजमा ही कमज़ोर साबित हुआ और मुझे 'आइडियोलोजी' और 'आनेस्टी' के दस्त आने लगे।

मित्र की सलाह पर मैं एक पापुलर साहित्यिक डॉक्टर के पास भागा। उसने कम्पलीट चेक-अप किया और रिपोर्ट निकाली। ... पता चला कि छन्दोबद्ध हिन्दी कविता में रुचि होने के कारण मेरी आंतों में सूजन आ गयी है। उनमें वर्षों से भरा शान्त और वात्सल्य रस सड़ गया है। करुणा और संवेदना के वायुगोले युगबोध से टकरा-टकरा कर जुगुप्सा उत्पन्न कर रहे हैं। ... प्राथमिक उपचार के पश्चात् मेरी चिकित्सा प्रारम्भ हुई। पहले मुझे नयी कविता के कैप्सूल खिलाये गये। फिर उत्तर-आधुनिक गद्य के इंजेक्शन भी लगाये गये, पर मुझे कोई आराम न हुआ।

अंततः मुझे एक विशेषज्ञ के पास 'रेफर' कर दिया गया। मैं जब विशेषज्ञ के पास पहुँचा, वे किसी दूसरे विषेशज्ञ से गर्मागर्म बहस में व्यस्त थे। ... दोनों के बीच भयंकर मतभेद था। ... यह तो होना ही चाहिए था-परंपरा भी यही कहती है! दो विशेषज्ञों में यदि मतैक्य स्थापित हो जाए, तो वे काहे के विशेषज्ञ? ... लेकिन दोनों के मध्य चल रही बहस से मैं चौंका! ... एक का कहना था कि नयी कविता प्रगतिशील गद्यकारों की रखैल है। 'रखैल' की अवधारणा चूंकि भारतीय वांग्मय में कहीं भी प्राप्य नहीं है, इसलिए इसकी स्वीकार्यता प्रश्नचिह्नों के घेरे में थी। राजा दशरथ हों या पांडव, सभी की अनेक पत्नियाँ थीं, रखैल कोई न थी। ... और तो और द्रौपदी तक को कभी 'रखैल' नहीं कहा गया, 'कन्या' कहा गया है। इससे सिद्ध होता है कि 'रखैल' शब्द भारतीयता के ही प्रतिकूल है। इसलिए इसे स्वीकार करना अपनी अस्मिता के साथ खिलवाड़ करना है! ... दूसरा विशेषज्ञ छंद कविता के विरोध में रिवाल्वर ताने हुए था-परम्परागत छंद कविता में करुणा और संवेदना के चित्र तो उभरते हैं, परन्तु उनकी संयुक्ति युगबोध से नहीं हो पाती है। इसलिए साहित्य के वैश्विक फलक पर न तो उसकी कोई पहचान है और न ही उसका मूल्यांकन संभव है! ...यदि हिन्दी कविता को अपना स्थान बनाना है, तो उसे छंद, लय, ताल आदि छोड़ना पड़ेगा! ...

छान्दस कविता को लेकर दोनों एक-दूसरे का गला काटने में लगे थे। चूंकि मेरी बीमारी की जड़ में छन्द-कविता ही थी, इसलिए मुझे दोनों विशेषज्ञों की लड़ाई थमने की प्रतीक्षा थी। पर उनकी लड़ाई न थमनी थी, न थमी। मैं धैर्य खोकर वापस आ गया।

मैंने इस उम्मीद के साथ नीमहकीमी शुरू की-एक दिन सूरज पश्चिम से ज़रूर निकलेगा! मैंने ब्राह्ममुर्हूत में अपनी छांदस लेखनी उठायी और अपनी प्रकृति व क्षमता से अधिक हाथ-पाँव मारने शुरू कर दिये। ... मेरे पास यद्यपि कथ्य का अकाल था, क्योंकि मैंने अध्ययन से ही वैर ठान रखा था, तथापि सारा ध्यान कतिपय नैतिक नारों, शौर्य-गाथाओं, राधाकृष्ण के प्रेम-प्रसंगों, भारत माता की आराधना, पड़ोसी देशों की भर्त्सना तथा संस्कृत साहित्य के प्रकृति-चित्रण की चोरी और हेरा-फेरी पर केन्द्रित कर दिया। मेरा क़लम महाराणा प्रताप के 'चेतक' की भांति रह-रह कर चौकड़ी भरने लगा! ... लेखकीय निरन्तरता और छुपपुट प्रकाशन से मेरी पहचान बनने लगी और मैं आसानी से अंधों में काना राजा हो गया। वृन्द के इस दोहे का ताबीज मेरे गले में था-

करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात ते, सिल पर परत निसान॥

थोड़े-ही दिनों में मैंने स्वयं को कवि के रूप में लांच किया। फिर कुछ गद्य रचनाएँ लिखीं और विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपवा लीं। तमाम पत्र-पत्रिकाओं के आजीवन सदस्य बनकर उन्हें प्रशंसा के पत्र लिखकर अपना सचित्र परिचय छपवाकर प्रचार करवाया। ... मित्रो और पहचान वाले अपने जैसे टुटपुंजिये कवियों की पुस्तकों की समीक्षाएँ लिखने और छपवाने लगा! ... फिर अपनी कविताओं की एक पुस्तक भी छपवा ली। उस पर ख़ूब चर्चा आयोजित करवायी, प्रशंसात्मक समीक्षा छपवायी! ... कोई छः महीनों बाद ही नवोदित कवियों और खटिया-कवियों की दस-दस कविताओं का संकलन छपवाया। ('खटिया कवि' उनको कहा जाता है जो खटिया पर पड़े-पड़े सुबह-शाम कविताएँ रचते रहते है, परन्तु वे न तो मंचों की ओर काव्य-पाठ की ओर लपकते हैं और न ही कहीं छपने के लिए रचना भेजते हैं।) संकलन प्रकाशित करने में जो ख़र्च आया, वह ख़ुद के हिस्से का छोड़ सभी रचनाकारों से बराबर-बराबर ले लिया। इस प्रकार, संकलन में मेरी कविताएँ मुफ्त में छपी; नाम हुआ, सो अलग! कहना न होगा, साम-दान-दण्ड-भेद के चतुष्टय से मैं शीघ्र-ही कवि से 'साहित्यकार' कहलाने लगा। ... मेरे स्वास्थ्य में अपेक्षया दो गुना सुधार द्रष्टव्य था।

पर यह क्या! अभी दो साल ही बीते थे कि मैं पुनः साहित्यिक रूप से बीमार पड़ा। फिर डाक्टर को दिखाया। पता चला कि मैं सम्मान पाने की महामारी से ग्रसित हूँ। मेरे मित्रो को जब मेरी बीमारी के बारे में पता चला, तो वे मेरा हाल-चाल जानने के लिए मेरे घर पधारने लगे और चाय-नाश्ता कर मन-ही-मन मुस्काने लगे। ...दो या अधिक मित्रो की स्थिति में वे आपस में कनखी मारकर मेरी बीमारी पर प्रसन्नता प्रदर्शित करते, लेकिन प्रत्यक्ष में मुँह लटकाये मुझे जितना ढांढस बँधाते, पर मेरी हालत सुधरने के बजाय गिरती ही चली गयी। ...

मेरी गिरती हालत को शीघ्र ही सुधारने के लिए अनेक मित्रो ने अनेक सुझाव दिये। एक ने कहा, "एक संस्था का गठन किया जाए जो हर साल देश के विभिन्न नगरों के दस-बारह लेखकों-कवियों को सम्मानित करे, उनकी पुस्तकों पर पुरस्कार दे! पुरस्कार राशि जुटाने के लिए पुस्तक प्रविष्टि पर अपेक्षित धन उगाहा जाए। ..." दूसरे साहित्यकार ने, जिसकी क़िवाम बनाने की फैक्ट्री थी, सुझाव दिया, "आप मेरे स्वर्गीय पिता, जो अच्छे साहित्यकार थे, के नाम का पुरस्कार स्थापित किया जाए और वह किसी औसत दर्जे के नामचीन रचनाकार को उसके ही ख़र्च पर बुलाकर सम्मानित किया जाए! ताकि सभी का यथेष्ट प्रचार हो सके!" यह योजना ठीक तो थी, पर इसमें ख़तरा यह था कि लोग उनके बजाय मुझे ही 'गांठ का पूरा' ही समझ बैठते-सरस्वती का वरदपुत्र कैसे समझते, जिसकी मुझे सबसे अधिक आवश्यकता थी! आख़िर एक मित्र का यह सुझाव मुझे भा गया कि किसी पड़ोसी नगर में एक वित्तपोषित सम्मान समारोह आयोजित कर मेरा तथा मेरे जैसे दो-तीन तथाकथित साहित्यकारों का सम्मान हो तथा उसका यथेष्ट प्रचार हो।

जब यह वित्तपोषित सम्मान समारोह सम्पन्न हो गया और मेरे ड्राइंग रूम में बड़े से फोटो-फ्रेम में मढ़ा सम्मान-पत्र टंग गया और प्रतीक चिह्न सज गया, तो मेरी हालत दो-तिहाई सुधार हो गया! ... मेरा मन वैसे ही खिल उठा, जैसे बालक कृष्ण का मन-जब माता यशोदा ने उन्हें पानी-भरी थाली चन्द्रमा को दिखाया था और बालक कृष्ण, 'मैया, मैं तो चन्द्र खिलौना लैहों!' की रट भूल गये थे। ... मेरे 'बायोडेटा' में अब तक एक प्रकाशित पुस्तक तथा चार अप्रकाशित पुस्तकें लिखी जाती थीं। सम्मान के बाद उसमें एक कॉलम और जुड़ गया-'फलां-फलां संस्था द्वारा फलां-फलां उपाधि से सम्मानित।' सम्मान से सज्जित बायोडेटा को मैं बार-बार पढ़ता। इससे मेरे कलेजे को ग़ज़ब की ठंडक मिलती!

लेकिन यह ठंडक भी अधिक दिनों तक नहीं टिकी रह सकी। एक दिन एक खुर्राट बुड्ढे ने मुझसे कहा-"सुरेन्द्र जी! जब तक आपको कोई सरकारी संस्थान सम्मानित नहीं करता, तब तक यह सब बेकार है। ऐसे प्राइवेट सम्मान तो 'गिव एंड टेक' के फ़ॉरमूले पर मिलते हैं-यह सभी जानते हैं। इनका कोई साहित्यिक मूल्य नहीं!" फिर उसने अपना अनुभव साझा करते हुए कहा-"हालांकि सरकारी सम्मानों का भी कोई साहित्यिक मूल्य नहीं होता, फिर भी व्यावसायिक दृष्टि से वे महत्त्वपूर्ण होते हैं।"

मैं सहमति और असहमति के मध्य अटक गया और यह अटकन बहुत जल्द-ही मुझ पर हावी हो गयी। ... अब मैं सरकारी सम्मान पाने की चिन्ता में घुल रहा था! जितना ज़ोर-जुगाड़ हो सकता था, किया, पर प्रारब्ध ने तो मुझे, 'सूझै नहीं हाथ को हाथ' वाली अमावस में ला पटका था। ...

जैसा कि मैंने पहले ही कहा कि मैं आसानी से हार मानने वाला जीव नहीं हूँ, इसलिए, 'मेरे तो गिरधर गुपाल, दूसरो न कोई' की तर्ज़ पर मैंने उस सरकारी साहित्यिक संस्थान के अध्यक्ष की चमचागीरी शुरू कर दी, जो सालाना तौर पर कई पुरस्कार बाँटता था। ... इन पुरस्कारों को पाने के लिए ख़ासे नामवर रचनाकार भी ज़ोर-जुगाड़ किया करते थे। वामपंथी रचनाकारों को भी इनसे गुरेज़ न था, जबकि संस्थान घोषित रूप से दक्षिणपंथियों का था। सभी को ज्ञात था कि पुरस्कार देने का फ़ैसला एक समिति करती है जिसमें सरकार के लोग होते हैं! यह तो सभी जानते हैं कि सरकार वामपंथियों की नहीं होती! ... इससे सरकारी पुरस्कार पाने की मेरी ललक दिन-पर-दिन बढ़ती जा रही थी।

लेखन के दम पर पुरस्कार पाना कठिन था। इसलिए मैंने वह तरीक़ा ढूँढ़ निकाला, जिसके आधार पर संस्थान ने मेरे जैसे कईयों को पुरस्कृत किया था। एक अभ्यर्थी को लखटकिया पुरस्कार उस समय दे दिया था जब उसकी एक भी पुस्तक नहीं छपी थी। मेरी कम-से-कम एक छपी तो थी! ...

संस्थान के अध्यक्ष महोदय की पत्नी तपेदिक का शिकार हो गयी थीं। लेकिन अध्यक्ष महोदय अपनी पत्नी के इलाज़ को लेकर बाक़ायदा उदासीन थे। इसका कारण शायद यह था कि उनकी पत्नी अच्छी कवयित्री थीं और वे निरे साहित्यिक टपोरिये। पत्नी को स्वास्थ्य-लाभ मिल जाने पर पति की साहित्यिक प्रतिष्ठा को अक्षुण्ण हानि की आशंका थी। यह बात मुझे छोड़ दो-चार लोग ही जानते थे कि वे अपनी पत्नी की कविताओं को अपनी कविताएँ बताकर सार्वजनिक रूप से प्रतिष्ठित कवि कहलाते थे। संस्थान के अध्यक्ष होने के नाते यों, उनकी प्रतिष्ठा कम न थी, पर कवि का दर्जा मिल जाने से उनकी प्रतिष्ठा में चार चाँद लग रहे थे।

मैंने अपनी भूमिका निर्धारित कर ली-अध्यक्ष महोदय के सामने उनकी 'हाँ' में 'हाँ' और उनकी पत्नी के सामने उनकी 'हाँ' में 'हाँ' । अपनी भूमिका के सफल निर्वहन से कुछ ही समय में मेरी पहचान, पुरस्कार देने वाली समिति के अधिकांश सदस्यों से हो गयी! मैं उनके साथ भी वैसा ही व्यवहार करना सीख गया जैसा वे चाहते थे। ... धीरे-धीरे मैं एक-दो सदस्यों के घर भी आने-जाने लगा था। ... नगर के अन्य साहित्यकार मेरे इस 'प्रमोशन' से ईर्ष्यालु हो चले थे-इससे मुझे अतिरिक्त सन्तोष प्राप्त हो रहा था।

मैंने अपनी भूमिका बख़ूबी निभायी, लेकिन जब वार्षिक पुरस्कारों की घोषणा हुई, तो मेरा नाम नदारद था। मुझे बड़ी कोफ़्त हुई! ... सारी चमचागीरी बेकार चली गयी, बदनामी हुई, सो घाते में!

यह जानते हुए कि मायूसी से कुछ हासिल होने वाला नहीं, मैं मायूस था। अपनी मायूसी को उपेक्षा की खूँटी पर टाँग मैं एक साहित्यिक मठाधीश के घर जाकर सांत्वना का मठ्ठा पीना चाहता था। ... मैं घर से निकलने वाला ही था कि संस्थान के अध्यक्ष का फ़ोन आया। ... उन्होंने मुझे तर्कमिश्रित आश्वासन दिया कि मैंने अब तक जो लिखा था, उस पर पुरस्कार दिया जाना संभव न था। फिर फ़ोन पर ही आशा की किरनें बिखेरते हुए कहा कि वे शीघ्र-ही बतलायेंगे कि मुझे क्या लिखना है?

मेरे हतोत्साह में कमी आयी। अब मैं अपने जैसे एक असफल अभ्यर्थी के घर जाकर साहित्यिक चोंचे लड़ाने लगा। ... इतने में उनके यहाँ खण्ड-खण्ड विखण्डनवाद के मारे एक वरिष्ठ समीक्षक का प्रधान चमचा आ धमका! बातों-ही-बातों में वह मेरी गर्दन पर ऐसे सवार हुआ, जैसे कभी विक्रमादित्य पर वैताल सवार हुआ करता था। ... मैं छटपटाकर रह गया। क्रोध तो बहुत आया था, पर मैंने संयम से काम लिया। मैं क्रोध का अन्त विवशता के आंसुओं से नहीं करना चाहता था। ... थोड़ी देर में जब वह मेरी बातचीत से संतुष्ट हुआ, तो उसे सिगरेट की तलब लगी। उसने ईमानदारी से अपनी सारी ज़ेबें टलोलीं, पर वे सब-की-सब कटु यथार्थ की भांति खाली थीं। ... वह छटपटाने की मुद्रा में आ गया। मैंने उसे 'फर्स्ट एड' की सिगरेट दी। आभार का धुंआ मेरे मुँह पर छोड़ते हुए जब उसने मेरी औक़ात बताने की कोशिश की, मैं ज़रूरी काम बताकर वहाँ से खिसका।

सात-आठ महीने बीते। अध्यक्ष महोदय के निर्देशानुसार मैंने लिखना शुरू दिया था। ... जल्द-ही नयी पुस्तक तैयार हो गयी! एक स्थानीय प्रकाशक से फटाफट छपवाकर उसे संस्थान में जमा कर दी।

अख़बार में आज पुरस्कृत साहित्यकारों के नाम छपे हैं। लिस्ट में मेरा भी नाम है। दो-तीन मित्रो के फ़ोन आये। मुझे पता है कि ख़बर तो सभी लोगों के दिल में घर कर गयी है, पर वे सामने पड़ने पर ही बधाई देंगे! अभी तो मन-ही-मन कुढ़ रहे होंगे!

पत्नी मारे ख़ुशी के कुप्पा हो रही थीं। उनके कहने पर जब मैं मिठाई लेने घर से निकला, तो मेरे पाँव ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे।