सम्मेलन के बाद आए बदलाव / नीलाभ

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पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - २१


अधूरी लड़ाइयों के पार- १४


दोस्तो,

"ज्ञानरंजन के बहाने" का यह दूसरा सिलसिला नीचे दी गयी क़िस्त के साथ ही खत्म हो रहा है, लेकिन अभी इस दास्तान में बहुत कुछ बाक़ी है। वह भी लिखा जा चुका है और मैं आज-कल उसी को तरतीब देने की कोशिश में हूं। जल्द ही यह आखिरी हिस्सा भी सामने आयेगा जिसमें 1970 के बाद की कहानी बयान होगी और जिसमें ज्ञानरंजन के ज़रिये ऐसे अनेक दोस्तों से मेरे परिचय और दोस्ती की खट्टी-मीठी यादें दर्ज की जायेंगी, या ज़्यादा सही होगा यह कहना कि दर्ज तो वे हो चुकी हैं, पर आपके सामने आयेंगी। साथ ही पहले से चली आ रही मित्रताओं और उस ज़माने की साहित्यिक हलचलों का क़िस्सा।

इस दूसरे दौर को ख़त्म करते-न-करते एक ऐसा आघात लगा जिसके बारे में मैंने सोचा भी न था। दो दिन पहले मेरे मित्र अजय सिंह का फ़ोन आया कि हमारे पुराने दोस्त अनिल सिन्हा जिनका ज़िक्र पटना-प्रसंग में मैंने किया है, अचानक लखनऊ से पटना जाते समय दिमाग़ की नस फट जाने की वजह से पहले गहरी बेहोशी में गये, फिर गुज़र गये। बीमार तो वह पहले से ही चला आ रहा था --मधुमेह, उच्च रक्त-चाप और कुछ समय पहले फ़ालिज का दौरा जिस से वह बच कर निकल आया था। अपने स्वाभाविक जीवट से उसने इन सभी परेशानियों का मुक़ाबला किया था, लेकिन आख़िरकार शरीर जवाब दे गया होगा।

अनिल से 1970 में पहली बार मुलाक़ात हुई थी -- युवा लेखक सम्मेलन के अवसर पर। यह परिचय जल्द ही दोस्ती में बदल गया था और अब तक क़ायम रहा। अभी कुछ दिन पहले दिल्ली में अनिल से भेंट हुई थी। उसके जाने का यक़ीन अभी तक नहीं होता। अनिल एक ख़ामोश तबियत, लेकिन दृढ़ संकल्प वाला इन्सान था, हमारी असहमतियों, सनकों, उच्छृंखलताओं, खलताओं को तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त किये बिना मुस्करा के बर्दाश्त करने वाला। ऐसे मित्र बिरले ही मिलते हैं । मेरा दिल बेहद उदास है। मेरे जीवन में दोस्तों की बहुत बड़ी भूमिका रही है। अपने प्रिय फ़्रांसीसी कवि गिलाम अपौलिनेयर की तरह मैं भी मानता हूं कि दोस्ती वह नदी है जो हमें -- नदी-तट की ज़मीन को, जिसकी उर्वरता की कामना सभी करते हैं -- समृद्ध करती है। मैंने कई बार कहा है कि मां-बाप, भाई-बहन और दूसरे नाते-रिश्तेदार तो हमें जन्म से मिलते हैं, सिर्फ़ दोस्त बनाने में हम अपने चुनाव से काम ले सकते हैं या अगर परिस्थितियां अनुकूल हों तो जीवन-साथी भी। इसलिए दोस्ती को बहुत संभाल कर रखना चाहिए। निराला जी का एक प्रिय वाक्य था -- नो गुड कम्स व्हेन फ़्रेण्ड्स फ़ौल आउट, no good comes when friends fall out -- मेरा इस में पूरा यक़ीन है।

दुखी, भरे हुए दिल से मैं अपने दिवंगत साथी को अपनी एक कविता समर्पित करते हुए उसे याद कर रहा हूँ --

मित्रताएँ

मनुष्यों की तरह मित्रताओं का भी आयुष्य होता है

यही एक रिश्ता है बनाते हैं जिसे हम जीवन में शेष तो जन्म से हमें प्राप्त होते हैं

भूल जाते हैं लोग सगे-सम्बन्धियों को मित्रों के नाम याद रहे आये हैं

मित्रताओं का भी आयुष्य होता है मनुष्यों की तरह

कुछ मित्रताएँ जीवित रहीं मृत्यु के बाद भी आक्षितिज फैले कछार की तरह थीं वे मिट्टी और पानी का सनातन संवाद

कुछ मित्रताएँ नश्वर थीं वनस्पतियों की तरह दिवंगत हुईं वे जीवित बचे रहे मित्र ____________________________________

कहना न होगा कि वह सारा परिवर्तन जो १९७० के बाद घटित हुआ, कुछ जादू की तरह आनन-फानन नहीं, बल्कि धीरे-धीरे घटित हुआ। इस पूरे दौर में ज्ञानरंजन भी अपनी पुरानी बोहीमियन फक्कड़ई के बावजूद ख़तरों के प्रति ज़्यादा संजीदा हो कर उभरा। उसने ’घण्टा’ में जिस अराजक दौर का चित्रण किया था, उससे आगे बढ़ कर उसने ’बर्हिगमन’ में वक़्त से कहीं पहले उन तब्दीलियों के संकेत दिये जो 1970 के दशक के अन्त में दिखायी देने लगी थीं। 1972 में छपी उसकी कहानी ’अनुभव’ कहने को फ़्लौप गयी और उसके बाद ज्ञान ने कोई कहानी लिखी भी नहीं, लेकिन आज ’अनुभव’ को पढ़ते हुए एक बार फिर ज्ञान की बारीकबीनी की तारीफ़ करनी पड़ती है जो उसके तीनों साथियों -- दूधनाथ, काशीनाथ और रवीन्द्र कालिया -- में बिरले ही नज़र आती है। इससे भी ज़्यादा ज़रूरी काम जो इस नये दौर में ज्ञान ने किया -- वह था बीटनिक आन्दोलन से किनारा करके मार्क्सवाद और ’प्रगतिशील लेखक संघ’ से जुड़ना और ’पहल’ जैसी पत्रिका प्रकाशित करना, जिसने पिछले लगभग तीस वर्षों से व्यर्थ के वैचारिक मतभेदों को नज़रअन्दाज़ करके सार्थक लेखन को सामने लाने का काम किया है।

ज़ाहिर है, बड़ी ख़ामोशी से अंजाम दिया गया ज्ञानरंजन का यह काम भी उसके साथियों और अग्रजों को कहीं-न-कहीं कचोटता रहा है, वरना ’आलोचना’ के यशस्वी सम्पादक, डॉ. नामवर सिंह को ’पहल’ और ज्ञान पर चोट करने की ज़रूरत क्यों आन पड़ती। ’तद्भव’ के दसवें अंक में नामवर के छोटे भाई काशीनाथ सिंह का एक लम्बा संस्मरण अपने अग्रज के बारे में छपा है - ’घर का जोगी जोगड़ा।’ उसके एक अंश में काशीनाथ ने लगे हाथ कई लोगों से हिसाब चुकता करने की जुगुत बैठायी है। दूधनाथ पर नामवर जी के हवाले से एक चोट करने के बाद काशी ने ज्ञान को भी ठिकाने लगाने का बहाना खोज ही लिया। लिखते हैं और वह भी किसी भी प्रसंग के बिना -- ’एक दोपहर ज्ञानरंजन का सर्कुलर आया -- आजमगढ़ में होने वाले ’लघु पत्रिका आन्दोलन’ के दूसरे अधिवेशन के बारे में। वे (नामवर जी) खाना खा रहे थे, बोले -- ’संगठन, आन्दोलन वग़ैरह तो ठीक, लेकिन डेढ़ कहानियों के कहानीकार ज्ञानरंजन मिलें तो उनसे पाँच प्रश्न करूँगा और कहूँगा कि उनके उत्तर ख़ुद को दो, मुझे या किसी और को नहीं। ’एक - पहल में प्रकाशित तीन कहानियों के नाम बताओ जिनके लिए पहल को याद किया जाय। ’दो - तीन कहानीकारों के नाम जिन्हें सामने लाने का श्रेय पहल को हो। ’तीन - किसी ऐसी पुस्तक की रिव्यू जिसे अनुल्लेखनीय समझा गया हो और पहल ने उसे उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण रेखांकित किया हो। ’चार - दरिदा, एजाज़, लुकाच का अनुवाद नहीं, कोई ऐसा मौलिक वैचारिक लेख छापा हो जिसने पाठकों को उत्तेजित किया हो। ’पाँच - कोई ऐसा सम्पादकीय जिसके लिए पहल याद की जाय’।’

इस बात के बावजूद कि यह संस्मरण इस मानी में अनूठा है कि इसमें काशी ने अपने बड़े भाई की तारीफ़-ही-तारीफ़ की है, या शायद यह लिखा भी इसी उद्देश्य से गया है कि हाल के वर्षों में नामवर जी से अनेक लोगों को जो मोहभंग हुआ है, उसकी लीपा-पोती की जाये, वरना किसी व्यक्ति में एक साथ इतने सारे गुणों का होना, उसे देवता से भी ऊपर की गद्दी पर बिठाने के काबिल है। इस संस्मरण की विशेषता यह भी है कि इसमें नामवर जी का गुणगान करने के साथ-साथ अनेक साथियों और विरोधियों के साथ हिसाब भी रफ़ा-दफ़ा करने की कोशिश साफ़ नज़र आती है।

कौन नहीं जानता कि जो चार-पाँच साठोत्तरी कथाकार उभरे थे, उनमें काशीनाथ सिंह टेलीविज़न की भाषा में कहें तो ’सबसे कमज़ोर कड़ी’ थे। ज्ञानरंजन और दूधनाथ सर्वाधिक चर्चित थे और उनके बाद काशीनाथ सिंह का नहीं, बल्कि रवीन्द्र कालिया का ही नाम लिया जाता था, जब तक कि ज्ञान ने कहानियाँ लिखना बन्द नहीं कर दिया और कालिया अपनी पुरानी रविश बदल कर चालू कहानियाँ नहीं लिखने लगा। इसीलिए शायद नामवर जी के मुँह से ’पहल’ को दो लात लगवाने के साथ-साथ काशी ने इस बात का इन्तज़ाम कर लिया था कि ज्ञानरंजन को ’डेढ़ कहानियों के कहानीकार’ कह कर उसे उसकी औकात बता दी जाये। यह बात दीगर है कि ’घण्टा’ और ’बर्हिगमन’ में ज्ञानरंजन जहाँ पहुँच गया था, वहाँ पहुँचने के लिए अपने भाई की सनदें काशी के काम नहीं आयेंगी, उसके लिए एक कठिन आत्म-संघर्ष दरकार है, क्योंकि कला एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ ताल-तिकड़म से बहुत देर काम नहीं सधता। पूरे ’काशी का अस्सी’ में केवल एक प्रसंग याद रह जाता है -- जिसमें एक पण्डित विदेशी महिला को किरायेदार रखने के लिए अपने ठाकुरद्वारे को तोड़वा कर शौचालय बनवा देता है। बाकी सब कुछ और चाहे जो हो, अस्सी की असलियत नहीं है और न उससे अस्सी जैसी अनोखी जगह को ले कर कोई अन्तर्दृष्टि ही प्राप्त होती है।

रही बात ’पहल’ की, तो यह ऐन सम्भव है कि किसी पत्रिका को देखने का जो निकष नामवर जी ने तय किया हो, वह निकष ही उस पत्रिका के सन्दर्भ में नाकाफ़ी हो या अनुपयुक्त। यह जगह नामवर जी की उस टिप्पणी का उत्तर देने की नहीं है। यह तो चूँकि प्रसंग उठा, इसलिए चन्द बातें दर्ज कर दी गयी हैं। जानने वाले, अगर अंग्रेज़ी मुहावरे का सहारा लिया जाय तो, पंक्तियों के बीच पढ़ना बख़ूबी जानते हैं और इस बात का कयास लगा सकते हैं कि ऊपर का प्रसंग ’घर का जोगी जोगड़ा’ में किस उद्देश्य से शामिल किया गया और नामवर जी के तमाम फ़तवों के बावजूद गत 30-35 वर्षों के दौरान ’पहल’ का क्या योगदान रहा है, और इसमें, बकौल डॉ. नामवर सिंह, ’डेढ़ कहानियों वाले कहानीकार’ ज्ञानरंजन की क्या भूमिका रही है।

लेकिन 1970 के दशक में डॉ. नामवर सिंह को ख़ुद ’आलोचना’ की सूरत और सीरत में भारी तबदीलियाँ करनी पड़ी थीं। कारण यह कि 1970 के बाद की नयी चेतना अभिव्यक्ति के नये रास्ते खोज रही थी और उसके कदम के साथ कदम न मिलाना किसी भी पत्रिका को ग़ैर ज़रूरी बना देता। इस समय तक राज्याश्रय ही नहीं, सेठाश्रय के ख़िलाफ़ भी एक आन्दोलन शुरू हो चुका था और छोटी पत्रिकाओं की एक बाढ़-सी उमड़ी आ रही थी। 60 के दशक में देश के भीतर और बाहर जो उथल-पुथल और हलचल मची रही थी, और जिसने एक अराजकता भी पैदा की थी, वह अब जैसे थम कर आगे बढ़ने की दिशा खोज रही थी। 1970 का युवा लेखक सम्मेलन एक तरह से उस अराजकतावादी युग की पूर्णाहुति था। उसके बाद एक नया दौर ही शुरू हो सकता था। नयी सुबह की तरह। नयी चुनौतियों, ख़तरों, आशाओं, आकांक्षाओं, सपनों और सच्चाइयों के साथ। जो हुआ। और अब भी जारी है।


ज्ञानरंजन के बहाने - २२


मित्रता की सदानीरा - १


हमारी दोस्ती वह नदी थी जिसने हमें समृद्ध किया -- अपौलिनेयर


प्रिय नीलाभ, तुम्हारी चिट्ठी बहुत अच्छे मूड में मिली थी। वह दिन बहुत अच्छा था और उस दिन इलाहाबाद की बहुत याद आयी थी। फिर भी तुम्हें शीघ्र पत्र नहीं लिख पाया। मार्च अन्त तक आने की उम्मीद है। यहाँ से जाने वाले मौसम की शुरूआत हो गयी है। तुमने इन दिनों क्या किया है? मैं तो वह कहानी अधूरी ही छोड़े पड़ा हूं, जो कहानी-संग्रह के अन्त में जानी थी। वह अब कुछ दूसरे तरीके से लिखे जाने की प्रतीक्षा में है और मेरे आलस्य पर चिढ़ रही है। नवल का पत्र आया था। मैंने उसे मुँह-तोड़ उत्तर भेज दिया है। मुझे उम्मीद है उसने तुम्हें भी अवश्य लिखा होगा। सईद अभी वहीं है या दिल्ली चला गया? अपने हाल-चाल नये समाचार वग़ैरह लिखना। घर में सबको यथायोग्य, छोटे साहब कैसे हैं? प्रतीक्षा होगी तुम्हारा ज्ञानरंजन 12/2/1971

ज्ञान का पत्र। स्वाभाविक आत्मीयता और गर्मजोशी से भरा हुआ, जिसे मैंने इस गर्मजोशी की स्मृति के साथ पिछले चालीस बरस से सँजो कर रखा हुआ है। उसके दूसरे ख़तों की तरह। अभी उसने चिट्ठी लिखने के लिए टाइपराइटर का इस्तेमाल करना शुरू नहीं किया था और उसके पत्रों में, तब तक, वे चाहे संक्षिप्त ही क्यों न हों, यह आत्मीयता रची-बसी रहती थी, जैसी हिना के इत्र की महक, जो नहाने के बाद भी बदन में रची-बची रहती है। ज्ञान की एक बुरी आदत यह थी कि वह पत्रों पर क़ायदे से दिन-तारीख़ नहीं डालता था। कभी सन ग़ायब रहता, कभी तारीख़ पड़ी ही न होती। इस पत्र में पूरी-पूरी तारीख़ लिखी हुई थी और यह तो फिर बाद में सीधे टाइपराइटर पर लिखे गये पत्रों मंे हुआ कि सन-तारीख़ बाकायदगी से लिखी मिलने लगी, हालाँकि तब भी कभी-कभी वह तारीख़ गोल कर जाता था।

ज्ञानरंजन के साथ मेरी मैत्री का तीसरा दौर 1970 के युवा लेखक सम्मेलन में हिस्सा ले कर पटना से लौटने के बाद इसी पत्र से शुरू हुआ। लेकिन यह दौर अब तक के दो चरणों की तुलना में कितना अधिक ऊबड़-खाबड़ और विकट साबित होने वाला था, और एक अवधि ऐसी भी आने वाली थी, जिसमें हमारी ख़तो-किताबत से आत्मीयता लुप्त हो कर सिर्फ एक कारोबारीपन रह जाने वाला था, इसका आभास भी इस पत्र से नहीं मिलता था, जो ज्ञान ने पटना से जबलपुर लौटने के बाद मुझे लिखा था।

यह ठीक है कि ज्ञान की यह सहज स्वाभाविक गर्मजोशी और आत्मीयता आगे चल कर कुछ अनचाही परिस्थितियों से उपजी कड़वाहट के पीछे या फिर जि़न्दगी के दवाबों की वजह से ओझल हो जाती रही, लेकिन यह भी ज्ञान ही की खूबी है कि उन कड़वाहटों में भी एक मिठास बराबर सतह पर उतराती रही, वैसे ही जैसे कई बार मीठे पानी की धारा में खारे जल की धारा के आ मिलने पर उसका मीठापन कुछ देर को दब जाता है, लेकिन थोड़ी ही देर बाद फिर उभर आता है। मैं आगे चल कर भले ही कटु-तिक्त हुआ, लेकिन ज्ञान ने कभी नाराजगी या कड़वाहट जाहिर नहीं की। यही वजह है कि आगे के दिनों में जो चोट मुझे ज्ञान से, उसके चाहे-अनचाहे, जाने-अनजाने लगी और हमारे सम्बन्धों में कटुता घोल गयी, उसे दूर करने का श्रेय मैं ज्ञान ही को देता हूं। मैं शायद इतनी आसानी से ऐसा न कर पाता।

यहाँ थोड़ा रूक कर विषयान्तर करते हुए मैं कुछ ऐसी बातें कहना चाहता हूं, जिन्हें नाटक और रंगमंच की जबान में ‘असाइड’ (aside) कहते हैं। यानी स्वगत-कथन। मंच पर चल रहे कार्य-व्यापार के दौरान कुछ ऐसे सम्वाद जो अमूमन दर्शकों की खातिर होते हैं और ऐसी जानकारी उन्हें देते हैं, जो मंच पर चल रहे प्रसंग से जुड़ी होती है या फिर उस पात्र-विशेष की निजी प्रतिक्रिया अथवा मनोभाव दर्शकों तक पहुंचाते हैं। संस्कृत नाटकों में इस युक्ति को भिन्न रूप से ‘नेपथ्य से’ भी कहा गया है। बहरहाल।

जब इस संस्मरण-नुमा आलेख की पहली किस्त 2007 में ‘पक्षधर’ में छपी तो कई लोगों ने इस पर एतराज जाहिर किये। मुझे याद पड़ता है विभूति नारायण राय को उस आलेख का लहजा, उसका टोन, पसन्द नहीं आया था और ऐसा उन्होंने बेबाकी से मुझे कह भी दिया था। उनसे तो विस्तार से बात नहीं हुई, लेकिन जब ‘तद्भव’ के सम्पादक, कहानीकार अखिलेश लखनऊ से इलाहाबाद आये तो उनसे लम्बी बात हुई। उनकी आपत्ति यह थी कि इस संस्मरण में मैंने अपना पक्ष ही सामने रखा है और आपसी सम्बन्धों को एकांगी नजरिये से देखा-परखा बयान किया है; कि मैंने दूसरों के दोष तो गिनाये हैं, खुद को बचा गया हूं; कि कुछ प्रसंगों में ऐसा लगता है कि मैं बदला चुका रहा हूं। मुझे उनकी बात कुछ अजीब-सी लगी, गोया संस्मरणों का कोई ‘पराया पक्ष’ भी हो सकता है या फिर संस्मरण लिखते समय एक छद्म न्यायप्रियता से भर कर हम झूठे ही ‘मो सम कौन कुटिल खल कामी’ का रेशा भी उसमें बुनते चलें। अखिलेश ने दो बातें और कहीं। पहली यह कि जो मैंने लिखा है उसकी तसदीक कैसे होगी? क्या प्रमाण है कि वह वैसे ही घटा? दूसरी यह कि मैंने कई लोगों का मजाक उड़ाया है।

अखिलेश की बातों पर मैंने इस बीच कई बार सोचा है, दिल को टटोला है, यह जांचने की कोशिश की है कि ज्ञान के साथ अपनी लम्बी मैत्री के अलग-अलग पहलुओं को अंकित करते हुए क्या मैंने उसके या किसी और के प्रति किसी प्रच्छन्न मन्तव्य से, छिपे हुए या छिपाये गये विद्वेष से वह सब लिखा है। मैंने यह भी परखने की कोशिश की कि ज्ञान के बारे में लिखते हुए मैंने दूसरे कुछ लोगों के बारे में जो टिप्पणियाँ की हैं - मसलन रवीन्द्र कलिया या सतीश जमाली - वे कुछ ज़्यादा कड़ी तो नहीं हो गयीं। या अगर फारसी से शब्द लेकर कहा जाय तो उस संस्मरण में बुग़्ज़ तो नहीं है?

ऐसा ही कुछ दूसरी किस्त के साथ भी हुआ। सबसे पहले तो ‘पक्षधर’ के सम्पादक विनोद तिवारी ने उसे प्रकाशित करने से इनकार कर दिया, जबकि उनसे तय हुआ था कि वे इसकी सारी किस्तें छापेंगे और मैंने उन्हें बता भी दिया था कि मैं इसमें क्या कुछ लिखने जा रहा हूं। लेकिन हिन्दी जगत, जैसा कि पहले भी था और अब और भी हो गया है, वैसे संस्मरणों को आसानी से पचा नहीं पाता है जैसे मिसाल के लिए प्रसाद जी पर विनोद शंकर व्यास के या मंटो पर उपेन्द्रनाथ अश्क के या फिर अनेक काशीवासियों के बारे में मेरे मित्र कुमार पंकज के या फिर बहुत-से जाने-माने लोगों पर कान्ति कुमार जैन के। उर्दू में ऐसा कभी नहीं रहा। वहाँ लेखकों ने एक-दूसरे पर यहाँ तक कि अपने घरवालों के बारे में भी बहुत खुले मन से लिखा है। हिन्दी में एक किस्म का पाखण्ड हमेशा मौजूद रहा है। अप्रिय सत्यों को ढांकने और व्यक्ति के चरित्र को लौंड्री में भेजकर धुलवा-पुंछवा के पेश करने का रूझान। साथ ही हिन्दी में एक खास किस्म का विद्वेष भी मौजूद है। अकसर ऐसे लोगों के बारे में झूठी बातें लिख दी जाती है, उन्हें कलंकित करते हुए, जो या तो उनका जवाब देने को मौजूद नहीं होते या फिर इस लायक नहीं होते।

ऊपर से पिछले तीसेक वर्षों से ‘प्रयोजनमूलक हिन्दी’ का युग चल रहा है। किससे किसको प्रयोजन है या हो सकता है यह भी सम्बन्धों के नख-शिख तय करता है। ज़ाहिर है, समर्थ और शक्ति-सम्पन्न व्यक्तियों के बायें जाना कई बार मुसीबतें खड़ी कर सकता है, खास तौर पर नये साहित्यकारों के लिए (चाहे वे कितने ही क्रान्तिकारी होने का दमन भरते हों) या फिर उस युवा सम्पादक के लिए जो हिन्दी विभाग की नौकरी भी करना चाहता हो। सो, ‘पक्षधर’ के सम्पादक विनोद तिवारी ने एक अजीब छायावादी इनकार-भरा पत्र भेज कर हाथ खड़े कर दिये।

तब मेरे एक और मित्र-सम्पादक प्रकाश त्रिपाठी ने, जो अध्यापन को सम्पादन से अलग रखते हुए ‘वचन’ नाम से पत्रिका निकालते थे, इसे बिना कुछ काटे-छांटे अपनी पत्रिका में प्रकाशित किया।

इस बार इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में अध्यापन कर रहे मित्र सूर्यनारायण ने मुखर आपत्ति की। उन्हें भी संस्मरण का लहजा पसन्द नहीं आया था। उन्होंने कहा कि लोग कहते हैं मैंने उसमें मनगढ़न्त बातें लिख दी हैं; कि जिस तरह के अराजक दृश्यों को मैंने अंकित किया, वे नहीं किये जाने चाहिएं थे; कि किसी ने वीरेन डंगवाल के हवाले से कहा कि उन्हें तो धूमिल और रामधनी वाला प्रसंग याद नहीं है। आदि, आदि।

अब, वीरेन डंगवाल की स्मृति का तो मैंने ठेका ले नहीं रखा है। यूं भी कई बार हम (और इस ‘हम’ में मैं भी शामिल हूं) ‘सिलेक्टिव मेमोरी’ - चयनधर्मा स्मृति - के अधीन चीजों को बुनते हैं। यही नहीं, बल्कि उसी प्रसंग की स्मृति दो व्यक्तियों में दो तरह की हो सकती है। या फिर यह भी ऐन सम्भव है कि उनमें से कोई एक या दोनों ही उसे यकसर भुला भी बैठे, जैसे मेरे मित्र अजय सिंह को लखनऊ में कवि राजेश शर्मा के घर पर हुए जमावड़े की कोई याद नहीं है, जिसका जि़क्र मैं आगे करूंगा।

दूसरी बात यह है कि आखिर दूसरों की उंगलियाँ भी तो फिगार नहीं है, वे भी तो बाकलम हैं। वे ‘अपना पक्ष’ रख दें या जवाबी हलफ़नामा दाखिल कर दें। कोई अदालत तो लगी नहीं है कि फैसला करना हो कि मामला क्या था। अभी कुछ समय पहले पुष्पपाल सिंह ने ‘तद्भव 21’ में अश्क जी की और मेरी पटियाला यात्रा के बारे में लिखते हुए एक संस्मरणात्मक टिप्पणी छपायी है, जिस पर मेरे मित्र चमन लाल ने, जो उन दिनों जब हम वहाँ गये थे पटियाला में पढ़ा रहे थे, बड़ी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। खुद रवीन्द्र कालिया ने ‘स्मृतियों की जन्मपत्री’ और दूधनाथ सिंह ने ‘लौट आ ओ धार’ के अपने संस्मरणों में अपनी स्मृतियों को अपने हिसाब से दर्ज किया है। दूधनाथ तो इस बात को ले कर बहुत नाराज भी हो गया था, जब मैंने ‘लौट आ ओ धार’ के बारे में चुटकी लेते हुए कहा था कि इस पुस्तक के आरम्भ में वह चेतावनी छपी होनी चाहिए थी जो पहले कई उपन्यासों पर छपा करती थी-‘इस पुस्तक के सभी पात्र और प्रसंग काल्पनिक हैं और किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति से उनका साम्य एक संयोग ही माना जाय।’

सो, मित्रो, कोई मेरे संस्मरणों के बारे में भी ऐसी ही टिप्पणी कर सकता है। पाठक के नाते उसे रचना पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने का पूरा अधिकार है।


ज्ञानरंजन के बहाने - २३


मित्रता की सदानीरा - २


बहरहाल, वापस ज्ञानरंजन की तरफ आयें तो जहां तक मुझे याद पड़ता है, ज्ञान के साथ पिछले कुछेक झटकों के बाद एक सिलसिला बैठ गया था, लेकिन जैसा कि मैंने कहा, यह नया दौर पिछले दौर की तुलना में और अधिक ऊबड़-खाबड़ साबित होने वाला था और इसके कुछ बाहरी कारण भी थे। ‘आधार’ का सम्पादन करने के बाद ज्ञानरंजन के अपने लिखने-लिखाने की रफ्तार कुछ-कुछ मन्द पड़ चली थी। बहुत ज़्यादा तो वह पहले भी नहीं लिखता था, लेकिन उसमें एक नियमित गति थी। 1970 के बाद इस गति में कुछ धीमापन आ गया। जिस रूकी हुई कहानी का जिक्र ऊपर के अपने पत्र में ज्ञान ने किया था, वह गालिबन ‘अनुभव’ थी, जो 1972 में जाकर छपी और जिसके बाद ज्ञान ने फिर कोई कहानी नहीं लिखी। हो सकता है यह कहानी ‘बहिर्गमन’ हो जो अशोक वाजपेयी द्वारा सम्पादित ‘पहचान’ श्रृंखला में छपी थी। चूंकि ‘पहचान’ की किसी भी संख्या की किसी भी पुस्तिका पर सम्पादक-प्रकाशक-मुद्रक ने प्रकाशन वर्ष अंकित करने की जिम्मेदारी नहीं निभायी है, इसलिए पक्के तौर पर कुछ कहना सम्भव नहीं। हां, इतना भर निश्चित है कि ‘घण्टा’ का प्रकाशन ‘कथा’ में 1968 में हुआ था और उसके बाद ज्ञान ने दो ही कहानियाँ लिखीं। ‘अनुभव’ के बाद हालांकि ज्ञान ने अपने प्रस्तावित उपन्यास के दो अंश भी छपाये, लेकिन वह उपन्यास भी पूरा नहीं हो पाया। बाद में, जब उसने ‘पहल’ का सम्पादन प्रकाशन शुरू किया तो वह उसमें इतना रम गया कि लिखना उससे छूटता चला गया।

हमने -- मैंने और दूधनाथ ने -- कई बार इस पर माथापच्ची की है कि आख़िर ज्ञान ने लिखना क्यों बन्द कर दिया। इस सवाल पर सोचते हुए मुझे कई कारण सुझायी देते हैं और यह मेरा नितान्त निजी आकलन है। ज्ञान का लेखन नेहरू युग में शुरू हो कर उससे मोहभंग के युग में परवान चढ़ा था। इस मोहभंग का पहला संकेत ‘नयी कहानियाँ’ में प्रकाशित पिछली पीढ़ी के कथाकार अमरकान्त की कहानी ‘हत्यारे’ से मिलना शुरू हुआ था। नेहरू युग से मोहभंग ने हिन्दी साहित्य में कुछ दिलचस्प प्रवृत्तियाँ पैदा की थीं। ‘भटका मेघ’ जैसी कविता लिखने वाली श्रीकान्त वर्मा अनास्था और आक्रोश की मूठहीन तलवार भांजने लगे थे। चूंकि जनवादी आंदोलन और वामपन्थी धारा का ज्वार तब तक दीर्घकालीन भाटा बन गया था, चुनांचे ‘नयी कविता’ की अस्थिर आत्म-केन्द्रित मनोभूमि को ध्वस्त करते हुए ‘अकविता’ जैसा आक्रोश-भरा, लेकिन पूरी तरह दिशाहीन, अराजक और विचार-शून्य काव्यान्दोलन उभरा, जिसने कुछ पुराने वामपन्थियों को भी लपेटे में ले लिया।

इसी दौर में अगर दूधनाथ सिंह, ज्ञानरंजन, काशीनाथ सिंह और रवीन्द्र कालिया की कहानियों पर नज़र डालें तो उनमें एक निहिलिज़्म, एक नकारवाद साफ-साफ दिखायी देता है। रवीन्द्र कालिया और काशीनाथ सिंह ने तो यह नकारवाद ओढ़ा हुआ था, जैसा कि रवि की कहानी ‘5055’ में या फिर काशीनाथ सिंह की ‘अपने लोग’ में नज़र आता है; लेकिन दूधनाथ और ज्ञान, दोनों ही -- एक चालू फिकरे का इस्तेमाल करूं तो -- आस्था के साथ अनास्थावादी थे। इनमें भी दूधनाथ का नकारवाद उसकी अपनी प्रकृति की देन था और ‘सारिका’ में छपी कहानी ‘बिस्तर’, से ले कर ‘सुखान्त’ और ‘धर्मक्षेत्रो कुरूक्षेत्रे’ से होते हुए ‘नमो अन्धकारम’ और ‘निष्कासन’ तक चला आया है। फ़र्क़ बस इतना है कि पहले यह नकारवाद आत्म-हनन और अवसाद से रंजित था, धीरे-धीरे वह दूसरों के द्वेषपूर्ण हनन और आत्म-विभोरता और आत्म-गौरवीकरण की ओर चला गया है।

ज्ञान में चूंकि सामाजिक सरोकार की अन्तर्धारा शुरू ही से मौजूद थी, इसलिए उसका नकारवाद सच्चे सामाजिक विक्षोभ की उपज था और ‘बीटनिक’ आन्दोलन भी उसे प्रभावित करने के बाद इस राह से डिगा नहीं सका। ‘अमरूद का पेड़’, ‘शेष होते हुए’ और ‘फेन्स के इधर और उधर’ हो या ‘घण्टा’ और ‘बहिर्गमन’ ज्ञान की नज़र और कलम मध्यवर्ग के पाखण्ड को उघाड़ने से नहीं चूकती रही। अजीब बात है कि 1972 में छपी कहानी ‘अनुभव’ को जब हाल ही में दोबारा मैंने पढ़ा तो मुझे हैरत के साथ यह एहसास हुआ कि अपने समय की यह फ़्लाप कहानी समय से बहुत आगे की हकीकतें बयान करती है।

मुझे यह भी लगा कि काश, ज्ञान ने ‘अनुभव’ की अनगढ़ता को थोड़ा और बरदाश्त किया होता। अपने अर्जित सांचे को नयी सामग्री के अनुरूप तोड़ कर फिर से ढालने में वक्त लगता ही है। लेकिन ज्ञान तो तीखे जुमलों और नश्तर जैसी काट का कायल था। उसका कथ्य भले ही मध्यवर्ग का माहौल रहा हो, पर उस मध्यवर्ग की परतों को उघाड़ने में उसकी भाषा-शैली, उसका अन्दाज़े-बयाँ बिलकुल उसका अपना था। और जब कोई भाषा-शैली की शमशीर पर सान चढ़ाता चला जायेगा तो एक दिन हाथ में मूठ ही बचेगी। शायद ज्ञान में वह धैर्य, वह सलाहियत नहीं थी कि अपने ही बनाये अप्रतिम सांचे को तोड़ कर नया सांचा गढ़े, जैसा कि निराला ने किया, सर्वेश्वर और रघुवीर सहाय ने किया। उसकी कला पहले एक क़िला बनी, फिर एक क़ैद। एक कारण और भी था। निहिलिज़्म के पहले दौर में ज्ञान ने सारी मध्यवर्गीय संस्थाओं पर कटाक्ष किये थे। घर उसके लिए आश्रम था, विवाह हास्य-रस से लबरेज़, पिता अपनी ताक़त से आदर-भरी खीझ उपजाने वाली दीवार जिससे टकराना ज़रूरी था, बच्चे और बच्चों के प्रति लोगों का लाड़-प्यार, मज़ाक़ का मौज़ूं। लेकिन इस दौर के बाद ज्ञान ने जब ख़ुद विवाह किया, बाप बना और घर बसाया तो इन सब चीज़ों का मखौल उड़ाना या उन पर कटाक्ष करना सम्भव न रहा।

(जो लोग ज्ञान को अच्छी तरह जानते हैं, वे इस बात से वाक़िफ़ हैं कि ज्ञान में प्यार लौटाने की अकूत क्षमता है। जिन दिनों वह अपनी मारक कहानियाँ लिख रहा था, उन दिनों भी अपने बड़े भाई श्रीरंजन के बच्चों से उसका बहुत स्नेह-भरा सम्बन्ध था, श्रीरंजन के बड़े बेटे को वह अक्सर ‘पप्पू गुण्डा आलू चाप’ के नारे से सम्बोधित करता था। यह तो मध्यवर्गीय दोहरापन था, जो ज्ञान को व्यंग्य की तरफ ले जाता था। लेकिन यह भी ध्यान देने की बात है कि दूधनाथ का निहिलिज़्म उसे जिस तरह ‘सुखान्त’ की गलदश्रु भावुकता और आत्म-गौरवीकरण की तरफ़ ले गया ज्ञान ने वह रास्ता अख़्तियार करने की बनिस्बत कुछ समय के लिए लिखना मुल्तवी करने का फैसला किया होगा और फिर यह वक़्फ़ा एक अल्लंघ्य खाई बन गया होगा।)

इन सबके अलावा सबसे बड़ा परिवर्तन 1967-68 के नक्सलबाड़ी किसान आन्दोलन ने घटित किया। उसने वामपन्थ की समझौतावादी धारा को चुनौती भी दी और वामपन्थ को मंच के बीचों-बीच ला भी खड़ा किया। देखते-ही-देखते सारे नकारवादी ख़ास तौर पर ‘अकविता’ और ‘नयी कविता’ के हवाबाज़ हवा हो गये और वे रचनाकार जिन्हें इस बीच ‘आत्मा का अनुसन्धान’ करने वालों ने हाशिये पर धकेल दिया था, मगर जो बराबर लिख रहे थे -- नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, मुक्तिबोध, त्रिलोचन, शमशेर -- सब एक बार फिर साहित्य की हिरावल पांत से आ मिले, सबका पुनर्वास हुआ। 1970 के युवा लेखक सम्मेलन में चाहे जितनी अराजकता हुई हो, मगर उसका सबसे बड़ा योगदान समूचे हिन्दी साहित्य की बहस को जनवाद की तरफ उन्मुख करने का भी था।


ज्ञानरंजन के बहाने - २४


मित्रता की सदानीरा - ३


ज़ाहिर है, इन बदली हुई स्थितियों ने ज्ञान के सामने जरूर उलझनें खड़ी की होंगी। इसलिए भी कि वह दूधनाथ, रवीन्द्र कालिया और काशीनाथ की तुलना में उस निहिलिस्ट सामाजिक सरोकार से कहीं अधिक गहराई में जुड़ा हुआ था। वह कोई कुर्ता नहीं था जिसे वह एकबारगी उतार फेंकता और दूसरा पहन लेता। इसीलिए दूधनाथ 1970 के बाद कुछ कहानियाँ लिख कर एक लम्बी ख़ामोशी में चला गया और धीरे-धीरे ख़ुद को सायास बदल कर मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी और जनवादी लेखक संघ में सक्रिय हुआ। इस दौरान दूधनाथ ने लगातार अपनी पहले की कविताओं में फेर-बदल करके उन्हें एक जनवादी रूप देने की भी कोशिश की। यह बुरा न होता अगर यह किसी गहरे आन्तरिक परिवर्तन के अंकुआने के सबब हुआ होता। लेकिन जब लम्बी ख़ामोशी के बाद दूधनाथ बाहर आया तो ‘धर्मक्षेत्रे कुरूक्षेत्रे’ और ‘नमो अन्धकारम’ जैसी कहानियों से उसने यही साबित किया कि सारी मार्क्सवादी उछल-कूछ के बाद वह ‘रीछ’ और ‘सुखान्त’ वाला वही खांटी दूधनाथ हे। और पहले की कविताओं में की गयी फेरबदल के पीछे तात्कालिकता का ही तक़ाज़ा था। रवीन्द्र कालिया कांग्रेस के नज़दीक होता चला गया और ‘काला रजिस्टर’ से पहले की-सी सतही जुमलेबाजी से भरी कहानियाँ लिखने लगा। काशीनाथ सिंह ने ‘अपने लोग’ के बाद हालांकि ‘सुधीर घोषाल’ लिखी, पर नक्सलवाद की लपट उसकी बरदाश्त के बाहर थी, सो वह प्रगतिशील लेखक संघ की तरफ झुका और ऊपरी सामाजिक सरोकार से भरी गुडी-गुडी कहानियाँ लिखने लगा।

यह जगह इन कहानीकारों का -- जो खुद को साढ़े चार यार कहते-कहाते थे -- या उनकी कहानियों का विशद विश्लेषण करने की नहीं है, तो भी इस सबका जिक्र सरसरी तौर पर मैंने इसलिए किया, क्योंकि इसी सन्दर्भ में ज्ञान की रचनाशीलता, उसकी आगामी रचनात्मक गतिविधियों और हमारे आपसी रिश्तों को देखा जा सकता है।

ज्ञान से दोस्ती के तीसरे दौर की सूरत और सीरत तय करने में दूसरा बाहरी कारण वह तब्दीली थी जो धीरे-धीरे प्रकाशन की दुनिया में घटित हो रही थी और आज अपनी बहार पर नज़र आती है।

1968 में मेरी मां के मौसेरे भाई जीतेन्द्र कुमार मल्होत्रा उर्फ जीत जिन्हें मेरी देखा-देखी सभी जीत मामा कहते थे, ‘राधाकृष्ण प्रकाशन’ की नौकरी छोड़ कर इलाहाबाद लौट आये और उन्होंने ‘रचना प्रकाशन’ के नाम से पुस्तकें प्रकाशित करना शुरू कर दिया।

जीत मामा बरसों हिन्दी प्रकाशन जगत की अनोखी और चमत्कारी शख़्सियत, श्री ओंप्रकाश की छत्र-छाया में काम कर चुके थे -- पहले ‘राजकमल प्रकाशन’ में और फिर जब ओंप्रकाश जी ने ‘राजकमल’ से ताल्लुक तोड़ कर ‘राधाकृष्ण प्रकाशन’ खोला तो वहाँ जीत मामा ने बरसों एजेंटी की थी और वे किताबें बेचने की कला में माहिर थे। लेकिन यही वह दौर था जब हिन्दी प्रकाशन व्यवसाय के पुराने युग का अवसान हो रहा था और एक नया दौर शुरू हो रहा था, जो आगे चल कर इस व्यवसाय को जाने कैसी अंधेरी, कीचड़-भरी गलियों में ले जा कर फंसा देनेवाला था। जीत मामा इस दौर के हिरावल दस्ते के अगुआ थे कहा जाये कि पायोनियरों में थे।

उन्होंने ओंप्रकाश जी के साथ काम करते हुए किताबें बेचने का हुनर जो ज़रूर सीखा था, पर अच्छी-बुरी किताबों में फर्क करने को परखने और उनकी तमीज़ नहीं हासिल की थीं। उनके लिए किताबें सिर्फ ‘माल’ थीं। वे पैसे ले कर शोध-प्रबंध छापते थे और फिर हर तरह के ताल-तिकड़म से उन्हें बेचते थे। यह वही दौर था जब बड़े और प्रतिष्ठित प्रकाशकों के विक्रय-प्रतिनिधि नौकरियां छोड़ कर अपने निजी प्रकाशन खोलने लगे थे। वैसे ही जैसे कुछ बरस बाद सांसदों और विधायकों के बाहुबली खुद सांसद और विधायक बनने लगे। राजनीति के अपराधीकरण की तर्ज पर प्रकाशन व्यवसाय के भी अपराधीकरण की शुरूआत हो रही थी। देखते-ही-देखते ‘रचना प्रकाशन’ चल निकला।

छत्तीसगढ़ उन दिनों मध्य प्रदेश ही का हिस्सा था और मध्य प्रदेश -- राजकमल प्रकाशन के दिनों ही से -- जीत मामा की कर्मभूमि। सो, वहाँ उनकी खासी पैठ हो गयी। हिन्दी फिल्म की लम्बी पटकथा के उप-कथानकों की तरह जीत मामा की कथा के भी दो पहलू थे। पहला यह कि उन्हें अपनी किताबों को छपाने के लिए प्रेस की ज़रूरत थी और चूंकि ‘हिन्दी भवन’ वाले नारंग जी के साथ (जिनके प्रेस को खरीद कर कालिया ने ‘इलाहाबाद प्रेस’ शुरू किया था) कालिया के सम्बन्धों में खटास आ गयी थी, कालिया को भी ऐसे तेज़-तर्रार प्रकाशक की तलाश थी, जो किताबें छपवाये और उसके कर्ज को पटाने में उसकी सहायता करे।

दूसरा पहलू यह था कि राजनीति से जुड़े सभी अपराधियों के मन में सामाजिक-स्वीकृति के लिए एक ललक स्वाभाविक रूप से मौजूद रहती है। यही हाल एजेंट से प्रकाशक बने लोगों का था। पैसे ले कर शोध-प्रबंध छापने और उन्हें ‘तेल तमा जिसको मिले तुरत नरम हो जाये’ की सूक्ति पर अमल करके बेचने से इन प्रकाशकों को धन भले ही मिल जाता था, लेकिन प्रतिष्ठा तो स्तरीय पुस्तकों की मुहताज थी। सो जीत मामा को एक अदद साहित्यिक सलाहकार की भी जरूरत थी, जो स्तरीय पुस्तकें प्रकाशित करने में उनकी रहनुमाई और मदद करे। वे ‘राजकमल प्रकाशन’ से ओंप्रकाश जी को अपदस्थ करने वाली अज्ञात प्रकाशिका श्रीमती शीला संधू को नामवर जी से मदद लेते देख आये थे और जानते थे कि साहित्यिक सलाहकार कितना मददगार साबित हो सकता है। लिहाजा जीत मामा और रवीन्द्र कालिया की पट गयी। मुद्रक के साथ जीत मामा को एक मुफ्त का साहित्यिक सलाहकार मिल गया और रवीन्द्र कालिया को ऐसा प्रकाशक, जो उसकी किताबें तो छापे ही, उसके मित्र-परिचितों की भी किताबें प्रकाशित करके एक साहित्यिक साम्राज्य जमाने में उसकी सहायता करे।

वैसे भी, जीत मामा और कालिया में एक बात समान थी। दोनों ही अनस्क्रूपलस थे, अपने उद्देश्य को हासिल करने में किसी भी किस्म की नैतिकता से परहेज करने वाले। जीत मामा को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था कि किताब कैसी है, बस पन्ने काले होने चाहिएं, इसी तरह कालिया भी हर तरह की अच्छी-बुरी किताब ‘रचना प्रकाशन’ के लिए जुटाने में किसी तरह के परहेज से काम नहीं लेता था। अपनी और ममता की किताबों के अलावा अपने मित्रों -- ज्ञान, दूधनाथ, काशीनाथ, महेन्द्र भल्ला, सुदर्शन चोपड़ा और गोविन्द मिश्र -- की किताबें तो उसने जीत मामा के लिए जुटायीं ही, साथ ही उसने दिलीप कुमार के दर्जी मदन गौड़ और पंजाबी के दूसरे दर्जे के उपन्यासकार मोटर पार्ट विक्रेता हरनाम दास सहराई के उपन्यास भी प्रकाशित करने के लिए जीत मामा को जुटा दिये। जहां तक मुझे याद है, मदन गौड़ ने अपने उपन्यास को प्रकाशित कराने के लिए पैसे दिये थे तो सहराई ने अनुवाद के लिए। अनुवाद कालिया ने किया। इन्हीं के साथ कापीराइट रहित उर्दू उपन्यासों का भी जुगाड़ किया गया, जिन्हें अनुवाद के लिए कालिया ने सतीश जमाली को पकड़ा।

इस तरह ‘आधार’ के एक अंक का सम्पादन ज्ञान से कराने से जो सिलसिला शुरू हुआ था, वह ‘रचना प्रकाशन’ से ज्ञान के कहानी-संग्रह को छपाने और मज़बूत हो गया। मोहन राकेश और फिर धर्मवीर भारती की शागिर्दीं से कालिया ने और कुछ सीखा हो या न सीखा हो, गुटबाजी और गिरोहबन्दी के गुर और छल-छन्द के तौर-तरीके ज़रूर सीख लिये थे, जिन्हें उसने इलाहाबाद में आजमाना शुरू कर दिया। ‘इलाहाबाद प्रेस’ उन दिनों एक अड्डा बन गया था, जहां रवीन्द्र कालिया अपना दरबार लगाता था और साहित्यिक मैकियावेली बना, शतरंज की बिसात पर मोहरे बैठाता था।


ज्ञानरंजन के बहाने - २५


मित्रता की सदानीरा - ४


धीरे-धीरे हुआ यह कि इलाहाबाद आने पर ज्ञान का ज़्यादातर समय ‘इलाहाबाद प्रेस’ में गुज़रने लगा। चूंकि उस समय तक रवि ने राजनीति को साहित्य पर तरजीह नहीं दी थी और अमेठी के संजय सिंह से उसकी कथित ‘दोस्ती’ नहीं हुई थी जो अन्ततः उसे संजय गांधी के दरबार में ले गयी, इसलिए उसके यहाँ अभी छुटभैये नेताओं, कांग्रेसी चमचों, बदनाम इंजीनियरों और लुटेरे डाक्टरों की बजाय (जिन्हें आगे चल कर उसके दरबार के "रत्नों" में शामिल होने का शर्फ हासिल होने वाला था) साहित्यकार ही ज़्यादा उठते-बैठते थे। जाहिर है, मैं भी अक्सर वहाँ जाता था, इसलिए जब तक मैंने कालिया के यहाँ जाना बन्द नहीं किया, तब तक मुझे आभास ही नहीं हुआ कि ज्ञान अब इलाहाबाद आने पर काफी हाउस या मुरारी स्वीट होम या ऐसे ही दूसरे अड्डों पर नहीं पाया जाता। उसकी पुरानी फक्कड़, गैर-साहित्यिक मित्र-मण्डली भी पीछे छूट गयी थी।

लेकिन जल्द ही रवि के यहाँ भी ज्ञान से मिलना-जुलना बन्द हो गया। अपनी तमामतर समझदारी और चतुराई के बावजूद रवि यह नहीं जानता था कि कला की राहें कठिन भले ही हों, पर उसकी लज़्ज़तें बेमिसाल हैं। कला अपने चारों तरफ के समाज से रिश्ता कायम करने, उसके सुख-दुख और संघर्ष में हिस्सेदारी करने और खुद अपने अन्दरूनी संसर से ताल-मेल बैठाने का काम है, बाहरी संघर्ष के साथ-साथ आत्म-संघर्ष उसकी ज़रूरी शर्त है। उसकी मंजि़लें साजि़श करने और जुगाड़बाज़ी से नहीं हासिल की जा सकतीं। इसीलिए रवि लगातार इसको उठाने, उसको गिराने के गुन्ताड़े भिड़ाया करता था।

नयी कहानी का आन्दोलन धीरे-धीरे मन्द पड़ गया था, उससे जुड़े कहानीकार अभी मैदान में थे, लेकिन मोहन राकेश नाटकों की ओर मुड़ गये थे, राजेन्द्र यादव ने अपने लघु उपन्यास ‘मन्त्रबिद्ध’ की विफलता के बाद लिखना लगभग न के बराबर कर दिया था। मार्कण्डेय भी ‘हंसा वाई अकेला’ और ‘गुलरा के बाबा’ से शुरू करके ‘माही’ और ‘सूर्या’ तक आ कर दिशा-भ्रमित थे। रहे अमरकान्त, तो वे पहले भी आहिस्ता-आहिस्ता ही चलते थे। सिर्फ कमलेश्वर थे, जिन्होंने कहानी का दामन थाम रखा था। लेकिन नयी कहानी की जमात के बाद पूरी-की-पूरी एक-डेढ़ पीढ़ी मैदान में आ चुकी थी। साठोत्तरी कहानीकारों ने नये कथ्य और अन्दाज़े-बयां के बल पर पहले के कहानीकारों के सामने जबरदस्त चुनौतियां खड़ी कर दी थीं।

लिहाजा, कमलेश्वर ने ‘समान्तर सिनेमा’ की तर्ज पर ‘समान्तर कहानी’ के आन्दोलन का झण्डा बुलन्द कर दिया। हालांकि यह योजना रमेश उपाध्याय, इब्राहीम शरीफ, मधुकर सिंह और विश्वेश्वर जैसे कहानीकारों ने बनायी थी और ऐन मुमकिन है कि अगर कमलेश्वर ने उन्हें साठोत्तरी कथाकारों के मुकाबिल न ला खड़ा किया होता तो एक साझा मंच बन सकता था, वैसा ही जैसा रमेश बक्षी और उनके साथियों ने साठोत्तरी कहानीकारों के साथ बना लिया था। लेकिन कमलेश्वर ने खलीफा बन कर दोनों अखाड़ों के लड़वा दिया। जगह-जगह समान्तर कहानी सम्मेलन होने लगे, घोषणापत्र और बयान जारी किये जाने लगे।

इस सारे माहौल में ज्ञान और दूधनाथ तो अपनी कला के बल पर डटे हुए थे और काशीनाथ सिंह को अपने भाई डा. नामवर सिंह का आसरा था। चारों में कालिया ही ‘सबसे कमजोर कड़ी’ था। चुनांचे वह अपने प्रेस में बैठा दूसरों का सफाया करने या उन्हें लीक से भटकाने की चालें सोचा करता। जिसे नापसन्द करता, उसे किसी-न-किसी ढंग से अपमानित करने-कराने की कोशिश करता, और कई बार उसे ऐसी हरकतें अपनी छत के नीचे करने-कराने में भी संकोच न होता। ज्ञान और काशीनाथ जैसे दोस्त रोज तो इलाहाबाद आते न थे, इसलिए वे रवि की फाइरिंग लाइन में आने से बचे रहते। लेकिन हम लोग जो इलाहाबाद ही में रहते थे और कालिया के चेले-चपाटों और मुसाहिबों में शामिल नहीं थे, कालिया के स्वभाव के इस पहलू से बड़ी अस्वस्ति का अनुभव करते। धीरे-धीरे मेरा कालिया के यहाँ जाना कम-से-कमतर होता गया और मेरा खयाल है, कालिया को भी छुटकारे का एहसास हुआ होगा। तभी दो घटनाएं ऐसी हुईं कि मुझे कालिया के यहाँ जाना बिलकुल बन्द करना पड़ा।

दोनों घटनाओं के बीच फासला ज़्यादा नहीं था। ग़ालिबन, 1972 के शरद की बात है, गाजियाबाद से कहानीकार से. रा. यात्री इलाहाबाद आये। वे आम तौर पर गर्मियों में कुछ दिनों के लिए आते थे और हमारे ही यहाँ ठहरते थे। मस्त-मौला, फक्कड़ आदमी थे। साल भर पहले ‘रचना प्रकाशन’ से उनके कहानी-संग्रह ‘दूसरे चेहरे’ के प्रकाशन की बात थी, लेकिन चूंकि वे कमलेश्वर के काफी करीब थे, इसलिए कालिया ने उनके संग्रह के प्रकाशन में बीस रोड़े अटका दिये थे। यात्री जी का संग्रह ‘रचना प्रकाशन’ से प्रकाशित हो, इसके लिए अश्कजी ने जीत मामा से कहा था और चूंकि वे कालिया, दूधनाथ, काशी, ज्ञान, महेन्द्र भल्ला के संग्रह छाप चुके थे, इसलिए राजी हो गये थे। कालिया इस मामले में सीधे तो दबाव डाल नहीं सकता था, उसने भीतरघात से काम लिया। अन्त में, जब जीत मामा ने भी हाथ खड़े कर दिये तो पापाजी ने उनसे वह संग्रह ले कर मुझे दे दिया कि उसे प्रकाशित कर दिया जाय। चूंकि यात्री जी का अकेला संग्रह प्रकाशित करने में कोई मज़ा नहीं था, इसलिए मैंने एक सीरीज की योजना बनायी और अपने मित्रों -- रमेश बक्षी, सुदर्शन चोपड़ा, अचला शर्मा और मणिका मोहिनी -- के संग्रहों के साथ उसे बड़े सुरूचिपूर्ण ढंग से प्रकाशित किया। रवि इस बात पर भी मुझसे खुन्दक खाये बैठा था और यात्री जी से भी। लेकिन यात्री जी की सेहत पर कालिया के खुन्दक खाये होने का कोई असर नहीं पड़ा था। हम लोग भले ही कालिया की इस चोर-चाल पर नाखुश थे, लेकिन यात्री जी इलाहाबाद आते तो कालिया के यहाँ ज़रूर जाते।

इस बार भी जब वे आये तो ढैया छू आने पर आमादा थे। उन दिनों यात्री जी का चेला सुदर्शन महाजन इलाहाबाद ही में था, शायद यूनियन या युनाइटेड बैंक में। एक दिन यात्री जी उसे और सतीश जमाली को लिये-दिये सिविल लाइन्ज़ में मेरे दफ्तर में आ पहुंचे और आते ही बोले, ‘चलो उठो, कालिया के यहाँ चलते हैं, वहां केसर कस्तूरी पीते हैं। वह राजस्थान से लाया है और इस दारू की बहुत बड़ाइयां कर रहा था।’

मुझे कतई अन्दाज़ा नहीं था कि यह जानकारी यात्री जी को किससे मिली। हो सकता है सतीश ने ही अपनी आदत के मुताबिक नमक-मिर्च लगा कर इसका जिक्र किया हो। बहरहाल, मैंने यात्री जी को लाख समझाने की कोशिश की कि इन कोयलों की दलाली में मुँह काला होने के सिवा और कुछ हाथ न आयेगा, लेकिन यात्री जी नहीं माने। सो, हम चारों -- यात्री जी, सतीश जमाली, सुदर्शन महाजन और मैं रानी मण्डी में कालिया के प्रेस पहुंचे।

कालिया वहीं था। चूकि वह प्रेस के ऊपर ही रहता था, सो जाते ही यात्री जी ने बड़ी बेतकल्लुफी से केसर कस्तूरी पिलाने की अपनी फरमाइश दुहरायी। अब कालिया ने इस फरमाइश को टालने के लिए क्या कुछ कहा, यह इतने साल बाद मुझे याद नहीं, पर अन्त में कालिया अन्दर गया और उसने ला कर केसर कस्तूरी की एक छोटी-सी बोतल...नहीं, उसे बोतल कहना बोतल का अपमान होगा.... शीशी मेज़ पर रख दी -- वैसी ही जैसी हवाई जहाजों में स्मरण-चिन्ह के रूप में यात्रियों को दी जाती है, घर ले जाकर रखने के लिए और जिसमें एक या दो पेग द्रव्य आता है। कहने की बात नहीं कि तबियत बड़ी झन्त हुई।

ख़ैर, हम लोग बड़े बेआबरू हो कर कालिया के कूचे से निकले, बाहर आ कर दारू खरीदी और घर को चले। तब मैंने यात्री जी से कहा कि मैंने तो पहले ही उन्हें चेता दिया था और अब कालिया के यहाँ जाने का धरम नहीं बनता। अरे, साली केसर कस्तूरी नहीं थी या वह उसके मंहगी होने के सबब से पिलाना नहीं चाहता था तो आम व्हिस्की या रम ही पिला देता। उन दिनों कालिया के बारे में प्रसिद्ध था कि उसके घर पर किसी छोटे-मोटे बूटलेगर से ज़्यादा दारू हरदम मौजूद रहती है। इसकी तसदीक खुद कालिया ने अपनी किताब ‘गालिब छुटी शराब’ में की है। इसलिए मामला तो यात्री जी और हम सबको हमारी औक़ात बताने का था ।


ज्ञानरंजन के बहाने - २६


मित्रता की सदानीरा - ५


दूसरी घटना इसके कुछ समय बाद की है। एक रोज कालिया ने अश्क जी को शाम के वक्त ‘इलाहाबाद प्रेस’ बुलाया। इरादा था वहाँ कुछ पियेंगे-पिलायेंगे और फिर खाना भी वहीं खायेंगे। या शायद खाने की बात नहीं थी, सिर्फ शाम के ‘रस-रंजन’ ही का मामला था। जो भी हो, कालिया ने इसरार करके मुझे भी आने को कहा। हम लोग जब ‘इलाहाबाद प्रेस’ पहुंचे तो देखा कि वहाँ सतीश जमाली भी मौजूद था। चूंकि अश्क जी से इंटरव्यू लेने के सिलसिले में सतीश के साथ उनकी खासी बदमजगी हो चुकी थी, इसलिए हम लोग उसे लेकर कुछ ज़्यादा ही सतर्क रहते थे। पहले पता होता कि कालिया ने सतीश को भी बुला रखा है तो शायद मैं तो टाल ही गया होता, पर अब सीढि़यां चढ़कर ‘इलाहाबाद प्रेस’ के ऊपर रवि की बैठक में पहुंचकर नाहक कोई सीन क्रिएट करने में लज़्ज़त नहीं थी। सो, हम लोग बैठ गये और पीने का दौर शुरू हुआ। थोड़ी देर बाद सतीश अपनी स्वाभाविक दुष्टता पर उतर आया और बिना किसी प्रसंग के, उलटी-सीधी बातें करने लगा। जाहिर था कि वह कालिया के घर बैठे होने का फायदा उठा रहा था, काॅफी हाउस में या और किसी जगह वह कतई ऐसी जुर्रत न करता। कुछ देर तक अश्क जी उसे तरह देते रहे, लेकिन वह तो और शेर होता चला गया।

मेरा अन्दाजा था कि मेजबान होने के नाते कालिया या सतीश को उसकी बेअदबी के लिए बरजेगा, क्योंकि यही तहजीब का तकाजा होता है कि मेजबान अपनी छत के नीचे किसी दोस्त का अपमान न होने दे। कुछ साल पहले एक बार जब गिरिराज किशोर इलाहाबाद में ‘होटल टेप्सो’ के पीछे रहते थे तो उनके यहाँ दूधनाथ और शैलेश मटियानी के बीच खासी तू-तू, मैं-मैं हो गयी थी। बातों को ऐसा रुख लेते देख गिरिराज किशोर ने दूधनाथ और शैलेशजी को यह कहकर घर के बाहर निकाल दिया था कि आप लोगों को लड़ना-झगड़ना है तो बाहर झगडि़ए।

लेकिन कालिया अव्वल तो इन बारीकियों और नफासतों का शनासाई नहीं; दूसरे वह जिन्हें पसन्द नहीं करता, उन्हें इसी तरह अपमानित करने की कोशिश करता है। यूं तो मैं भी अपने पिता के झगड़ों मंे आमतौर पर नहीं पड़ा करता था, क्योंकि वे खुद अपना ख़याल रखने और ईंट का जवाब पत्थर से देने के काबिल थे। लेकिन यहाँ तो मामला ही अलग था। कालिया खुद सतीश की पुश्त पनाही कर रहा था। तब मैंने उठकर सतीश से कहा कि अब अगर उसने एक भी शब्द और कहा तो मैं जूते से उसकी पिटाई करूंगा।

मामले को हाथ से बाहर जाते देख कालिया ने फौरन पैंतरा बदला और सुलह-सफाई पर उतर आया। मगर तब तक मुँह का जायका इतना खराब हो चुका था कि वहाँ ठहरना असम्भव था। चलते-चलते मैंने कालिया से कहा, ‘रवि, न तो तुम अच्छे दोस्त से, न मेजबान और दुश्मन भी शिखण्डीमारका हो। सभी कायरां की तरह अपनी लड़ाइयां खुद न लड़ कर दूसरों की मदद लेते हो और तुममें इतनी भी शराफत नहीं है कि कम-से-कम अपनी छत के नीचे तो ऐसी हिमाकतें न करो। आज के बाद मैं तुम्हारे यहाँ नहीं आऊंगा।’

इस घटना के बाद मेरे पिता तो गुस्सा ठण्डा होने के बाद कालिया के यहाँ जाते रहे, पर मैं उसके घर चौदह-पन्द्रह साल नहीं गया, जब तक कि वह रानी मण्डी से उठकर महदौरी काॅलोनी के अपने मकान में नहीं चला आया और तब भी बहुत बिरले ही।

बगरहाल, चूंकि कालिया के यहाँ जाना बिलकुल बन्द हो गया तो ज्ञानरंजन के साथ मुलाकातें भी बहुत कम हो गईं। चिट्ठी-पत्री भी बहुत नियमित नहीं रही। पहले जब कभी वह जबलपुर से इलाहाबाद आता था तो फोन करके या आकर पता देता था और फिर ‘बम्बई से आया’ मेरा दोस्त, दोस्त को सलाम करो’ की तर्ज पर खाने-पीने और घूमने-घुमाने का सिलसिला शुरू हो जाता। मगर अब कई बार वह इलाहाबाद आता तो उसके जाने के बाद खबर मिलती कि वह आया था। मैंने दिल को समझा लिया था कि कुछ भी हो, ज्ञान दोस्त है और रहेगा, जब उसकी तबियत गवाही देगी, हम मिल लेंगे। फिजूल के गिले-शिकवे में कोई दम नहीं। मैं गालिब का शेर दोहराता: निकाला चाहता है काम तानों से तू ऐ गालिब तेरे बेमेहर कहने से वो तुझ पर मेहरबां क्यों हो और दिल को तसल्ली दे लेता।

इस बीच वीरेन डंगवाल बरेली कालेज में लेक्चरर नियुक्त होकर इलाहाबाद से विदा हो चुका था। रहा रमेन्द्र तो उसने हाॅस्टल छोड़कर गड़ेरिया का पुरवा में किराये का एक मकान ले लिया था और प्रशासनिक सेवाओं की परीक्षाओं में बैठने की तैयारी शुरू कर दी थी। इतनी दूर रोज या अक्सर जाना तो सम्भव न था। अलबत्ता, जब कभी तबियत बहुत उचट जाती तो मैं मोटर साइकिल उधर को मोड़ देता। प्रभाव था जिससे अक्सर भेंट होती, काॅफी हाउस में ‘परिमल’ के पुराने महारथी शाम को इकट्ठा होते, शनिवार को भैरव प्रसाद गुप्त की अध्यक्षता में मार्कण्डेय, शेखर जोशी, अमरकान्त और सतीश जमाली अपनी धूमी रमाते। लेकिन फिज़ा से कोई चीज़ मानो नामालूम ढंग से गायब हो गयी थी, ढेर सारे तारों वाले वाद्य में कोमल स्वर वाला कोई तार आहिस्ता से खामोश हो गया था।

दो-तीन बरस ऐसे ही बीत गये।

फिर ज्ञान ने ‘पहल’ का सम्पादन और प्रकाशन शुरू किया। जबलपुर में परसाई जी की प्रेरणा से वह प्रगतिशील लेखक संघ और मार्क्सवाद की तरफ आहिस्ता-आहिस्ता उन्मुख हो रहा था। नक्सलबाड़ी के आन्दोलन और 1970 के युवा लेखक सम्मेलन ने भी इसमें अपने ढंग से भूमिका निभायी थी। फिर यह बात भी थी कि हालांकि यह कहीं घोषित रूप से तय नहीं था कि ज्ञान ‘आधार’ के सिर्फ एक अंक ही का सम्पादन करेगा और हम सबका खयाल था कि यह सिलसिला आगे भी जारी रहेगा, लेकिन वह सिर्फ एकल-प्रयास ही बनकर रह गया। यूं भी ‘आधार’ रामावतार चेतन की पत्रिका थी और यह बात कि ज्ञान उसका सम्पादन करे, रवीन्द्र कालिया ने तय की थी, चेतन जी की तरफ से कोई प्रस्ताव नहीं आया था। इसलिए भी अगर ज्ञान ने अपनी खुद की पत्रिका निकालने का फैसला किया हो तो यह मुनासिब ही था।

पहल के शुरूआती तीन अंक ज्ञान ने किसी तरह खुद छपवाये थे या शायद उसने ‘परिमल प्रकाशन’ के शिवकुमार सहाय की मदद ली थी, लेकिन चौथे अंक से उसके कहने पर ‘पहल’ की छपाई की व्यवस्था मैं करने लगा और जब तक 1980 में मैं बी.बी.सी. की प्रोड्यूसरी पर लन्दन नहीं चला गया, ‘पहल’ के अंक मैं ही छपवाता रहा। लेकिन यह भी दिलचस्प है कि ‘पहल’ का काम हाथ में लेने के बावजूद न तो वह पहले जैसी आवारागर्दी सम्भव हो पायी, न बैठकी। अलबत्ता, चिट्ठी-पत्री थोड़ी और नियमित हो गयी, और कारोबारी। कभी-कभार ज्ञान इलाहाबाद आता और उससे भेंट होती तो ज़्यादा बातें काम-काजी होतीं। वह पीना-पिलाना, तीन-पत्ती की फंडें, काॅफी हाउस और मुरारी स्वीट होम की बैठकियां और धींगा मस्ती, वह एक-दूसरे की रचनाएं सुनना-सुनाना-सब मानो पिछले जन्म की कोई भूली हुई स्मृति बन गया था। इसके अलावा, मैं उन दिनों एक और मानसिक उलझन में गिरफ्तार था।