सम्राट की नई पोशाक / हैंज़ क्रिश्चियन एंडरसन / द्विजेन्द्र द्विज

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अनुवाद: द्विजेन्द्र द्विज


वर्षों पहले एक सम्राट था, जिसे नए परिधानों की ऐसी ललक थी कि वह नये परिधानों को प्राप्त करने के लिए अपना सारा धन व्यय कर देता था; उसकी एक मात्र अभिलाषा सदा भव्य-वस्त्रों में सजे रहना ही थी। उसे अपने सैनिकों की चिन्ता नहीं थी, और नाट्यशाला भी उसका मन बहलाने में असमर्थ थी, वास्तव में, उसकी एक मात्र ललक थी बाहर जाना और अपने वस्त्रों के नए जोड़े का प्रदर्शन करना| उसके पास दिन के प्रत्येक घण्टे के बाद बदलने के लिए एक नया कोट था; और जहाँ एक सम्राट के लिए यह कहा जाना चाहिये, “वे मंत्री-मंडल में हैं। ” वहीं उसके बारे में कहा जा सकता था, “सम्राट अपने श्रृंगार-कक्ष में हैं।”

वह महानगर जिसमें उसका आवास था, बहुत भड़कीला था; जहाँ भूमण्डल के सभी भागों से प्रतिदिन नए विदेशी आते थे। एक दिन इस नगर में दो झाँसिये(ठग) आये; उन्होंने नगरवासियों को आश्वस्त कर लिया कि वे बुनकर हैं, और बताया कि वे कल्पनातीत मनोहर वस्त्र बुन सकते हैं। उनके रंग और नमूने, उन्होंने कहा, न केवल अपवाद-स्वरूप सुन्दर होते हैं अपितु उनके बुने कपड़े से बने हुए वस्त्र, अपने पद के लिए अयोग्य अथवा अक्षम्य रूप से अल्प-बुद्धि व्यक्ति को दिखाई ही न देने के अद्भुत गुण से भी सम्पन्न हैं।

“वह कपड़ा तो अद्भुत होना चाहिए,” सम्राट ने सोचा, “अगर मैं इस कपड़े से बने वस्त्र पहन लूँ तो मुझे अपने साम्राज्य में पदों के लिए अयोग्य व्यक्तियों का पता चलेगा ही साथ ही मैं चतुर तथा अल्प-बुद्धि लोगों में अन्तर भी कर पाऊँगा। मुझे तो यह कपड़ा अविलम्ब बुनवा लेना चाहिए।" और उसने एक भारी भरकम अग्रिम धनराशि भी उन झाँसियों को सौंप दी तकि वे अविलम्ब अपना काम आरम्भ कर सकें। उन झाँसियों ने दो करघे लगा लिए और कठोर परिश्रम करने का अभिनय करते रहे, परन्तु करघों पर उन्होंने कुछ भी नहीं बुना। सम्राट से उन्होंने बहुत-सा स्वर्ण-वस्त्र माँगा; जो मिला हड़प लिया, और खाली करघों पर रात गये देर तक व्यस्त रहने का नाटक करते।

“ मैं यह जानना चाहूँगा कि उनका कपड़ा बुनने का काम कैसा चल रहा है,” सम्राट ने सोचा| परन्तु वह असहज हो उठा जब उसे याद आया कि पद के लिए अयोग्य व्यक्ति तो इस वस्त्र को देख ही नहीं सकता। व्यक्तिगत रूप से उसका मत था कि उसे किसी भी प्रकार का कोई डर नहीं है, फिर भी उसे यही उपयुक्त लगा कि वस्तुस्थिति को देखने के लिए उसे पहले किसी और को भेजना चाहिए । कपड़े के विशिष्ट गुण से सब नगरवासी परिचित थे और हर व्यक्ति यह देखने के लिए उत्सुक था कि उसके पड़ोसी कितने बुरे अथवा अल्प-बुद्धि हैं|

"मैं अपने ईमानदार वृद्ध मन्त्री को बुनकरों के पास भेजूँगा,” सम्राट ने सोचा। वही अच्छी तरह से निर्णय कर सकता है कि वह कपड़ा दिखाई कैसा देता है, क्योंकि वह बुद्धिमान है, और उससे बेहतर अपने पद के बारे में कोई नहीं जानता। "

वह बूढ़ा भला मंत्री ख़ाली करघों के सामने बैठे झाँसियों के कमरे में गया। "भगवान हमारी रक्षा करे!” उसने सोचा। विस्फारित नेत्रों से उसने देखा, ”मैं तो कुछ देख ही नहीं पा रहा हूँ," परन्तु उसने ऐसा कहा नहीं। दोनों झाँसियों ने उससे अपने पास आने का अनुरोध किया और ख़ाली करघों की ओर संकेत करते हुए पूछा कि क्या उसे कपड़े का उत्कृष्ट नमूना और आकर्षक रंग प्रशंसनीय नहीं लग रहे| बूढे मन्त्री ने भरसक प्रयास किया परन्तु उसे कुछ भी तो दिखाई नहीं दिया, क्योंकि वहाँ देखने के लिए कुछ था ही नहीं। ”अरे, मैं इतना अल्पबुद्धि हूँ क्या? मुझे तो कभी ऐसा सोचना भी नहीं चाहिए था, और किसी को यह पता भी नहीं चलना चाहिए! क्या यह संभव है कि मै अपने पद के लिए अयोग्य हूँ? नहीं, नहीं, मैं यह नही कह सकता कि मैं कपड़े को नहीं देख पाया।” "तो क्या आपको कुछ भी नहीं कहना है? ” करघों पर बुनने का अभिनय करते हुए झाँसियों में से एक ने पूछा।

“वाह, यह बहुत सुन्दर है! अत्यन्त-सुन्दर!” अपने चश्मे में से देखते हुए बूढ़े मन्त्री ने उत्तर दिया, ”क्या ही उत्कृष्ट नमूना है! कितने चटकीले रंग हैं! मैं सम्राट को बताउँगा कि मुझे तो कपड़ा बहुत ही अच्छा लगा।”

“हमें यह सुन कर प्रसन्नता हुई।” दोनों बुनकरों ने कहा, और उन्होंने मन्त्री को रंगों और नमूनों का विवरण दिया। बूढ़े मन्त्री ने बड़े ध्यान से उनकी बात को सुना, ताकि वह जाकर सम्राट को बता सके कि उन्होंने क्या कहा है; और ऐसा ही उसने किया भी।

अब उन्होंने और धन, रेशम और स्वर्ण-वस्त्र बुनाई के लिए माँगे। सब कुछ उन्होंने हड़प लिया। एक धागा भी वे करघों के पास तक नहीं लाये परन्तु, पहले की तरह ख़ाली करघों पर बुनाई करने का अभिनय करते रहे।

बुनाई-कार्य की प्रगति का आकलन करने के लिए और यह पता लगाने के लिए कि कार्य कब तक पूर्ण होगा, सम्राट ने एक और सत्यवादी दरबारी को भेजा। वह भी देखता ही रह गया परन्तु कुछ भी देख नहीं पाया, क्योंकि देखने के लिए कुछ था ही नहीं।

“क्या यह कपड़ा सुन्दर नहीं है? ” दोनों झाँसियों ने राजसी नमूना दिखाते हुए और उसका विवरण देते हुए जो वास्तव में था ही नहीं, उससे पूछा ।

“मैं अल्पबुद्धि नहीं हूँ।” दरबारी ने कहा। ”मैं एक अच्छे पद पर हूँ और उसके लिए मैं अयोग्य हूँ। है तो यह बहुत स्तब्ध करने वाली बात, परन्तु मुझे इस बात का पता किसी को चलने नहीं देना चाहिए।” उसने अदृश्य कपड़े की बहुत प्रशंसा की, और सुन्दर रंगों और आकर्षक नमूने पर अपना हर्ष व्यक्त किया। “यह परम-श्रेष्ठ है महाराज!” उसने जाकर सम्राट को बताया। बहुमूल्य वस्त्र के चर्चे पूरे नगर में थे। अन्तत: सम्राट ने स्वयं उस वस्त्र को करघे पर देखना चाहा। पहले उस वस्त्र को देख चुके दोनों मंत्रियों के साथ बहुत से अन्य दरबारियों के झुण्ड में , सम्राट, दोनों चालाक झाँसियों से मिलने गया जो अब और भी कठोर परिश्रम करने में व्यस्त थे परन्तु किसी भी धागे का प्रयोग नहीं कर रहे थे। “क्या यह भव्य नहीं है?” पहले इस वस्त्र को देख चुके दोनों बूढ़े राजनेताओं ने पूछा।“ महाराज को रंगों और नमूने की प्रशंसा करनी चाहिए,” ख़ाली करघों की ओर संकेत करते हुए उन्होंने कहा क्योंकि वे कल्पना कर रहे थे कि अन्य लोग उस वस्त्र को देख पा रहे होंगे। “यह क्या है?” सम्राट ने सोचा,“ मुझे तो कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा! यह तो बहुत भयानक है! क्या मैं अल्प-बुद्धि हूँ? क्या मैं सम्राट होने के योग्य नहीं हूँ? सच-मुच इससे अधिक भयानक मेरे साथ कुछ और हो ही नहीं सकता।”

“ यह सत्य है,” बुनकरों की ओर मुड़ते हुए उसने कहा, ”तुम्हारे बुने वस्त्र को हमारे अनुमोदन की कृपा प्राप्त हो चुकी है; ”और सन्तुष्ट भाव से सिर हिलाते हुए उसने खाली करघों की ओर देखा, क्योंकि यह कहना उसे पसन्द नहीं था कि उसने कुछ भी नहीं देखा था। और उसके साथ आए समस्त दरबारी और परिचर, देखते ही रह गए, और भले ही वे अन्य लोगों के देखे हुए से कुछ भी अधिक नहीं देख पाए थे, उन्होंने भी सम्राट की भाँति कहा, “यह तो बहुत सुन्दर है! ” और सबने सम्राट को उन भव्य वस्त्रों को अत्यन्त निकट भविष्य में निकाली जाने वाली शोभायात्रा में धारण करने का परामर्श दिया।

“यह भव्य है,” “यह अतिसुन्दर है,” “यह अत्यन्त श्रेष्ठ है,” के स्वर गूँजने लगे। प्रत्येक नागरिक अति-प्रसन्न प्रतीत हो रहा था। और सम्राट ने उन दोनों झाँसियों को “शाही दरबारी बुनकर” नियुक्त कर लिया।

राजसी शोभा यात्रा से पहले की एक पूरी रात, झाँसियों ने करघे पर काम करने का अभिनय किया और सोलह से अधिक मोमबत्तियाँ जलाईं। नागरिकों को दिखाई देना चाहिए कि सम्राट की नई पोषाक के कार्य को सम्पन्न करने में वे कितने व्यस्त हैं। उन्होंने कपड़े को करघे से हटाने का अभिनय किया, और फिर उस वस्त्र पर बड़ी-बड़ी कैंचियों से कतर-ब्योंत का नाटक किया और बिना धागों की सूइयों से उसे सिला, और अन्तत: कहा: “अब सम्राट की नई पोशाक बनकर तैयार है।”

सम्राट और उसके सब सामन्त कक्ष में आए; झाँसियों ने अपने बाजू इस मुद्रा में उठाए मानो वे अपने हाथों में कुछ उठाकर दिखा रहे हों और कहा: “यह पतलून है !” ” यह कोट है!” और “ यह चोगा है!” “ये सब वस्त्र मकड़ी के जाले की तरह हलके हैं, और यूँ लगना चाहिए कि शरीर पर कुछ धारण ही नहीं किया हुआ है; अपितु उनकी सुन्दरता ही यही है।” “वास्तव में!” दरबारियों ने कहा; परन्तु वे देख कुछ भी नहीं पाये क्योंकि देखने के लिए कुछ था ही नहीं। “क्या सम्राट अब कपड़े उतारने की कृपा करेंगे?” झाँसियों ने कहा, “ताकि हम बड़े दर्पण के सामने नये कपड़े पहनने में आपकी सहायता कर सकें?” सम्राट ने कपड़े उतार दिए,और झाँसियों ने उसे नई पोशाक पहनाने का अभिनय किया, पहले पतलून , फिर कोट फिर चोगा और सम्राट ने स्वयं को दर्पण के सामने हर दिशा से निहारा। कितने सुन्दर हैं ये वस्त्र!” “कितना सटीक नाप है!" सबने कहा,” “ कितना उत्कृष्ट नमूना है! कितने आकर्षक रंग हैं । कितनी भव्य पोशाक है!" विधिनायक ने उद्घोषणा की ,“ शोभायात्रा में ले जाये जाने वाले छत्र के वाहक तैयार हैं।” “मैं तैयार हूँ” सम्राट ने कहा। “क्या मेरी पोशाक मुझ पर भव्य नहीं लग रही?” वह एक बार फिर दर्पण की ओर मुड़ा ताकि नागरिक सोचें कि उसे अपनी पोशाक बहुत पसन्द है। पुछल्ला उठा कर चलने वाले प्रबन्धकों ने भी अपने हाथ ज़मीन की ओर यूँ फैलाए मानो उन्होंने पुच्छला उठा लिया हो और अपने हाथों में कुछ उठाकर चलने का अभिनय करने लगे| उन्हें भी लोगों का यह पता लगाना पसन्द नहीं था कि वे कुछ भी देख नहीं पा रहे थे।

सम्राट शोभा यात्रा में सुन्दर छत्र के नीचे बढ़े जा रहा था । उसे गली में और खिड़कियों में से देखने वाले चिल्लाये: “वास्त्व में, अतुलनीय है सम्राट की नई पोशाक!” ” कितना लम्बा है इस पोशाक का पुछ्ल्ला!” “यह सम्राट पर कितनी बढिया लग रही है! ” कोई भी दूसरों को यह पता लगने नहीं देना चाहता था कि उसने कुछ भी नहीं देखा है क्योंकि अगर वह ऐसा कहता तो अपने पद के लिए अयोग्य पाया जाता अथवा अल्प-बुद्धि माना जाता। सम्राट के वस्त्रों की इससे पहले इतनी प्रशंसा नहीं हुई थी। “परन्तु सम्राट ने तो कुछ पहना ही नहीं है,” अंतत: एक बच्चे ने कहा। "भगवान के लिए! बच्चे की आवाज तो सुनिये,” उसके पिता ने कहा, और जो बच्चे ने कहा था, सब नागरिक एक-दूसरे के कान में फुसफुसाने लगे। "परन्तु सम्राट ने तो कुछ पहना ही नहीं है,” अंतत: सब चिल्ला उठे। इससे सम्राट बहुत प्रभावित हुआ क्योंकि उसे लगा कि वे सब सत्य कह कह रहे थे; परन्तु उसने सोचा, "मुझे अंत तक यूँ ही बने रहना चाहिए।" और पुछल्ला-प्रबन्धक और भी शान के साथ चलने लगे, मानो वे पुछ्ल्ला (जो था ही नहीं ) उठाए चले जा रहे हों।