सरदार नच्छत्तर सिंह / प्रताप सहगल

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सरदार नच्छत्तर सिंह सीढ़ियाँ मुश्किल से चढ़ रहा था। पिछले दिनों उसका शरीर धीरे-धीरे भारी और उसके घुटने शरीर का भारी वज़न उठाते-उठाते कमज़ोर हो गये थे। चलते हुए उसका शरीर कभी बायें डोल जाता तो कभी दायें। लगता जैसे अष्टावक्र चला आ रहा हो। पर उसका मुझसे मिलना ज़रूरी था, इसलिए अपने ही बदन को ढोता हुआ वो दायें-बायें गिरता-पड़ता सीढ़ियाँ चढ़े जा रहा था। उसकी साँस फूलने लगी थी। पिछले तीन दिन से वह मुझसे मिलने की कोशिश कर रहा था। उसे ज़रूर लगता होगा कि उसकी समस्या का कोई अचूक हल है मेरे पास। बहुत मशक़्क़त के बाद वह पहली मंज़िल तक पहुँचा और मेरे बेड-रूम में ही आकर धम्म से सोफे पर बैठ गया। उसके साथ उसका छोटा बल्लू भी था। सरदार नच्छत्तर सिंह की पगड़ी इतनी ढीली थी कि उसमें से उसके खिचड़ी केश नज़र आ रहे थे। दाढ़ी भी खुली हुई थी। उसकी आँखों में घोर निराशा तैर रही थी और चेहरे पर मुर्दनी।

बल्लू लगातार मेरी ओर देखे जा रहा था कि मैं ही बात का सिलसिला शुरू करूँ। मैंने पूछा-”हाँ तो बताइए...?”

मेरे पूछने की देर थी कि बाप-बेटे दोनों हाथ जोड़कर बोले-”बस मैं आपके पाँच मिनट लूँगा...मेरी बात सुन लीजिए।”

मैंने कहा-”आपकी बात ही तो सुन रहा हूँ।”

सरदार नच्छत्तर सिंह के तीन बच्चे थे। दो लड़के और एक लड़की। उनका परिवार मुम्बई से माइग्रेट करके दिल्ली आया था। पैसा पास था। एक अच्छी पॉश कॉलोनी में बड़ा सा मकान खरीदा और कश्मीरी गेट में एक दुकान। स्पेअर मोटर-पार्ट्स का धन्धा उन दिनों ज़ोरों पर था और उनकी कमाई भी। बच्चे अभी छोटे-छोटे थे। घर में सब कुछ था। शायद संस्कार न थे और अगर थे भी तो अधूरे या कच्चे। नच्छत्तर सिंह की पत्नी पूरे मोहल्ले में ‘बम्बई वाली’ के नाम से जानी जाती थी। हाथ में पैसा था और दिल बड़ा। हर काम करने वाली माई उसी के घर में काम करना चाहती थी। इस नाते वह मोहल्ले की अन्य घरेलू महिलाओं की ईर्ष्या का केन्द्र बन गयी थी।

बच्चे जैसे-जैसे बड़े होते गये, मुश्किलें बढ़ती गयीं। मोटर-पार्ट्स का धंधा भी धीरे-धीरे मन्दा पड़ने लगा। बचपन में बच्चों की लाड भरी आदतें मुसीबत का सबब बनने लगीं। वक़्त कब किसे क्या रंग दिखा दे, कोई नहीं जानता। बच्चे जैसे-जैसे बड़े होते गये वैसे-वैसे घर आर्थिक रूप से बैठता चला गया। अब नच्छत्तर सिंह के लिए अपने बच्चों के लाडों को निबाहना मुश्किल होने लगा। जवान होते लड़के मुँहज़ोर हो गये। उन्हें किसी बात या काम के लिए मना करने का मतलब था घरेलू लड़ाई का न्यौता। गाली-गलौज़ से बात शुरू होकर मार-पीट तक पहुँचती। धीरे-धीरे खिड़कियों के शीशे टूटे। बाद में घर के बर्तनों का नम्बर आ गया। कमरों की लड़ाई पूरी तरह से गली में आकर लड़ी जाने लगी।

बम्बई वाली यानी नच्छत्तर सिंह की बीवी गुरप्रीत ने घर सम्भालने के लिए घर की ही दूसरी मंज़िल पर ब्यूटीक खोल लिया। काम चलने लगा। गुरप्रीत खुले दिल के साथ-साथ सरल भी थी। उसकी मँझली बेटी हरप्रीत का एक टेलर-मास्टर अब्दुल से इश्क हो गया। शादी होना तो सम्भव था नहीं, हरप्रीत एक रात चुपके से अब्दुल के साथ भाग गयी और उन्होंने निकाह भी कर लिया। नच्छत्तर सिंह और सारे परिवार के लिए यह एक बहुत बड़ा सदमा था। पहले तो उन्होंने तरह-तरह की बातें बनाकर इस तथ्य को छिपाने की कोशिश की। जब लोगों को सच्चाई का पता चलने लगा तो उन्होंने घर से निकलना ही बन्द कर दिया। यूँ पहले से ही बैठता हुआ बिजनेस पूरी तरह से बैठ गया। हरप्रीत की माँ गुरप्रीत ग़म खा गयी और एक दिन गुसलखाने में न जाने क्या-क्या सोचते हुए नहाते हुए ही गिर गयी। इससे पहले कि डॉक्टर आ पाता, वो परलोक को प्यारी हो गयी। सरदार नच्छत्तर सिंह बुरी तरह से टूट गया। दुकान पर जाना बन्द कर दिया और दुकान धीरे-धीरे पूरी तरह से चौपट हो गयी। सरदार नच्छत्तर सिंह अपनी पत्नी की मृत्यु का दोष अपने दोनों लड़कों के सिर मढ़ता। बड़ा बेटा गुल्लू तो बाप की सुन लेता, लेकिन छोटा बेटा बल्लू पलटकर बाप को ही गालियाँ निकालने लगता। गुल्लू की पत्नी मनप्रीत अपने पति गुल्लू को हमेशा इस बात के लिए उकसाती रहती कि वह अपने ‘दार जी की नाजायज़ बातें न सुने और वक़्त रहते प्रॉपर्टी में अपना हिस्सा ले लें।

“गुल्लू ने सानूं घर से निकाल दिया है”, नच्छत्तर सिंह की यह बात सुनकर मैं अपने स्मृति-लोक से उनके पास लौट आया।

“क्यों...क्यों वो आपका घर है, वहाँ से कोई आपको कैसे निकाल सकता है।”

“हम एक हफ़्ते से होटल में पड़े हैं भापा जी...बस पंज मिनट मेरी गल सुन लओ” बल्लू ने कहा।

“वही तो सुन रहा हूँ, पर आप मुझे डिटेल्स मत बताइए, यह बताइए कि असली प्रॉब्लम क्या है...आई मीन क्रस ऑफ दि मैटर।”

“बस पंज मिनिट” बल्लू ने फिर वही बात दोहराई।

“एक बात बताओ सिंह साहब, आप तो हमेशा गुल्लू की बड़ी तारीफ़ किया करते थे...आज बल्लू को साथ लिये मेरे पास आये हो...यह माजरा क्या है?”

मेरा सवाल सुनकर बल्लू की नज़रें ज़मीन में कुछ खोजने लगीं। सरदार नच्छत्तर सिंह ने अपनी ढीली हो गयी पगड़ी को थोड़ा घुमाकर सँवारने की कोशिश करते हुए कहा-”ओ खन्ना जी, कुछ मत पूछो...शादी हो गयी न जी ते बस...इक मैं होंवां ते इक मेरी बन्नो, दूजा आवे ते पासे भन्नो” (एक मैं होऊँ और एक मेरी बीवी, कोई और पास आये तो उसकी हड्डियाँ तोड़ दो) कहकर नच्छत्तर सिंह के चेहरे पर दुःख भरी मुस्कान फैल गयी। मुझे उस मुश्किल वक़्त में उनका सेंस ऑफ ह्यूमर अच्छा लगा।

“बस जी अब बल्लू ही है मेरा सहारा” अपने ‘दार जी की बात सुनकर हाथ जोड़कर बल्लू मेरी और देखने लगा। दो-चार पल मैं भी कभी बल्लू और कभी सरदार नच्छत्तर सिंह के चेहरों को पढ़ने की कोशिश करता रहा।

दरअसल वे दोनों पूरी तरह से अव्यवस्थित हो चुके थे और खुद को इतना असुरक्षित अनुभव कर रहे थे कि शायद उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वे जल्दी से जल्दी अपनी बात मुझ तक कैसे पहुँचाएँ।

“बातचीत का सिरा मैंने ही अपने हाथ में पकड़ते हुए कहा-”देखो, मुझे लगता है कि आपकी सारी प्रॉब्लम प्रॉपर्टी को लेकर है।”

सरदार नच्छत्तर सिंह ने अपने झुके हुए सिर को थोड़ा उठाते हुए कहा-”हाँ जी।”

“वो घर आपका है सरदार जी, आपको कोई उस घर से कैसे निकाल सकता है?”

“रात दे दो बजे मैनूं मारने आ गये...दोवें...नसदा नहीं तो की करदा...दोनों भाई लड़ पैंदे ते फेर पता नहीं की हो जांदा जी...हमने घर से निकलना ही ठीक समझा।”

“गुल्लू चाहता क्या है?”

कहंदा है जी कि अद्धी जायदाद ओस दे नां कर दयां।”

“और आप क्या चाहते हो?”

“मेरे तीन बच्चे हैं जी...इक मैं...मैं चांहउदा हां कि चार हिस्से होण...सबदे बराबर...अद्धी ओनूं दे दयां, फेर मैं कित्थे जाऊँगा।”

“भापा जी, ओ कहता है भैण नाल साडा कोई वास्ता नहीं, ओने साडी नक कटाई है...फेर ओनूं हिस्सा कादे लई” इस बार बल्लू बोला।

“हूँ...मैं आपकी सारी बात समझ गया जी...सरदार जी पहले यह बताओ कि सारी प्रॉपर्टी किसके नाम?”

“मेरे” नच्छत्तर सिंह ने कहा।

“और यह सब आपने अपनी कमाई से बनाई है या बाप-दादों से मिली है?”

“वाहे गुरु की किरपा हुई है...मेरी ही कमाई की बरक़त है...गुरप्रीत इसी झगड़े-टंटे में चली गयी और मैनूं छड्ड गयी कल्ला, ए सब भुगतन लई”, कहते-कहते सरदार नच्छत्तर सिंह की आँखें नम हो गयीं।

“अब जो मैं कहता हूँ, वो ध्यान से सुनो...इस सारी प्रॉपर्टी पर आपका कानूनी हक़ है...आप जिसे चाहो और जैसे चाहो, इसे बाँट सकते हो...चाहो तो विल करके या गिफ़्ट करके...न तो आपको इसके लिए कोई रोक सकता है और न ही आप पर कोई किसी तरह का दबाव डाल सकता है, चाहे वह आपका बेटा हो या कोई और...और अगर कोई धमकाता या डराता है तो आप पुलिस की और अपनी आर डब्ल्यू ए की मदद ले सकते हो।”

“पर भापा जी, हम होटल में कब तक रहें, वो तो हमें घर में ही नहीं घुसने देता” बल्लू ने बताया।

मैंने तुरन्त जूते पहने और कहा-”चलो अभी मेरे साथ, देखता हूँ कौन रोकता है...बस मेरी एक विनती है आपसे कि आप आज के बाद किसी भी कीमत पर अपना घर नहीं छोड़ोगे।”

उन्होंने स्वीकृति-सूचक सिर हिलाया और अपने भारी-भरकम शरीर को मुश्किल से हरक़त में लाते हुए सोफे से उठे। हम थोड़ी ही देर में उनके घर में थे।

गुल्लू कहीं जाने के लिए तैयार हो रहा था। मैंने उसे और उसकी पत्नी मनप्रीत को ड्राइंग-रूम में रुकने के लिए कहा। वे दोनों खामोशी से बैठ गये।

गुल्लू, बल्लू और हरप्रीत-यानी तीनों भाई-बहन मेरे सामने ही बड़े हुए थे, इसलिए उनके मन में मेरे लिए कहीं कुछ सम्मान का भाव था। मैं गुल्ले से ही मुख़ातिब हुआ-”यह क्या हो रहा गुल्लू, बाप को घर से निकाल दिया।”

“हमने कुछ कहा ही नहीं भापा जी, परसों ताया जी आकर सारा फैसला कर गये थे, फिर पता नहीं इन्हें क्या हुआ...रात को कभी भी हमारे कमरे का दरवाज़ा तोड़ने लगते हैं।”

अब मेरे सामने कहानी का दूसरा सिरा खुल रहा था।

“सरदार साहब, आपने यह नहीं बताया कि फ़ैसला हो चुका है...”

“हाँ जी होया तो था जी...पर कोई मन्ने ताँ न।”

“फ़ैसला लिखित है या मुँह-ज़बानी।”

“लिखित है” बल्लू ने कहा।

“कहाँ है वो...दिखाओ मुझे” मैं आगे बढ़ने से पहले उनके बीच हुए फ़ैसले को देख लेना चाहता था।

“वो ताया जी अपने साथ ले गये हैं।”

“फ़ोन पर मेरी बात करवाओ उनसे।”

बल्लू ने अपने ताया को फ़ोन मिलाया। जोगिन्दर सिंह नाम था उनका। उनके फ़ोन पर आते ही बल्लू ने फ़ोन मुझे पकड़ा दिया। “सरदार जोगिन्दर सिंह बोल रहे हैं जी?”

“हाँ जी” उधर से आवाज़ आयी।

“सत सिरिया काल, मैं दीपक खन्ना बोल रहा हूँ जी...यहाँ की आर डब्ल्यू एक का प्रधान...” उसके बाद जो भी अब तक हुआ था, वो मैंने सब उन्हें बताया और उस लिखित समझौते को देखने की अपनी इच्छा ज़ाहिर की।

“सत सिरिया काल खन्ना जी, वो तो मैं किसी को नहीं दूँगा जी...पर मैं आपको बता सकता हूँ कि नच्छत्तर बड़ा फ़िकल माइंडेड है...यह आज से नहीं, शुरू से ही, यह जल्दी से कोई फ़ैसला नहीं ले सकता और इस बात की भी कोई गारंटी नहीं कि एक फ़ैसला लेने के बाद वह उस पर कायम रहे...और मैं उनके बीच भी नहीं पड़ूँगा, पर मेरी बेनती है आपजी नूं कि आप जैसे भी हो इनका कोई पुख़्ता फ़ैसला करवा दो...नहीं तो यह मर जायेगा या भाई आपस में लड़ेंगे और पता नहीं कौन किस ते भारी पड़ जाये...हाँ आपजी नूं जे मेरी लोड़ पड़े तो कदे वी मुझे फ़ोन कर सकते हो” यह कहकर उन्होंने फोन बन्द कर दिया।

उसी वक़्त कमरे में पड़ोसी सरदार ढिल्लो दाखिल हुए और उन्होंने अपने कुछ अनुभव बताते हुए कहा-”खन्ना साहब आप आये हो न, इनका कोई फ़ैसला करवा के ही जाओ।”

परिवार के सभी लोग मेरी ओर देखने लगे। मैंने सभी पहले वाली बातें ही दोहरा दीं और पूछा कि किसी को कुछ कहना है तो अभी इसी वक़्त कह ले। परिवार में पड़ी समस्याओं की एक ऐसी गुंजलक मेरे सामने खुलने लगी, जिसका कोई सिरा मेरे हाथ नहीं आ रहा था। लगभग एक घण्टा तक उनकी बातें सुनने के बाद मैंने कहा-”ठीक है, यह सब आपकी पारिवारिक बातें हैं, आप आपस में बैठ के सुलझाइए, हाँ कोई झगड़ा-तमाशा मोहल्ले में नहीं होना चाहिए और जब भी आप सभी का मन बने फ़ैसला करने का, मुझे बुला लीजिए, मैं आ जाऊँगा...बस एक बात याद रखिए कि उस वक़्त जो भी फ़ैसला होगा, पूरी तरह से लिखित होगा और सभी को मानना पड़ेगा...यह मंजूर न हो तो मुझे मत बुलाइए।”

इस बात के ठीक चार दिन बाद एक फ़ोन आया-”हलो, आप दीपक खन्ना बोल रहे हैं।”

मैं उस वक़्त चाँदनी चौक वाले हल्दीराम में अपनी पत्नी के साथ बैठा छोले-भठूरे खा रहा था।

“जी, दीपक बोल रहा हूँ...कौन?”

“सत सिरिया काल जी, मैं जसमीत सिंह बोल रहा हूँ जी गुरुद्वारा रकाबगंज से...आप अपनी आर डब्ल्यू ए के प्रधान हैं जी।”

“जी, बताइए।”

“इसी महीने की सत्ताईस तारीख़ को एक मीटिंग है जी फ़ैमिली कोर्ट की...”

मेरी पत्नी ने मेरी ओर से थोड़ी सख़्त निगाह से देखा, जैसे कह रही हो कि पहले खा तो लो, फिर बात कर लेना। मैंने हाथ के इशारे से ही उसे समझाने की कोशिश की कि वह खाना जारी रखे और मैं अपनी बात। कहा-”मैं कुछ समझा नहीं जसमीत जी।”

“सरदार नच्छत्तर सिंह ने न जी आपकी ब्लॉक में, उनकी फ़ैमिली का झगड़ा है...”

“वो तो मैं जानता हूँ, पर मेरा आपकी कोर्ट में क्या काम है?”

“यह कोई ऐसी-वैसी कोर्ट नहीं है, इसमें रिटायर्ड जजेज़ हैं, एडवोकेट हैं...हम अभी सात सौ से ज़्यादा फ़ैमिली झगड़े सुलझा चुके हैं...आप भी एक सोशल-वर्कर हैं तो आपकी मदद हमें इस मामले में चाहिए।”

मैंने उन्हें अपना और सरदार जोगिन्दर सिंह का अनुभव बताते हुए कहा-”मैं अपना टाइम ज़ाया करने नहीं आऊँगा।”

“ऐसा नहीं है जी, यहाँ जो भी फ़ैसला होगा, इन सबको मानना पड़ेगा।”

“यह बड़े फ़िकल माइंडेड लोग हैं, आपका भी वक़्त खराब करेंगे और मेरा भी।”

“आप जैसे लोगों को हम अपने साथ जोड़ना चाहते हैं खन्ना जी...आप एक बार यहाँ आकर देखिए सो सही।”

इधर बार-बार पत्नी इशारों से समझा रही थी कि छोले-भठूरे ठण्डे हो रहे हैं। ऐसे में मुझे यही कहना ठीक लगा-”ठीक है आप फार्मल इन्वाइट भेज दीजिए, मैं आ जाऊँगा।”

अभी मैंने फ़ोन बन्द किया ही था कि बल्लू का फ़ोन आ गया। मैंने उसका नाम मोबाइल-स्क्रीन पर देखकर उस फ़ोन को अटेन्ड न करना ही उचित समझा।

नियत दिन पर मैं फ़ैमिली कोर्ट में जाने के लिए तैयार हो ही रहा था कि बल्लू का फ़ोन बजा। मैंने इधर से कहा-”हाँ, बल्लू, कहो, क्या बात है?”

“भापा जी, ओ कोर्ट वाली मीटिंग पोस्ट-पोन्ड हो गयी है।”

“क्यों?” मैंने हैरानी भरे स्वर में पूछा।

“ओ मैं आप जी नूं घर आके दसां गा।”

हद तो तब हो गयी, जब उसी रात एक बजे सरदार ढिल्लो का फ़ोन आया और उन्होंने मुझसे कहा कि जल्दी से नच्छत्तर सिंह के घर पहुँचूं। गले में जल्दी से कुर्ता पहनते हुए मैं जब सरदार नच्छत्तर सिंह के घर पहुँचा तो देखा कि वहाँ चार-छह लोग पहले से ही मौजूद थे और पुलिस की जिप्सी भी पहुँची हुई थी। बल्लू और गूल्लू, दोनों भाइयों के सिर से खून बह रहा था। सरदार नच्छत्तर सिंह वहाँ पास ही खड़े-खड़े काँप रहे थे। मुझे सारा माजरा समझते देर नहीं लगी। इससे पहले कि मैं जिप्सी से आये पुलिस-कर्मियों से कोई संवाद बना पाता, वहाँ की लोकल पुलिस का एक सब-इंस्पेक्टर और एक कांस्टेबल भी आ पहुँचे। सब-इंस्पेक्टर रघुनाथ प्रसाद सिंह मुझे अच्छी तरह से जानता था। उसने मुझसे ही मुख़ातिब होते हुए कहा-”खन्ना जी, यह क्या रोज़-रोज़ का ड्रामा बना रखा है इन्होंने।”

“एक मकान और एक दुकान को लेकर दोनों भाई एक-दूसरे के दुश्मन हो रहे हैं...सारा मोहल्ला इनसे परेशान हो चुका है...न यह कोई फ़ैसला करते हैं और न ही लड़ना छोड़ते हैं।”

फिर उसने सरदार नच्छत्तर सिंह की ओर देखा। उसके सिर पर पगड़ी नहीं थी। शायद दो भाइयों की हाथा-पाई ने बाप की पगड़ी उतार दी थी। वह हाथ जोड़े थर-थर काँप रहा था।

“कौन से बेटे से डर है सरदारजी...बोलो, अभी, इसी वक़्त उसे अन्दर करता हूँ। दो दिन हवालात में रहेगा, माथा ठण्डा हो जावेगा...बोलो यह बल्लू, गुल्लू या दोनों...आज दोनों को ही ठोंकता हूँ हवालात में...वहीं लड़ना ससुरो...खन्ना जी, इनकी ज़मानत करवाने मत आना मेरे पास...ससुरों ने गदर मचा रखा है...जान ले लेंगे यह सरदार की...चलो, बैठो जीप में भैण...”

बल्लू और गुल्लू-दोनों जीप की ओर बढ़ने लगे कि अचानक सरदार नच्छत्तर सिंह अपने दोनों हाथ बाँधें इंस्पेक्टर के सामने आकर गिड़गिड़ाने लगा-”नहीं थानेदार साहब, नहीं, इन्हें मत ले जाओ...यह बन्द हो जायेंगे तो मैं वैसे ही मर जाऊँगा...अब हम नहीं लड़ेंगे...बल्लू माफी माँ इनसे और गुल्लू तू भी...”

इंस्पेक्टर रघुवर प्रसाद के संग मेरे समेत वहाँ खड़े तमाम लोग हतप्रभ थे।