सरस्‍वती का प्रकाशन / राहुल सांकृत्यायन

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बीसवीं सदी के आरंभ में सरस्‍वती का प्रकाशन हिंदी के लिए एक असाधारण घटना थी, जिसका पता उस समय नहीं लगा, पर समय के साथ स्‍पष्‍ट हो गया। सरस्‍वती का नाम पहिले पहल मैंने आजमगढ़ जिले के निजामाबाद कस्‍बे में सुना। निजामाबाद कस्‍बा वही है, जहाँ पंडित अयोध्‍यासिंह उपाध्‍याय 'हरिऔध' पैदा हुए, और वहाँ के तहसीली (मिडिल) स्‍कूल के प्रधानाध्‍यापक रहे। यह ख्‍याल नहीं कि नाम के साथ सरस्‍वती का वहाँ दर्शन भी मिला। सरस्‍वती का माहात्‍म्‍य स्‍कूल से निकलने के बाद मालूम हुआ। 1910 ई. में बनारस में पढ़ते समय किसी के पास सरस्‍वती देखी और माँगकर उसे पढ़ा भी। मालूम नहीं उसका कितना अंश मुझे समझ में आता था। मैं मूलतः उर्दू का विद्यार्थी था। हिंदी लोगों के कहे अनुसार बिना वर्णमाला सीखे अपने ही आ गई। और मैं गाँव में लोगों की चिट्ठियाँ हिंदी में लिखने लगा था।

हिंदी अँग्रेजी सरकार की दृष्टि में एक उपेक्षित भाषा थी। सरकारी नौकरियों के लिए उर्दू पढ़ना अनिवार्य था। सरकारी कागज पत्र अधिकांश उर्दू में हुआ करते थे। इसी पक्षपात के कारण मुझे उर्दू पढ़ाई गई। बनारस में संस्‍कृत पढ़ने लगा था। उर्दू के साथ अगर संस्‍कृत भी पढ़े, तो हिंदी अपनी भाषा हो जाती है।

दो एक बरस बाद मैं बनारस छोड़कर बिहार के एक मठ में साधु हो गया। उस समय मैंने पहिला काम यह किया कि सरस्‍वती का स्‍थायी ग्राहक बन गया। इसी से मालूम होगा कि हिंदी के विद्यार्थी के लिए सरस्‍वती क्‍या स्‍थान रखती थी। उसके बाद शायद ही कभी सरस्‍वती से मैं वंचित होता रहा - देश हो या विदेश। आरंभ में मुझे यह मालूम नहीं था कि सरस्‍वती के संपादक पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी उसके प्राण हैं। इंडियन प्रेस की कितनी ही पुस्‍तकें पाठ्य पुस्‍तकों में लगी हुई थीं। इसलिए हिंदी के हर एक स्‍कूल का विद्यार्थी इंडियन प्रेस को जानता था। सरस्‍वती इंडियन प्रेस से छपती थी। उसका कागज, उसकी छपाई, उसके चित्र आदि सभी हिंदी के लिए आदर्श थे। उसके लेख भी आदर्श होते थे, यह कुछ दिनों बाद मालूम हुआ। और यह तो बहुत पीछे मालूम हुआ कि गद्य-पद्य लेखों को सँवारने में द्विवेदीजी को काफी मेहनत पड़ती थी। भारत की सबसे अधिक जनता की भाषा की यह मासिक पत्रिका इतनी सुंदर रूप में निकलती थी कि जिसके लिए हिंदीवालों को अभिमान हो सकता था। सरस्‍वती ने अपना जैसा मान स्‍थापित किया था, उसके संपादक ने भी वैसा ही उच्‍च मान स्‍थापित किया था। नहीं तो हिंदी से बँगला और कुछ दूसरी भाषाएँ इस क्षेत्र में जरुर आगे रहतीं।

सरस्‍वती हिंदी साहित्‍य के सारे अंगों का प्रतिनिधित्‍व करती थी। गद्य में कहानियाँ, निबंध, यात्राएँ आदि सभी होते। पद्य में स्‍फुट कविताएँ ही हो सकती थी क्‍योंकि विस्‍तृत काव्‍य को कई अंकों में देने पर वह उतना रुचिकर न होता। मालूम ही है कि हिंदी मातृभाषा तो हम में बहुत थोड़े से लोगों की है। मातृभाषाएँ लोगों की मैथिली, भोजपुरी, मगही, अवधी, कनौजी, ब्रज, बुंदेली, मालवी, राजस्‍थानी आदि भाषाएँ है। इनमें से कौरवी छोड़कर बाकी सभी हिंदी से काफी दूर हैं। इस कारण हिंदी व्‍याकरण शुद्ध लिखना बहुतों के लिए बहुत कठिन है। इन 22 भाषाओं के बोलने वालों को शुद्ध भाषा लिखने, बोलने, पढ़ने का काम सरस्‍वती ने काफी सिखाया और सबमें समानता कायम की। सरस्‍वती का यह काम प्रचार की दृष्टि से ही बड़े महत्‍व का नहीं था, बल्कि इससे व्‍यवहार में बहुत लाभ हुआ।

सरस्‍वती युग से पहिले यह बात विवादास्‍पद चली आती थी कि कविता खड़ी बोली (हिंदी) में की जाए या ब्रजभाषा में। गद्य की बोली खड़ी बोली हो, इसे लोगों ने मान लिया था। लेकिन पद्य के लिए खड़ी बोली को स्‍वीकार कराना सरस्‍वती और उसके संपादक पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी का काम था। बीसवीं सदी की प्रथम दशाब्‍दी में अब भी उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में लोग ब्रजभाषा में कविता करते थे। उनकी ब्रजभाषा कैसी होती थी, इसे बतलाना कठिन है, क्‍योंकि भोजपुरी भाषाभाषी ब्रजभाषा को 'इतै', 'उतै' जैसे कुछ शब्‍दों को छोड़कर अधिक नहीं जानते थे। बहु-प्रचलित महाकाव्‍य रामचरित मानस था, जो अवधी का था, जिसका ज्ञान कुछ अधिक हो सकता था। ब्रजभाषा की कविताएँ बहुत कम प्रचलित थीं। तो भी आग्रह ब्रजभाषा में ही कवित्त और सवैया कहने का था। सरस्‍वती ने यह भाव मन में बैठा दिया कि यदि खड़ी बोली में गद्य, कहानी, निबंध लिखे जा सकते हैं और खड़ी बोली में उर्दू वाले अपनी शायरी कर सकते हैं, तो कविता भी उसमें हो सकती है। श्री मैथिलीशरण गुप्‍त खड़ी बोली के आदि कवियों में है। उनको दृढ़ता प्रदान करने वाले द्विवेदीजी थे।

प्रायः चार दशकों तक 'सरस्‍वती' का संपादन ही द्विवेदीजी ने नहीं किया, बल्कि इस सारे समय में साहित्यिक भाषा निर्माण के काम में द्विवेदीजी ने चतुर माली का काम किया। आगे आने वाली पीढ़ियाँ 'सरस्‍वती' और द्विवेदीजी के इस निर्माण कार्य को शायद भूल जाएँ। किसी भाषा के बारे में किसी एक व्‍यक्ति और एक पत्रिका ने उतना काम नहीं किया, जितना हिंदी के बारे में इन दोनों ने किया।