सलमान खान की लोकप्रियता का रसायन / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सलमान खान की लोकप्रियता का रसायन

प्रकाशन तिथि : 12 सितम्बर 2012

आउटलुक के सलाहकार संपादक विनोद मेहता ने ३ सितंबर के अंक में एक अत्यंत संक्षिप्त परंतु सारगर्भित टिप्पणी फिल्म सितारों के बारे में की है। उसका सार कुछ इस तरह है कि आमिर, शाहरुख और सलमान खान में सबसे कम प्रतिभाशाली अभिनेता सलमान खान हैं। उन्हें ढंग-से नाचना भी नहीं आता है, परंतु वह ही आज सफलतम सितारे हैं और उनकी अनेक फिल्में बॉक्स ऑफिस पर नए कीर्तिमान बना रही हैं। मामला एक या दो सफल फिल्मों का नहीं है, परंतु 'वांटेड' से 'एक था टाइगर' तक एक पूरी शृंखला है। सलमान का सुगठित शरीर है। संपादक महोदय स्वीकार करते हैं कि उन्होंने सलमान की कोई फिल्म नहीं देखी है, केवल टेलीविजन पर झलकियां देखी हैं। वह बेहिचक कहते हैं कि सरल सलमान खान की सफलता से उन्हें अत्यंत प्रसन्नता है। हालांकि वह नहीं जानते कि कमतर अभिनय प्रतिभा को जानते हुए भी उन्हें जाने क्यों सलमान की सफलता पर प्रसन्नता हो रही है।

यह प्रसन्नता की बात है कि विनोद मेहता जैसा बुद्धिजीवी संपादक फिल्म पर तो लिख रहा है। यह भारतीय मनोरंजन उद्योग का दुर्भाग्य है कि हमारे बुद्धिजीवी एवं साहित्यकार लोग इस व्यापक और प्रभावशाली माध्यम को अनदेखा करते रहे हैं। अगर उन्होंने इसमें रुचि ली होती और माध्यम की जानकारी लेकर इसमें प्रवेश करते तो तीसरे दर्जे के लेखक इस उद्योग पर इस तरह नहीं छाते। एक दौर में प्रेमचंद, राजिंदर सिंह बेदी, साहिर इत्यादि अनेक लोगों ने सारगर्भित रचनाओं से इस उद्योग को संवारा है, परंतु विगत कुछ वर्षों से यह परंपरा अवरुद्ध हो गई है। अगर विनोद मेहता और अन्य ज्ञानी-ध्यानी इन मसाला मनोरंजन को देखने के लिए थोड़ा समय निकालें तो बेतरतीब से फूहड़पन में उन्हें समाज की संस्कारहीनता के संकेत भी मिल सकते हैं। लोकप्रियता के अबूझ रसायन की व्याख्या के प्रयास अजब-गजब भारत को समझने में मदद कर सकते हैं। लोकप्रियता के रसायन का विश्लेषण हमें हमारे अतार्किक चुनावों को भी समझने में सहायक हो सकता है और गणतंत्र के भारतीय स्वरूप में सामंतवादी रेशे और जात-पांत के जालों की बुनावट को भी समझा जा सकता है। इस हलके-फुल्के माध्यम में अनेक सामजिक संकेत निहित हैं। पढ़े-लिखे लोगों की पसंद-नापसंद और पूर्वग्रह के कुछ खाके हैं, जो सिनेमाई फॉर्मूले से कुछ हद तक मिलते हैं। उनकी अपनी सिनेमाई यादें बार-बार लौटकर चश्मे की तरह चस्पा हो जाती हैं और आज के अभिनेताओं में वे दिलीप कुमार, राज कपूर और संजीव कुमार को खोजते हुए निराश हो जाते हैं। 'एक था टाइगर' में पहले एक्शन दृश्य के बाद मफलर से अपने सिर और चेहरे को छुपाते हुए सलमान के रक्त-रंजित चेहरे पर अत्यंत हलकी-सी मुस्कान है। हिंसा के बीच जान हथेली पर लेकर चलने वाले जासूस की यह मुस्कान ही उसको अभिव्यक्त कर रही है। वह कुछ सनकीपन से इस अतार्किक जीवन को स्वीकार करता है। सलमान खान दिलीप कुमार नहीं हैं तो आमिर और शाहरुख भी दिलीप कुमार नहीं हैं। उनके अनकरीब आने के प्रयास अमिताभ बच्चन ने किए थे और सलीम-जावेद ने ही 'गंगा जमना' के नायक को पंद्रह वर्ष की छलांग लगाकर 'दीवार' में प्रस्तुत किया था।

बहरहाल, विनोद मेहता की टिप्पणी में ही सलमान खान की लोकप्रियता का राज भी है। उनकी सादगी, सरलता और पारदर्शिता ही अवाम के मन में जा बसी है और यह सिलसिला टेलीविजन पर प्रस्तुत 'दस का दम' से शुरू हुआ है। सलमान कभी वह सबकुछ दिखाने का प्रयास नहीं करते, जो वह नहीं हैं। उन्होंने माध्यम का इतिहास व शास्त्र नहीं पढ़े हैं और वह मेथड स्कूल के कलाकार नहीं हैं। सेट पर ही वह सहज अनगढ़, अनसोची प्रतिक्रिया देते हैं। उन्हें कोई मुगालता नहीं है, महानता का कोई स्वांग भी नहीं है। यहां तक कि पिछले वर्ष उनके ट्रस्ट द्वारा सात करोड़ की सहायता पहुंचाने का भी कोई मान नहीं है, परंतु मलाल है कि ७० करोड़ क्यों नहीं कर पाए। वह हातिमताई की तरह नेकी करके दरिया में डालते हैं और उन्हें यह भी नहीं मालूम कि हातिमताई कौन था।

दरअसल ज्ञान-ध्यान का मार्ग भी कहीं नहीं ले जाता। आज सभी भाग रहे हैं, परंतु कहीं कोई पहुंच नहीं रहा है। सलमान विचार दर्शन की भूल-भुलैया में नहीं उलझते। शायद यही वह बात है, जो अवाम को भा रही है। रवींद्र जैन की पक्तियां हैं - 'गुण अवगुण का डर भय कैसा, जाहिर हो भीतर तू है जैसा।'