सल्तनत को सुनो गाँववालो / भाग 1 / जयनन्दन

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केन्द्र :

एक बुर्कापोश परिवार की लड़की और एक हलजोतवा काश्तकार के बेटे की मुहब्बत।

परिधि :

• एक गाँव का साल दर साल बदहाल और बदइंतजाम होते चला जाना।

• बयालीस साल पहले बनी एक नहर, जिसने इलाके में हरित क्रांति कर दी थी, धीरे-धीरे ध्वस्त हो गयी।

• पच्चीस साल पहले लायी गयी बिजली के सिर्फ अब गड़े हुए खम्भे बच गये हैं।

• स्टेशन पर जहाँ अनेकों गाड़ियाँ समय पर आकर आवागमन उपलब्ध कराती थीं, अब इक्की-दुक्की आती हैं और जो आती भी हैं उनका कोई टाइम-टेबुल नहीं होता। क्या अब सिर्फ वही स्टेशन आबाद रहेगा जहाँ से होकर दिल्ली, पटना अथवा अन्य महानगरों के लिए गाड़ियाँ गुजरती हैं?

• इलाके की प्रसि़द्ध चीनी मिल बंद कर दी गयी, जिससे किसानों को आर्थिक संबल देने वाली गन्ने की मुख्य उपज बेमानी हो गयी।

• देश बँटा फिर भी धर्म और जाति के आधार पर तब गाँव नहीं बँटे। अब आजादी के पचास साल बाद और नयी सहस्राब्दी के दरवाजे पर गाँव मजहब ही नहीं बल्कि अगड़े-पिछड़े और विभिन्न जातियों के आधार पर बनने-बँटने लगे।

• प्यार करने वाली लड़की नहर को दुरुस्त करने की माँग को लेकर आमरण अनशन पर बैठ गयी। बुर्के की सरहद से निकलकर सार्वजनिक हित में नेतृत्व की इस पहल पर पूरा इलाका एक हर्षमिश्रित आश्चर्य से भर उठा। वह मरणासन्न स्थिति पर पहुँच गयी, फिर भी प्रशासन या सरकार के किसी गुर्गे में कोई सुगबुगाहट नहीं हुई। लड़के ने कहा, 'अनशन तोड़ दो, सल्तनत। यह अंग्रेजों का राज नहीं है जब गांधी जी के उपवास और असहयोग अवज्ञा आंदोलन की भी नोटिस कर ली जाती थी। पिछले दस-पन्द्रह सालों में ऐसे बहुत कम उदाहरण हैं कि माँगें बिना टेरर और मिलिटेंसी के, बिना भारी नुकसान हुए पूरी हो गयी हों। आखिर अब हमारे पास बेहिसाब गोली, बम, बारूद है.....इनसे जब तक रेल की पटरी न उड़े, विस्फोट न हो, लोग न मरें...सरकार को क्यों जागना चाहिए?'

वृत :

सल्तनत ने पहली बार सुई-धागा पकड़कर एक रूमाल सिला था और उसमें क्रोशिए द्वारा उर्दू एवं हिन्दी के बूटेदार हरूफों में कशीदाकारी करके लिखा था - भैरव ।

भैरव को वह रूमाल भेंट करते हुए एक दिव्य अनुभूति से उसका चेहरा खिल उठा था। भैरव को लगा था जैसे सल्तनत रूमाल नहीं अपनी कोई बड़ी सल्तनत सौंप रही है। उसने रूमाल को चूम लिया था तो सल्तनत को लगा जैसे उसे सचमुच की आज कोई बड़ी सल्तनत मिल गयी।

दोनों ने एक-दूसरे को मुग्ध एवं आसक्त होकर यों निहारा जैसे एक दिल हो तो दूसरा धड़कन।

वे दो जिस्म एक जान होने की मंजिल के सफर में आगे बढ़ चले। उनके सपने...उनकी कल्पनाएँ...उनकी भावनाएँ क्रमशः अंतरंग, एकाकार और अविभाज्य होती चली गयीं। आपस में सुख-दुख का वार्तालाप तथा दुनियादारी का विमर्श एक राग की प्रतीति देने लगा जैसे तबले और सितार की लयात्मक जुगलबंदी हो। जिंदगी हसीन है, इसका एहसास और भरोसा एक बड़ा आकार लेने लगा...बावजूद इसके कि उनके अपने-अपने खाते में कई निजी तकलीफें और रुकावटें थीं तथा गाँव के सामूहिक खाते में भी कई तरह की परेशानियाँ और नाइंसाफियाँ थीं।

इन्हें ऐसी ही बेसुरी और खुरदरी चीजें जोड़कर रखने लगीं। इन्हें इन सबसे जूझना था और इनके समाधान के लिए जद्दोजहद करना था। जद्दोजहद ही इनकी मुहब्बत की बुनियाद थी।

यह बुनियाद वहाँ से शुरू हुई जब सल्तनत के मझले मामू कामरेड तौफीक मियाँ ने भैरव के भीतर निहित उस ऊष्मा को पहचान लिया जो एक ईमानदार और जुझारू आदमी के भीतर होती है।

सल्तनत की तेज-तर्रार और तीक्ष्ण मेधा को परखते हुए उन्होंने पढ़ाई के प्रति एकाग्रचित होने की सलाह देते हुए कहा था, 'प्रभुदयाल का बेटा भैरव तुम्हें मैट्रिक पास कराने में मदद कर सकता है। मैंने उसे जाँचकर देखा है, उसकी सलाहियत और शराफत का अपना एक अलग अंदाज है।'

सल्तनत को जैसे मुँह माँगी मुराद मिल गयी हो। खुश होते हुए उसने इसरार किया, 'मुझे किसी भी तरह मैट्रिक पास करना है, मामू। बड़े मामू की बंदिशों से मुझे निजात दिलाइए। वे कहते हैं कि मैं जवान हो गयी हूँ, स्कूल नहीं जा सकती। मुझे समझ में नहीं आता मामू कि हमारा जवान होना गुनाह क्यों बन जाता है कि हम कहीं खुलेआम आने-जाने के काबिल नहीं रह जाते। कितना बुरा हुआ कि आपा, अम्मी, खाला, ममानी आदि सभी जवान हो गयीं। ये सभी घर में बंद रहती हैं और अब मैं भी....।'

कामरेड तौफीक ने कहा था, 'बुर्का और बंदिशें हमारी तंगदिली का सरंजाम हैं, सल्तनत। बड़े भाई अब इस उम्र में इस जहनियत से शायद ही निकल पायें। तुम उनको लेकर मगजपच्ची में न पड़ो। तुम पढ़ना चाहती हो, पढ़ो। मैं तुम्हारे साथ हूँ।'

'तो भैरव मेरी मदद कर देगा...बड़े मामू इसकी इजाजत दे देंगे?' सल्तनत भैरव को अब तक काफी जान चुकी थी कि पढ़ने में वह काफी जहीन है और दुनियादारी की गहरी समझ रखता है।

'मैं उन्हें समझा दूँगा और भैरव भी मेरा कहा नहीं टालेगा।' तौफीक ने आश्वस्त किया।

यहीं से भैरव और सल्तनत एक-दूसरे को किताबों के जरिये समझने लगे और करीब आने लगे। शफीक मियाँ जिद्दी, खुर्राट, दकियानूस और दीनपरस्त इंसान थे, इसलिए भैरव का आना उन्हें नागवार गुजर जाता था। गाहे-ब-गाहे वे बिदक पड़ते थे कि आखिर सल्तनत और कितना पढ़ेगी?

सल्तनत अदब से कह देती, 'छोटे मामू से पूछ लीजिए, जिस दिन वे मना कर देंगे, मैं पढ़ाई छोड़ दूँगी।'

शफीक मियाँ की यह मजबूरी थी। वे तौफीक के कहे को नकार नहीं सकते थे, चूँकि सभी भाइयों में एक यही थे जो उनका एहतराम करते थे और हर आड़े वक्त में रुपये-पैसे तथा इल्म, अक्ल से उनकी इमदाद करते थे। इमदाद की इन्हें हमेशा जरूरत बनी रहती थी। चूँकि खेती-गृहस्थी वे करते नहीं थे। कमाई के नाम पर वे सिर्फ साल में चार महीने मोहिनी शुगर मिल, वारसलीगंज में सीजनल नौकरी करते थे। पूरे इलाके के गन्ने की पेराई समाप्त होते ही मिल के ज्यादातर कर्मचारी की सेवा स्थगित कर दी जाती थी। शफीक मियाँ तौल बाबू थे। धर्मकाँटे पर गन्ने से लदी बैलगाड़ी, ट्रैक्टर या ट्रक का वजन करते थे। अतः इनकी नौकरी मिल चालू होने के पहले शुरू हो जाती थी और मिल बंद होने के काफी पहले खत्म हो जाती थी। इसके बाद वे बँटाई की आधी उपज और तौफीक से मिलने वाली सहायता पर ही निर्भर रहते थे तथा खाली वक्त में रोज पाँचों वक्त नमाज के पाबंद बन जाते थे। कुरान शरीफ का अध्ययन करना और उसका अर्थ टटोलना-समझना उनका एक खास शौक था। मालूमात बढ़ जाने से वे छिटपुट तकरीर करने में दिलचस्पी लेने लगे थे। कमाई का एक अच्छा जरिया उन्हें बनता दिखने लगा था। इस उम्मीद में वे कोई दूसरा रोजगार भी ढूँढ़ न सके और उम्मीद थी कि पूरी होने की जगह सिर्फ आगे खिंचती चली गयी। ले-देकर तौफीक मियाँ ही उनके सहारे का ठौर बने रह गये। वरना उनके अन्य दो भाई दो-चार साल में बमुश्किल तफरीह करने की गर्ज से कभी गाँव तशरीफ ले आते थे।

इन दो मेहमान बन गये भाइयों, हनीफ एवं रदीफ से गाँव-घर के रिश्ते को इसी से समझा जा सकता है कि यहाँ ऐसे कई लोग होंगे जो इन्हें पहचानते तक नहीं। छुटपन से ही वे कलकत्ता में छोटी-मोटी फुटपाथी दुकानदारी करते हुए एक बड़े फ्रुट सेलर हो गये। जाने को तो तौफीक मियाँ भी शहर गये लेकिन गाँव से संपर्क और रिश्तेदारी में फासला कभी नहीं आने दिया। हर छोटे-बड़े से अपना दुआ-सलाम बनाये रखा। उनके घुल-मिल जाने के इस स्वभाव के कारण हरेक को यह तक पता है कि वे सीपीएम के एक प्रतिबद्ध कार्यकर्ता हैं और अपनी पार्टी के राष्ट्रीय नेताओं द्वारा भी पहचाने जाते हैं।

जमशेदपुर की एक स्टील कंपनी में अदना मजदूर होकर भी प्रबंधन द्वारा मान्यताप्राप्त जेबी यूनियन के सामानांतर सीटू की चलनेवाली यूनियन में वे नेतृत्व की अगली पंक्ति की हैसियत रखते थे।

भैरव को इनके बारे में विस्तार से जकीर ने बताया था। गाँव में वे जब भी आते जकीर उनके उठने-बैठने और घूमने-फिरने में खुद को अनिवार्य रूप से शामिल कर लेता। दोनों के घरों के बीच सिर्फ एक दीवार का फर्क था, इसलिए तौफीक भी जब अकेले बोर होने लगते तो जकीर को पुकार लेते। दोनों की उम्र में यों काफी फासला था, लेकिन वे उम्र से ज्यादा जमाने के साथ-साथ चलनेवाले नजरिये और गलत एवं नाइंसाफी से लड़नेवाले जोशीले-जवान इरादों के खैरख्वाह थे। उन्हें युवाओं के साथ संवाद करना अच्छा लगता था। वे इसी बहाने किसी सुलगती चिनगारी की थाह ले लेना चाहते थे अथवा कोई चिनगारी धीरे से सुलगा देना चाहते थे।

जकीर हाई स्कूल की अपनी अधूरी पढ़ाई तक भैरव का निकटतम सहपाठी रहा था, इसलिए दोनों के बीच सान्निध्य था। जकीर ज्यादा पढ़ नहीं सका। चूँकि पढ़ाई के दरमियान ही वालिदा की अशक्तता के कारण पन्द्रह बीघे की जमीन-जोत की देखरेख उसके ही मत्थे आ गयी। उसके दोनों बड़े भाइयों की खेती-गृहस्थी से कोई खास मतलब नहीं था। कलकत्ता में वे जूते-चप्पल की दुकान चलाते थे। भैरव जकीर की अधूरी पढ़ाई को कोसते हुए झल्ला उठता था,'आखिर क्यों लोग अच्छी खासी जमीन-जोत होने पर भी इसे छोड़कर नौकरी या व्यवसाय के पीछे पगला जाते हैं। जमीन से वे संतोषजनक उपार्जन करने की कोशिश क्यों नहीं करते? बड़े-बड़े किसान के बेटे भी, देखा गया है कि एक अदद छोटी नौकरी के लिए लालायित हैं।'

भैरव ने इसी मानसिकता के तहत तौफीक मियाँ से भी पूछ लिया था, 'अंकल, आपकी तरक्कीपसंद जहनियत के बारे में जकीर मुझे अर्से से बहुत कुछ बतलाता रहा है। मै आपसे बेहद प्रभावित हूँ, लेकिन आपको लेकर मेरे मन में एक संशय भी ठहरा हुआ है, क्या उसे मैं आपके सामने जाहिर करने की छूट ले सकता हूँ?'

तौफीक ने उसके भोले-से चेहरे पर उग आयी जिज्ञासु और बेचैन लकीरों को पढ़ लिया। बड़े तपाक से कहा उन्होंने, 'पूछो भैरव, जरूर पूछो। मैं जानता हूँ तुम्हारे संशय साधारण नहीं विलक्षण होंगे। तुमने पिछली हर मुलाकात में अपना यही परिचय तो दिया है मुझे।'

'अंकल, हम अक्सर पढ़ते-सुनते हैं कि अमुक गाँव का ऐसा कायाकल्प हो गया...ऐसी तरक्की हो गयी। पंजाब और केरल में गाँव अब शहरों में तब्दील हो गये...जबकि अपना यह गाँव लतीफगंज, यह अंचल वारसलीगंज और यह अनुमंडल नवादा लगातार छीजता, पिछड़ता और रेंगता दिखता है। पच्चीस साल पहले यहाँ की स्थिति कई गुना बेहतर थी...आप खुद इसके गवाह हैं। क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि यहाँ जो भी सुविधाएँ बहाल थीं, वे इसलिए सिकुड़ती-सिमटती चली गयीं कि यहाँ के सार्वजनिक हकों के लिए लड़ने-भिड़ने अथवा आवाज बुलंद करने की रहनुमाई करनेवाला कोई धाकड़ व्यक्ति सामने नहीं आया या पैदा नहीं हुआ। आप छात्र-जीवन से ही संघर्ष और आंदोलन का महत्व जानते थे तथा आपमें अन्याय के खिलाफ एक व्यग्रता और तुर्शी भी व्याप्त थी...फिर क्यों आपने अपने इस गाँव को यथास्थिति में छोड़कर शहर में नौकरी करना पसंद किया और अपने संघर्ष की जमीन बदलकर औद्योगिक नगरी कर ली, जबकि आप पर गाँव-जवार का सबसे ज्यादा और सबसे पहला हक था?'

तौफीक मियाँ एकटक भैरव का मुँह देख रहे थे और देखते रह गये। उन्हें लगा जैसे सवाल भैरव ने नहीं उन्होंने खुद ही अपने आप से पूछा है...और वर्षों से पूछते रहे हैं। इसके कई जवाब भी उन्होंने ढूँढ़े हैं लेकिन वे आज तक खुद को संतुष्ट नहीं कर पाये। यह एक बड़ी विचित्र स्थिति होती है जब आदमी खुद के बारे में खुद ही सवाल करके खुद जवाब ढूँढे़ और फिर भी संतुष्ट नहीं हो पाये। पता नहीं क्यों उन्हें लगा कि भैरव के रूप में उनकी अपनी युवावस्था रिवाइंड हो गयी है। अचानक उन्होंने अपने हृदय के उस कक्ष का द्वारा खुला पाया जिसमें वे अपने अतिप्रिय जनों को उच्चासन पर बिठाकर रखते थे। भैरव को भी उन्होंने उस कक्ष में प्रविष्ट कर लिया। उन्हें उसमें वह कौंध दिखाई पड़ गयी जिसकी तलाश वे हमेशा ही करते रहे हैं। गाँव में पहले भी उन्होंने कई बार भैरव जैसे कई लड़कों को उम्मीद भरी निगाहों से देखा है और प्रेरित करने की कोशिश की है कि शायद जो वे नहीं कर सके ये लड़के कर पायें। लेकिन सभी उन्हीं की तरह रोजी-रोटी के अन्तहीन भँवर में फँसकर कुंद और मंद हो गये।

उन्होंने कितना चाहा था कि मर मिटे अपने इस गाँव-जवार के लिए...लेकिन हर कोई क्या इस काबिल होता है कि मर-मिटने का उसे नसीब मिल जाये। घर, समाज, धर्म, जाति, संस्कार, हैसियत कितना कुछ है जो उसे सीमित, प्रभावित और मजबूर कर देता है। तौफीक ने भैरव पर एक गहरे सान्निध्य की निगाह डाली और कहा, 'भैरव, नौकरी न मिली होती तो शायद मैं गाँव में रहकर इन चीजों में खुद को खपा देता जो तुम कह रहे हो। लेकिन जब मुझे एक नौकरी मिल गयी तो उसे छोड़ना मेरे वश में नहीं रह गया। अपने घर-परिवार के लिए एक नियमित आमदनी के जरिये की हमें सख्त जरूरत थी, दोस्त। पूरा घर मुझे एक अच्छी नौकरी में देखने के लिए रात-दिन दुआएँ कर रहा था...मैं कैसे ठुकरा देता उसे?'

भैरव को लगा कि दुआएँ तो यहाँ की बहुत सारी समस्याएँ और जहालतें भी कर रही थीं आपकी रहनुमाई की...लेकिन ये आवाजें आपको स्पष्ट सुनाई नहीं पड़ीं। वह इसके आगे कोई जिरह नहीं कर सका। उसकी अपनी स्थिति भी तो इसी प्रकार है। उसे भी तो पैसे कमाने होंगे। पूरा घर उसकी ओर भी टकटकी लगाये हुए है। उसके पिता प्रभुदयाल खेती पर निर्भर थे। अपनी जमीन एक-डेढ़ बीघा ही थी। अतः उन्हें कुछ और जमीन बँटाई पर लेनी होती थी। शफीक की तरह वे भी सीजनल नौकरी करते थे। लेकिन चीनी मिल में नहीं, नहर विभाग में। बरसात में जब गाँव के बगल से निचले तल पर बहने वाली सकरी नदी पानी से उपरा जाती थी तो नदी पर शटर गिराकर पानी ऊपरी तल पर बने नहर में ठेल दिया जाता था। नहर का वरदान बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण बाबू की देन थी। वे पन्द्रह-बीस कोस नीचे इस नदी के ही बाजू वाले मौर के निवासी थे। नदी ऐसी थी कि उसमें पानी लबालब होने के बाद भी आजू-बाजेू के गाँववालों को कोई लाभ नहीं पहुँचता था और यह पूरा इलाका पानी के बिना कृषि के मामले में बहुत ही पिछड़ा हुआ था।

मुख्यमंत्री श्रीबाबू ने अपने दम पर एक बहुत बड़ी परियोजना पास करवायी और नदी की करवट में मीलों नहर खुदवाकर नदी पर लोहे के शटर लगवाये और पूरे इलाके को हरा-भरा कर दिया। उस समय श्रीवाबू को शायद भ्रष्टाचार और घोटाला का व्याकरण नहीं मालूम था। नेता होने का मतलब वे जनता का सेवक होना समझते थे।

नहर से किसानों की खुशहाली तो बढ़ी ही, सैकड़ों ग्रामीणों को सीजनल नौकरी भी मिली।

प्रभुदयाल भी इसमें बहाल हो गये। वे शटर ऑपरेटर थे। जल-सतह के हिसाब से शटर को ऊपर-नीचे करते थे।

आज नहर की हालत जर्जर है और वह अब भगवान भरोसे है। उसकी देखभाल करने वालों की नौकरी खत्म हो गयी है। सिंचाई साधन के बिना खेतों का उपजाऊपन धीरे-धीरे कम होने लगा है। प्रभुदयाल जैसा छोटा किसान बहुत मुश्किलों से गुजरने लगा है।

चेहरा बुझ गया भैरव का। उसकी मानसिक दशा को तौफीक ने ताड़ लिया। कहा, 'उदास नहीं होते यंग मैन। हर दुख की अपनी एक मियाद होती है। परिस्थितियाँ आदमी को लाचार जरूर करती हैं लेकिन धुन के पक्के आदमी को वह परास्त नहीं करती। मेरी बहुत सारी सीमाएँ थीं जिन्हें मैं लाँघ नहीं सका। तुममें मुझसे बड़ी इच्छा-शक्ति है, तुम लँघ सकते हो इन्हें। जानता हूँ कि अपने घर को सँभाल लेने का दायित्व तुम्हीं पर आनेवाला है। लेकिन इसकी चिन्ता किये बिना पहले तुम अपनी तालीम पूरी करो। पढ़ो...खूब पढ़ो...तुम्हें बहुत कुछ पढ़ना है। सिर्फ किताबें ही नहीं इंसानों को पढ़ो...गाँव को पढ़ो...देश को पढ़ो...दुनिया को पढ़ो...पूरी कायनात को पढ़ो...पढ़ने का कोई अंत नहीं है, भैरव। कितना कुछ जमा कर रखा है पढ़ने के लिए। लेकिन मैं अब पढ़ नहीं सकूँगा...चाहता हूँ कि इन्हें तुम पढ़ो।'

भैरव को तौफीक का यह चेहरा किसी सूफी-संत का आभास दे रहा था। उसने पूछना चाहा कि क्या एक गरीब खेतिहर काश्तकार के बेटे का इतना कुछ पढ़ना लाजिमी है? उसने कहा, 'अंकल, मैं हमेशा बाढ़ आयी नदी में कूद जाने के लिए व्याकुल हो जाता हूँ। मुझे आप ऐसी किताबें दीजिए कि पढ़कर तैरना और पार उतरना सीख जाऊँ।'

'तैरना तो तुम पानी में उतरने के बाद ही सीख सकोगे, भैरव। हाँ, किस हालत में कितना दूर तुम्हें जाना है, इसका इल्म किताब जरूर देगी।'

'यह मेरे लिए एक बड़ी बात होगी, कामरेड अंकल।'

'यह बहुत बड़ी बात भी नहीं होगी, कामरेड भैरव।'

कामरेड संबोधन के आदान-प्रदान पर दोनों एक साथ हँस पड़े...ऐसी हँसी जो आपसी लगाव को अनौपचारिक कर देती है।

यही वह स्थल था जब तौफीक ने पढ़ाई आगे ले चलने में भैरव को सल्तनत का सहचर बना दिया। तौफीक ही थे जिनके बलबूते सल्तनत और उसका परिवार लतीफगंज में रह रहा था। वरना उसके जालिम और ऐयाश बाप ने अब तक पता नहीं उसकी माँ और भाई-बहनों की क्या दुर्गति कर दी होती। उसकी माँ को तो उस बेरहम ने पागल ही बना डाला था। मिन्नत बेगम अपनी तीन बेटियों और तीन बेटों को पालते-सँभालते एवं देखरेख करते निढाल और निश्चेष्ट हो जाती थी। उसके कामुक बाप ने समझा कि यह औरत निहायत ठंढी और ढीली हो गयी है। उसने एक कमसिन उम्र लड़की से दूसरी शादी कर ली और मिन्नत को घर की नौकरानी का दर्जा पकड़ा दिया। दो-चार साल बाद जब उसे दूसरी भी कुछ पुरानी होती दिखने लगी तो उसने तीसरी शादी कर ली। अब तक सल्तनत और उसकी दोनों बड़ी बहनें जन्नत और निकहत भी सयानी हो गयी थीं। मिन्नत अपनी बेटियों की मदद से घर का सारा काम करती...रसोई से लेकर घर के जानवरों का सानी-पानी और जन-मजूरों के रोटी-सत्तू तक। इसमें कुछ भूल-चूक हो जाये तो उस बेचारी को उसका कमीना शौहर जानवर से बढ़कर पिटाई करता और ऊपर से उसके साथ होकर सौतें भी जी भरकर कहर ढातीं। इन यातनाओं के बीच उसकी सहन-शक्ति पता नहीं कब जवाब दे गयी और उसका मानसिक संतुलन बिगड़ गया। बस उसके लिए न कोई बंधन रह गया, न नियम, न नियंत्रण, न अनुशासन। कभी नंग-धड़ंग हो जाना, कभी गाली-गलौज, कभी भाषणबाजी शुरू कर देना, कभी इस गली, कभी उस मोहल्ले में भटकते-डोलते निकल जाना। इन स्वेच्छाचारी हरकतों के कारण वह और भी पिटने लगी। माँ के प्रति स्वाभाविक पक्षधरता के कारण बच्चों पर भी सितम वरपा होने लगा।

बड़ी लड़की जन्नत शादी की उम्र को कई साल पहले छू चुकी थी और अपने बाप के वहशी रवैये से बहुत मुरझायी, मायूस और हताश रहने लगी थी। तौफीक ने देखा कि इसका बेगैरत बाप इस जवान लड़की की कोई परवाह करनेवाला नहीं है तो उन्होंने अपनी पहल करके अपने पड़ोस के गाँव मंजौर के एक लड़के इदरीश को तय किया और शादी करा दी। लड़का खाता-पीता किसान परिवार का था।

इसी वक्त उन्हें यह भी महसूस हुआ कि यहाँ मिन्नत और उसके अन्य बच्चों की बरबादी के सिवा कुछ नहीं होनेवाला तो शफीक के मना करने पर भी उन्हें अपने घर ले आये। शफीक अपने एकछत्र रहन-सहन में किसी हिस्सेदार का हस्तक्षेप नहीं चाहते थे। लेकिन वे अपने इस निहायत संजीदे एवं रौबीले भाई के रास्ते में अवरोध भी बनने का दम कहाँ रखते थे। लिहाजा वे तौफीक की गैरहाजिरी में अपनी इस सगी बहन और उसके बच्चों के प्रति बेमुरौव्वत हो जाया करते। बच्चों पर खूब कड़ाई बरतते...डाँट-फटकार करते और उन्हें घर से निकलने नहीं देते। मिन्नत की ऊल-जलूल हरकतों की अनदेखी नहीं करके उबल पड़ते और कभी-कभी तो अपना हाथ भी उठा देते। फिर भी वह अपनी विक्षिप्तावस्था में बेरोक-टोक निकल पड़ती गाँव के इस छोर...उस छोर। शफीक को बड़ी तौहीन लगती। खासकर तब जब वह किसी के कोई काम बिगाड़ देती और बिगड़े काम के नुकसान का रोना लेकर वो आदमी चेताने घर पहुँच जाता। वह अक्सर खूँटे से बँधे जानवरों को खोलकर स्वछंद घूमने के लिए हाँक देती...दीवार या गोइठौर पर ठोके हुए गोइठे को उखाड़कर नीचे गिरा देती...किसी को कुछ रखते देखती तो उसकी तरफ झपट पड़ती...किसी के कपड़े बाहर सूख रहे हों तो उन्हें कुएँ पर ले जाकर खँगालने लग जाती।

शफीक बेजब्त होकर मिन्नत पर डंडे बरसा देते। ऐसे में जन्नत, निकहत और सल्तनत को लगता कि जल्लाद बाप ने मामू के रूप में अपना वेश बदलकर यहाँ भी पिंड नहीं छोड़ा।

एक बार इसी तरह की नृशंस पिटाई के बाद मिन्नत घर से निकल गयी तो रात भर वापस नहीं आयी। बेटियों में निकहत और सल्तनत भी अब नादान नहीं थीं। वे समझ सकती थीं कि माँ माँ होती है चाहे वह पागल ही क्यों न हो। वे चिन्ता से परेशान हो गयीं। इनका बाहर निकलना मना था, यहाँ तक कि माँ को ढूँढ़ने की भी इजाजत नहीं थी। भाइयों में मझले और बड़े को तौफीक मामू ने पढ़ने के लिए अपने साथ ही रख लिया था। तीनों में जो छोटा था वह हद से ज्यादा शरीफ और सुस्त था। दुनियादारी उसे ज्यादा समझ में नहीं आती थी और उसकी देह भी जरा-सी तब हिलती थी जब उसे घंटों उकसाया जाये अथवा कोसा जाये। दो-चार जमात के बाद ही उसने पढ़ाई से तौबा कर ली और अपना समय ढोर-डंगरों के पीछे, पेड़ों पर या फिर जकीर मियाँ के खेतों पर बिताने लगा। माटी को विभिन्न क्रियाओं से गुजरते देखना और उसमें एक नन्हे सूक्ष्म जीव का विभिन्न चरणों के विकास द्वारा फसल के रूप में तैयार होते देखना उसके लिए सबसे पसंदीदा दृश्य था।

अतः इस सनकमिजाज माँ की चिन्ता करने वाला कोई नहीं था। शफीक ने कहा, 'इस उलटखोपड़ी के लिए इतना हैरान-परेशान होने की जरूरत भी क्या है? यह जिन्दा रहे या मर जाये कोई फर्क तो पड़ता नहीं...बल्कि इसका मर जाना ही हम सबके लिए ज्यादा तसल्लीबख्श होगा।'

इस दुष्ट बकवास पर सभी बहनें मन मसोसकर रह गयीं, लेकिन सल्तनत ने इसे बिल्कुल बर्दाश्त नहीं किया। वह अपनी अम्मा को ढूँढ़ने निकल गयी और उसने बुर्के को भी नजरअंदाज कर दिया, जबकि घर से निकलने पर उसे पहनना एक अनिवार्य नियम था। सल्तनत ने इस बंदिश की ऐसी-तैसी कर दी और अपनी सभी कर्मेन्द्रियों की शत-प्रतिशत क्षमता लगाकर अम्मा को ढूँढ़ने लगी। बुर्के में वह सिर्फ एक सुराख से आँख भर का ही इस्तेमाल कर पाती...नाक, मुँह, कान आदि होकर भी लगभग नहीं होते।

वर्षों बाद वह अपनी खुली आँखों से इस गाँव के चप्पे-चप्पे को निहार रही थी और उन्हें अपने भीतर जज्ब कर रही थी। गाँववाले भी देख रहे थे सल्तनत का निखरा-खिला बेपर्दा रूप जो माँ की तलाश में चिन्तातुर और गमजदा था। मिन्नत कहीं नहीं थी...न जानवरों के पीछे...न तालाब और कुएँ के आसपास...न घनी झाड़ियों और फसलों के बीच। जब इस गाँव में कोई रूठा, टूटा, हारा व्यक्ति कहीं नहीं होता था तो अन्ततः उसे बगल के सुनसान से होकर गुजरने वाली रेल लाइनों पर दूर-दूर तक ढूंढ़ा जाता था। ये रेल पटरियाँ अब धरती पर कहीं आने-जाने में सहयोग करने की बनिस्वत परलोक भेजने का माध्यम ज्यादा हो गयी थीं। पहले समय पर दो-चार लोकल ट्रेनें आती थीं। लोग लगातार इनके जरिये आसानी से और सस्ते में आना-जाना कर लिया करते थे। अब इनका कोई टाइम-टेबुल नहीं रह गया था। दिन के दस बजे वाली गाड़ी रात के दस बजे भी आ सकती थी या भोर के चार बजे भी। अतः अब कोई रेलगाड़ी के भरोसे स्टेशन नहीं आता।

इस स्टेशन पर मालगाड़ी के वैगन लोड किये जाते थे। कभी लकड़ियाँ...कभी पुआल...कभी ईख। अब वैगन भी नहीं आते, क्योंकि जंगल साफ हो गये...धान की उपज नहर के जर्जर होने से आधी से भी कम हो गयी...उचित मूल्य और प्रोत्साहन न मिलने के कारण किसानों ने घाटे में आकर ईख उपजाना भी छोड़ दिया।

स्टेशन के बगल में एक बाजार बस गया था। सैकड़ों ग्रामीणों का रोजगार चलता था। अब यह जगह बियावान-सूनसान हो गयी है।

सन्नाटे में बेमौके आनेवाली गाड़ियों से मरने के लिए रेल की पटरियाँ बहुत उपयुक्त माध्यम हो गयीं। सल्तनत रेल लाइनों की तरफ बढ़ गयी। दूर रेल की पटरियों पर चलता एक लड़का दिखा। उसने सोचा कि कहीं यह भी मरने तो नहीं आ गया। यह उन दिनों की बात है जब भैरव ने उसकी पढ़ाई में सहयोग करना शुरू नहीं किया था।

उस लड़के ने दूर से ही ताड़ लिया। पास आकर कहा उसने, 'मैं प्रभुदयाल का बेटा भैरव। तुम्हारी अम्मा आज रेल लाइन पर नहीं है...अलबत्ता कल थी और अब मेरे घर में है...जीवित। मैं पटरी पर से उठाकर उन्हें घर ले गया। तुम्हारे घर पहुँचाना उचित नहीं समझा, यह सोचकर कि शायद तुमलोगों को अब इनकी जरूरत नहीं रही।'

सल्तनत का कंठ जैसे अवरुद्ध हो गया। भैरव की वाणी और मुखाकृति उसे कुछ अलग लग रही थी। उसने पूछा, 'लेकिन तुम इधर रोज क्या करने आते हो?'

भैरव ने कहा, 'उजड़े दयार पर मर्सिया पढ़ने आता हूँ। तुम्हारी अम्मा की तरह इस वधस्थल पर कई लोग मिल जाते हैं...निराश, बोझिल, बदहवास।' उसने सल्तनत के चेहरे की प्रतिक्रिया देखी, फिर कहा, 'मेरे साथ घर चलो।'

भैरव आगे बढ़ गया। सल्तनत ने उसका अनुसरण कर लिया।

घर पहुँचकर देखा तो उसकी अम्मा एकदम नहायी-धोयी, साफ-सुथरी सामान्य जैसी तरोताजा लग रही थी और भैरव की माँ से कुछ बचकानी छेड़छाड़ तथा चुहल कर रही थी।

'सल्तनत।' भैरव ने पुकारा तो लगा जैसे कोई आलाप गूँज गया हो।

चौंक उठी सल्तनत। इस लड़के को उसका नाम कैसे मालूम। देर से पढ़ाई शुरू करने के कारण वह जल्दी वयस्क दिखने लगी। फिर आठ क्लास के बाद उसे स्कूल जाने ही नहीं दिया गया। उस वक्त तो यह भैरव स्कूल में उसे कहीं नहीं दिखा था।

भैरव ने राग मल्हार जैसी अपनी आवाज आगे बढ़ायी, 'सुना है कि तुम्हारे फिरकापरस्त मामू बुर्के में भी घर से निकलने की इजाजत नहीं देते। लेकिन आज तुम घर से भी निकल आयी और बुर्के की हद से भी। मैं समझ सकता हूँ कि आज तुमने बहुत बड़ा जोखिम उठाकर एक लाजवाब दिलेरी दिखायी है। सल्तनत, ऐसी दिलेरी बहुत जरूरी है जिंदगी के लिए। अपनी माँ अगर पागल भी हो तो वह माँ के हक से बेदखल नहीं होती। तुम्हारी अम्मा को तुम सबके सहारे और सहानुभूति की जरूरत है। कल ये रेल की पटरी पर लेटी थीं...मैं न पहुँच गया होता तो आज दो-चार टुकड़ों में बँटकर वहाँ छितरायी होतीं। जिसे खुदकुशी करने का ज्ञान हो उसे दिमाग से बिलकुल गैरहाजिर नहीं माना जा सकता। देखो तो अभी कितनी भली-चंगी लग रही हैं। इन्हें बचाओ, सल्तनत...चाहे इसके लिए कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े। माँ को बचाना हमारी एक बड़ी नैतिकता है...एक बड़ा फर्ज है।'

सल्तनत को लगा जैसे किसी सि़द्ध मौलवी की दिल के पार उतर जानेवाली तकरीर सुन रही हो। रूखा-सूखा-सा लगने वाला यह खुरदरा लड़का क्या दिमाग से इतना चमकदार है? उसने बहुत कृत्तज्ञता से उसे देर तक निहारा और पूछा, 'भैरव, क्या मैं पूछ सकती हूँ कि तुम्हें मेरा नाम कैसे मालूम हो गया?'

'तुम्हारा पड़ोसी जकीर मेरा जिगरी दोस्त है। तुम उससे पढ़ने के लिए जो नॉवेल लिया करती हो, दरअसल वे मेरे ही दिये होते हैं। मैं भी इधर-उधर से माँगकर जुगाड़ करता हूँ। नॉवेल पढ़ना मेरा भी शौक है। तुम्हारे बारे में जकीर मुझे अक्सर बताया करता है। गाँव में घटे गलत और नाजायज के खिलाफ तुम्हारे गुस्से का वह खास जिक्र किया करता है।'

'मैं तुम्हारा शुक्रगुजार हूँ, भैरव। तुमने मेरी माँ को बचाया।' सल्तनत ने बात बदल दी।

वह चली गयी। उसकी अम्मा ने साथ जाने इनकार कर दिया। उस दिन वह भैरव के घर ही रह गयी।

सल्तनत घर पहुँची तो वहाँ एक डरावनी-सी चुप्पी ठहरी हुई थी। शफीक गुस्से में उबलते हुए अपनी लाल आँखों से उसकी ही राह देख रहा था। घरवाले गुस्से के कारण आनेवाले जलजले को सोचकर सहमे हुए थे।

चिल्लाकर पूछा शफीक ने, 'कहाँ गयी थी नाम रौशन करने? वापस क्यों आ गयी...उस शैतान की दुम पगली को ढूँढ़ती रहती रात भर, तब न लोग समझते कि बड़ी हमदर्द और खैरख्वाह बेटी हो तुम।'

'जब वह मिल गयी तो उसे ढूँढ़ती क्यों रहती?...और आप चीख क्यों रहे हैं? ऐसा क्या गुनाह कर दिया मैंने? अम्मी सबके सिर का बोझ है तो क्या मैं भी उसे लावारिस हाल मर-खप जाने दूँ? वह जैसी भी है, मेरी माँ है और उसे मेरी देखभाल की जरूरत है।'

'हाँ हाँ खूब देखभाल करो...उसकी खिदमत में जुटी रहो रात-दिन...लेकिन इस घर की एक तहजीब है, वह तो तुम्हें पता है न! औरतों का घर से निकलना हमारी शान के खिलाफ है...अगर निकलना निहायत जरूरी हो तो उनके जिस्म पर बुर्का होना चाहिए।'

'मामू, आप गुस्सा छोड़कर ठंढे दिल से मेरी अर्ज पर गौर फरमाइs। वह जमाना लद गया जब मुस्लिम औरतें घर से निकलती नहीं थीं और निकलती थीं तो अपनी पहचान और वजूद पर बुर्के का खोल चढ़ा लेती थीं। आज अपने कौम की कई ऐसी मारूफ औरतें हैं जिन्होंने दुनियादारी के कई हलकों में कामयाबी पायी हैं और मकबूलियत हासिल की हैं। आपने तस्लीमा नसरीन, इस्मत चुगताई, कुर्तुल एन हैदर, शबाना आजमी, नजमा हेपतुल्ला, बेनजीर भुट्टो, खालिदा जिया, शेख हसीना वाजेद, मुमताज, मीना कुमारी, मोहसिना किदवई, रसूलन बाई, शमशाद बेगम आदि के नाम जरूर सुने होंगे...बुर्के को नजरअंदाज कर अपनी तासीर को सार्वजनिक न करती होतीं तो आज इन्हें जो कद्दावर ताआरूफ मिला है, न मिला होता।'

'किसी से बराबरी करने के पहले अपनी हैसियत और औकात देखनी चाहिए। जिसके पास पंख हो उड़ान वही भर सकता है। वे बहुत बड़े घर की खातूनें हैं...इन पर हँसने और मखौल उड़ाने की कूबत सबमें नहीं हो सकती। तुम क्या हो, पहले इसे समझो। एक छोटे घर, छोटी हैसियत और छोटी जगह से ताल्लुक है तुम्हारा। इस घर में रहना है तो इसके उसूल-कायदे मानने होंगे। इस बार मैं छोड़ देता हूँ...आइंदा अव्वल तो तुम्हें घर से निकलना नहीं है...अगर निकलोगी तो बुर्का तुम्हारे जिस्म पर खाल से भी ज्यादा जरूरी माना जायेगा, गुस्ताख लड़की।' शफीक ने मानो सल्तनत की गैरत की ऐसी-तैसी कर देनी चाही।

उस रोज सल्तनत खौलती रही मन ही मन। रात हुई तो उसने घर के सारे बुर्के को ढूँढ़-ढूँढ़ कर निकाला...ममानी की, बहनों की, अम्मी की, खुद की। उन्हें छत पर ले गयी और सबमें इकट्ठे माचिस लगा दी। बुर्के धू-धू कर जलने लगे। उसे लगा मानो पुश्त दर पुश्त चला आ रहा एक रिवाज, एक रूढ़ि, एक बेड़ी आज सर्वनाश के हवाले हो गयी। घर के सभी लोग आँखें फाड़कर देखते रह गये। शफीक को लगा कि यह लड़की भी अपनी माँ की तरह पागल हो गयी है। एक पागल की बेटी और हो भी क्या सकती है।

बुर्के से उठती आग की लपटें जैसे उनके भीतर भी प्रवेश कर गयीं...यह तो सरासर एक काफिराना रवैया है, जिसमें अपने दीन-धरम की तौहीन का मकसद छिपा है। इस शैतान लड़की को तो इसी आग में झोंककर भस्म कर देना चाहिए। बिरादरी के लोग अगर जान जायें तो इसका अंजाम निश्चय ही तिल से ताड़ बन सकता है। यह बेअदब लड़की फिर बच नहीं पायेगी, बदनामी होगी सो अलग। तौफीक का खयाल करके उन्हें बहुत मन मसोसना पड़ा ताकि कानोंकान खबर फैलकर कोई अनिष्ट न घट जाये। यों अंदर से वे खौलते रहे और चैन तब मिला जब तौफीक को टेलीफोन कर दिया कि वह यहाँ फौरन आ जाये, एक बहुत बड़ी वारदात हो गयी है।

तौफीक आये तो पूरा माजरा समझकर विस्मित रह गये। सल्तनत का यह एक नया परिचय था...नयी संभावनाओं और नये तेवरों से लबालब। उसने जो भी किया था...माँ को ढूँढ़ा था...भैरव के घर गयी थी...बुर्के को जलाया था...इन्हें अपराध की संज्ञा नहीं दी जा सकती। उन्होंने बड़े भाई के बमके और उखड़े हुए मजहबी मिजाज को बड़ी चतुराई से सँभाला और कहा, 'यह सचमुच एक नाजुक मसला है...कड़ाई से पेश आकर मैं सल्तनत पर लगाम जरूर लगाऊँगा। अच्छा हुआ आपने मुझे बुला लिया।'

तौफीक मन ही मन सल्तनत के भीतर निहित असहमति के आवेग को एक दिशा देकर रचनात्मक उपयोग करने पर विचार करने लगे। उन्होंने ठीक इसी मुकाम पर यह महसूस किया कि इस लड़की की रुकी हुई तालीम का आगे बढ़ाया जाना बहुत जरूरी है। इसके लिए भैरव ही उन्हें सबसे उपयुक्त शिक्षा-सारथी जान पड़ा। वे अब तक भैरव को बहुत अच्छी तरह परख चुके थे।

अक्षरों और अंकों के माध्यम से दुनियादारी की यात्रा शुरू हो गयी। वे किताब के पन्ने पढ़ने-पढ़ाने लगे लेकिन उन्हें गाँव भी समझ में आने लगा और एक-दूसरे के दुख-दर्द की आहट भी सुनाई पड़ने लगी।

तौफीक जानते थे ऐसा होगा...परन्तु वे किसी जाति, धर्म और परंपरा के प्रति कायल होने की फितरत के सारे बंद दरवाजे खोल चुके थे। उन्होंने खुद एक परित्यक्ता ईसाई लड़की से कोर्ट मैरिज किया हुआ था।

आठ से लेकर कम से कम दस क्लास तक पढ़ना था सल्तनत को। ख्वाहिश तो उसकी इससे भी बहुत आगे की थी। भैरव जैसा सारथी रथ चलाये तो सफर कोई क्योंकर खत्म करना चाहे। खासकर तब जब सारथी में गीता सदृश ज्ञान के परिदर्शन कराने की सामर्थ्य हो।

तो इसी समय-सागर की किसी तरंग पर सवार सल्तनत ने भैरव नाम का रूमाल बुनना शुरू कर दिया था।

सल्तनत मैट्रिक पास कर गयी और फिर प्राइवेट से उसे आई.ए. भी करवा दिया भैरव ने। आई.ए. तक पढ़ने वाली वह इस इलाके की पहली मुस्लिम लड़की थी। आई.ए. कर लेने के बाद तौफीक ने इन्हें कुछ किताबें दीं - गोर्की की 'माँ', बोरिस पास्तरनाक की 'डॉ जिवागो', कार्ल मार्क्स की 'दास कैपिटल' तथा इस्मत चुगताई और मंटो की कहानियाँ। कहा कि इन्हें जरूर पढ़ो।

सल्तनत और भैरव ने सचमुच खूब मन से एक-एक अनुच्छेद पर बहस-मुहाविसा कर-करके इन्हें पढ़ा।

इस बीच गाँव की सूरत में काफी बड़ा फर्क आ गया...वह बद से बदतर होती चली गयी।

मोहिनी शुगर मिल बंद हो गयी। वह चलती थी तो पाँच-छह कोस दूर से चिमनी का धुआँ दिखाई दे जाता था और रात में चारों ओर चीनी बनने की सोंधी सुगंध हवा में घुल-मिल जाती थी।

मिल के चालू होते ही सबकी आँखों में एक चमक उतर आती थी। किसानों-मजदूरों के हौसले बुलंद हो जाते थे कि अब उधार-पैंचा कुछ कम हो जायेगा और हाथ में कुछ नगद-नारायण आ जायेगा, जिससे परिवार के कपड़े-लत्ते, नून-तेल तथा साबुन-सोडे की चिंता दूर हो जायेगी।

गाँव का लगभग हर किसान अपनी आँखों में उम्मीद का एक दीया जलाकर अपने खेत की केतारी की फसल का लहलहाना नित नहीं तो सप्ताह में एक-दो दिन जरूर देख लेता था। गाँव का एक पूरा बाँध केतारी से पटा पड़ा होता था जैसे एक घना जंगल प्रकट हो गया हो। कोई आदमी अगर छुपना चाहे या इस दुनिया से दूर होना चाहे तो केतारी फसल के बीच में समा जाये, उसे कोई ढूँढ़ नहीं सकता। कहते हैं एक बार पीछा करने पर कुछ चोर भीतर घुस गये। गाँववाले कई दिनों तक बाँध को घेरे रहे लेकिन चोर का पता नहीं मिल सका।

इस सीजन में गाँव का हर आदमी चाहे वह बिन जमीन-जोत का ही क्यों न हो, केतारी चिभ-चिभ कर अघाया रहता। बाहर से ट्रक में भरकर आनेवाली केतारी का रास्ता भी गाँव से होकर ही था। मस्जिद के मोड़ के पास ट्रक धीमा होता तो गाँव के लड़के बढ़िया पोड़ावा प्रजाति देखकर दो-चार डाँढ़ खींच लेते और फिर आराम से चीभते रहते।

गन्ने की फसल को सुनिश्चित और सुव्यवस्थित करने के लिए राज्य सरकार के सिंचाई विभाग की ओर से कोई बीस साल पहले इस इलाके के प्रायः हर गाँव में एक-एक, दो-दो बड़े आकार के ट्यूबवेल लगाये गये थे। इसके लिए खासतौर पर बिजली लायी गयी थी। बिजली आ जाने से कई बड़े किसानों ने अपने निजी ट्यूबवेल भी लगा लिये थे जिनसे गन्ने के अलावा दूसरी पैदावार को भी बड़ा बल मिल गया था। चूँकि केतारी बोने का समय लगभग माघ-फल्गुन होता है, इसके लिए ठेहुने तक बढ़ते-बढ़ते कमसिन उम्र में कई बार इन्हें कोड़ने और पटाने की जरूरत होती थी।

चुन्नर यादव, फल्गू महतो और नगीना सिंह गाँव के सबसे बड़े जोतदार थे। इन दोनों ने अपने ट्यूबवेल तो लगाये ही, साथ ही धान कूटने का हालर, गेहूँ पीसने की चक्की तथा सरसों-तीसी पेरने का एक्सपेलर भी बैठा लिया। इस तरह बिजली आ जाने से गाँववालों को काफी आसानी हो गयी। जो काम शहर में जाकर कराना पड़ता था, वह यहीं होने लगा।

गेहूँ की दौनी के लिए भी थ्रेशर मशीन लग गयी। पहले गेहूँ के डंठल को तपी हुई धूप में सुखाना पड़ता था और तब चिलचिलाती धूप में ही छह-आठ बैलों को खूँटे में एक साथ बाँधकर गोल-गोल घुमाया जाता था, जिसे दमाही करना कहते थे।

केतारी पेरने की छोटी मशीन भी अब बिजली के मोटर से चलने लगी थी। प्रायः किसान थोड़ी-सी केतारी बचाकर गाँव में ही पेर लेते थे। पहले इसे बैलों से घुमाना पड़ता था और काफी समय जाया हो जाता था। अब आसानी से रस निकालकर उसे कड़ाह में खौला लिया जाता और गाढ़ा होते-होते वह रवा बन जाता, जो रोटी या चूड़ा के साथ खाने या फिर घोलकर रस बनाने में सालों भर काम आता था।

पता नहीं कैसा गणित काम करने लगा कि लगने वाले समय और मेहनत के हिसाब से किसानों को दूसरी फसलों की तुलना में केतारी घाटे का सौदा हो गयी। उसका खरीद-मूल्य बढ़ाने पर मिल-मालिक को लगा कि भारी नुकसान हो जायेगा। लिहाजा दोनों तरफ से तनातनी हुई और फिर मिल-मालिक ने इसे अपनी मिल एक सहकारी संस्था को दे दी...लेकिन कुछ दिन चलाने के बाद यह संस्था भी समर्थ नहीं हुई और मिल स्थायी रूप से बंद हो गयी। किसानों ने भी केतारी उगाना बंद कर दिया। केतारी-बाँध में अब दूसरी फसलें उगायी जाने लगीं...फिर भी कहीं-कहीं से केतारी का कोई नन्हा-नाजुक कोंपल जमीन से झाँक उठता, जैसे याद दिला रहा हो कि इस निष्ठुरता से उसे भुला देना क्या अच्छा है?

नगद आमदनी करानेवाली इस फसल के अस्तित्व का जब लोप होने लगा तो स्फूर्ति और जोश में रहनेवाले जकीर मियाँ का चेहरा निस्तेज हो गया। पहली बार महसूस हुआ कि बाजार नामक एक अदृश्य शिकंजा गर्दन को कसा हुआ है कि आप अपनी मर्जी से अपनी मन-पसंद फसल भी उगा नहीं सकते। शफीक मियाँ तो जैसे एकदम बौरा ही गये। अब उनके पास आमदनी का कोई जरिया नहीं बचा। कैसे होगी उनकी गुजर-बसर? आखिर भिखमंगी करके कितना दिन चलेगा? उनके बच्चे भी सयाने हो रहे थे।

मतीउर खेती के कार्य-कलाप में जकीर के साथ बहुत आकर्षित रहता था। सल्तनत ने उसकी इस दिलचस्पी को भाँपते हुए गुमसुम और फिक्रजदा शफीक से कहा, 'मामू, आपके पास जो चार-पाँच बीघा जमीन है, उसे खुद से आबाद क्यों नहीं करते? मतीउर को बहुत मन लगता है खेती में...आप उसकी सिर्फ रहनुमाई कर दीजिए, वह सब कुछ कर लेगा। आखिर उसे भी तो कोई रोजगार-धंधा चाहिए ही...कब तक यों ही मटरगश्ती और जकीर मियाँ की फोकटिया बेगारी करता रहेगा?'