साँझी विरासत / लता अग्रवाल

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"अइयो...रा धा! तुम अमारा कलसा कायकू हटाया जी! ...तुम क्या अमको पागल समझता... आँ! मैं सुब्ब से इधर कलसा लगाया और तुम आकु उसको पीच्छू में कर दिया... अइसा नहीं चलेगा...आँ! चलो हटाओ अपना बाल्टी, मैं पेले पानी भरेगा।"

कहते हुए जयश्री रंगनाथन ने राधा की बाल्टी उठाकर ज़ोर से पीछे रख दी तो राधा भी कब पीछे रहने वाली थी, आँखें निकालकर हाथ मटकाकर जयश्री की नक़ल करते हुए बोली-

"आई बड़ी अइयो...पेले पानी भरेगा!"

चाॅल में इस तरह की तकरार रोज़ ही किसी न किसी के साथ होती क्योंकि जहाँ आँगन के साथ-साथ नल से लेकर शौचालय तक साँझा हो वहाँ इस तरह की तू-तू, मैं-मैं आम बात थी। कभी कोई कुलकर्णी काकू के लिपे और रंगोली सजे पर से पैर रखकर निकल जाता तो कभी जाली पर टंगी सतनाम परजाईजी के सलवार के नाडे से टपकता पानी वहाँ से निकलते मिश्राजी के सिर पर टपक जाता उनका शगुन बिगड़ जाता ..., शुभ काम के लिए निकले मिश्राजी को लौटकर फिर से नहाना पड़ता। ऐसे में मिश्राइन आग बबूला हो सतनाम को धो डालती।

" अरे सतनाम! तोहरासे केतना हाली कहनी कि आपन ढाई फुट के लाँहगा ईहाँ न पसारल कर। पर तोहरा बुझान नईखें, मरद जात पर मइल पानी चुआवत रहेलू। तोहके परलोक की भी चिंता न बा। अरे! नरक में जगह पइबू नरक में। मति खराब होगईल बा ससुरी की...समझ न आवेला बात। (अरी सतनाम...! कित्ती बार कहा है अपना यह ढ़ाई फुट का लहंगा यहाँ मत चैड़ाया कर। अरे! मरद जात पर गंदा पानी टपकाती है। तुझे परलोक की भी चिंता नहीं है, अरी! नरक में जगह मिलेगी नरक में। मति खराब हो रखी है ससुरी की, समझ नहीं आती बात।)

इसी तरह फर्नांडीस अंकल और रज्जो बुआ का तो मानो छत्तीस का आंकड़ा हो, इधर फर्नांडीस अंकल का दफ्तर के लिए निकलने का वक़्त होता उधर रज्जो बुआ की रसोई से सब्जियों का कचरा खिड़की से बाहर फेंकने का समय होता कचरा सीधा अंकल के ऊपर,

"ओ षिट्...! टुम! अमारा उपर कचरा फेंका मेन...हम तुमको उठाकर कचरा का डिब्बा में डाल देगा। अक्खा बिल्ड़िंग के नाक में दम करता है... टुम लोग।"

रज्जो बुआ हमेशा की तरह अपनी दांतों की सफेदी दिखा देती। बेचारे फर्नांडीस अंकल ।

उधर वर्माजी का मोटा सा, नटखट बेटा चिंटू सबसे बढ़कर जब बनर्जी साहब को शौचालय जाते देखता झट ख़ुद घुसकर अंदर से कुंडी लगा लेता ऐसे में कोई अन्य शौचालय खाली न हो तो स्थिति देखने लायक होती।

रोज ही इस तरह की गदर चाल में मची ही रहती। आख़िर अलग-अलग संस्कृति से जुड़े लोग जो थे। सबका अपना जीने का अंदाज़ था अपने संस्कार थे, स्वभाव था। मगर एक बात अवश्य थी सबमें कि चाहे कितना भी क्यों न लड़ लें सुख-दुख उनका साँझा होता। आए दिन उत्सव-सा रहता, यहाँ कभी ईद तो कभी क्रिसमस कभी गुडी पडवा तो कभी गणेष उत्सव, दीपावली तो कभी चेती चांद सब मिल जुलकर मनाते। सो हर दिन रौनक लगी रहती। किसी के घर कुछ पकता तो दूसरे की रसोई में पहले महक पहुँच जाती। मिश्राइन तो हक़ से पहुँच जाती अपने हिस्से का भोग लगाने। ज़ुबान की ज़रूर कुछ कड़वी थी मगर दिल मिश्री की डली-सा था किसी की जरा-सी तकलीफ के आंसू गिरे नहीं झट घुल जाती। किसी के यहाँ हारी-बीमारी हो या बच्चा होना है, कोई अस्पताल में है सहारे के लिए मिश्राइन काकी जिंदाबाद। वही चिंटू जो कभी चाॅल वालों को मारे प्रेषर के कूद लगवा देता, किसी को कहीं जाना है, किसी का सामान पहुँचाना है एक आवाज़ भर देने की देरी होती अरे चिंटू! आज तेरे ताऊ डिब्बा यहीं भूल गए रे।

"कोई बात नहीं ताई मैं अभी साइकिल से दे आता हूँ।"

जिस तरह भोजन की थाली में केवल मीठा पकवान हो तो भोजन पूरा नहीं होता कुछ खट्टा कुछ तीखा भी ज़रूरी है वैसे ही खट्टे-मीठे-तीखे थाल से सजा था ये चाॅल।

कुलकर्णी काकू के घर पूरन पोडी बनती तो झट प्लेटे सभी के यहाँ पहुँच जाती वहीं जयश्री के हाथों बने डोसे तो पमजीते के छोले भटूरे, मिश्राइन के हाथों बनी मिस्सी की रोटी, लालवानी की सिंधी कढी, अनुराधा के खाखरे-थेपले सारे जायके थे इस चाॅल में। बच्चे आपस में लड़ते मगर एक साथ आंगनों में पिकनिक भी मनाते। खेलते-खाते कब उनका वक़्त निकल जाता पता ही नहीं चलता।

यहाँ आज भी रिष्तों में पाष्चात्य प्रभाव प्रवेष नहीं कर पाया था सब आपस में काका, काकी, चाचा, ताऊ, मामा और फूआ ही थे। वैसा ही देसी प्रेम भी था। परदेसी भाभी स्वेटर बनाने निकालती देखते ही देखते कोई एक आस्तीन ले लेता, कोई दूसरी कोई आगे का हिस्सा बनाता कोई पीछे का कोई गला लो हो गया चार दिन में स्वेटर तैयार।

नौ सुख थे यहाँ तो एक अभाव भी था वह था यहाँ कुछ भी पर्सनल नहीं था। न सुख न दुख। किसी के घर आने जाने का कोई समय नहीं यहाँ तक कि अगर किसी को कुछ भी खरीदना है एक फेरी वाले को बुलाकर सभी भाव कर एक साथ खरीदेंगी कोई सिक्रेट नहीं...सब सांझा था। रत्ना को यह बात बहुत खलती। रत्ना खरे जी की पत्नी जो चाहकर भी झूठ नहीं बोल पाती कि फलां चीज उसने बड़े माॅल से खरीदी है। यह एक कमी रत्ना की तमाम खुशियों पर भारी थी। ब्याहकर कानपुर से आई थी तब पति की छोटी-सी नौकरी थी न खाना बनाना आता न गृहस्थी सम्हालना। मोहन्ती ताई से रसोई की टेªनिंग ली, रज्जो बुआ ने बच्चे सम्हालना सिखाया। सरजू काकी, सतनाम परजाई सबने मिलकर उसे हाथों पर रखा। दोनों बेटे के जन्म पर जब गाँव से कोई नहीं आ पाया तब चाॅल के लोग ही थे उनमें सबसे आगे मिश्राइन सभी ने कहा, 'चिंता मत कर दुलन हम हैं ना सब सम्हाल लेंगे।' और सम्हाल भी लिया। मगर अपना कमजोर वक़्त भी भला याद रखने की चीज है। वह समय की बात थी उसके एवज में उसने भी तो मैंके से आई छोछक में सबको साड़ी दिलवाकर अपना पैर ऊँचा कर लिया।

उसका पति आलोक अब अच्छी तरक्क़ी कर गया आलोक को भले ही पद का गरूर न आया हो मगर रत्ना को अब गाहे-बगाहे सबका यूं घर के अंदर आना खलने लगा। ' अरे तहजीब भी कोई चीज है भला कोई अपने घर में षांति से न रहे ...क्या बात हुई। अब आस पड़ौस की आवाजें उसे चक-चक लगने लगी। वह आये दिन आलोक से कहती,

" यहांँ से निकल चलो बहुत हो गया, अब कहीं शाति से रहेंगे जहाँ वक्त-बेवक्त चले आने वाला कोई न हो, बच्चे भी बड़े हो गए उन्हें अच्छा कलचर देना है चाॅल के बच्चे तो बस झगड़ा, खेल और खाने में ही उलझे रहते हैं उनका भी कोई भविष्य है भला। मेरे रोहन और शेखर को पढ़ना है बड़ा अफसर बनना है। थोड़ी शांति मिलेगी तभी न पढ़ पाएंगे। आलोक ने दलील दी,

"यहाँ सब अपने है भरोसे के लोग हैं मैं बाहर रहता हूँ तो चिंता नहीं होती ।"

मगर आलोक की रत्ना के सामने कहाँ चलने वाली थी। एक ओर हम वैष्वीकरण की बात करते हैं दूसरी ओर हम सबने अपने-अपने कुएँ बना रखे हैं, अपने वर्तुल, जिसमें कछुए की तरह ख़ुद को समेटे आत्मकेन्द्रीत बने रहना चाहते हैं। सांप की तरह केंचुली ओढ़ हम अपनी-अपनी खुषियाँ खोजने में लगे हैं। इस बात से अंजान कि हम चाहे किसी भी खोह में षरण पा लें, संवेदनाओं की अनदेखी नहीं कर सकते।

चाॅल का छोटा-सा मकान एक छोटी-सी रसोई दो छोटे कमरे जहाँ शाम सारा परिवार एक साथ बैठकर टी वी देखता, वहीं बच्चे पढ़ भी लेते। एक को दिन में बैठक तो रात में अपना सोने का कमरा बना लेते। सामंजस्य बैठाना बहुत आसान लगता। मगर रत्ना की ज़िद थी सो विवष आलोक ने काॅलोनी में एक डुप्लेक्स ले लिया किन्तु चाॅल का मकान रत्ना के कहने पर भी नहीं बेचा। बेहद लगाव था उस मकान से, ज़िन्दगी की शुरूआत उस मकान से की थी काफ़ी कुछ पाया था उस मकान से उससे बढ़कर ...वहाँ के लोगों से मिला अपनापन।

चाॅल वालों ने भारी मन से विदाई दी। उनके लिए तो उनके षरीर का ही कोई हिस्सा था यह परिवार एक दम कैसे अलग करते। रत्ना ने ज़रूर समय की धुंध में चाॅल की स्मृतियों को उड़ाने का प्रयास किया हो, हाँ! चाॅल वालों का आना-जाना बराबर बना रहा, रोहन और शेखर बड़े हो रहे थे साथ में मार्डन भी कभी छोटी-छोटी बातें माँ से साझा करने वाले बच्चों का अब हर मेटर उनका पर्सनल होता। मोबाइल की रिंग बजते ही मोबाइल ले छत पर निकल जाते बात करने। रत्ना सोचती वह क्या इतनी पराई हो गई है बच्चों के लिए, उसे निर्णय लेने का कोई अधिकार नहीं...एक बार उसने रोहन से कहा,

"रोहन! तुम्हारी दो षर्ट छोटी हो गई थीं सो मैंने उन्हें कामवाली बाई को दे दिया उसके बच्चे पहन लेंगे।"

"मम्मा! आपने मेरी शर्ट मुझसे पूछे बिना क्यों दे दी, जानती हो आजकल छोटी शर्टो का ही फैशन है...आप न आइंदा मेरी कोई भी चीज मुझसे पूछे बिना किसी को नहीं देंगी, समझे!"

समझ गई थी रत्ना कि उसके बच्चे बड़े हो गए हैं।

दोनों अक्सर मोबाइल पर लगे होते, रहे सहे कम्प्यूटर पर। रत्ना बात करे तो किससे उनके कमरे में जाकर बैठती तो बच्चे अनकम्फर्ड महसूस करते। आसपास डुप्लेक्स में सभी संभ्रांत लोग थे भला उनके यहाँ बिन बुलाए जाकर वह अपने आप को अनकल्चर्ड कैसे साबित करती थी, सो अकेली घर में बैठी रहती। अब उसके पास समय ही समय था, उसे कैसे ख़र्च करे समझ ही नहीं आता। रत्ना को याद आता खोली में शाम को कैसे पूरा परिवार एक साथ बैठकर टी वी देखता, हंसी मज़ाक करता। अब तो बच्चों ने अपने-अपने कोने नियत कर लिए। वहाँ सब आंखों के सामने रहते। घर घर-सा लगता। लगता था कि इस नीड़ में पंछियों का बसेरा है, अब तो खाली सन्नाटा खाने को दौड़ता।

तरक्की के साथ आलोक को दफ्तर में वक़्त भी ज़्यादा देना पड़ता, आने के बाद थोड़ा बहुत समय मिलता तो अखबारों और टीव्ही में बीत जाता। शिकायत करती तो कहते तुम्हें ही शौक था ...अब रहो अकेले।

घर में अजीब-सी खामोशी छाई रहती। रिष्तों में जब खामोशी छा जाए, समझो रिश्ते कमजोर पड़ रहे हैं। रिश्तों के डोर की यह कमजोरी रत्ना को खल रही थी। वह इन रिष्तों को कमजोर पड़ते नहीं देख सकती थी। कहे भी तो किससे...और कैसे ...? फ़ैसला तो उसका ही था। अब उसे चाॅल बहुत याद आती। जहाँ दिन कितना छोटा लगता था अब पहाड़-सा दिन काटे नहीं कटता।

कहांँ तो उसने सोचा था नए मकान में उसे शांति मिलेगी मगर यहाँ तो अकेलापन उसे अषांत किए दे रहा है। वह अक्सर ख़ामोश रहती...रोहन की अहमदाबाद बैंक में नौकरी लग गई... शेखर हैदराबाद की प्रायवेट कंपनी में एच. आर. बन गया। चाॅल में उनके लिए उत्सव रखा गया। मोहन्ती ताई, रज्जो बुआ, मिश्राइन काकी बलाएँ लेते न थकती थीं। कितने खुश थे सब ...साथ के बच्चे भी ...किसी में ईर्ष्या का भाव नहीं दिखा। बच्चों के जाने के बाद रत्ना टूट-सी गई। बच्चे घर में थे तो ...गुमसुम-सी ही सही सरसराहट तो थी कमरों में चाहे अपने में ही रमे रहते, कभी आपस में लड़ते-झगडते, कभी स्वयं रत्ना ही उनके कमरे को व्यवस्थित करने के बहाने वहाँ चली जाती,

" रोहन! देखो तो तुमने अपना कमरा कैसे फैला रखा है... और शेखर! तुम कम से कम अपने कपड़े वाशिंग मशीन तक तो ला सकते हो..., तुम लोग बड़े हो गए हो, क्या अब ये सब भी मुझे ही देखना होगा,

मगर ...अब ... देखने को कुछ नहीं था, घर में गिने चुने दो लोग...जिनमें आलोक अपना आधा-सा काम ख़ुद ही कर लेते थे।

ये बच्चे ही तो उसकी धुरी थे, सच! माँ होना एक फुल टाइम जाॅब ही तो है पता ही नहीं चलता बच्चों के बचपन के साथ वक़्त कब बीत जाता है। उसे लगता था किसी ने उसे जाॅब से बर्खास्त कर दिया है वह बरोजगार कर दी गई है। अब वह किसके लिए चले–फिरे, बनाए... खाए। आलोक तो कभी कोई फरमाइश करते ही नहीं जो बना चुपचाप खा लिया...यहाँ तक नमक कम-ज्यादा होने पर भी शिकायत नहीं करते।

रह सहकर उसके खालीपन में और इज़ाफ़ा हो गया जिससे वह बचना चाहती थी।

उम्र का पड़ाव था यह जब मन सम्बंल मांग रहा था मिला बच्चों से अलगाव। उस पर मनोविज्ञानिक प्रभाव पड़ा। आज पूरे देश का यही हाल है, बच्चों को पालने पोसने में मां-बाप अपने सपने बिसरा देते हैं, उनकी तरक्क़ी पर पहले तो ढ़ोल पीटते हैं बेटा / बेटी इतने लाख के पैकेज में विदेस गए। बाद में अकेले रह सिर धुनते हैं। क्योंकि तब तक वे अपने स्वयं के ज़िंदा रहने के सारे बहाने खो चुके होते हैं। यही स्थिति रत्ना की भी थी। वह अकेले रहती तो रोती रहती। अंदर की घुटन उसे बैचेन किए रहती। पास-पड़ौस में बात करे भी तो किससे...? उनमें वह अपनापन नज़र नहीं आता। वह जीवन का महत्त्व जान चुकी थी। अतः उसे लगता ये ऊंचे मज़बूत बंगलों में थके-मांदे टूटे लोग है जो अपने में गुम चेहरे दिखाई देते थे। विलासिता में डूब इतने संवेदनहीन हो गए हैं कि हंसना भूल गए थे। ज़िंदा होकर भी चलती-फिरती लाश से प्रतीत होते हैं जो कभी भूले भटके अपनी कब्रों से बाहर निकलते दिखाई दे जाते हैं। चेहरे पर वही शून्यता जिनसे कुछ कहना-सुनना भी फिजूल लगता। दूसरी ओर अभावों-संघर्षों में रहकर भी सदा जिंदादिल, अदम्य जीजिविषा लिए, एक दूसरे की तड़प में कराहने और सुख में झूमने वाले चाॅल के लोग उसे याद आते। शायद छोटी-छोटी चीजों के लिए उनका संघर्ष ही उन्हें यह साहस देता था कि वे हर शिकस्त के बाद मुस्कुराकर उठ खड़े होते, जैसे कोई बालक गिरने के बाद धूल झाड़कर खड़ा हो जाता।

सभ्यता का खोखलापन रत्ना को खल रहा था। धीरे-धीरे उसके स्वास्थ्य पर इसका प्रभाव पड़ने लगा। आलोक ने डाॅक्टरों को दिखाया तो उन्होंने साफ़ कह दिया,

" कुछ नहीं हुआ इन्हें बस, अकेलेपन डस रहा है। चाॅल से सब आए ख़बर लेने...मिश्राइन देखते ही रूआंसी हो गई, यूँ तो ढ़लती उम्र ने कई बीमारी उन्हें उपहार में दे दी थी किन्तु रत्ना की यह हालत उनसे देखी न गई बोलीं-

हाय! का हाल बना लेले बाडू आपन, ए दुल्हिन! देखऽत कईसन दुबरा गइल बाडू। (उन्होंने अपना फ़ैसला सुना दिया) अबे जब तले दुल्हिन ठीक नइखी हो जात, हम ईहवें रहब एकरे भीरी। (हाय! दुलन कैसी हो गई है ...? क्या हालत कर ली है अपनी? उन्होंने अपना फ़ैसला सुना दिया। अब जब तक दुलन ठीक नहीं हो जाती मैं यहीं रहूँगी इसके पास।)

आलोक ने देखा मिश्राइन काकी के आने से कई दिनों बाद रत्ना के चेहरे पर हंसी दिखाई दी। वह बातें ही इतनी करतीं कि कोई चाहे भी तो चुप नहीं रह सकता।

आलोक को रत्ना का इलाज़ मिल गया उसने अपना सामान पैक किया और वापस चाॅल में आ गया। चाॅल जहाँ वैसे तो दस सालों में काफ़ी कुछ बदल गया था। कमरों की कुछ दीवारों के रंग बदल गए। कुछ परिंदे अपने नए घरौंदों में उड़ान भर गए थे तो कुछ नए चेहरे चाॅल मेंष्षामिल हो गए थे। मगर नहीं बदला था तो परिवारों के बीच अपनापन। सुबह होते ही घर में फिर से रैल-पैल रहने लगी। कभी कोई आवाज़ दे रहा है "रत्ना! चल ज़रा छत पर बड़ी तोड़ लें।" तो कोई बच्चा तोतली ज़ुबान में कहता ताई! ताई! मम्मी आपको बुला लई है, फेरी वाला आया है। " चाॅल का हर बच्चा आते-जाते पूछता जाता

"काकी! किसी चीज की ज़रूरत तो नहीं..."

रत्ना के चेहरे पर धीरे-धीरे पुरानी खोई चमक आने लगी। वह जानती थी कि उसके इस फैसले से अब शायद रोहन और शेखर खुश न हो। मगर वह जान चुकी थी भले ही हमने अपने कुएँ निर्मित कर लिए हैं, मगर उस कुएँ की सार्थकता तो उसके भीतर फूट रहे स्रोत से ही है स्रोत के न रहने पर कुआं, कुआं न रहकर मात्र एक अंधेरी खोह के कुछ नहीं है। आज रत्ना ने वह स्रोत खोल दिया था, अपने ऊपर की केंचुली को उतारकर फेंक दिया था। स्वीकार लिया है उसकी अपनी ख़ुशी इन्हीं लोगों के बीच थी। इन्हीं सांझी छतों में... और रत्ना ने अपनी ख़ुशी चुन ली थी।