सांझी बट्ट / गुरदीप सिंह सोहल

Gadya Kosh से
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गांव का नाम मोहम्मद पुरिया।

सरदार हरनाम सिंह के घर में काफी चहल पहल थी। गांव को आबाद हुए कितना समय हुआ है यह तो पक्के तौर पर कहा नहीं जा सकता परन्तु इस बात को पूरे विश्वास के साथ कहना पड़ता है कि इस गांव की नींव ही सरदार हरनाम सिंह के पूर्वजों द्वारा ही रखी गयी है। उसका परिवार गांव का प्रतिष्ठित कुनबा था। जब उसके पूर्वजों ने इस स्थान को अपना ठिकाना बनाया था तब, उस समय वहां पर केवल दूर-दूर तक रेत के टीले-ही-टीले नजर आते थे, जमीन बिल्कुल ही बारानी थी, पानी का कोसों तक नामोंनिशान दिखाई नहीं देता था, हर सांस के साथ बालू-रेत शरीर में प्रविष्ट हो जाती थी और शरीर भी जैसे रेत का टीला होकर ही रह जाया करता था, वह जगह किस प्रकार से आबाद हुई या कितनी बड़ी कोशिशों के बाद आबाद कर अस्तित्व में लाई गई यह बात केवल हरनाम सिंह या उसका अकेला परिवार ही जानता है। केवल वे लोग ही जानते हैं कि जब उन्होनें सर्वप्रथम उस स्थान पर डेरा लगाया था, ढ़ाणी की तरह उजड़े प्रदेश में कच्चे मकान खड़े किये थे, हर वक्त लुटेरों का भय रहता था, जो किसी भी समय हल्ला बोल दिया करते थे। न रात देखते थे और न ही दिन। सामान की उन्हें कोई परवाह नहीं होती थी। जो भी मिलता लूटकर ले जाते थे। चाहे वो ढोर-डंगर हों, खाने-पीने का सामान हो या फिर औरतें। मर्दों को गुलाम बना लिया करते थे और औरतों को दासियां या वेश्याएं। अपने इसी सामान की सुरक्षा के लिये उनकी रातों की नींद और दिन का चैन हराम हो जाया करता था। वे कभी भी किसी भी समय मुकाबले के लिये तैयार रहते थे। मुकाबला करना उनकी मजबूरी के साथ-साथ आवश्यकता भी थी वरना उन्हें कोई भी आजादी से, आराम से जीनें नहीं देता था। सारी उम्र परेशान करता। लुटेरों से दो-दो हाथ करते-करते अपने माल और असबाब की रक्षा की और कालान्तर में आबाद होते गये। परिवार में सदस्यों की संख्या बढ़ी। कच्चे-पक्के मकान बने और होते-होते, बनते-बनते, बिगड़ते-बिगड़ते, वह स्थान लगभग 200 घरों की आबादी का गांव बना और नक्शों में आया, आबादी बढ़ी, सड़कों से जुड़ा, नहरें आयीं, पानी आया, बिजली आयी और बिजली आने के साथ-साथ आधुनिक सुविधाओं की आवश्यकता महसूस हुई और टेलीफोन आया, टेलीविजन आया, रेडियों आया, कूलर आया, पंखा आया। इन सबके साथ-साथ ही आयी राजनीति। वैल्फेयर की नहीं बल्कि फेअरवेल की। आने वाले हर पंच या सरपंच ने (लीडरों) नेताओं को जी भर गाली दी। उनकी ऐसी जड़ काटी के वे कभी फिर से कामयाब नहीं हो सके। उनकी हर बात में रोड़ा अटकाया, हर नीति को बुरा बताया। शुरू किये हुए हर काम को बन्द ही नहीं किया बल्कि हर उस काम को जिसे भी प्रारम्भ करने की घोषणा की। समाज के खिलाफ बताया और खुद को जनता का सेवक बनाने की भरपूर कोशिश की। ऐसी कूटनीति की राजनीति की कि हर आदमी एक दूसरे का दुश्मन, जान का प्यासा और आंख में कांटे की तरह खटकने लगा, खून करने और खून की होली खेलने को हरदम तैयार रहने लगा। अवसर की तलाश में हर चूहा भी शेर हो गया अपनी औकात भूलकर राजनीति में जा घुसा। इन चूहों ने आपसी अच्छे रिश्तों के जाल को इतनी ज्यादा बुरी तरह कुतरा कि अब सिवाय जाल के, अलग-अलग धागों के टुकड़े ही नजर आते हैं जिन्हें फिर से बुनना चाहो तो इतना मुश्किल है कि धागांे के सिरे ही दिखाई नहीं देते, कोशिश करो तो भी वे राजनीतिक दलों की तरह एक-दूसरे से मिल चुके हैं। हर आदमी घटिया राजनीति का शिकार हो गया है और पिंजरे में बंद चूहे की तरह बेबस है, लीडर बिल्लियों की तरह उन्हें झपटने की ताक में है कि कब पिंजरा खुले ? कब चूहा पकड़ें ? इस समय गांव में हर धर्म, हर जाति के लोग रह रहे हैं जो सबसे पहले एक-दूसरे के रक्षक थे, भाई-भाई थे, मेल-मिलाप रखते थे। दस साल पहले सब एक थे घी-खिचड़ी की तरह।

गांव के जिस जंमीदार के साथ भी उसका धरमेला था उनमें से शायद ही कोई ऐसा परिवार होगा जिसके घर से एक या दो सदस्य वहां हरनाम सिंह के घर में उपस्थित नहीं थे। उपस्थित जन समुदाय में बच्चों का बहुमत था। मई का महीना था, मौसम दिन-व-दिन गर्म होता जा रहा था। हवा इतनी गर्म थी कि प्रातः दस बजे ही लू की तरह बहने लगती थी और आधे दिन का आभास होता था। अधिकांश किसान खेतों पर गये हुए थे, उनकी पत्नियां सिर पर लस्सी की हाण्डी रखे हुए, कपड़े में प्याज की चटनी, आम के अचार के साथ तंदूर की मोटी-मोटी रोटियां तथा दोपहर की चाय के लिये पूड़ियों में चाय की मोटी-मोटी पत्ती, गुड़-चीनी व देशी दारू की बोतलों में दूध लेकर खेतों पर काम कर रहे पतियों और सीरियों (श्रमिक) के लिये खाना लेकर जा रही थीं। रोटी पहुंचाकर हर गृहिणी वापस जल्दी लौट जाना चाहती थी और जो भी तुरन्त वापस आया, सरदार साहब के यहां उपस्थित था, पूजा-पाठ के कार्यक्रम में शामिल होने की कोशिश कर रहा था।

अब हरनाम सिंह का परिवार गांव का एक मात्र सिख परिवार ही रह गया था क्योंकि जैसे-तैसे समय ने करवट बदली, स्कूल खुले, गांव वालो ने लिखना-पढ़ना शुरू किया। दिमाग बदले, रिश्ते बदले और जमीन-जायदाद के रोज-रोज के बढ़ते आपसी झगड़ों के कारण बाकी सदस्य या तो बाहर नौकरी करने चले गये या फिर अपना-अपना हिस्सा बेचकर गांव से बाहर चले गये, बाकी सब खुशी या गमी के सब अवसरों पर उन सबका सम्बन्ध बदस्तूर जारी रहा। बस उन्हें एक साथ मिलकर रहना ही अखरता था और साथ ही गांव वालों की कूटनीति का दुःप्रभाव भी था कि उन्हें अलग-अलग होना ही पड़ा। वे संगठन की शक्ति या एकता में ही बल की नीति को बिसारकर भूल गये थे। उसके कच्चे घर में, ईंट-सीमेण्ट की पक्की सजी हुई बैठक में टेलीविजन लगा हुआ था। टेलीविजन के साथ-साथ बिजली का रेडियों भी चल रहा था। बैठक में टेलीविजन और रेडियो के साथ-साथ बच्चों का भी हल्ला-गुल्ला था। उनके द्वारा किये जा रहे शोर के कारण बार-बार बुजुर्गों को डांट मारनी पड़ती थी। मगर बच्चे कहां चुप होने वाले थे। एक बार डांट खाकर फिर से शोर मचाने लग जाते थे।

पांचवे पातशाह श्री गुरू अर्जुनदेवजी का शहीदी दिवस श्रद्वापूर्वक मनाया जा रहा था। देश में जगह-जगह विभिन्न गुरूद्वारों में आयोजित अखण्ड व साधारण पाठ की समाप्ति, अरदास और बाहर से पधारे हुए विद्वानों के भाषणों और कीर्तन आदि का प्रसारण दूरदर्शन और आकाशवाणी से साथ-साथ किया जा रहा था। बैठक में चारों और दसों गुरूओं के कलेण्डर लगे हुए थे, कलेण्डरों पर फूल-मालायें चढ़ाई गई थी। तमाम उपस्थित लोग आंखें मूंदे, हाथ जोड़कर खड़े हुए अरदास का पाठ कर रहे थे। अरदास की जा रही थी। एक तरफ मेज पर सफेद रूमाल से ढ़की हुई परात रखी हुई थी जिसमें से कड़ाह प्रसाद की भीनी-भीनी खुखबू फैल रही थी, परात में से भाप उठती हुई दिखाई दे रही थी। तमाम बच्चे कभी ललचाई निगाह से टेलीविजन पर की जा रही अरदास की तरफ, कभी प्रसाद की परात की तरफ, कभी हाथ में छोटी कृपाण थामे, अरदास में लीन हाकमसिंह की तरफ बार-बार देख रहे थे। उनमें प्रसाद खाने की लालसा इतनी तीव्र हो उठी थी कि उनसे अरदास के समाप्त होने तक का इन्तजार करना अति मुश्किल काम लग रहा था। हाथों में प्रसाद लेने के लिये कटोरियां, चेहरों पर प्रसाद खाने की लम्बी प्रतीक्षा, सूखे होंठो पर जीभ फेर रही थी जैसे कि वह जीभ न होकर प्रसाद हो। कच्ची लस्सी पीने की उत्सुकता स्पष्ट झलक रही थी। काफी देर तक प्रतीक्षा करने के बावजूद जब देर तक प्रसाद मिलने के आसार नजर नहीं आये, मिलने के बाद खाने की उम्मीद नहीं रही तो हाकमसिंह का पुत्र तेजा हरनाम सिंह का कुर्ता खींच-खींचकर बोलने लगा-

“बाबा।”

वह कुर्ता खींचने की कोशिश में बार-बार नाकाम रहने के बाद ही बोला था।

“सी-सी।” हरनाम सिंह ने मुंह अंगुली रखकर उसे अरदास की तरफ मुखातिब करना चाहा था।

“बाबा।” तेजा पुनः मचलकर बोला, वह कुर्ता भी खींच लेता था।

“चुप तेजे पुत्तर। शोर नहीं करते। अरदास हो रही है। ग्रंथी कान काट लेगा।” हरनामसिंह तेजे को टेलीविजन के ग्रंथी की कृपाण का डरावा देते हुए बोला-

“बाबा। प्रसाद कब मिलेगा ? अरदास कब खत्म होगी ? तेजा परात की तरफ देखकर पुनः मचलने लगा।

“फिर शोर। चुप हो जा तेजे पुत्तर। प्रसाद तभी ही मिलेगा जब अरदास खत्म होगी। ग्रंथी गुरूवाणी का वाक ले लेगा।” हरनाम सिंह ने उसे फिर समझाने की कोशिश की।

“वाक कब लेगा ? मुझे जल्दी से प्रसाद दिलवाओ न बाबा। मुझे बहुत देर से तेज भूख लग रही है। मुझे तो अभी प्रसाद दिला दो। मैं नहीं मानता बस।” तेजा मचलता ही जा रहा था।

“पुत्तर इन्तजार कर जरा। अरदास तो हो जाने दे न। तू थोड़ा सब्र और कर। थोड़ी देर और रूक जा, अरदास खत्म हो, ग्रंथी अपने आप तुझे प्रसाद दे देगा। फिर जितना मर्जी खा लेना।” हरनाम सिंह के साथ-साथ बाकी सब भी डिस्टर्ब होने लगे थे। उनका ध्यान उधर से हटकर इधर हो रहा था।

“बाबा। प्रसाद दिलवा दे ना।” अब तेजे के सब्र का बांध टूटने लगा था। उसकी आंखों में से आंसू छलकने लगे थे, बेकरारी बढ़ रही थी और वह रोने लगा था।

“ये ले पुत्तर अठन्नी। जा तू भागकर अपने पास वाली हट्टी से चीज ले आ। चीज खाकर बाद में प्रसाद खा लेना।” हरनाम सिंह ने कुर्ते की जेब में से अठन्नी निकाल कर तेजे को दी और किसी दूसरे बच्चे के साथ हट्टी पर भेज दिया। वह खुशी-खुशी चिल्लाता और दौड़ता हुआ चीज लेने हट्टी की तरफ रवाना हो गया।

तेजे को समझाते-समझाते अरदास पूर्ण हो चुकी थी। बाकी श्रद्वालुओं का ध्यान भी अरदास से हटकर तेजे और हरनाम सिंह के वार्तालाप की ओर हो चुका था। अरदास खत्म होते ही ग्रंथी ने पवित्र ग्रंथ साहब में से पन्ने खोलकर पवित्र वाक लिया, संगत को सुनाया और उस पर अमल करने की प्रार्थना की जैसे कि गुरू ग्रंथ साहब एक अलग धार्मिक पुस्तक मात्र न होकर दुनिया भर के पीर, फकीरों की पवित्र व आध्यात्मिक वाणी का संग्रह है और दशम गुरू गोविन्द सिंह जी के बाद ग्यारहवां गुरू है। इस युग में किसी भी देहधारी गुरू को मानने की अपेक्षा गुरू ग्रंथ साहब को ही गुरू मानने की आज्ञा दी गई है साथ ही उनके बारे में कहा भी गया है कि -

आज्ञा भई अकाल की तबहु चलायो पंथ,
सब सिक्खन को हुक्म है गुरू मानयो ग्रंथ।
गुरू ग्रंथजी मानयो प्रकट गुरां की देह,
जो प्रभु को मिलबो चहै खोज शबद में लेह।
राज करेगा खालसा आकी रहे न कोई,
ख्वार होए सब मिलेंगे बचे शरण जो कोई।
खण्डा जाके हाथ में कलगी सोहैं सीस,
जो हमरी रखियाकरे गुरू कलगीधर जगदीस।
वाहेगुरू नाम जहाज है चढ़े सो उतरे पार,
जो श्रद्वा कर सेम दे नानक पार उतार।

अथवा

अब्बल अल्लाह नूर उपाइया कुदरत के सब बन्दे,
एक नूर ते सब जग उपजिया कौन भले कौन मन्दे।

सन्त कबीर ने सारी सृष्टि को ही एक परमात्मा की सन्तान माना है और सबमें एक ही खुदा का नूर देखा है उसकी नजर में कोई हिन्दू नहीं, कोई मुस्लिम नहीं। सब एक ही पिता कि पुत्र हैं आदि-आदि।

उद्घोषकों की दर्शकों, श्रोताओं को स्टूडियों में वापस लिये चलने की घोषणा के साथ ही टेलीविजन और रेडियो बन्द कर दिये गये। हाकम सिंह द्वारा प्रसाद में कृपाण फिराकर, पांच पियारों का हिस्सा अलग कर फिर मिलाकर कड़ाह प्रसाद का वितरण किया गया। उपस्थिति संगत ने प्रसाद छका, कच्ची लस्सी घी और खुशी-खुशी अपने-अपने घरों को प्रस्थान किये। थोड़ी देर पहले जहां उसका घर शादी-ब्याह वाले घरों की तरह चहक रहा था वही अब सुनसान हो गया था और दोपहर के सन्नाटे में कबूतरों की गुटर गूं सुनाई देने लगी थी।

हरनाम सिंह के गांव में आज तक गुरूद्वारा नहीं बन पाया था परन्तु उसके घर में ही पवित्र गुरू ग्रंथ साहब का प्रकाश था जिसमें से वह सुबह श्री जपुजी साहब, सायंकाल में रहरास, कीर्तन सोहिला आदि का पाठ कर लिया करता था। कीर्तन तो समय-समय पर चलता ही रहता था। प्रायः जब कभी भी धार्मिक अवसरों पर प्रथम पातशाह श्री गुरूनानक देवजी, नोवें, गुरू श्री तेग बहादुर जी और दशम गुरू श्री गोविन्द सिंहजी के जन्मोत्सव, गुरू तेग बहादुर हिन्द की चादर और पंचम पातशाह श्री गुरू अर्जुन देव जी के शहीदी दिवसों पर रेडियो/टेलीविजन द्वारा विभिन्न गुरूद्वारों में आयोजित कार्यक्रमों का प्रसारण किया जाता, वहां विभिन्न सम्प्रदायों के लोग संगत के रूप में यूं ही एकत्रित हुआ करते। पाठ के साथ-साथ सत्संग का आनन्द लेते, प्रसाद छकते, आपसी मेल-मिलाप के साथ-साथ रहते हुए जीवन बसर करते रहे थे। किसी समय हरनाम सिंह का गांव का प्रतिष्ठित व्यक्ति समझा जाता था, ग्रामवासी हर काम में उसकी सलाह लेना अपनी शान समझते थे। उसे हर घर में, हर मोहल्ले में इज्जत से देखा समझा जाता था परन्तु जब से पंजाब प्रदेश की पवित्र भूमि में से खून की नदियां बहने लगीं, जनता खून के आंसू बहाने लगी, साम्प्रदायिक सद्भावना जाने लगी, भाईचारा मिटने लगा, हल की बजाय हर नौजवान बन्दूक लेकर चल पड़ा, फसलों की बजाय उन खेतों में बारूद की फसल बोई और काटी जाने लगी तो पंजाब की धरती पर बहने वाला खून का दरिया होते-होते पूरे देश की मिट्टी में फैल गया जिससे हरनाम सिंह और उसका परिवार भी बच नहीं पाया। उसका परिवार पूरे गांव भर में बदनाम होकर रह गया। उस पर भी आतंकवादी होने, उनसे सम्बन्ध रखने आतंकवादियों से मिले होने और उन्हें वक्त-बेवक्त पनाह देने का आरोप लगाया जाने लगा। बार-बार पुलिस द्वारा अनावश्यक रूप से सताया जाने लगा। ग्रामवासियों की निगाहें उसके इस परिवार के प्रति बदलने लगीं। दुर्भावना की ऐसी आंधी चली कि उसका बच पाना मुश्किल लगने लगा। गांव में साम्प्रदायिक कट्टरता, भेदभाव की नीति, विश्वास और भाईचारे की भावना बदल गई। उसे हमेशा संदेह की दृष्टि से देखा जाने लगा। जाट परिवारों से उसके सम्बन्ध-विच्छेद हो गये। गांवके खास-खास लोग एक तरफ हो गये।

गर्मियों की एक चांदनी रात में घर के बाहर चबूतरे पर बैठे हुए हाकम सिंह ने अपने पिता हरनाम सिंह से कहा था -

“बापू। सरकार ने हमारी पानी वाली जमीन को अनकमाण्ड घोषित कर दिया है। उसके पास हमें देने के लिये पानी नहीं बचता। हम सरकार और भगवान दोनों के रहमोकरम पर आश्रित है। भगवान बारिश के रूप में पानी दे देता है, तो प्यासी धरती की प्यास बुझती है, कुछ बीज डालते हैं तो थोड़ी-बहुत फसल हो जाती है। बरना हमें हर बार सूखे का मुंह देखा पड़ता है, आढ़तिये से उधार लेकर गुजारा करना पड़ता है, इधर हम भूख से दो-दो हाथ कर रहे हैं और उधर हम पर उसकी रकम और ब्याज बढ़ रहा है, बारिश होती है, थोड़ी फसल होती है जैसे ही हम कर्जा उतार पाते हैं फिर सूखा पड़ जाता है। लगता है कि भगवान हमें आढ़तिये से सुखी नहीं देखना चाहता, उसका कुछ-न-कुछ हम पर उधार ही रहता है। भगवान उस पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान है। हमारी नींद उड़ती जा रही है और वह चैन की बंसी बजाता है। पता नहीं पिछले जन्म में हमने क्या खोटे काम किये थे जो अब दुखी रहते हैं। जाने कब वह हमारी सुनेगा ? हम कब आढ़तिये के चंगुल से छूट सकेंगे ? कब आजाद हो सकेंगे ? कब कुछ जमा करवाकर हिसाब बराबर करवा सकेंगे ? जाने वो दिन कब आयेगा। आयेगा भी कि नहीं जब हम भी चैन की नींद सोयेंगे।”

“ये सब ऊपर वाले की माया है बेटा। लगता है ऊपर वाला हमें सुख नहीं देखना चाहता। हमारी परीक्षा ले रहा है।”

“बापू। देखो यह हमारा रकबा है। हमारी बगल में पगडण्डी है। पगडण्डी के आगे चौधरी पतराम और उसके आगे कासीराम के खेत है। दोनों के खेतों की बट्ट (मेड़) सांझी है। दोनों का इस मेड़ का चक्कर हमेशा चलता ही रहता है। कभी कासीराम के खेत में बन जाती है तो कभी पतराम के खेत में। दोनों इस मेड़ के लिये हमेशा से झगड़ते रहे हैं। इनका झगड़ा बरसों से चला आ रहा है। इसी मेड़ पर न जाने कितने लोगों की जाने चली गई। अब भी हर साल दोनों घरों के सदस्य मारे जाते रहे हैं। जमीन की इस रेखा पर कितने और मरेंगे कुछ भी कहा नहीं जा सकता। कितनी पत्नियां विधवा होंगी ? कितने बच्चे अनाथ होंगे ? भगवान ही जानता है। यह वो लक्ष्मण रेखा है जिस पर हर साल कितनी ही सीता रूपी नारियां विधवा हुई हैं। सदस्यों के मरने के साथ-साथ इनकी दुश्मनी भी बढ़ती ही जा रही हैं। इसी जमीन और पानी के लिये जानें चली आ रही हैं। ये सब-के-सब मर-खप जायेंगे लेकिन मसले कभी हल नहीं होंगे। इस बात का इन्हें भी पता है, ये भी जानते हैं कि इसमें से हासिल कुछ भी नहीं होने वाला फिर भी लड़ रहें हैं, पागल हाथियों की तरह, जिनके बीच में हम जैसे मामूली लोग मुफत में ही मारे जा रहे हैं।

हमारे व पतराम के खेतों में से यह खाला जाता है जो नहर का पानी कासीराम के खेतों तक ले जाता है। हमारे खेत में से 100 कदमों की दूरी पर नहर का मोधा बना है। अब जब सरकार ने हमारी पानी वाली जमीन को अनकमाण्ड घोषित कर ही दिया है तो यह खाला हमारे किस काम का ? अब यह हमारे भी किसी काम का नहीं रहा। क्यों न हम ये खाला ही बन्द कर देंवे हमारे लिये तो ये बेकार है अब।”

“खुदा खैर करे पुत्तर। पहली बात तो यह है कि बेटा, कभी भी रात को कोई मशविरा नहीं करना चाहिए। रात में किया हुआ सलाह-मशविरा कभी भी पूरा नहीं होता। अगर होता भी है तो काफी बड़ा नुकसान करने के बाद जो जल्दी से समझ में नहीं आता। दूसरी बात हमारे गांव में कासीराम और पतराम अलग-अलग पार्टियों के आदमी हैं। दोनो ही बड़े-बड़े राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता हैं और दोनों का बैर शेर और बकरी का है। दोनों खुद तो दुश्मन हैं ही साथ ही हमें भी अपने बीच में ले लेंगें। यदि हमने पानी न मिलने की दलील से खाला बन्द करने की कभी कोशिश भी की, खाला बन्द कर दिया तो कासीराम हमारा भी दुश्मन हो जायेगा। कोई ऐसा तरीका, कोई ऐसी चाल अपनानी चाहिए जिससे बिना बैर रखकर ये खाला बन्द किया जा सके। बिना लाठी तोड़े सांप भी मारा जा सके। सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे। अगर बिना सांप मरे लाठी टूट गई तो सांप के जहर को तो तुम अच्छी तरह से जानते हो। वे दोनों तो कोबरें हैं। लाठियां तोड़ सकते हैं लेकिन मरेंगे बड़ी मुश्किल से।” हाकम सिंह की बात सुनकर हरनाम सिंह ने अपनी दलील दी क्योंकि इसी जहर का वह तो पहले से ही देनदार रहा था।

“बापू। अनकमाण्ड जमीन में से खाला निकालने की आज्ञा तो सरकार भी नहीं देती। हमारे खेत में बिना पानी के खाला बना होना तो वैसे ही फायदेमंद नहीं है। ये बात अलग है कि हम चाहें तो बना हुआ खाला चलने दें या बन्द कर दें। खाला चलने देना या बन्द करना, पानी निकलने देना या उसके रोक देना हमारी मर्जी पर ही निर्भर करता है। उनके साथ हमें क्या लेना-देना। हमें खाला बन्द ही कर देना चाहिए।” पिता की बात न मानते हुए हाकम सिंह ने अपना फैंसला सुना दिया।

“देख ले पुत्तर। अपने खेत के खाले में से होता हुआ पानी दोनों के खेतों तक पार जाता है। कासीराम और पतराम के खेतो में पहंुचता है, फसलों को सींचता है, मिट्टी के अन्दर तक पहंुचता है। फसल होती है, जीवन चलता है, सम्बन्ध बनते हैं, भाईचारा बढ़ता है। यदि हमने अपने यहां से खाला बन्द कर दिया तो उसकी लाखों की फसल सूख जायेगी, वह तबाह हो जायेगा। दूसरी तरफ से उसे दो मील से खाला बनवाकर पानी लेना पड़ेगा। समय पर खाला न बना तो फसल को पानी नहीं लग पायेगा, फसल सड़-गल जावेगी और वह हमारी तरह ही कर्जदार हो जायेगा।” हरनाम सिंह अपनी बात कहना और रखना चाहता था परन्तु पुत्र की दलीलों सामने उसकी एक न चली, उसे चुप होना ही पड़ा। हाकम सिंह फिर से बोला-

“पतराम के साथ हमारा धरमेला उसकी आंखों में कांटा बनकर रड़कता है। इस कांटे को हम ऐसा घुमायेंगे कि उसकी आंख में न मिटने वाला जख्म ही बन जायेगा। देखेंगे कौन साला हमें रोकेगा, खाला बन्द करने से। आग लगा देंगे आग। जलती पर और फूस डालकर सुलगायेंगे। वो अगर हमारी दोस्ती से जलता है तो जला करे। हमें किसी साले की परवाह नहीं है।” हाकम सिंह काफी उत्साहित हो चुका था अपने धरमेले के दम पर। पता नहीं पतराम में उसने क्या विशेषता देखी थी।

“देख ले पुत्तर। हम तो पहले से ही दुखी होकर बैठे हुए हैं। अब कोई और ऐसी-वैसी, ऊंच-नीच, अनहोनी बात न हो जाये जिसके लिये बाद में हमें पछताना पड़े और हमारी भी दुश्मनी मुफत में बढ़ जाये। थानों, तहसीलों के चक्कर काट-काट कर हम तो पहले ही लुट चुकें हैं अब और समस्या खड़ी मत करो बेटा। मुझे बहुत डर लग रहा है। और मैं इन रोज-रोज के झमेंलो से तंग आकर थक चुका हूं। अब दुबारा इन चक्करों में और नहीं उलझना नहीं चाहता। अपने बुढ़ापे में ज्यादा भागदौड़ करने के काबिल नहीं बचा हूं और अब अधिक भागदौड़ नहीं कर सकता।” हरनाम सिंह डरते-डरते बोला था।

“तू इस प्रकार से क्यों डरने लगा है बापू ? हम कोई गुड़ की डली नहीं हैं जो हमें हर कोई मुंह में रख लेगा। आजकल हम इतने कमजोर भी नहीं रहे हैं। हड्डी बन के अटक जायेंगे साले के मुंह में जो भी हमसे पंगा करने की कोशिश करेगा। हम लोहे का चना बन जायेंगे और और उसे नाकों चने चबवा देगें जिस किसी ने भी हमसे उलझने या लड़ने का नाम लिया। तुम अपने आपको इतना अकेला, इतना कमजोर भी मत समझो बापू कि हर आदमी हम पर फालतू का रोब मारे। हमारे पास भी शक्ति है। शारीरिक रूप से हम चाहे कितने भी कमजोर क्यों न रहे हों लेकिन दिल और दिमाग से कहीं ज्यादा ताकतवर हैं। तू चिन्ता मत कर बापू। कुछ नहीं होगा। बस तू तो देखता चल क्या-क्या होता है हमारे खेत में, हमारे खाले में, हमारे धरमेले का और साले कासीराम के साथ। हम कुछ-न-कुछ करके ही छोड़ेंगे।” बेटा बाप को तसल्ली दे रहा है।

अपनी योजना को अन्तिम रूप देकर बातें करते-करते दोनों सो गये। जब गांव में पंचायत के चुनाव का चक्कर चला तो पतराम व कासीराम दोनों एक-दूसरें की (एण्टी) विरोधी पार्टियों के सदस्य हो गये। राजनीतिक विरोधाभास, सांझी बट्ट (मेड़), जमीन के, पानी के, पड़ोस के झगड़ों ने हरनाम सिंह के साथ धरमेले ने उन्हें इस कदर कट्टर दुश्मन बना डाला कि दोनों एक-दूसरे की जान के प्यासे हो गये। इससे पहले वे अच्छे पड़ोसियों की तरह, भाईचारे के साथ-साथ ही रहा करते थे परन्तु बाद में राजनीतिक कारणों से उनकी शत्रुता काफी बढ़ गई थी। पतराम के साथ हरनाम सिंह का धरमेला दिनोंदिन पक्का और गहरा होता जा रहा था जो शायद हमेशा ही बरकरार रहा था। पतराम, कासीराम और हरनाम सिंह के बीच में था खेतों में।

दूसरी सुबह मुंह अंधेरे उषाकाल में चाय पीकर, हल कंधे पर रखकर हाथ में ऊंट की मुहार पकड़े हाकम सिंह खेतों की तरफ जा रहा था। हल चलाया, बीज डाला, सुहागा लगाया जा रहा था कि उसकी बीवी बलवीरो रोटी लेकर आ पहुंची। उस वक्त शायद प्रातः के आठ से नौ बजे के बीच का कोई समय था। हाथ में घड़ी न बंधी होने के कारण उसका समय के प्रति वही लगभग अनुमान था। धूप तेज होती जा रही थी, हवा में गर्मी बढ़ रही थी। सीरी गोपालिये को आवाज देकर बुलाया। पास के ट्यूबवेल से पानी का मटका भर कर लाया। हाथ मुंह धोकर चटनी के साथ तंदूर की बनी हुई मोटी रोटियां खाने में मसरूफ हो गये। बीच-बीच में कभी-कभी लस्सी का एकाध घूंट भी ले लेते थे ताकि तंदूर की रोटी, सखने की बजाय आसानी से निगली जा सके। इसके विपरीत गोपालिया उस मोटी और सूखी रोटी को मुश्किल से ही निगल पाता था। तब भी उन तीनों की जुबान पर पतराम, कासीराम, चुनाव-चर्चा, बारानी और अनकमाण्ड जमीन में से गुजरते हुए खाले पर ही बातचीत हो रही थी। बात-बात पर वे तीनों ‘रब्ब सुख रखे’ कह उठते थे पता नहीं वे चुनावों को लेकर कितना भयभीत हो रहे थे। हाकम सिंह को भी शायद विश्वास नहीं हो रहा था कि कभी खाला भी आसानी से बन्द किया जा सकेगा या नहीं। बार-बार वह किसी अनहोनी की आशंका को सोचकर कांप उठता था। खाने का काम निबटाकर, कस्सी कंधे पर रखकर, बलवीरों को दोपहर की चाय लेकर आने के लिये वापस भेजा, गोपालिये को दूसरा काम देकर स्वयं वहां तक जा पहुंचा जहां पर उसके व कासीराम के खेतों में पगडण्डी बनी हुई थी। चारों तरफ की स्थिति का जायजा लिया। इधर-उधर देखा, कुछ सोचा और खाला बन्द करना प्रारम्भ कर दिया। अभी वह शायद दो-चार गज खाला बन्द ही कर पाया था कि उसके कानों में किसी की आहट, कदमों की पदचाप सुनाई पड़ी। उसकी नजर हाथ में दुनाली बंदूक थामे साने से चले आ रहे कासीराम पर पड़ी। कासीराम को देखकर उसके हाथ रूक गये, घबराहट होने लगी। बन्दूक का कुन्दा जमीन पर रखकर कासीराम बोला, आंखों में खून उतारकर और जुबान कठोर करके -

“और भाई हाकम सिंह। क्या हालचाल है ?”

“ठीक ही है भइया कासीराम। सब ऊपरवाले की मेहरबानी है।”

हाकम सिंह सांस लेते हुए बोला। उसकी कमीज पसीने से तरबतर हो रही थी।

“ये क्या किया जा रहा है भई ?” उसका ध्यान खाले पर कम और बूंदक पर ज्यादा था।

“देख ले भई ये सब तुम्हारे सामने ही है। कहीं से छुपा हुआ तो नहीं है।” उसका हाथ में कस्सी पर था।

“क्या बात है खाला किसलिये बन्द किया जा रहा है भई ?” कासीराम ने शब्द थोड़े चबाकर बोलने की कोशिश की है।

“हमने सोचा। बारानी और अनकमाण्ड जमीन में खाला किस काम का, फालतू की परेशानी खड़ी करता था।” हाकम सिंह ने बड़े ही आराम से कहा था।

“हमारे तो अभी भी काफी काम का है। हमें तो बहुत सहूलियत है इससे।” उसने बन्दूक मजबूती से पकड़कर कहा था।

“हमें अब इसकी ज्यादा जरूरत नहीं रही।” हाकम सिंह अपनी ही बात पर अड़ा खड़ा था, साथ-साथ उसका पसीना सूखने लगा था।

“पर हमें तो बहुत जरूरत है इसकी। खाला बन्द मत करना, खुला ही रहने दे। पानी आने दे। खाला बन्द करेगा तो तू हमेशा घाटे में ही रहेगा।” कासीराम ने धमकी दे ही दी। बन्दूक तान ली।

“हम तो भइया। पहले से ही घाटे में जी रहे हैं। जमीन बारानी और अनकमाण्ड। भगवान और सरकार तो हमसे पहले ही नाराज हैं। सरकार ने पानी देना बन्द कर दिया और भगवान फसल नहीं देता। जब पानी नहीं आता तो यह खांचा अब हमारे किस काम का भला। ये खाला भी घाटे वाला ही है।” उसने तर्क दिया।

“देख भई। तेरे खेत में पानी आये या न आये। फसल हो या न हो लेकिन मेरे खेत की फसल में पानी तो इसी से ही लगेगा और आना भी चाहिए। जब सरकार देती है तो क्यों न उठायें फायदा।” कासीराम की बन्दूक भी गरजने को तैयार थी, बेताब थी गोली चलाने को। शायद काफी दिनों से काम में नहीं ली गई थी।

“तेरे खेत का मुझसे क्या सम्बन्ध भला ? मैं तो अपने हिस्से का खाला बन्द कर रहा हूं। अपने खेत में मैं जो जी में आयेगा करूंगा।” हाकम सिंह की कस्सी फिर से सक्रिय होने लग गई थी।

“मेरे खेत से, मेरी फसल से तेरा भी उतना ही गहरा सम्बन्ध है जितना मेरा पानी से। मेरा तेरे खेत के खाले से भी सम्बन्ध हैं।” कासीराम ने उसे समझाने की कोशिश की, करता ही रहा।

“पानी से तो है लेकिन मेरे खेत से नहीं।” हाकम सिंह फिर बोला।

“लगता है तू अब भी नहीं समझा।” उसने मजाक करते हुए कहा था।

“नहीं समझा तो फिर तू ही समझा दे न।” हाकम सिंह वास्तव में ही नहीं समझ पाया था।

“ये 12 बोर की देखी है कभी कि नहीं, दिखाई देती है कि नहीं।” हाकम सिंह की तरफ बन्दूक की नाल करते हुए कासीराम बोला।

“हाँ। हमेशा ही देखी है और दिखाई भी दे रही है। इसको दिखाने का तेरा मतलब क्या है।” उसका दिमाग भी अब गर्म होने लगा था।

“मतलब ये है कि भइया अगर तू खाला बन्द करेगा, चलने नहीं देगा, पानी को रोकने की कोशिश करेगा, खाला बन्द कर बहते हुए पानी को रोकेगा तो मुझे तेरे परिवार समेत रातोंरात पंजाब भिजवा दूंगा या देख लूंगा कि तू खाला किस-किस तरह से बन्द करता है। आई समझ कि नहीं या समझाऊं इससे ?” कासीराम ने उस धमकी को क्रियान्वित करने की कोशिश की।

“मुझे पंजाब भिजवाकर तू क्या यहीं पर चैन से रह लेगा। तेरा कुछ नहीं होगा। भिजवाकर देख जरा। फिर देख क्या नतीजा होता है मुझे पंजाब भिजवाने का। तू तो समझ भी नहीं पायेगा कि तेरे साथ क्या-क्या होगा और तू कहां जायेगा।” हाकम सिंह ने भी उसकी धमकी का जवाब देकर गोपालिये सीरी को आवाज दी।

“ओ। गोपालिया आ। अपनी राइफल लेकर आना। कहां रखी हुई है। देख कर ले आ फटाफट। देखें तो जरा इस सूरमे को। पंजाब भिजवायेगा हमें ?” पता नहीं गोपालिया उसकी बात सुन भी नहीं पाया था कि नहीं फिर भी हाकम सिंह ने जैसे बात हवा में ही कर दी थी, अंधेरे में तीर चलाने की कोशिश की थी। वह तीर निशाने पर लगा था या नहीं यह बात कासीराम समझ नहीं पाया। हाकम सिंह ने तो उस तुक्के को ही तीर बना डाला था। धूल में मारा लट्ठ कामयाब हो चुका था।

“ज्यादा तीन-पांच की तो ठीक नहीं रहेगा। एक मिनिट लगेगा बन्दूक चलते। खाला चलेगा, पानी आयेगा, तेरी धड़कन बन्द हो जायेगी और पानी का रंग लाल हो जायेगा। खाले की जगह तुझे ही बन्द कर दिया जायेगा। खाला नहीं नदी बहेगी तेरे खून की।” दोनों में बराबर बहस हो रही थी।

“देख ले चलाकर बन्दूक। फिर देख नजारा। देखते हैं कौन किसको बन्द करता है। किसका खून बहता है। धड़कन बन्द होगी या खाला। पानी चलेगा या खून। गोली चलेगी या नहीं।” गोपालिया सीरी बन्दूक तो लेकर आया नहीं लेकिन फिर भी हाकम सिंह ने कासीराम को जबाव दे ही दिया। कासीराम आग बबूला हो चुका था।

“धांय धांय। ये ले अब कर ले खाला बन्द।” कासीराम ने लगातार दो फायर करके हाकम सिंह को कहा था, आंतकित कर दिया था।

नाराजगी प्रकट करने के लिये कासीराम ने दो हवाई फायर किये। पेड़ो पर बैठे परिन्दे अचानक हुए फायरों की आवाज से घबराकर फड़फड़ाते हुए नीले आसमान में जा उड़े।

आसपास हल्ला होने लगा। बाकी खेतों में काम कर रहे किसान आवाज की दिशा में दौड़ते चले आये। आते-जाते मुसाफिर भी स्थिति का जायजा लेने कुछ देर के लिये रूक गये थे, नहरों पर पहरा दे रहे नहरी विभाग के कर्मचारी भी पास आकर स्थिति के बारे में जान पाते तब तक कासीराम बंदूक खोलकर खाली कारतूस के खोल फेंकता हुआ आगे बढ़ गया।

अचानक एकत्रित हुए लोग हाकम सिंह से मामला जानने की कोशिश में कुछ देर वहां खड़े रहे। मगर वह इतना अधिक आतंकित हो चुका था कि घबराहट में उसमें कुछ भी बोला नहीं जा रहा था, उसका कण्ठ सूखने लगा था। टांगे थरथरा रहीं थी। दिल की धड़कन बेबस हुई जा रही है। उससे खड़े रह पाना मुश्किल हो रहा था। गोपालिया काफी देर बाद फायरों की आवाज सुनकर दौड़ा चला आया, जब तक वह कुछ समझ पाता, तब तक कासीराम भी काफी दूर तक निकल चुका था। दूर तक जाते हुए कासीराम को देखता रहा था हाकम सिंह और फिर गोपालिये को लेकर वापस खेत में चला गया। उसकी सांस चल रही थी। चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं। बार-बार उसे फायर की आवाज, दुनाली से निकलता धुआं अैर खाली खोल ही नजर आ रहे थे।

हाकम सिंह ने उस बात को लाख भुलाने की कोशिश की लेकिन चाहकर भी भूल नहीं पाया। वह जितना ज्यादा भुलाने की कोशिश करता, उतना ही आतंकित होता। जितना ज्यादा सोचता उतना ज्यादा ही उलझता जा रहा था। अन्त में उसने ठान ही लिया था कि कासीराम के खिलाफ के कार्यवाही की ही जानी चाहिए क्योंकि अबकी बार यदि कुछ न किया गया तो हो सकता है वह दुबारा फिर धमकी ही दे दे या क्या पता गोली ही चला दे। पहले तो उसने केवल हवाई फायर ही किया था और दूसरी बार क्या मालूम कत्ल ही कर दे। उसका क्या भरोसा है। क्या पता बार-बार हवाई फायर कर-करके यूं ही आतंकित करता रहे। दुश्मन को कभी कमजोर नहीं समझना चाहिए, हमेशा उससे सावधान और दो-दो हाथ करने को तैयार रहना चाहिए ताकि दुश्मन को पता चल जाये कि दुश्मनी क्या होती है। उसे बार-बार अवसर देते रहने की बजाय कुछ प्रबन्ध कर देना चाहिए ताकि वह भविष्य में ऐसी घटिया किस्म की हरकत दुबारा करने की कोशिश न कर सके और अगर करने की कोशिश न कर सके और अगर करने की कोशिश भी करे तो अच्छी तरह से सोच-समझ कर।

सांय-काल थके-हारे हाकम सिंह ने घर जाकर हरनाम सिंह को पूरी बात बताकर, आपसी राय बनाकर दूसरे दिन पंचायत बुलाने तथा कासीराम द्वारा किये गये कातिलाना हमले की नजदीकी पुलिस स्टेशन में जाकर एफ.आई.आर. दर्ज करवाने का फैसला किया। पतराम, कासीराम के साथ-साथ अपने खेतों में से गुजरते हुए खाले का नक्शा बनाकर मामला पंचायत के रूप में उपस्थित जन समुदाय के समक्ष रखा गया। हर व्यक्ति कासीराम को भला-बुरा कह रहा था, जिसने भी सुना वही उसके खिलाफ था। कासीराम पहले भी इस मामले में काफी बदनाम था।

बात समझकर पतराम के सर्मथकों ने खाला बन्द करने की सहमति दी इस दलील के साथ कि हाकम सिंह पर रौब झाड़ने वाला, दवाब देने वाला कासीराम कौन होता है भला ? हाकम सिंह कोई उसका गुलाम नहीं है और न ही उसका सीरी। अपनी जमीन में खाला चलाना या बन्द करना, रखना या न रखना हाकम सिंह की अपनी मर्जी पर ही निर्भर करता है न कि कासीराम की। वो अगर चाहे तो खाला चलने दे या बन्द कर दे क्योंकि उसके खेत को सरकार ने अनकमाण्ड घोषित कर दिया है, खेत में पानी नहीं लगता। पानी अगर लगता तो भी वह खाला रोकने का हकदार है। कासीराम मांग कर लेवे तो खाला खुला रहना चाहिए वरना यदि सहजोर दिखाकर, डरा-धमकाकर रास्ता मांगे तो उसे बेहिचक और तुरन्त इन्कार कर दिया जाना चाहिए। खाला फटाफट बन्द कर देना चाहिए। उसका भाईचारा नहीं तो पानी रोक देना चाहिये, इसके विपरीत कासीराम के समर्थकों ने खाला खुले रहने व दुश्मनी मोल न लेने की दलील देते हुए उसके बड़े और भ्रष्ट लोगों से समबन्ध होने से पुष्टि की। हाकम सिंह खुद भी असमंजस में था। वह एक ठोस निर्णय नहीं ले पा रहा था। किसी नतीजे तक पंहुच नहीं पा रहा था। वह यह भी सोच नहीं पा रहा था कि ऐसी ही विकट स्थिति में किया क्या जावे तब हालात सांप के मुंह छंछुदर या आगे कुआं पीछे खाई जैसी होकर रह जाये। कदम बढ़ाया जाये या उठते हुए या आगे बढ़ते हुए पीछे हर कदम को वापस खींच कर लौट चला जाये। बढ़ता है तो कुएं में गिरने का भय और पीछे हटता है तो खाई में तो गिरा हुआ है ही। और हाकम सिंह को निर्णय लेना ही पड़ा। सूली पर चढ़ना ही पड़ा। उठते हुए कदम को गति देनी ही पड़ी। कासीराम के खिलाफ थाने में जाकर एफ.आई.आर. दर्ज करवाने की कार्यवाही करनी ही पड़ी। लेकिन इस कार्यवाही पर उसे कितनी संतुष्टि हुई शायद वह खुद भी नहीं जानता था।

जब दर्ज करवाई गई एफ.आई.आर. पर काफी दिनों तक किसी भी प्रकार की कार्यवाही होती हुई मालूम नहीं हुई तो उसका संदेह विश्वास में परिवर्तित होने लगा। लोगों की कही हुई बातें, उसके उच्च राजनीतिक सम्बन्धों की पुष्टि का प्रमाण देने लगीं। उसे मानना ही पड़ा कि कासीराम एक नम्बर का बदमाश था। पटवारी ने भी कोई हस्तक्षेप नहीं किया। इसके विपरीत पतराम के पुत्र कालूराम की भी हाकम सिंह से अच्छी-खासी यारी थी। दोनों की खूब अच्छी पटती थी। चारों ने आपस में मिलकर अपने स्तर पर कार्यवाही करने की योजना बनाई और दिन व समय तय करके खाला बन्द करने का फैसला किया। अवसर देखकर पतराम, कालूराम, हरनाम सिंह, हाकम सिंह, गोपालिया सीरी अस्त्रों-शस्त्रों से लैस पटवारी, थानेदार, पुलिस दल के साथ अपने बारानी और अनकमाण्ड खेत की जमीन में उस स्थान पर एकत्रित हुए जहां से खाला हरनाम सिंह की जमीन में प्रविष्ट होता था और जिसके लिये कासीराम उसको देख लेने और सपरिवार पंजाब भिजवाने की धमकी देता रहता था। गोपालिये ने खाला बन्द करना प्रारम्भ किया।

इधर कासीराम को भी खबर लगी और वह भी अपने दल-बल के साथ वहीं आ पहुंचा और हांफते हुए बोला-

“क्या बात है पतराम। तुझे चलता हुआ पानी अच्छा नहीं लगता क्या ? मैं तुम सबको देख लूंगा। एक-एक को खत्म कर डालूंगा।” उसकी हां-में-हां मिलाने वालो की कमी न थी जो बात को हमेशा से ही बढ़ाना चाहते थे। वो नहीं चाहते थे कि कोई उनके सामने मिलकर रहे। भाईचारे से रहे।

“देख कासीराम। खाला मांग के ले ले। भाईचारे से रहे तो हम भी कभी भी मना नहीं करेंगे। लेकिन अगर तू बन्दूक दिखाकर खाला लेना चाहता है तो ये सब तेरी बहुत बड़ी भूल है। नासमझी है।” पतराम ने दलील देने की कोशिश की।

“लगता है कुछ ज्यादा ही पंख निकल आये हैं, बहुत ऊंचा उड़ने लगा है। ज्यादा भूख लगने लगी है।” कासीराम को तो जैसे चैन ही नहीं था, आग लगी थी।

“किसके कितने ज्यादा पंख निकलने लगे हैं यह तो तू भी अच्छी तरह से जानता है। और फिर पंख में दम हो तो उड़ान अपने आप ऊंची हो जाती है। बढ़ती उम्र के साथ-साथ भूख भी बढ़ेगी ही। हर परिन्दा, पंख रखने वाला बहुत ऊंचाई तक उड़ना पसन्द करता है। भूख पूरी होनी भी जरूरी है। रोज-रोज के झगड़ों से तो अच्छा है हम आज ही झगड़ा एक बार में ही मिटाकर निपटारा क्यों न कर दें, जड़ से ही खत्म कर दें। मेरे खेत और इस हरनाम सिंह के खेतों में कोई अन्तर नहीं है। इसका खेत मेरा खेत, मेरा खेत इसका खेत। हम दोनों भी एक हैं।” पतराम का सीरी भी गोपालिये के साथ ही खाला बन्द करवा रहा था। कासीराम बिना कुछ बोले, हारे हुए सिपाही की तरह वापस मुड़ गया। पतराम ने हाकम के कान में कुछ कहा, सुनते ही वह दौड़ कर खाले के दूसरे सिरे पर गया। कस्सी उठाकर खाला बन्द करने में जुट गया। उसके चेहरे पर संतुष्टि थी और दिल में तसल्ली कि कासीराम उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सका था। पतराम ने कहा था, “कासीराम यदि तू खाला बन्द करने के काम में पंगा लगायेगा तो तुझे भी खाले के साथ ही गाड़ दिया जायेगा। सोच ले खाला बन्द करने देता है या खुद ही गढ़कर अपनी समाधि बनाना चाहता है।” उसके पास कोई जवाब नहीं था सिवाय इसके कि चुपचाप खिसक ले, अपनी जान बचा ले।

कुछ समय बाद गांव में पुलिस आयी। हाकम सिंह को हथकड़ी लगाकर ले गई उसके सिर पर किसी की हत्या के साथ-साथ और भी कई प्रकार के आरोप लगाये गये थे। शायद वह खाला बन्द करने का परिणाम था या कुछ और। कासीराम के सिवा यह बात उस गांव का कोई भी वाशिन्दा नहीं जान पाया था।

(मधुमती के मार्च 1990 के अंक में प्रकाशित कहानी)