सातवाँ दृश्य / अंक-2 / संग्राम / प्रेमचंद

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समय : प्रात: काल, ज्येष्ठ।

स्थान : गंगा का तट। राजेश्वरी एक सजे हुए कमरे में मसनद लगाए बैठी है। दो-तीन लौंडियां इधर-उधर दौड़कर काम कर रही हैं। सबलसिंह का प्रवेश।

सबल : अगर मुझे उषा का चित्र खींचना हो तो तुम्हीं को नमूना बनाऊँ। तुम्हारे मुख पर मंद समीरण से लहराते हुए केश ऐसी शोभा दे रहे हैं मानो...

राजेश्वरी : दो नागिनें लहराती चली जाती हों, किसी प्रेमी को डसने के लिए।

सबल : तुमने हंसी में उड़ा दिया, मैंने बहुत ही अच्छी उपमा सोची थी।

राजेश्वरी : खैर, यह बताइए तीन दिन तक दर्शन क्यों नहीं दिया ।

सबल : (असमंजस में पड़कर) मैंने समझा शायद मेरे रोज आने से किसी को संदेह हो जाए।

राजेश्वरी : मुझे इसकी कुछ परवाह नहीं है। आपको यहां नित्य आना होगी। आपको क्या मालूम है कि यहां किस तरह तड़प?तड़पकर दिन काटती हूँ।

सबल : राजेश्वरी, मैं अपनी दशा कैसे दर्शाऊँ। बस, यही समझ लो जैसे पानी बिना मछली के तड़पती हो, न सैर करने को जी चाहता है, न घर से निकलने का, न किसी से मिलने-जुलने को यहां तक कि सिनेमा देखने को भी जी नहीं चाहता। जब यहां आने लगता हूँ तो ऐसी प्रबल उत्कंठा होती है कि उड़कर आ पहुंचूं। जब यहां से चलता हूँ तो ऐसा जान पड़ता है कि मुकदमा हार आया हूँ। राजेश्वरी, पहले मेरी केवल यही इच्छा थी कि तुम्हें आंखों से देखता रहूँ, तुम्हारी मधुर वाणी सुनता रहूँ। तुम्हें अपनी देवी बनाकर पूजना चाहता था।, पर जैसे ज्वर में जल से तृप्ति नहीं होती, जैसे नई सभ्यता में विलास की वस्तुओं से तृप्ति नहीं होती, वैसे ही प्रेम का भी हाल है¼ वह सर्वस्व देना और सर्वस्व लेना चाहता है। इतना यत्न करने पर भी घर के लोग मुझे चिंतित नेत्रों से देखने लगे हैं। उन्हें मेरे स्वभाव में कोई ऐसी बात नजर आती है जो पहले नहीं आती थी। न जाने इसका क्या अंत होगा!

राजेश्वरी : इसका जो अंत होगा वह मैं जानती हूँ और उसे जानते हुए मैंने इस मार्ग पर पांव रखा है। पर उन चिंताओं को छोड़िए। जब ओखली में सिर दिया है तो मूसलों का क्या डर ! मैं यही चाहती हूँ कि आप दिन में किसी समय अवश्य आ जाया करें। आपको देखकर मेरे चित्त की ज्वाला शांत हो जाती है, जैसे जलते हुए घाव पर मरहम लग जाए। अकेले मुझे डर भी लगता है कि कहीं वह हलजोत किसान मेरी टोह लगाता हुआ आ न पहुंचे। यह भय सदैव मेरे ह्रदय पर छाया रहता है। उसे क्रोध आता है तो वह उन्मत्त हो जाता है। उसे जरा भी खबर मिल गई तो मेरी जान की खैरियत नहीं है।

सबल : उसकी जरा भी चिंता मत करो। मैंने उसे हिरासत में रखवा दिया है। वहां छह महीने तक रखूंगा। अभी तो एक महीने से कुछ ही उसपर हुआ है। छह महीने के बाद देखा जाएगी। रूपये कहां हैं कि देकर छूटेगा!

राजेश्वरी : क्या जाने उसके गाय-बैल कहां गए ? भूखों मर गए होंगी।

सबल : नहीं, मैंने पता लगाया था।वह बुङ्ढा मुसलमान फत्तू उसके सब जानवरों को अपने घर ले गया है और उनकी अच्छी तरह सेवा करता है।

राजेश्वरी : यह सुनकर चिंता मिट गई। मैं डरती थी कहीं सब जानवर मर गए हों तो हमें हत्या लगे।

सबल : (घड़ी देखकर) यहां आता हूँ तो समय के पर-से लग जाते हैं। मेरा बस चलता तो एक-एक मिनट के एक-एक घंटे बना देता।

राजेश्वरी : और मेरा बस चलता तो एक-एक घंटे के एक-एक मिनट बना देती। जब प्यास-भर पानी न मिले तो पानी में मुंह ही क्यों लगाए। जब कपड़े पर रंग के छींटे ही डालने हैं तो उसका उजला रहना ही अच्छा। अब मन को समेटना सीखूंगी।

सबल : प्रिय

राजेश्वरी : (बात काटकर) इस पवित्र शब्द को अपवित्र न कीजिए।

सबल : (सजल नयन होकर) मेरी इतनी याचना तुम्हें स्वीकार करनी पड़ेगी। प्रिये, मुझे अनुभव हो रहा है कि यहां रहकर हम आनंदमय प्रेम का स्वर्ग-सुख न भोग सकेंगी। क्यों न हम किसी सुरम्य स्थान पर चलें जहां विघ्न और बाधाओं, चिंताओं और शंकाओं से मुक्त होकर जीवन व्यतीत हो, मैं कह सकता हूँ कि मुझे जलवायु परिवर्तन के लिए किसी स्वास्थ्यकर स्थान की जरूरत है¼ जैसे गढ़वाल, आबू पर्वत या रांची)

राजेश्वरी : लेकिन ज्ञानी देवी को क्या कीजिएगा? क्या वह साथ न चलेंगी?

सबल : बस यही एक रूकावट है। ऐसा कौन-सा यत्न करूं कि वह मेरे साथ चलने पर आग्रह न करे। इसके साथ ही कोई संदेह भी न हो।

राजेश्वरी : ज्ञानी सती हैं, वह किसी तरह यहां न रहेंगी। यूं आप दस-पांच दिन, या एक-दो महीने के लिए कहीं जाएं तो वह साथ न जाएंगी, लेकिन जब उन्हें मालूम होगा कि आपका स्वास्थ्य अच्छा नहीं है तब वह किसी तरह न रूकेंगी। और यह बात भी है कि ऐसी सती स्त्री को मैं दु: खी नहीं करना चाहती। मैं तो केवल आपका प्रेम चाहती हूँ। उतना ही जितना ज्ञानी से बचे। मैं उनका अधिकार नहीं छीनना चाहती। मैं उनके पैरों की धूल के बराबर भी नहीं हूँ। मैं उनके घर में चोर की भांति घुसी हूँ। उनसे मेरी क्या बराबरी। आप उन्हें दु: खी किए बिना मुझ पर जितनी कृपा कर सकते हैं उतनी कीजिए।

सबल : (मन में) कैसे पवित्र विचार हैं ! ऐसा नारी-रत्न पाकर मैं उसके सुख से वंचित हूँ। मैं कमल तोड़ने के लिए क्यों पानी में घुसा जब जानता था कि वहां दलदल है। मदिरा पीकर चाहता हूँ कि उसका नशा न हो।

राजेश्वरी : (मन में) भगवन्, देखूं अपने व्रत का पालन कर सकती हूँ या नहीं कितने पवित्र भाव हैं¼ कितना अगाध प्रेम!

सबल : (उठकर) प्रिये, कल इसी वक्त फिर आऊँगा। प्रेमालिंगन के लिए चित्त उत्कंठित हो रहा है।

राजेश्वरी : यहां प्रेम की शांति नहीं, प्रेम की दाह है। जाइए। देखूं, अब यह पहाड़-सा दिन कैसे कटता है। नींद भी जाने कहां भाग गई!

सबल : (छज्जे के जीने से लौटकर) प्रिये, गजब हो गया, वह देखो, कंचनसिंह जा रहे हैं। उन्होंने मुझे यहां से उतरते देख लिया। अब क्या करूं ?

राजेश्वरी : देख लिया तो क्या हरज हुआ ? समझे होंगे आप किसी मित्र से मिलने आए होंगे।जरा मैं भी उन्हें देख लूं।

सबल : जिस बात का मुझे डर था। वही हुआ। अवश्य ही उन्हें कुछ टोह लग गई है। नहीं तो इधर उनके आने का कोई काम न था।यह तो उनके पूजा?पाठ का समय है। इस वक्त कभी बाहर नहीं निकलते। हां, गंगास्नान करने जाते हैं, मगर घड़ी रात रहै। इधर से कहां जाएंगी। घरवालों को संदेह हो गया।

राजेश्वरी : आपसे स्वरूप बहुत मिलता हुआ है। सुनहरी ऐनक खूब खिलती है।

सबल : अगर वह सिर झुकाए अपनी राह चले जाते तो मुझे शंका न होती¼ पर वह इधर-उधर, नीचे-उपर इस भांति ताकते जाते थे जैसे शोहदे कोठों की ओर झांकते हैं। यह उनका स्वभाव नहीं है। बड़े ही धर्मज्ञ, सच्चरित्र, ईश्वरभक्त पुरूष हैं। सांसारिकता से उन्हें घृणा है। इसीलिए अब तक विवाह नहीं किया।

राजेश्वरी : अगर यह हाल है तो यहां पूछताछ करने जरूर आएंगी।

सबल : मालूम होता है इस घर का पता पहले लगा लिया है। इस समय पूछताछ करने ही आए थे।मुझे देखा तो लौट गए। अब मेरी लज्जा, मेरा लोक-सम्मान, मेरा जीवन तुम्हारे अधीन है। तुम्हीं मेरी रक्षा कर सकती हो।

राजेश्वरी : क्यों न कोई दूसरा मकान ठीक कर लीजिए।

सबल : इससे कुछ न होगी। बस यही उपाय है कि जब वह यहां आएं तो उन्हें चकमा दिया जाए। कहला भेजो, मैं सबलसिंह को नहीं जानती। वह यहां कभी नहीं आते। दूसरा उपाय यह है कि उन्हें कुछ दिनों के लिए यहां से टाल दूं। कह देता हूँ कि जाकर लायलपुर से गेहूँ खरीद लाओ। तब तक हम लोग यहां से कहीं और चल देंगी।

राजेश्वरी : यही तरकीब अच्छी है।

सबल : अच्छी तो है, पर हुआ बड़ा अनर्थ। अब पर्दा ढका रहना कठिन है।

राजेश्वरी : (मन में) ईश्वर, यही मेरी प्रतिज्ञा के पूरे होने का अवसर है। मुझे बल प्रदान करो। (प्रकट) यह सब मुसीबतें मेरी लाई हुई हैं। मैं क्या जानती थी कि प्रेम-मार्ग में इतने कांटे हैं।

सबल : मेरी बातों का ध्यान रखना। मेरे होश ठिकाने नहीं हैं। चलूं, देखूं, मुआमला अभी कंचनसिंह ही तक है या ज्ञानी को भी खबर हो गई।

राजेश्वरी : आज संध्या समय आइए। मेरा जी उधर ही लगा रहेगा।

सबल : अवश्य आऊँगा। अब तो मन लागि रह्यो होनी हो सो होई। मुझे अपनी कीर्ति बहुत प्यारी है। अब तक मैंने मान-प्रतिष्ठा ही को जीवन का आधार समझ रखा था।, पर अब अवसर आया तो मैं इसे प्रेम की वेदी पर उसी तरह चढ़ा दूंगा जैसे उपासक पुष्पों को चढ़ा देता है, नहीं जैसे कोई ज्ञानी पार्थिव वस्तुओं को लात मार देता है।

जाता है।