साथ चलते हुए / अध्याय 13 / जयश्री रॉय

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एक बार मानिनी ने कहा था, कभी तुम्हें लगता नहीं अपर्णा, मृत्यु का ही एक विस्तार है जीवन - किस्तों में मिलती मौत... हर क्षण, प्रतिपल क्षरता हुआ, शेष होता हुआ, जैसे पीले पत्ते झरते हैं पतझर में... नीरव और निरंतर... एक मौन, पथराए संगीत में डूबा हुआ क्षरण... जैसे कोई रुदाली बधाइयाँ गा रही हो या फिर सुहाग की रात कोई मर्सिया... सिसक-सिसककर! शोक और आह्लाद का बेमेल गीत - टूटने का, खत्म होने का - हमेशा-हमेशा के लिए... कभी ध्यान से सुनो, बेसुध हो जाओगी...! जैसे रात रानी की सुगंध से गश आने लगता है... मेरे साथ तो ऐसा ही होता है... मृत्यु के नीले, विषाक्त नशे में डूबी जीती रहती हूँ - मॅरॅन रे तुमी मोर श्यामो सॅमान... सुनकर वह सहम उठी थी। मरण-इच्छा के अजीब आब्सेशन से भरी हुई प्रतीत होती थी वह।

वह एक ही क्षण में मानिनी से आकर्षित और विकर्षित महसूस करती थी, मगर एक दुर्निवार मोह उसे उससे दूर भी जाने नहीं देता था किसी तरह। वह एक कदम बढ़ती थी तो दो कदम पीछे लौट आती थी उसकी तरफ। उन आँखों का नीरव सम्मोहन ही कुछ ऐसा था, जंजीर बन जाता था हाथ-पाँव की।

इसी बीच उसका दूसरा उपन्यास लगभग पूरा हो आया था। उसका फाइनल ड्राफ्ट अपने प्रकाशक को थमाकर वह अगले महीने अमेरिका जाना चाहती थी। वहाँ युनीवर्सिटी में उसका कुछ जरूरी काम रह गया था। अपर्णा के जीवन की कहानी ने उसे कहीं गहरे से छुआ था। एक खूबसूरत, प्रांजल जीवन इस तरह से उदासी में घुलकर जाया हो जाएगा... वह अक्सर सोचा करती, किस तरह से मानिनी के जीवन में कोई सकारात्मक बदलाव लाया जाय। इस निविड़ वन में तो वह एक दिन घुटकर मर ही जाएगी।

इस बीच मौसम भी यकायक बदला था। बीच-बीच में बूँदा-बाँदी होने लगी थी। मानसून शायद जल्दी ही आनेवाला था।

उस शाम जब वह डॉ. सान्याल के कॉटेज पर पहुँची थी, सावन के बादल आकाश में घिर आए थे। हवा तेज और ठंडी थी। सूखे, जर्द पत्तों की मोटी कालीन पूरे पोर्टिको में बिछी हुई थी। बारिश कभी भी शुरू हो सकती थी। डॉ. सान्याल से मिलकर उसने उनका धन्यवाद किया था। बढ़ते हुए जान-पहचान के साथ इसी बीच वह उसे काका बाबू कहकर संबोधित करने लगी थी। उन्होंने भी उससे बहुत गर्मजोशी से हाथ मिलाया था। फिर कभी वहाँ आने पर उनसे मिलने का आग्रह किया था।

चलोगी, धूप नहाई जमीन और सूरजमुखी के देश में?

लौटते हुए वह हर कदम पर ठिठकी थी। उसकी आँखें भी। उसे मानिनी से मिलना था। और फिर अचानक उसे वह दिखी थी - पीली और उदास, मुर्झाए हुए अमलतास की तरह। साँझ की नीली उदासी में परछाई की तरह अवसन्न घुली हुई, फना होती हुई-सी...

पास जाने पर उसने बिना कुछ कहे उसका हाथ थाम लिया था और फिर उसे चंपा के नीचे झूले पर बैठा कर स्वयं भी उसके बगल में चुपचाप बैठ गई थी। उन दोनों के बीच एक भरा-भरा-सा मौन देर तक पसरा रहा था। शायद उन दोनों के पास ही बहुत कुछ था कहने-सुनने के लिए, तभी वे इस तरह से खामोश हो गए थे, शब्दों की खोज में। मानिनी की आँखें किसी घायल पक्षी की मौन छटपटाहट से भरी हुई थी जैसे - बेचैन मगर निर्वाक... आखिर अपर्णा ने ही अपने बिखरे शब्द समेटे थे -

तुम्हें ही ढूँढ़ रही थी तब से, कहाँ थी?

- कॉफी बना रही थी... फिल्टर कॉफी, बाबा को पसंद है...

- हूँ... अपर्णा ने हवा में उड़ती कॉफी की गंध को एक लंबी साँस के साथ सीने में भरा था - और और उसकी चंपा की कलियों-सी नाजुक अंगुलियाँ अपनी मुट्ठी में समेटकर पूछा था -

चलोगी मेरे साथ?

उसने अपनी वाष्पित आँखें उठाई थीं। वहाँ न पूछा गया प्रश्न था - कहाँ?

- वहीं - धूप नहाई जमीन और मुस्कराते हुए सूरजमुखी के देश में... जहाँ तुम्हें बोलने के लिए किसी से भाषा उधार न लेनी पड़े और जहाँ तुम्हारे पंखों को सारा आकाश मिले...

न जाने उसकी बातों में ऐसा क्या था कि मानिनी सुनते ही बाँध टूटी नदी की तरह बहने लगी थी। उसकी उन मरू-सी शुष्क आँखों में न जाने कितने समंदर छिपे थे, उनकी गहराई और विस्तार में वह भी डूबने लगी थी। कॉफी की गंध घुली वह तेजी से गिरती शाम - गहरी कत्थई और गर्म - उनके बीच अचानक भीगने लगी थी। अब तक हल्की झींसी भी गिरने लगी थी। हवा भीगी मिट्टी की सोंधी गंध से अनायास तर हो आई थी। अपनी हथेलियों से उसके आँसू पोंछते हुए उसने अपना सवाल एक बार फिर उसके सामने दोहराया था -

मानिनी, चलोगी न मेरे साथ?

उसने न जाने किन नजरों से देखा था उसे -

नहीं, मैं तुम्हारे साथ नहीं आ सकती अपर्णा...

उसका जबाव सुनकर उसके अंदर जैसे एक पूरा आकाश ही टूटकर गिरा था। उसे उससे इस बात की उम्मीद नहीं थी। एक गहरे शून्य और डूब से यकायक भर उठी थी वह। पता नहीं, अपने ही अनजाने उसने इस बीच क्या-क्या सोच लिया था उसे लेकर। बहुत दूर निकल आई थी वह। जिसे उसने रास्ता समझा था वह दरअसल पानी की गीली लकीरें थीं जिन्हें अंततः मिट जाना ही होता है। उसके लाख पूछने पर भी उसने अपने इनकार की कोई वजह नहीं बताई थी। बस एक ही बात दोहराती रही थी कि एक दिन उसे सारी सच्चाई का पता चल ही जाएगा। आज वह वहाँ से चली जाय।

अपर्णा को जाते हुए देखकर वह रोती रही थी। बार-बार अपने ही हाथों से अपने पिंजरे का द्वार बंदकर लेना... कितनी विवश है वह, कितनी भाग्यहीन। धूप नहाई दुनिया का निमंत्रण उसकी आँखों में अंगारे भर देता है। कुछ भी चाहने का दुःसाहस अब उसमें नहीं। एक बार सपने देखने की सजा वह आज तक पा रही है - तिल-तिलकर मरते हुए। हर रोशनी, हर खुशी से रिक्त होकर एक विराट शून्य में बुझे हुए किसी तारे की तरह। किसी की दो उदास आँखों की दृष्टि उसे आज भी समय-असमय घेरकर निंतात अकेली कर देती है... एक पुकार 'मेम साहब...' उसे न जाने कितनी रातों से जगाए हुए है। वह अब जीवन से कुछ चाहेगी तो किस साहस से?

उसे श्याम से हुई अपनी आखिरी मुलाकात याद आती है... चंपा के फूलते हुए पेड़ के नीचे। उस दिन चाँद नहीं था। आकाश का रंग रात के उतरने के ठीक पहले का-सा था - इस्पाती नीला। उसी रंग में घुल गया था गोपाल का साँवला रंग। हल्के अंधकार में दो आँखें किसी तुलसी चौरे पर झिलमिलाते सांध्य प्रदीप जैसी उजली दिख रहीं थी। हमेशा की तरह उनमें ढेर सारा कौतूहल और भय, ठीक जैसे किसी हिरण की आँखों में होता है। उसके लिए साल के दोने में जामुन चुन लाया था। सकुचाकर उसके हाथों में रखते हुए उसके होंठों के कोने में काँपती हुई वह सलज्ज हँसी, ठीक किसी खुशरंग तितली की तरह- आपके लिए मेम साहब...

- फिर मेम साहब... मैंने कहा नहीं था, मुझे नाम से पुकारो... उसने कपट गुस्से में अपनी आँखें फैलाई थी - तुम मेरी कोई बात नहीं सुनते श्याम...

- अरे नहीं मेम सा...ह...ब... श्याम आदतन फिर से उसे मेम साहब कह गया था और फिर रगड देकर अपनी जुबान को रोकने की कोशिश की थी। गहरे होते अंधकार में उसकी आवाज की लरज को महसूस करते हुए उसने बड़ी मुश्किल से अपनी हँसी रोकी थी - अबकी बार तुम्हें जरूर सजा मिलेगी... तुमने अपना घर का काम भी नहीं किया... ए बी सी डी तुम्हें अब तक आधी भी याद नहीं हो सकी। मैं तुमसे बहुत गुस्सा हूँ श्याम...

बिना कुछ कहे श्याम ने अपनी हथेली आगे बढ़ा दी थी, सजा के लिए।

- नहीं, आज छड़ी नहीं, तुम्हें कुछ और दंड मिलेगा...

- उ का? पूछते हुए श्याम की आवाज में सचमुच का डर था। अंधकार में फैली हुई दो निर्दोष आँखों में वन की अटूट निविड़ता और खोयापन... उनकी तरफ देखते हुए उसका मन अनायास भर आया था। ऐसी बलिष्ठ देह का युवा पुरुष और मन से इतना सरल, भोला... धीरे से हाथ बढ़ाकर उसने उसे अपने करीब खींच लिया था - मुझे चूमो श्याम...

श्याम उसके शरीर से लगा काँपता खड़ा रह गया था। उसकी देह से उठती पसीने, `मिट्टी की आदिम, वन्य गंध, मांसल उत्ताप उसे अधीर किए जा रही थी। शिराओं में उष्ण होता रक्त सुनहरा पड़ने लगा था, गालों में उत्तेजना की ललछौंह कौंध थी।

- श्याम... उसने अधीर होकर उसकी बाँह में अपने नाखून खुबा दिए थे। एक चिहुँक के साथ श्याम उसके गाल की तरफ झुका था, मगर उसने अपने होंठ आगे कर दिए थे - यहाँ, होंठों पर...

श्याम ने सिहरकर पीछे हटने की कोशिश की थी, मगर उसने उसे सख्ती से अपनी बाँहों में बाँध लिया था - श्याम...

...अपने होंठों पर एक फीके नमकीन स्वाद को महसूसते हुए वह हिलक-हिलककर रोती रही थी। उस दिन दोनों को ननकू ने एक साथ देख लिया था। इसके बाद कई दिनों तक श्याम उससे मिलने नहीं आया था। वह रोज नदी के किनारे बैठकर उसका रास्ता देखती और फिर निराश होकर घर लौट आती। उसका मन रात दिन आशंकाओं से भरा रहता, न जाने श्याम क्यों नहीं आया, न जाने उसके साथ क्या हुआ होगा...

और फिर मुल्की ही वह मनहूस खबर उसके पास ले आई थी - श्याम हवालात में बंद है। उसकी माँ ने जो थाने में साफ-सफाई का काम करती थी, कहला भेजा है, वह उसे एक बार देख आए...

वह गई थी पुलिस स्टेशन, देर शाम को, जंगल का बीहड़ रास्ता तय करके, अकेली ही... उसके अनुनय-विनय का कोई असर थनेदार पर नहीं हुआ था। बेशर्मी से हँसता रह था - आप भद्र घर की महिलाओं को यह सब शोभा नहीं देता मैडम... जाइए, घर जाइए... आपको हमारा हवलदार पहुँचा आएगा, रात हो रही है...

लौटते हुए हवलदार को शायद उस पर दया आ गई थी। किसी से न कहने की बात कहकर चुपके से उसे श्याम के लॉकअप में ले गया था। उसने वहाँ श्याम को देखा था, मगर पहचान नहीं पाई थी... अँधेरी कोठरी के कच्चे फर्श में वह तुड़ा-मुड़ा पड़ा था - अपने ही खून, पिशाब और पाखाने में सना हुआ... उसके चारों तरफ दुर्गंध के भभाके उड़ रहे थे, साथ में मच्छरों की अनवरत भनभनाहट, अह्यय गर्मी... अस्पष्ट आवाज में शायद वह बार-बार पानी... पानी कह रहा था।

वह वहाँ दो क्षण भी रुक नहीं पाई थी। रोते हुए भाग आई थी। नहीं, वह उसका श्याम नहीं हो सकता... श्याम तो कितना सुंदर है, कितना बलिश्ठ...और वहाँ, वह जो पड़ा हुआ था... गंदगी की ढेर में टूटा-फूटा... उसका चेहरा कहाँ था!... कूटा-पिसा मांस का एक बदसूरत लोथड़ा - गहरा बैंजनी, खून के थक्कों में जमा हुआ... ऊपर के दो हिस्सों में फटे हुए होंठ के बीच से झाँकते चार दाँत... अँधेरे में चमकते हुए... उसके रूप को और भी भयानक, और भी कदर्य कर रहे थे। वह थाने के बाहर एक पुराने पीपल के नीचे बैठकर देर तक उल्टी करती रही थी। लगा था, दोपहर का सब खाया-पीया बाहर आ जाएगा।

हवलदार को उसकी हालत देखकर दया आ रही थी - मेम साहब, औरतजात होकर आपको यहाँ नहीं आना चाहिए था। यह सब तो यहाँ चलता ही रहता है...

वह बिना कुछ कहे लड़खड़ाती हुई-सी चलती रही थी। उसका दिमाग शून्य हो चुका था। वह बस इतना जानती थी कि उसे इस जगह से जितनी दूर हो सके चली जाना है... उस गंदी, अँधेरी कोठरी से, उस भयानक, वीभत्स चेहरे से... वहाँ जहाँ उसका प्यार है, चंपा की मादक सुगंध है, नीले आकाश में सोने की थाल-सा भरा-पुरा चाँद और श्याम की मधुर बाँसुरी है...

उसे इस कुरूप संसार में नहीं रहना जहाँ इतनी पाशविकता है, इतनी घृणा है, इतनी हिंसा है... उसे इन बातों से कोई मतलब नहीं। सब झूठ है, दुःस्वप्न है... वह जितनी जल्दी हो सके अपने श्याम के पास चली जाएगी, अभी चली जाएगी... वह यकायक बेतहाशा दौड़ने लगी थी, दौड़कर जंगल के बीच खो गई थी। हवलदार पीछे से पुकारता रह गया था - अरे रे मेम साहब...

वह सारी रात वह जंगल में भटकती रही थी पागलों की तरह, श्याम को पुकारती हुई, उसे ढूँढ़ती हुई। दूसरे दिन सुबह डॉ. सान्याल अन्य लोगों के साथ आकर उसे जंगल से अचेतावस्था में उठाकर ले गए थे। आसपास के लोगों से कहा था, उसकी बेटी को मिर्गी के दौरे पड़ते हैं। तब से सचमुच मानिनी को मिर्गी के दौरे पड़ने लगे थे। बीच-बीच में गहरी उतरती शाम में वह अचानक काँपने लगती है और कुछ अस्पष्ट बड़बड़ाते हुए अचेत हो जाती है...