साथ चलते हुए / अध्याय 15 / जयश्री रॉय

Gadya Kosh से
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उस रात बँगले के बरामदे में बैठी-बैठी शायद वह ऊँघ गई थी। न जाने कितनी देर बाद किसी की आहट पाकर यकायक उसकी आँख खुल गई थी। सामने मुल्की खड़ी थी - बदहवाश-सी। इससे पहले की वह उससे कोई सवाल कर पाती, उसके हाथ में कागज का एक पसीजा हुआ टुकड़ा थमाकर बँगले की सीढ़ियाँ उतरकर वह रात के अंधकार में तेजी से खो गई थी।

कुछ देर तक असमंजस की स्थिति में बैठे रहकर उसने हाथ की मुट्ठी में बंद उस कागज के टुकड़े को खोलकर पढ़ने का प्रयत्न किया था। बहुत जल्दी में कुछ शब्द घसीटकर लिखे गए थे। शायद पसीने से अधिकतर अक्षर धुँधला गए थे -

अपर्णा दी, इसी निविड़ अरण्य में घुटकर मर जाना मेरी नियति है। तुमसे पहले भी मुझे किसी ने धूप नहाई दुनिया में चलने का निमंत्रण दिया था। मगर वह स्वयं यहाँ के गहन अंधकार में खोकर रह गया। तुमने पापा की बंदूक देखी है और उनकी बातें भी सुनी है। वह जिस जमीन में आज मिट्टी बनकर मिल गया है, उसी जगह पर खड़ा है चंपा का वह पेड़ जिसके फूल मैं तुम्हें भेंट दिया करती थी। मैं मेरे पापा के अपाहिज जीवन की एकमात्र बैशाखी हूँ और वे मुझे किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहेंगे। उनकी विवशता ने उन्हें बहुत स्वार्थी बना दिया है। यह जंगल मेरे लिए एक जिंदा कब्र ही है जहाँ मुझे अपनी या पापा की अंतिम साँस तक रहना पड़ेगा... जो कोई भी मुझे उनसे दूर ले जाने की कोशिश करेगा, उसका हश्र भी वही होगा जो बहुत पहले किसी का हुआ था। तुम जितनी दूर हो सके यहाँ से चली जाना। मैं इस जंगल में एक और चंपा का पेड़ नहीं रोपना चाहती...

वह चिट्ठी पढ़ते हुए उसकी दृष्टि धुँधला गई थी। मेरुदंड में बर्फ उतरने लगी थी। बहुत मुश्किल से अपने अंदर उठती हुई कँपकँपाहट को रोका था उसने। सामने पड़ी मेज पर मानिनी का दिया हुआ चंपा का फूल अभी तक पड़ा हुआ था जो उसने उसे कल उसके बँगले से आते हुए दिया था - पीला और मुर्झाया...

यही फूल वह कौशल को दिया करती थी। एक गहरी साँस लेकर उसने बाहर की तरफ देखा था। गहरे घने जंगल में उतरी रात देर तक बरसकर अभी-अभी फीके हुए बादल के पीछे से यकायक निकल आए चाँद से गोरी हो आई थी। चेहरे से टकराती भीगी हवा में कहीं आसपास खिलते चंपा की मादक गंध थी। उसे अपने नासापुटों में महसूसते हुए उसे अनायास ख्याल आया था, न जाने इस हत्यारे जंगल में इनसानी खून से सींचे हुए रक्त चंपा के और कितने ऐसे अभागे पेड़ होंगे...