साथ चलते हुए / अध्याय 16 / जयश्री रॉय

Gadya Kosh से
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इसके बाद और कई दिन नामालूम-से बीते थे। अपने उपन्यास को फिनिशिंग टच देते हुए वह कहीं बाहर नहीं निकल पाई थी। कौशल भी कोलकाता गया हुआ था किसी काम से, इसलिए उससे भी मुलाकात नहीं हो पाई थी। उस दिन दोपहर को खाने के बाद बरामदे में आ बैठी थी। उपन्यास के आखिरी दृश्य में कुछ संशोधन करने थे।

थोड़ी देर बाद डाकिया उस दिन का डाक दे गया था - कुछ पत्रिकाएँ, चिट्ठियाँ...

अभी वह उन्हें देख ही रही थी कि बँगले के अहाते में धूल उड़ाती हुई एक पुलिस की जीप आकर रुकी थी। जीप के रुकते ही दो सिपाही कूदकर नीचे उतरे थे और फिर भागते हुए बँगले के पीछे की तरफ सर्वेट क्वाटर की तरफ चले गए थे। घटना की आकस्मिकता से वह यकायक घबरा उठी थी। पुलिस यहाँ क्यों आई थी...

एक इंस्पेक्टर को अपनी ओर बढ़ते देख वह अपनी कुर्सी से कपड़े सँभालते हुए उठ खड़ी हुई थी।

नमस्ते मैडम! अशिष्ट ढंग से कहते हुए वह इंस्पेक्टर उसके सामने खड़ा हो गया था - क्षमा कीजिएगा, इस तरह से आना पड़ा... अच्छा, ये गोपाल कहाँ है?

जी... वह उनके प्रश्न का आशय समझ नहीं पाई थी।

गोपाल... नहीं जानती आप उसे! सुना है, आपका तो काफी आना-जाना होता है उनकी बस्तियों में...

वह कोई जबाव देती इससे पहले ही दो सिपाही पुनिया और उसके पति को धकेलते हुए वहाँ ले आए थे। पुनिया का बेटा उसकी पीठ से बँधा जोर-जोर से रो रहा था। पुनिया भी काफी घबराई हुई दिख रही थी। उसकी आँखों में आँसू थे। उसका पति अपना दोनों हाथ जोड़े थर-थर काँप रहा था।

- क्यों रे, गोपाल को कहाँ छिपा रखा है?

इंस्पेक्टर साहब ने पुनिया के पति को रूलर से कोंचा था - सच-सच बताना, वर्ना तुम सब भीतर जाओगे। महाजन को मारा है, नकदी भी लूटी है...

- हमको कुच्छो नहीं मालूम सरकार!

पुनिया अब जोर-जोर से रोने लगी थी।

- नक्सल का साथ दोगे तो... अगर इधर आया तो थाना जरूर खबर करना...

कहते हुए इंस्पेक्टर एक बार फिर उसकी तरफ मुडा था - मैडम, घूमने आई हैं इधर आप, रेंजर साहब कह रहे थे। यहाँ के लफड़े से दूर ही रहिए... वर्ना मुसीबत में पड़ जाएँगी। लिखती हैं आप...

कहते हुए उसने बिना पूछे उसकी पांडुलिपि उठा ली थी - जल,जंगल, जमीन... शुभचिंतक हैं आप आदिवासियों की... अच्छा है, लिखिए... अभी कल ही कुछ आपत्तिजनक दस्ताबेज जब्त किए है दास बाबू से - पत्रकार हैं, लिखते हैं - आप ही की तरह, अब जाएँगे अंदर कुछ वर्षों के लिए...

भद्दे ढंग से हँसते हुए उसने पांडुलिपि फिर से मेज पर रख दी थी - कुछ रोमांस-वोमांस पर लिखिए - गुलशन नंदा टाइप... कॉलेज के दिनों में खूब पढ़ते थे हम भी - लरजते आँसू, झील के उस पार... फिल्म भी बनी थी उन कहानियों पर! आपने देखी होगी? खासकर वो वाला गीत - एक बार मुझको पिला दे शराब देख फिर होता है क्या... मुमताज! एकदम मस्त... हम तो हॉल में उठकर नाचने लगते थे... जवानी के दिन थे... हा हा हा... अच्छा नमस्कार!

उनके जाते ही उसने पुनिया से पूछा था - यह पुलिस गोपाल को क्यों ढूँढ़ रही थी? गोपाल को उसने कल रात बँगले के अहाते में देखा था। वह पुनिया की बहन का पति था। उनकी नई-नई शादी हुई थी। एक दिन पति-पत्नी शादी के बाद उसके पाँव छूने आए थे। गोपाल एक बेहद हँसमुख, सजीले स्वभाव का लड़का था। हमेशा हँसता रहता था। कितने खुश लगते थे दोनों पति-पत्नी एक साथ। कहाँ रहते हो पूछने पर दूर की पहाड़ियाँ दिखा दी थी - वहाँ माईजी...

- वहाँ... वहाँ कहाँ रे? वहाँ तो बस जंगल है...

- जंगल ही तो हमरा घर है माईजी...

पुनिया ने ही बाद में बताया था, गाँव के महाजन ने उनकी जमीन हथिया ली है। बाप-दादा के लिए उधार का ब्याज वर्षों से चुकाते रहे, मगर कर्ज खत्म न हुआ और अब न जाने कैसे-कैसे कागज दिखाकर उसकी बीघाभर जमीन भी हथिया ली। जवान खून था उसका, रोक नहीं पाया खुद को, पीट डाला महाजन को। अब पुलिस पीछे पड़ी है। जो भी सरपंच, महाजन या जमीदार के विरुद्ध आवाज उठाता है, उसे नक्सल कहकर अंदर करवा देते हैं या उसका एनकाउंटर करवा देते हैं।

कौशल सुनकर अनमन हो गया था - सामाजिक न्याय के अभाव में प्रतिरोध की चेतना कुंद होकर रह गई है लोगों की... कोई सर उठाता है तो कुचल दिया जाता है। यह एक चौतरफा लड़ाई है... और मंजिल दूर! मगर इसी से तो हारकर बैठ नहीं सकते...

- क्या कर सकेंगे? उसने झिझकते हुए पूछा था।

उसके अंदर एक अनाम डर घोंसला डाल चुका था, शायद इसमें कौशल के लिए उसकी चिंता छिपी थी। न जाने कहाँ-कहाँ फिरता है, किन लोगों के बीच उठता-बैठता है। वह सही है, वह जानती है, मगर समय सही नहीं। धूप की जड़ों में फैलती हुई काली, कदर्य परछाइयों को उसने महसूस लिया है। पथराए हुए मौन के ठीक पीछे कोई बवंडर दम साधे पड़ा है। एक छोटी-सी चिनगारी और बस, सब कुछ राख हो जायगा... बारूद की ढेर है यह रूँदी हुई जमीन, अपने भीतर आग के बीज अँखुआए पड़ी है - सदियों से स्तब्ध, निर्वाक... मगर रगो-रेश से खौलती हुई... कितनी आर्तनाद यहाँ की जमीन पर समय के साथ जमकर ठोस हुई है, अनगढ़ पठारों में तब्दील हुई है... सेमल की गंध से बोझिल हवा में घुली हल्की चिरांध को उसने सूँघ लिया है, तभी कहीं से अस्थिर है।

कौशल ने उसके सवाल का कोई जबाव नहीं दिया था, बस चुपचाप चलता रहा था। इस समय चाँद ठीक उसके पीछे था - खूब बड़ा और उजला... उसकी पीठ पर चमकता हुआ, किसी मुहर की तरह। आगे उसकी परछाई थी - दूर तक तैरती हुई... कुछ देर चलने के बाद कौशल अनायास उसकी ओर मुड़ा था - यदि कभी पुनिया की बहन तुम्हारे पास आए, उसे अपने पास छिपाकर रखना, माँ बननेवाली है वह...

- क्यों, वह क्यों आने लगी मेरे पास...? वह कहीं से लरज उठी थी - क्या हो रहा है यहाँ! कौशल ने फिर उसके सवाल का कोई जबाव नहीं दिया था - बस, इतना जरूर करना...

जंगल के माथे पर बादल घिर आए थे, साँवली, धूसर गठरियों की तरह - नीचे की ओर अपने भार से उतरते हुए, जैसे जमीन पर बिछ जाएँगे। ठंडी हवा में भीगी मिट्टी की गंध थी, कहीं दूर बारिश हो रही थी शायद। उन्होंने चलते हुए अपने कदम तेज कर दिए थे। काले, गंदले पानी से भरे हुए कोयला खदान के पास से गुजरते हुए उन्हें जानवर की देह की तेज दुर्गंध मिली थी। कौशल उसके पास सरक आया था -

हम यहाँ से जल्दी निकल चलें, सुना है, पड़ोस के जंगलों से कोई आदमखोर इस तरफ निकल आया है। कल ही जंगल से लकड़ी चुनकर लौटती हुई एक औरत पर हमला किया है, सदर अस्पताल में पड़ी है। लगता नहीं बचेगी। आधा चेहरा चबा डाला है, पहचान में नहीं आती...

सुनकर उसके शरीर पर काँटे उग आए थे।

कौशल ने उसके डर को समझा था शायद, इसलिए जब तक वह अपने कमरे में पहुँचकर अंदर से दरवाजा बंद नहीं कर लिया था, वह गेट पर खड़ा रह गया था।