साथ चलते हुए / अध्याय 17 / जयश्री रॉय

Gadya Kosh से
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उस रात उसने बैठकर पुराना अल्बम देखा था - काजोल की तस्वीरें - कितनी सारी - पहली बार अन्नप्रासन में खीर खाते हुए, घुटनों पर घिसटते हुए, डगमगाते कदमों से चलते हुए... सब कुछ याद आता है उसे। जैसे कल की घटी घटनाएँ हों। इच्छा होती है, उसे तस्वीर से निकालकर अपनी गोद में ले ले। जो इतना स्पष्ट, जीवंत है, वह कहीं नहीं... उसे यकीन करने में आज भी तकलीफ होती है। कई बार यथार्थ और कल्पना में फर्क करना कठिन हो जाता है। सब कुछ है, मगर नहीं है... काजोल की आवाज वह सुनती है, तुतली जबान में उसकी कविताएँ, उसका रोना, मचलना... उसका स्पर्श भी जीवित है - उसकी बाँहों में, गोद में! बालों की गंध, छोटे-छोटे हाथों की कोमल छुअन... वह हर पल जीती है उसे... इसलिए हर पल मरती भी है...

कितना त्रासद है यह सब कुछ उसके लिए - जिसमें उसकी खुशियाँ छिपी हैं, उसी में उसके दुख भी हैं - दुखों का उत्स... जिन स्मृतियों में वह रहना चाहती है, कभी उन्हीं को भुलाने की कामना करती है। उसका जीवन-मृत्यु, दुख-सुख- सब कुछ एक ही है, एक में है! वह अपनी काजोल की स्मृति के बिना जी नहीं सकती और उससे परे हुए बिना भी जी नहीं सकती। क्या करे वह... कहीं कोई हल नहीं! हारकर उसने सब कुछ वक्त के हाथों में छोड़ दिया है, जो होना है, वह समय ही तय करेगा। कुदरत की अपनी मर्जी, नियम और समय होता है, उसी के अनुसार सब कुछ होना है, होता रहा है।

न चाहते हुए भी अतीत बार-बार उसके सामने आ खड़ा होता है, तकलीफ देता है। जीवन का आधा जिस हिस्से में रख आई है, उसे भुलाया भी कैसे जा सकता है। कभी हँसी का कोई टुकड़ा, एक चेहरा, गंध, छुअन... यहाँ-वहाँ से निकलकर रास्ता रोक लेती है, हाथ पकड़ लेती है। वह छूटना चाहती है, मगर नहीं चाहती। वही खड़ी रह जाती है देर तक...

उसे याद आता है, एक पूरी रात रोने के बाद दूसरी सुबह वह जाने के लिए तैयार हो रही थी। आशुतोष और तापसी सुबह-सुबह शापिंग के लिए निकल गए थे। तापसी को फर्नीचर देखना था, उसे उनके बैठक का भूरा लेदर सोफा पसंद नहीं, वह कपड़ों का बना सोफा चाहती है। उनके जाने के बाद वह उस फ्लैट में अकेली रह गई थी। सागरिका ने फोन किया था, वह रात को दूसरे शहर से लौटते हुए उसे अपने साथ ले जाएगी। शायद दस बज जाए।

ड्रॉइंग रूम में बैठी वह सोचती रही थी। उस दिन वह हर तरह से मुक्त हो गई थी। शायद उसे खुश होना चाहिए था। अनचाहे रिश्ते का बोझ आज उतर ही गया था। मगर अंदर एक स्तब्ध चुप्पी अडोल दीवार की तरह खड़ी है। शोक और खुशी के बीच का अंतर खो गया है एकदम से...

वह अपने से बाहर निकलने की कोशिश में काँच की लंबी खिड़की से बाहर देखती है। वहाँ भी सब कुछ अंदर जैसा है - सफेद कागज पर अंकित चुप्पी की लंबी फेहरिस्त की तरह - एकदम शब्दहीन, निर्वाक...

कल रात से बर्फबारी हो रह है। रूई के गालों-से झरते आकाश के नीचे सबकु सफेद हो गया है। एक-एक फुट ऊँची बर्फ की चादर बिछी हुई है चारों तरफ। क्रिसमस के ऊँचे पेड़ बर्फ का लबादा ओढे ध्यान मग्न-से एक कतार में चुपचाप खड़े हैं। हर तरफ वही तटस्थ निःस्तब्धता और सील-सा बँधा हुआ एकांत... तेज हवा खिड़कियों पर दो हत्थड़-से मारते हुए गुजर रही हैं। काँच रह-रहकर झनझना रहे हैं।

वह एक गहरी साँस लेती है। एक बार फिर स्वयं को टटोलती है। अब वह क्या करना चाहती है? जिंदगी के नाम पर जो कुछ भी उसके पास बचा रह गया है, उसका कुछ तो बंदोबस्त करना है। सामने वही निरुत्तर मौन है - अहिल्या की तरह पाषाण खड़ा हुआ। उसे अनायास संदेह हुआ था - इस कुरुक्षेत्र के बाद उसके भीतर कुछ जीवित रह पाया है या नहीं - कुछ भी - हँसी या आँसू, जिसे जीवन का संकेत कहा जा सके। वह साँस लेती है, चलती-फिरती है, मगर अब शायद यह भी काफी नहीं। जीवन शायद इससे आगे की कोई चीज है। वह इस क्षण किसी हिसाब-किताब में उलझना नहीं चाहती थी। इन सब के लिए जिंदगी पड़ी है, खूब लंबी-चौड़ी...

सबसे पहले उसे यह तय करना है कि उसे खुद का करना क्या है। यकायक वह स्वयं को जिंदगी के बीचोबीच खड़ी पाती है - जैसे किसी नो मैन्सलैंड में - एकदम डिफेंसलेस और वलनरेवल... सारे सरहदों के पार... देश-विदेश के दायरे से परे...! बेघर शब्द की विडंवना को आपाद-मस्तक झेलते हुए!

पैतीस वर्ष की अवस्था है उसकी। वह यानी श्रीमती अपर्णा लाहिड़ी... आशुतोष लाहिड़ी की पत्नी, कल तक एक दस वर्ष की बच्ची की माँ - एक भरे-पूरे घर की मिस्ट्रेस... मगर आज नियति की एक ही ठोकर से हर रिश्ते से अचानक कटकर किसी भटके हुए नक्षत्र की तरह एकदम निसंग - अंतरिक्ष में यहाँ-वहाँ डोलती हुई, भारहीन, दिशाहीन, पूरी तरह से निरुद्देश्य...

अंदर किसी अनाम गहराई से एक घुमेर-सी उठती है और पहाड़ी धुंध की तरह अक्समात छाती चली जाती है। आसपास एक वृत्त-सा रचता है। आजकल वह अपनी हौलदिली को दोनों हाथों से समेटे खड़ी रहती है। ये डूबता हुआ-सा अहसास इन दिनों हमेशा बना रहता है। अवसाद के लिए वह कब से इलाज में है। गहरी, मटमैली अनुभूतियाँ अंदर पत्थर की तरह जमकर बँधने लगी है। इसके नीचे उसका एक बहुत बड़ा हिस्सा चला गया है। पानी में तैरते हुए बर्फ की चट्टान की तरह - सतह पर कम और मन की नीली, स्याह गहराइयों में ज्यादा डूबा हुआ।

वह अपनी इन आर्द्र हथेलियों में क्या-क्या सहेजे, पूरा जीवन ही बिखरा पड़ा है। ठीक मेले के उठ जाने के बाद का-सा बिखराव... दूर-दूर तक...वह एक सिरा सँभालती है तो दूसरा सिरा हाथ से छूटकर गुम जाता है।

खिड़की से हटकर वह किचन में आ गई थी, कुछ करने, व्यस्त हो जाने की गरज से। आजकल यह बहुत जरूरी हो गया है - हर समय काम करना, खुद को उलझाए रखना। यह रात दिन का खुद से भागते रहना बहुत थका देनेवाला अनुभव था। मगर करे भी तो क्या, अपने भीतर दो घड़ी ठहरा भी तो नहीं जाता। वह परकोलेटर से उठते हुए भाप को अनमन देखती रही थी, अंदर हर क्षण घिर आते हुए आद्रता की बोझिल अनुभूति लिए।

एकांत में हर आवाज शोर बन जाती है। इसी शोर से वह आजकल हर समय घिरी रहती है। सब कुछ - सब कोई उससे इतनी दूर चले गए हैं कि अब उनकी आहट तक नहीं आती - मन से तो बिल्कुल नहीं आती। मगर उसकी असली त्रासदी शायद यह है कि जो लोग आहट से भी परे चले गए हैं, वह आज भी उन्हीं के इंतजार में अपनी दहलीज पर खड़ी रहती है। उसे बस उन्हीं की प्रतीक्षा है - हर पल, हर घड़ी... काश वह अपने इस इंतजार से कभी छूट पाती... मगर शायद यह अपने आप से छुटने जैसा ही कठिन है। इनसान सिर्फ हार-मांस का ही बना हुआ कहाँ होता है। उसके रचाव में यह संवेदनाएँ भी तो होती हैं - हर रेशे में गुँथी हुईं - हवा और गंध की तरह...

वह चाय का कप लेकर ड्राइंग रूम में आती है। पूरा कमरा अपनी हर चीज के साथ तटस्थ दिखता है - होटलों जैसी साफ-सफाई और सायास गढ़ी गई सुंदरता... कहीं घर जैसा आत्मीय बिखराव नहीं जहाँ दो पल निश्चिंत होकर पैर फैलाया जा सके। विडंबना तो यह है कि यह सब उसी के हाथों रचा-गढ़ा गया है, मगर उसमें मन के चाव की जगह अनुशासन और नियमों में रहने की बाध्यता ही ज्यादा हावी रही है।

अपने ही अनजाने वह कब इस मशीनी व्यवस्था की हिस्सा हो गई उसे पता ही नहीं चला। फिर यह मन ही क्यों पड़ा रह गया पीछे - उस देश में जहाँ रिश्तों की एक लंबी-चौड़ी फेहरिस्त में आज उसका कोई नहीं। क्यों इन ठंडे-प्राणहीन मकानों में रह-रहकर उस घर की याद हो आती है जिसकी छत और दीवारें रिश्तों की महक और उनके प्यार-तकरार से बनी हुई थी। उनके आँगन की एक टुकड़ा जाड़े की रेशमी धूप मेह-बर्फ से ठिठुरते मटमैले मौसमों में बोरसी के सुखद ताप की तरह अब भी स्मृतियों में छा जाती है। जिस जमीन में नाल गढता है, मन भी वही आजन्म गढ़ा रह जाता है शायद... फिर इनसान की बाँहें किसी भी आसमान को क्यों न छू लें।

एक मौसम होता है जब पक्षी अपने देश लौट जाना चाहता है, यह मौसम भी कुछ वैसा ही था। एक मछली की तरह अपने क्षण-क्षण निकट आती मौत की बेला में वह भी जैसे प्रतिकूल लहरों में कूद पड़ना चाहती है, बह जाना चाहती है नियति की निर्मम दारा में। कहीं तो वह जमीन मिले जहाँ जीवन पहली बार अँखुआया था, फिर मृत्यु ही क्यों न वहाँ प्रतीक्षा में खड़ी मिले...

मगर बीच में यह पंद्रह साल खड़े हैं - आसमान से भी ऊँची दीवार की तरह! और विडंबना यह है कि यह दीवार उन्होंने ही खड़ी की है - एक-एक ईंट जोड़कर... इसे तोड़ना, ध्वस्त करना भी अब खुद को है और यही सबसे कठिन काम है। पूरी देह-मन को जो लताएँ घेरी हुई हैं, उन्हें काटकर फेंक देना इतना सहज नहीं। यह रिश्ते हैं - उसके सायास बनाए हुए, उससे जन्मे और पले-पुसे हुए...

पंद्रह साल पहले वह गहने और सिंदूर से दपदपाती हुई इस देश में आई थी, साथ में थे ढेरों सपने और उन्हें पूरे करने के वे सातों बचन जो उसे अपने जीवन साथी से एक महीने पहले शादी के मंडप में मिले थे। वही उसका संबल था जिसे सहेजे वह इस पराई जमीन पर अपना घर बाँधने आ गई थी - अपनी पूरी आस्था और यकीन के साथ। तब उसे पता नहीं था, बहते हुए साहिल से ठिकाना माँगने का नतीजा बिखराव के सिवा और कुछ भी नहीं होता, हो नहीं सकता...।

शुरू-शुरू के दिन सपने जैसे थे - खुली आँखों के जीते-जागते सपने... दिन के उजाले में आकार लेते हुए, रचते हुए, खूबसूरत खिलौने जैसे घर, साफ-सुथरी चौड़ी-चौड़ी सडकें, जगमगाती हुई दुकानें, बाग-बगीचे... परियों का, किस्से-कहानियों का देश, ठीक जैसे बचपन में माँ से सुनती थी।

वह एक बार फिर अपने बचपन की उमंग में उतर आई थी। बड़े चाव से अपना डॉल हाउस सजाया था। उसका पति आशुतोष इंजीनियर था - प्रतिष्ठित और संपन्न! उसके डॉल हाउस के लिए उसने जो भी माँगा उसे दिया गया। उसने खूब चाव से सजाया अपना डॉल हाउस। प्यार की उंगली से हर कोने में इंद्रधनुष रचाया, अपना मन ही ओढ़ा दिया पूरे घर को...

उसे नीला रंग पसंद था, उसका घर नीले सुख-स्वप्न-सा बनकर झिलमिलाने लगा। मगर कागज-गत्ते की दीवारों में वह घर की मजबूती कहाँ से लाती... ये तो ठोस रिश्तों से ही बन पाते हैं। सतह के चाक्-चिक्य में भूली वह सजती-सँवरती रही, पति के साथ पार्टियों में जाती रही। हर वीक एंड में बंच, छुट्टियों में तफरीह... जीवन एक कभी खत्म न होनेवाले जश्न की तरह बीत रही थी।

इस चहल-पहल और रौनक के बीच उसने उन अदृश्य दुश्मन हाथों को नहीं देखा जो निरंतर उसके घर में सेंध लगा रहे थे। या देखकर भी अदेखा कर दिया। शायद जागने के लिए जिस सपने के टूट जाने की शर्त लगी थी, वह उसे स्वीकार नहीं था।

गोद में काजोल आई तो वह और भी निश्चिंत हो गई। घर की सारी खिड़की-दरवाजे खोलकर अपने सपनों की दुनिया में खो गई। एक दबी-सी आहट तो कभी-कभी उसे भी आती रही थी, मगर उसने उसे सायास रोक दिया था। अंदर का एक निःशब्द पलायन, जिसका उसे स्वयं पता नहीं था। वह किसी भी अभाव को स्वीकारना नहीं चाहती थी, और इसी अस्वीकार में अपना सुरक्षा देखती थी शायद। मगर आँख मूँदने से ही तो कबूतर बच नहीं जाता बिल्ली की झपट से...! वे थे और अंतःसलिला की तरह अंदर ही अंदर फैल भी रहे थे। जिस दिन यह बात जाहिर हुई, तब तक उसका प्रायः पूरा ही घर इस डूब के हिस्से आ गया था।

जड़ों में लगे दीमक इसकी सारी मजबूती चाट गए थे। एक तरफ वह थी, दूसरी तरफ आशुतोष - हर क्षण दूर जाते हुए, बदलते हुए। वह अंगुल-अंगुल चौड़ाते हुए इस खाई को जितना भी पाटने का प्रयास करती, वह उतना ही अजनबी बन जाता। कहाँ क्या कमी रह गई थी, वह समझ नहीं पा रही थी। और एक दिन आशुतोष ने ही कहा था - कोई कमी नहीं है, तभी तो...

मन का आखिरी बूँद तक भर जाना एक नए तरह के अभाव को जन्म देता है, तब वह कहाँ जानती थी। पता होता तो वह अपने संबंध को इतना परफेक्ट नहीं बनने देती। उसने जैसे हर तरह से भरकर अपने रिश्ते को खाली कर दिया था।

अंततः आशुतोष ने भी यही इल्जाम दिया था उसे। सजा हुआ घर, सजी हुई वह... सब कुछ सजा हुआ! ऐसे सजे हुए डॉल हाउस में एक गुड्डे की तरह जीना उसके लिए कठिन हो गया था, वह असली जिंदगी जीना चाहता था, रोमांच से भरी - ये आशुतोष के शब्द थे - नेजे की तरह उसमे उतरते हुए, लहूलुहान करते हुए... वह रोई थी- मगर इसमें उसका क्या कसूर? उससे तो यही सब उम्मीद की गई थी। बार-बार उससे कहा गया था, अपना देशीपन छोड़ो, यहाँ की दुनिया अलग है। यहाँ के तौर-तरीके सीखो, वरना कभी एक्सेपटेड नहीं हो पाओगी।

उसके लंबे बाल कतरवा दिए गए, साड़ी छुडवा दी गई। पार्टियों में जींस पहने, हाथ में वाइन का गिलास लिए वह स्वयं को ही पहचान नहीं पाती। आशुतोष पीते-पीते अपनी सिगरेट उसके होंठों से लगा देता, सबके सामने दबोचकर चूम लेता। शुरू-शुरू में वह लाल पड़ जाती थी। एक समय के बाद समुद्र तट में नंगी-अधनंगी विदेशी भीड़ के बीच बिकनी में सन क्रीम लगाकर धूप सेंकना उसके लिए कोई असहज बात नहीं रह गई थी...।

इतना तो बदल लिया था उसने स्वयं को आसुतोष के लिए, और क्या चाहता था वह उससे? वह अपना चेहरा उतार देती? अपना जिस्म बदल देती? क्या करती, और क्या करती...? कई बार वह दीवारों से बातें करती, आसमान से पूछती, मगर एक सर्द सन्नाटे के सिवा हाथ कुछ भी न आता।

आशुतोष बिना किसी प्रश्न का जबाव दिए और-और दूर होता चला गया था। देर रात तक घर न लौटना, सेमिनार, कान्फ्रेंस के नाम पर हफ्तों गायब रहना... पहली बार उसके ऑफिस की बूढ़ी सेक्रेटरी ने उसे चेताया था - यू इनोसेंट गर्ल, अपने पति पर नजर रखो, ये गोरी चुड़ैलें रात दिन मर्दों पर घात लगाए बैठी रहती हैं! सुनकर वह सन्न रह गई थी। वह मद्रासी ईसाई औरत शायद दोनों की चमड़ी के साझे रंग के लिए उससे सहानुभूति कर गई थी। इसके बाद ही उसे पता चला था, आशुतोष ने दूसरे शहर में बाकायदा अपार्टमेंट ले रखा है, जहाँ वह अपनी ब्राजिलियन प्रेमिका के साथ दिनों तक पड़ा रहता है। सुनकर उसने पूरा घर सर पर उठा लिया था। यहाँ तक कि आशुतोष का चेहरा तक नोंच लिया था।

बात खुलने पर आशुतोष बिल्कुल ही लापरवाह हो गया था। अब तिनके की ओट भी नहीं रह गई थी। इंटरनेट पर देर रात तक चेटिंग, पोर्न साइट में जाना, फोन सेक्स... सब कुछ उसके सामने खुला पड़ा था। बेशर्मी की इस हद ने उसे अवाक करके रख दिया था।

'मैं कहाँ चला जा रहा हूँ, हर रात तुम्हारे पास ही तो लौट आता हूँ! ये घर, बच्चा, सुख-सुविधाएँ - क्यों खुश नहीं रह सकती तुम...?'

उसकी बातों का जबाव न देकर वह अपने मायके चली गई थी। मगर फिर छह महीने में लौट भी आई थी। माँ के बाद मायके में कुछ नहीं बचा था, यह उसे समझा दिया गया था। यहाँ से भी शुभचिंतकों के फोन आते थे - कोई अपना घर इस तरह नहीं छोड़ता। लौट आओ, सब कुछ तुम्हारा है।

मगर लौटकर भी कोई बात बनी नहीं थी। इसके विपरीत आशुतोष का हौसला और भी बढ़ गया था। उसने समझ लिया था, उसका और कहीं आसरा नहीं। उसकी विवशता को उसने तुरत-फुरत नकद भी कर लिया था। झगड़ा, उपालंभ, मान-मनुहार - कुछ भी काम नहीं आया था। और आखिर एक दिन थककर उसने संधि कर ली थी।

इस संधि के निर्मम शर्तों ने उसे धीरे-धीरे अवसाद की स्याह गहराइयों में धकेल दिया था। आशुतोष ने जो रास्ता चुन लिया था, उसमें शायद कोई यू टर्न नहीं था। गेंद उसने उसके पाले में डाल दिया था - यू टेक इट अॅर लीव इट, द चॉयस इज योरस्... वह क्या छोड़ती, बस जो मिला, ले लिया... ये जीने की जुगाड़ थी, अस्तित्व का सवाल था, कोई विकल्प भी कहाँ था। उसने अपनी बच्ची पर कानसेंट्रेट करना शुरू कर दिया।

एक रोबोट की तरह वह चल-फिर रही थी, अपनी जिम्मेदारियाँ निभा रही थी। मगर जिंदगी से खुशी, सुकून, यकीन जैसी नियामतें एक-एककर खोती चली गई थीं। वह कुछ भी नहीं कर पाई थी। अपने रिश्ते का असल ही उसका संबल था, अब जो वही नहीं था तो वह खुद चुकने से कैसे रह जाती। हर तरह से टूटती हुई वह खत्म होने के कगार पर पहुँच रही थी। हर दिन उसके अंदर से कुछ खोता जा रहा था। हर पल एक डूब अंदर बनी रहती थी। जैसे किसी तल टूटे जहाज का सफर - जितना सतह पर उससे ज्यादा नीचे की ओर...

समझौतों पर टिका हुआ रिश्ता आखिर कितना सहारा देता, और कब तक... मगर उसके सामने उसकी बच्ची का चेहरा था। खुद को भुलाकर वह उसके लिए जीने की कोशिश करती रही थी। वह नहीं चाहती थी, एक टूटे परिवार के घाव उसकी बच्ची को सहना पड़े। वह खुद जिंदगी की बारिश में भीगती हुई उसके लिए छतरी बनी हुई थी। उसे धूप, सर्दी-गर्मी से बचाना उसका अकेला मकसद रह गया था।

यहाँ सबके कदम के साथ कदम मिलाकर चलना सहज नहीं था उसके लिए। एक पागल दौड़ में यहाँ सभी शामिल हैं, मगर जाना कहाँ है शायद किसी को नहीं मालूम... बस पिछड़ जाने के डर से हमेशा त्रस्त हैं। यहाँ के ट्रेंडी लाइफ में कुछ भी आउट डेटेड नहीं हो सकता। अस्तित्व के खतरे ने सभी को हाँके में डाल रखा है, सभी भयभीत पशु की तरह दौड़ रहे हैं और दौड़ते हुए एक और जंगल में खोते जा रहे हैं। यहाँ सब कुछ इतना सधा-तना और योजनाबद्ध है कि एक पल के लिए भी असतर्क नहीं हुआ जा सकता। स्नायु जैसे प्रत्यंचा-सी चढ़ी रहती है हर समय। सब कुछ ठीक ढंग से करने की सायास चेष्टा, व्यवहार में ओढ़ी हुई सभ्यता, जबरन याद दिलाए गए एटिकेटस्...

प्रायवेसी की हद ये कि किसी का भला करते हुए भी दस बार सोचना पड़ता है कि हम किसी की प्रायवेसी या अधिकार के रास्ते में तो नहीं आ रहे हैं। पता नहीं, यहाँ लोग अपनी भलाई किस बात में देखते हैं। यहाँ आदमी जिस्म से जितना खुला है, मन से उतना ही बँधा हुआ है। वह हर कदम पर लकीरें खींचकर अपने लिए दायरे रच रहा है। एक-दूसरे से कट रहा है। अकेले होने और होते चले जाने की न जाने ये कैसी होड़ है, कैसी पागल जिद है...

जाने वह कब यहाँ की इस मशीनी जिंदगी का हिस्सा हो गई है, आईने के सामने खड़ी होकर उसे ख्याल आता है। आजकल वह स्वयं को शिनाख्त करने में ही जैसे असमर्थ हो गई थी। ये अंदर का सफर होता है जो इनसान को थका देता है। वह अपने ही अंदर के पत्थरों से टकराती रहती है, आहत होती रहती है। अपनों के बीच बढ़ते जा रहे फासलों को तय कर सके, वे पाँव वह कहाँ से लाए। ये काम जिन संवेदनाओं के बुते होते हैं, वे भी अब कहाँ रहे थे। जो पुल उन्हें एक-दूसरे तक पहुँचाता था, वह तो कब का टूट चुका था। अब उसके दुख दूसरी तरफ नहीं पहुँचते, न दूसरी तरफ की खुशियाँ इधर कभी दस्तक ही देती है। साझे का दुख-दर्द बँटकर चाहे कम न हो, मगर सह जाते हैं। अकेले की तो खुशियाँ भी बर्दाश्त नहीं होतीं। मन पर लगाम लगाए वह किस दौड़ का हिस्सा बनती, कहाँ तक पहुँचती...

वह जानती थी, एक दिन उसकी बच्ची भी औरों के बच्चों की तरह बड़ी हो जाएगी। इतनी बड़ी कि अपने माँ-बाप का कहा सुनना, मानना भी अपनी इनसल्ट समझ सके। वह यहाँ सालों से है। अपने परिचितों के घरों में देखती है, जो बच्चे कल तक इतने छोटे होते हैं कि वे टी.वी. पर क्या देख रहे हैं, माँ-बाप को ध्यान रखना पड़ता है, अचानक इतने बड़े हो जाते हैं कि हाई वे पर एक सौ अस्सी कि.मी. की तेज रफ्तार से गाड़ी चलाकर अपनी जान दे सकते हैं, नाइट क्लब में नशा करके जिस-तिस के साथ रात गुजार सकते हैं, और यह सब उनके अधिकार क्षेत्र में आता है! बात-बात पर उनका सीना निकालकर अपने बडों के सामने खड़ा हो जाना - इटस् माय लाइफ...

यहाँ लोग अपनी जिंदगी खुद पाते हैं, खुद जीते हैं। बीच में माँ-बाप या और कोई नहीं होता। हाँ, मदर्स डे या फादर्स डे में एक बड़े केक और फूल के साथ अपने माँ-बाप को यह लोग थैंक्स कहना कभी नहीं भूलते। आखिर यह औपचारिकता और शिष्टाचार का देश है - सभ्य लोगों का सभ्य देश... वह हैरत के साथ देखती है - लोगों के एक ही घर में कई-कई घर होते हैं और हर घर की अपनी-अपनी जिंदगी होती है!

गैर तो दूर की बात, अपने भी आवश्यकता के निहायत जरूरी क्षणों में इनमे बिना दस्तक दिए दाखिल नहीं हो सकते। हर दरवाजे पर 'डु नॉट डिस्टर्ब' की तख्ती लटकी रहती है। उठती जवानी का अबाध्य, उद्दंड व्यवहार, अवज्ञा, नशा... इन सब से लोगों को अकेले ही जुझना पड़ता है। एकल परिवार की विडंबनाएँ... जीवन के इन कठिन समय में संस्थाओं के अलावा शायद ही किसी अपने का साथ मिलता है। किसी के पास अतिरिक्त समय नहीं, समय का अभाव हर जीवन में बना रहता है।

अपने बच्चों की भलाई सोचते हुए अक्सर माँ-बाप उनके रास्ते का काँटा बन जाते हैं। वह आतंक के साथ देखती है, मिसेज मित्रा की पंद्रह वर्ष की बेटी अपनी माँ के मेडिसीन कैबिनेट से बर्थ कंट्रोल की गोलियाँ निकालकर बिंदास गटकती है और मिसेज मित्रा नजरें चुराती सामने खड़ी रह जाती हैं। सोलह वर्ष का बेटा कार पार्किंग में घंटों अपनी गर्लफ्रेंड के साथ कार में बंद होकर पड़ा रहता है और वे देखकर न देखने का बहाना करते हुए अपना सम्मान बचाती फिरती हैं।

कई बार पूरी-पूरी रात वे बच्चों की चिंता में जागकर काट देती हैं, मगर बच्चे उन्हें एक फोन करने की भी जरूरत नहीं समझते। पूछने पर वही जबाव मिलता है - नाउ वी आर बीग मॉम, स्टॉप बॅदरिंग... पार्टी, हाली डे आदि का सिलसिला कभी थमता ही नहीं। यहाँ आकर लोग यहाँ की सुख-सुविधाएँ देखते हैं, तो यहाँ का चलन और संस्कृति को भी झेलना ही पड़ेगा...

सबके अस्त--व्यस्त कमरे ठीक करते, खाना बनाते, लांड्री करते वह अक्सर सोचा करती थी कि वह अपनों के जीवन में क्या मायने रखती है। वह अपनी भूमिका तय नहीं कर पाती थी - वह अपनी बच्ची की माँ है या एक आया! एक पत्नी है, गृहिणी है या घर के काम करनेवाली एक अवैतनिक नौकरानी, जो कभी-कभी जिस्म की भूख मिटाने के भी काम आ सकती है। जीने के लिए इतनी सारी कठिन शर्तें... कभी-कभी उसने संजीदगी के साथ सोचा था, क्या मौत इससे बेहतर विकल्प नहीं!

जिस दिन उसने सुना था, आशुतोष की एक स्ट्रीप डांसर कीप ने उसके बच्चे को जन्म दिया है, वह अदालत में तलाक की अर्जी दे आई थी। सबने बहुत समझाया था, मगर उसके धैर्य की सीमा खत्म हो गई थी। उसका सीना आकाश से ज्यादा तो नहीं फैल सकता था न! धरती भी अंदर के दबाव से कभी फट पड़ती है, ढह जाती है, फिर वह तो हाँड़-मांस की एक इनसान ही थी। अपने अंदर सील की कठोरता कहाँ से लाए। दिल है और वह धड़केगा भी नहीं...!