साथ चलते हुए / अध्याय 3 / जयश्री रॉय

Gadya Kosh से
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बाहर फीके नीले आकाश में एक टुकड़ा चाँद उदास टँका था। पानी की महीन धार की तरह दूर चीरों की कतार पर चाँदनी उतर रही थी। चाँदी की पन्नियों की तरह ऊँचे पेड़ों के पत्ते चमक रहे थे। सोसायटी के स्वीमिंग पुल के पानी की सतह हल्के-हल्के लहराते हुए पंक्तिबद्ध जुगनुओं की तरह लगातार जल-बुझ रही थी। दूर बिल्डिंगों के माथे पर चमकते इश्तहार, उनकी सतरंगी रोशनियाँ - काँच की खिड़कियों, ऊँची इमारतों की सपाट दीवारों पर चमकती हुई, हजार रंगों में प्रतिबिंबित होती हुई... सब कुछ कितना मोहमय, स्वप्निल... जैसे सच न हो, इस दुनिया का न हो...

हाँ, यह सब सच नहीं, वह कोई सपना देख रही है जो थोड़ी ही देर में टूट जाएगा। इस कदर सपने से बाहर उसकी दुनिया बिल्कुल सुरक्षित है - वह, उसकी काजोल, उसकी तमाम खुशियों और खेल-खिलौनों के साथ। अभी, बस, थोड़ी देर में सब ठीक हो जाएगा... वह सोचती है और रोती है। खुद को छला भी तो एक हद तक ही जाता है... थोड़ी ही देर में वह बेतरह थक आई थी। उसे वास्तविकता की तरफ लौटना पड़ेगा... अपने पाँवों से चलकर... इस विवशता की कोई कल्पना भी क्या कर सके...

हवा में बर्फ घुला था... अपने चेहरे पर चाकू की धार-सी फिरती हल्की हवा को महसूसते हुए उसने पूछा था, न जाने किससे - क्यों, मेरी काजोल ही क्यों...? न जाने कितनी बार... कोई जबाव नहीं मिला था, जैसा की हमेशा से होता है। आकाश, धरती - सब सपाट हो गया है, किसी अलंघ्य प्राचीर की तरह... कितनी ऊँची, कितनी कठोर, कितनी हृदयहीन... वह अदृश्य पाषाणों से टकराती फिरती है, शायद कोई दरवाजा कहीं खुला मिल जाय, कोई आस्ताना... छाति भर नालिश लिए, दुहाई लिए वह हर बंद दरवाजा खटखटाती है, साँकल खड़काती है - सुनो, कोई तो सुनो...

परदेश की जमीन पर बहुत पीछे छूट गए अपने भगवान की याद भी यकायक हो आई थी - कितने ही सारे नाम एक साथ! प्रार्थना करते हुए मन में कही गहरा अपराधबोध था। बचपन में हर बात के लिए कितनी आसानी से अपनी दादी के भगवान्जी के पास पहुँच जाती थी... परीक्षा में अच्छे अंक के लिए तो कभी हाऊसफुल चल रहे सिनेमा के टिकट के लिए... अब वह सरल विश्वास कहाँ रहा! संशय की चपेट में आकर जीवन का सब कुछ कितना कठिन और असाध्य हो गया है।

कभी-कभी ईर्ष्या होती है उन लोगों से जो अपनी सहज, सरल आस्था में निश्चिंत होकर जीते हैं। उनकी कोई समस्या नहीं। सारे प्रश्नों के उत्तर मौजूद हैं उनके पास। उनके सारे सुख-दुखों के जिम्मेदार उनके भगवान हैं और जो भी घटता है उनके साथ वह पहले से तय है जो उनके पिछले कर्मों का फल है...

उस रात उसने न जाने कितने दिनों के बाद उस तरह से डूबकर प्रार्थना की थी। जाने अपने किन पापों के लिए माफी माँगती रही थी - ईश्वर से, सबसे... अब कोई अहम नहीं, अभिमान नहीं, यहाँ प्रश्न काजोल का है, सिर्फ काजोल का...! कितनी मन्नतें, मिन्नतें, व्रत, उपवास, तीर्थ... काजोल ठीक हो गई तो वह यहाँ इतने का प्रसाद चढ़ाएगी, वहाँ अमुक देवी की थान में मत्था टेकेगी, यह करेगी, वह करेगी... कितनी भलनरेवल हो गई है वह, कितनी कमजोर... किसी डूबते हुए की तरह हर तिनके को पकड़ती हुई। कहीं से भी, कोई भी उसे थोड़ा आश्वासन दे दे, कह दे कि उसकी काजोल को कुछ नहीं होगा।

एक गहरी प्रार्थना के बाद जब वह सोने गई थी, मन बहुत हल्का हो आया था। लगा था, नहीं, सब ठीक हो जाएगा। पूरब में फैलती हल्की लाली में उसने काजोल का चेहरा एक बार फिर देखा था। वह किसी फरिश्ते की तरह मासूम और सुंदर लग रही थी। उसके छोटे-से बिस्तर में ही वह सिमट-सिकुड़कर सो गई थी - उसके नन्हें शरीर को अपनी बाँहों में लेकर... वह हल्के से कुनमुनाई थी और फिर नींद में डूब गई थी। उसे लगा था, वह कह रही है 'माई बार्वी, रोज...'

उसे उसके गुड्डे-गुड़ियों की दुनिया में रहने दो भगवान... इतनी बड़ी दुनिया है तुम्हारी, बस, एक छोटा-सा कोना, थोड़ी-सी हवा और जिंदगी... प्लीज भगवान... रोते हुए न जाने वह कब सो गई थी...

सुबह काजोल ने ही उसे उठाया था - माँ, उठोगी नहीं, मुझे स्कूल के लिए तैयार होना है... उसने उसकी दोनों नन्हीं हथेलियाँ अपने गालों से सटा ली थी - नम और ठंडे... उसे उस वक्त बुखार नहीं था।

- आज स्कूल नहीं, हमें हस्पताल जाना है, तुम्हारे कुछ टेस्ट करवाने...

उसने उसकी घुँघराली लटों को चूमते हुए कहा था, अपनी आवाज को सहज रखने की कोशिश करते हुए।

- प्लीज माँ, मुझे वहाँ नहीं जाना!

उसने रोनी-सी सूरत बनाई थी -

मुझे सुई से बहुत दुखता है...

- नहीं, कुछ नहीं होगा, मैं रहूँगी तुम्हारे साथ...

कहते हुए उसकी आँखें यकायक पिघल आई थीं। कहाँ बचा पाई थी वह अपनी बच्ची को उन कष्टकर सुइयों, दवाइयों से। केमो के पहले चक्र के कुछ ही दिनों बाद काजोल के सारे बाल झड़ गए थे। ओह, सोचकर वह आज भी गहरे आतंक और यातना में हो आती है... काजोल के रेशमी, घुँघराले बाल... कितने खूबसूरत थे! काजोल को दूध पीना बिल्कुल भी पसंद नहीं था। मगर यह सुनकर कि दूध पीने से बाल जल्दी बड़े होते हैं, वह रोज नाक बंद करके एक गिलास दूध पी जाती थी, फिर आईने के सामने खड़ी होकर देखती थी, उसके बाल सचमुच बड़े हुए कि नहीं। रेपेंजल की तरह बाल होंगे मेरे, राजकुमार मेरे बाल पकड़कर बॉल्कनी तक आ जाएगा... काजोल अपने लंबे होते बालों को देखकर खुशी से किलकने लगती... वही बाल जब इस तरह से झड़ गए... उसे याद है, काजोल को गोद में लेकर उस दिन वह भी बहुत रोई थी।

...सुबह काजोल की चीख सुनकर उसकी नींद खुल गई थी। उसके कमरे में जाकर देखा था, काजोल बिस्तर में दोनों हाथों से अपना चेहरा छिपाए चिल्लाए जा रही थी। उसके चारों तरफ बाल ही बाल बिखरे पड़े थे, बड़े-बड़े लच्छों में। उसका माथा सामने से बिल्कुल गंजा हो गया था। यह दृश्य देखकर वह एक पल के लिए सन्न होकर रह गई थी। हालाँकि डॉक्टर ने केमो के साथ बाल गिर जाने की बात पहले ही उसे बता दी थी, फिर भी अचानक वह दृश्य देखकर वह बेतरह घबरा उठी थी। दौड़कर काजोल को अपनी गोद में समेट लिया था। उसके बाद माँ-बेटी देर तक एक-दूसरे से लिपटकर रोती रही थी।

बाद में उसे इस बात पर बहुत ग्लानि हुई थी। अपनी बच्ची को सँभालने के बजाय वह खुद किस तरह से उसके सामने ऐसे कमजोर पड़ गई? इससे काजोल और भी असुरक्षित हो गई होगी, उसका डर बढ़ गया होगा।

मगर काजोल को अपनी माँ पर बहुत यकीन था - माँ की गोद में वह हमेशा सुरक्षित है। ठगी गई वह, अपने मासूम यकीन के हाथों मारी गई... माँ की गोद भी निरापद नहीं होती, वह अंत तक जान नहीं पाई...!

जानती वह भी कहाँ थी तब, सोचा था अपनी अथक सेवा, प्रार्थना और परिश्रम से काजोल को बचा लेगी... मगर कुछ भी काम न आ सका। आखिर काजोल चली गई, उसकी तरफ उम्मीद से निहारती हुई, बार-बार मदद के लिए पुकारती हुई - माँ... मुझे बचा लो, मुझे मरना नहीं है, मैं जीना चाहती हूँ...

काजोल के जाने के साथ ही तब तक का सारा पाया, सहेजा हुआ जैसे एकदम से निरर्थक हो गया था। अंततः मौन से जीवन हार ही गया था और उसके साथ वह भी... उस क्षण वह जोर से चीखना चाहती थी, पूरी दुनिया को तहस-नहस कर देना चाहती थी, मगर चुप खड़ी रह गई थी - हस्पताल के बिस्तर पर अपनी बेटी का प्राणहीन चेहरा देखते हुए! उस समय सफेद चादर पर उसके लंबे घुँघराले बाल, घनी काली भौंहें और बंद आँखों पर झँपी सघन बरौनिया कितनी स्पष्ट और विलक्षण दिख रही थीं...! केमो खत्म होने के बाद फिर से कितने खूबसूरत बाल निकले थे उसके...

एक गहरी साँस लेकर उसने अपने अंदर टटोला था, नहीं! कहीं आँसू की एक बूँद नहीं बची है! शायद वह पहले ही अपने सारे आँसू खर्च कर चुकी है। कभी-कभी रोने के लिए भी वह तरस जाती है। देर तक ऐंठती रहती है। इस रोने का एक अकेला सुख भी गया... इस परती जमीन में अब कोई नमी नहीं, कुछ सजल नहीं। सूखा और बस सूखा- मीलों तक, युगों तक...

आज भी रह-रहकर काजोल का प्रश्न उसे समय-असमय घेर लेता है - माँ, मैं ठीक हो जाऊँगी न? मैं नहीं मरूँगी न? वह अपनी मूक विवशता में खड़ी-खड़ी उसे देखती रही थी और अंदर की चीख बाहर के कभी न टूटनेवाले सन्नाटे में बदल कर रह गई थी। एक माँ के वश में अपने बच्चे की सुरक्षा न रह जाय... इस विवशता का कोई नजीर नहीं। उन क्षणों के निःशब्द कोलाहल में डूबकर वह आज एक प्रस्तर प्रतिमा में तब्दील होकर जी रही थी - सारी संवेदनाओं से खाली होकर एकदम सपाट और निर्विकार...

फ्युनरल के बाद घर लौटकर उसने आशुतोष को अपने भारी-भरकम बैगों के साथ तैयार पाया था। नीचे कार में तापसी बैठी थी। ऊपर फ्लैट से कार की खिड़की से झाँकता हुआ उसका डार्क ग्लासेस पहना हुआ आधा चेहरा ही दिख रहा था। शायद वह सिगरेट पी रही थी। अधीर होकर उसने इस बीच कई बार कार का हार्न बजाया था।

हाथ में आशुतोष का दिया चेक थामे वह देर तक कोई प्रतिकिया व्यक्त किए बगैर खड़ी रह गई थी। जिंदगी की सारी संवेदनाओं का मूल्य चुका दिया गया था - उसके समर्पण, प्रतिबद्धता का मूल्य! अंकों में समेट लिया गया था जीवन की गहनतम अनुभूतियों को - यही हासिल था उसके जीवन के पंद्रह वर्षों की शर्त रहित संबद्धता का। एक कागज के टुकड़े में उसके धड़कते हुए जीवनानुभूतियों की कीमत लिखी हुई थी। उसे उसका प्राप्य मिल गया था। उसने न देखती हुई-सी दृष्टि से उस चेक पर लिखे अंक को देखा था - ...नहीं, आशुतोष ने अपनी तरफ से कुछ कम नहीं आँकी थी उसकी कीमत!

अलग तो वह भी हो जाना चाहती थी उससे। एक लंबी कानूनी लड़ाई उसने भी लडी है इसके लिए। मगर अभी, इस समय... कोई शत्रु भी शायद ऐसा न करे!

काजोल के मृत चेहरे की स्मृति अभी भी उसके मानस में ताजा थी। अभी भी उसकी देह की मीठी गंध, साँसों का मद्धिम स्वर उसके आसपास था, उसे पूरी तरह घेरे हुए। अभी उसके लिए उसका रोना शेष था, अभी तो उसकी स्मृति में उसका पूरा जीवन ही जीना शेष था।

अपनी बेटी के ब्लड कैंसर के साथ पाँच वर्ष की अथक लड़ाई ने उसे हर तरह से निचोड़ लिया था। वह अंदर से एकदम असक्त, अवश हो आई थी। इसी लड़ाई ने उसे आज हर तरह से हरा दिया था। बेटी ने साथ छोड़ा तो आज पति भी हाथ में बैग लिए जाने के लिए तैयार खड़ा है! क्या वह उसे थोड़ा, बस थोड़ा समय नहीं दे सकता था? ...इतना कि वह अपनी - उन दोनों की - बेटी का मातम मना सके!

उसकी अबूझ चावनी और ठगी-सी चुप्पी ने आशुतोष को एकदम से अधैर्य कर दिया था। नीचे तापसी रह-रहकर हार्न बजाए जा रही थी। खिड़की की तरफ मुँह करके 'आई एम कमिंग डैमिट!' कहकर वह उसकी ओर मुखातिब हुआ था -

'क्या हुआ? कुछ और चहिए तुम्हें? कुछ कहती क्यों नहीं?'

उसकी झुँझलाई हुई आवाज से चौंककर वह स्वयं में लौटी थी -

'नहीं, कुछ भी तो नहीं! मगर आशुतोष, तुम क्यों घर छोड़कर जाने लगे! घर तुम्हारा है, तुम लोग रहो। मैं वापस देश लौट रही हूँ।'

कितनी आसानी से उसने एक ही पल में अपना सब कुछ दे दिया था उन्हें- आशुतोष और तापसी को। कल तक इन्हीं चीजों से - अपनी दुनिया से - कितना मोह था उसे! इस घर की एक-एक चीज, एक-एक दीवार तक से गहरा लगाव था। तिनका-तिनका जोड़कर इस घर को बनाया था। आज सब कुछ बेगाना हो गया, कितनी सहजता से। वह काजोल को खो चुकी है, अब और कुछ खो नहीं सकती। कुछ खोने के लिए उसके पास बचा ही नही है... अब तो बस छूटना है, मुक्त होना है... सब बंधन हो गया है, पाश हो गया है... दम घुट रहा है उसका, इतनी रद्दी, कबाड... कहाँ पैर रखे, कहाँ बैठे... हटा दो, सब कुछ हटा दो!

और अधिक प्रतीक्षा न कर पा के तापसी भी ऊपर उठ आई है और अब उसे कौतुक भरी आँखों से देख रही है। उसकी आँखों की चमक और होंठों की मुस्कान में आज वह अपना पराजय नहीं देखती। वह इन चीजों से परे चली गई है - बहुत दूर...

कल तक इसी औरत को देखकर वह सर से पाँव तक जल उठती थी। उसका नाम सुनना तक उसे गँवारा नहीं था। कितनी बार लड़ पड़ी है आशुतोष के साथ इसी को लेकर। मन ही मन उसकी मृत्यु कामना तक कर चुकी है। मगर आज उसके अंदर कोई दाह, कोई दंश नहीं। काजोल की नन्ही देह के साथ ही सब कुछ जलकर राख हो चुका है - उसकी घृणा, असंतोष और शिकायतें...

कहते हैं, दुख मनुष्य को माँजता है, उसका परिष्कार और शोधन करता है... आज वह इस तथ्य को समझ पा रही है। कल तक उसके अंदर न जाने कितनी अभावात्मक बातें ठूँसी हुई थीं, मगर आज सब कुछ धुल-पुँछकर स्वच्छ हो गया है। कहीं कोई कलुष नहीं, मैल नहीं, हिंसा नहीं है, सब कुछ जैसे किसी गंगा में सिरा आई है अस्थियों की तरह... मृत्यु के परस से जीवन की सारी बातें कितनी तुच्छ, कितनी नगण्य हो जाती हैं!

जीवन, इसकी चाह मनुष्य को स्वाथी बनाता है, संकुचित भी, मगर दुख हृदय को विस्तार देता है, उसकी संकुल परिधि को फैलाकर प्रशस्त करता है। जब से काजोल के लिए उसने प्रार्थना करना शुरू किया था, उसका स्वर बदल गया था। पहले अपने सुख, अपने हित से बढ़कर कभी कुछ ईश्वर से चाहा नहीं था। मगर काजोल के लिए जीवन और आरोग्य माँगते हुए उसने अपने अनजाने ही सारे विश्व के लिए शांति और समृद्धि माँगना शुरू कर दिया था - ईश्वर! सभी को सुख दो, वैभव और खुशियाँ दो, साथ में बस मेरी काजोल को भी थोड़ी-सी जिंदगी दे दो...

उसने अभी तक कुछ भी तो नहीं देखा था। कितनी मासूम थी उसकी दुनिया। वहाँ चंदा मामा में अब भी वह प्राचीन बुढ़िया बैठकर रात दिन चरखा कातती है, संता क्लॉज क्रिसमस की रात उसके मोजे में उसकी मनपसंद उपहार रख जाते हैं... उसे जीने दो भगवा! इतनी बड़ी दुनिया है तुम्हारी। इसका एक छोटा-सा कोना उसे दे दो। थोड़ी धूप, हवा और खुशियाँ... और क्या चाहिए उसे... उसकी एकाग्र मन से की गई प्रार्थनाएँ कहीं नहीं पहुँचीं... उसकी आस्था में कोई कमी थी या आसमान ही बहुत दूर था... वह नहीं जानती और न अब जानना ही चाहती है, क्या फर्क पड़ता है...

आज वह आशुतोष और इस औरत के लिए भी बस अच्छा ही चाहती है। कितनी छोटी-सी है ये जिंदगी। इसमें क्यों किसी की खुशी के रास्ते में आ जाना। वह किसी के सुख-शांति में बाधा नहीं बनना चाहती। उसे नहीं जीना तो क्या किसी और को नहीं जीना है... रहे सब अपनी मर्जी और खुशी से। वह किसी का रास्ता नहीं रोकेगी। किसी की खुशी के बीच आ जाना, यह भी तो एक तरह की हिंसा ही है।

'देश लौट रही हो!

आशुतोष के स्वर में गहरे आश्चर्य के साथ खुशी का भी रेश था। तापसी की भी बिन माँगे ही मन की मुराद पुरी हो गई थी। समंदर के किनारे तीन कमरों के इस खूबसूरत फ्लैट को वह आज तक ईर्ष्या और लोभ से देखा करती थी। उसके अपने अँधेरी गली के उस घुटन भरे कमरे की तुलना में यह घर स्वर्ग जैसा था। और अधिक प्रतीक्षा न कर पाके वह इसी बीच ऊपर उठ आई थी।

उसने आशुतोष का दिया हुआ चेक मेज पर रख दिया था। काजोल के बाद ये चीजें उसके लिए एकदम से बेमानी हो गई थी। इस खोने के बाद वह फिर कभी कुछ अर्जित नहीं पाएगी। काजोल उसे हमेशा के लिए हराकर चली गई है। उसने अपनी सूनी आँखें झपकाई थी, वहाँ - उसकी चावनी में - अब कुछ नहीं था - राग, द्वेष - कुछ भी नहीं। बस एक अडोल सन्नाटा और दर्द- किसी लंबे, सूने गलियारे की तरह - अंतहीन, अछोर, अझेल...

लायब्रेरी के अपने पार्ट टाइम नौकरी से उसने अब तक जो भी थोड़ा बहुत अर्जित किया है वह काफी होगा किसी तरह जी लेने के लिए। उसकी जरूरतें भी अब कितनी रह गई है... फिर उसका लेखन तो है ही। आर्थिक न सही, भावनात्मक सहारा तो वह देगा ही।

'मैंने नौकरी छोड़ने के लिए आवेदन पत्र दे दिया है। सारी औपचारिकताएँ पूरी होने तक सागरिका के पास रहूँगी, फिर देश...'

आशुतोष उसे अवाक-सा होकर देखे जा रहा था। चेहरे पर गहरी झेंप और ग्लानि के गड्मड्-से भाव थे। कहाँ तो वह एक लंबी-चौड़ी लड़ाई के लिए मन ही मन प्रस्तुत हो रहा था और कहाँ अब बिना किसी तनाव के उसे सब कुछ एकदम से मिल गया था। उसे जाते हुए देख वह कुछ कहते-कहते रुक गया था। तापसी ने बढ़कर उसका कंधा दबाया था, मगर न जाने क्यों उसने उसका हाथ अचानक झटक दिया था।

वह मुड़कर अपने कमरे में चली आई थी। अपने इतने दिनों के विवाहित जीवन से उसका हासिल बहुत थोड़ा ही था, इतना भी नहीं कि दो बक्से भर पाए। इस संबंध का असल वह खो चुकी थी - उसकी काजोल, उसकी बेटी... अब उसे क्या पाना था, क्या ले जाना था। काजोल जहाँ नहीं रह सकी, उसे भी नहीं रहना है। पड़ा रहने दो इन ईंट-पत्थरों को... इनसे सिर्फ बोझ ही बढ़ता है, आगे का सफर कठिन हो जाएगा... अकेली कहाँ उठा पाएगी इतना सब कुछ?

वह काजोल के कमरे में जाकर देखती है - उसकी अलमारी, पढ़ाई की मेज, खिलौने... मेज पर दवाई की शीशियाँ, जूठा चम्मच, कितना कुछ पड़ा है। उस दिन आखिरी बार अस्पताल जाते हुए काजोल ये दवाइयाँ खाकर गई थी। उससे निगली भी नहीं जाती थी इतनी सारी दवाइयाँ। कई बार उल्टी कर देती थी।

वह सूखी आँखों से सब कुछ देखती है। बीच-बीच में सीने से एक दीर्घ श्वास निकल आता है। मगर वह रो नहीं पाती। एक गहरी तकलीफ में अंदर का सब कुछ शून्य हो गया है। एकदम गूँगा, निर्वाक! सूखे में भाँय-भाँय करते हुए धरती-आकाश की तरह... आँखों में जलन है, और कुछ नहीं। सजलता के सारे सोते मर गए हैं, पानी पत्थर हो गया हैं...

अल्मारी खोलकर वह काजोल के कपड़े देखती है। उनमें अभी तक उसकी देह गंध बसी हुई है - ताजी और मीठी, फूलों की तरह... वह उनमें चेहरा धँसाए गहरी साँसें लेती है - सब कुछ अपने अंदर सहेज, समेट लेना है। घर खाली करना है, मगर इन सामानों से मन भर लेना है - कोने-कोने तक, आगे के निसंग सफर में यही साथ बनेंगे, संबल भी। न जाने धूप, बारिशों के कितने अनगिन मौसम आएँगे, तब यही होगा ओढ़ना-बिछौना... आश्रय! वह अपनी पूँजी सहेजती है - काजोल के रिबन - लाल रंग के। इनमें बँधे उसके बाल याद आते हैं - रेशमी, घुँघराले। उनका मसृन स्पर्श अब भी उसकी अंगुलियों के पोरों पर जीवंत है - धड़कता हुआ, स्पंदित...

उसकी मोतियों की माला, मखमली चप्पलों की जोड़ी... उनमें से झाँकते हुए दो गोरे, मुलायम पैर- एक जोड़े कबूतर की तरह... वे जैसे आज भी उसके आसपास दौड़ते फिर रहे हैं - माँ, जरा छुओ तो मुझे... वह आगे बढ़ती है और फिर थमककर रुक जाती है। चारों तरफ असहाय आँखों से तकती रहती है - काजोल, एक बार दिख जा बिटिया...

सारे घर में - हर जगह काजोल है, मगर कही नही है... भरा-पूरा घर खंडहर की तरह भाँय-भाँय करता है, उसे यकायक बहुत डर लगता है - मौत कितनी निष्ठुर है, कितनी भयंकर... एक स्याह दीवार की तरह अडिग खड़ी है उसके सामने। और उस पार है उसकी बच्ची - रोती हुई, उसे पुकारती हुई... वह अब भी उसकी आवाज, उसका अनवरत रुदन सुन सकती है!... ये आवाजें अब उसका पीछा कभी नहीं छोड़ेंगी।

एक पल के लिए उसकी इच्छा होती है, वह भागकर आशुतोष के पास जाए, एक रात के लिए, बस एक रात के लिए उसकी बाँहों में आश्रय माँगे। कहे कि आशुतोष! आज की रात बहुत भारी है मुझ पर, मुझे अपनी पनाह दे दो... जो खो गया है वह हम दोनों के साझे का था। हम दोनों ने अपने प्यार से रचा था उसको... उसके दुख भी हमारे साझे का है। साथ रोने का भी एक सुख होता है शायद, आज वही दे दो मुझे। बस, इतना ही, और कभी कुछ नहीं माँगूँगी तुमसे... अकेले यह दुख मुझसे उठाया नही जा रहा...

मगर वह देख सकती है, यही, इसी कमरे से - आशुतोष बैल्कनी में खड़ा है। तापसी उसके कंधे से टिकी साथ खड़ी है। पूरे फ्लैट में बनते हुए ब्नोकोली सूप की सुगंध फैली हुई थी।

दो प्रेमियों का एक सुंदर घर... इसमें उसकी जगह कहाँ है! काजोल के साथ उसके भी दिन समाप्त हो गए हैं इस घर में। अब उसे चली जाना चाहिए... अपनी परछाईं तक समेटकर...

वह हाथ-पाँव सिकोड़कर काजोल के बिस्तर पर लेट जाती है। उसके छोटे-से रेशमी तकिए पर खून के धब्बे फैले हैं। आँखों के सामने काजोल का चेहरा तैर आता है - नाक, मुँह से रिसता हुआ खून और डरी हुई आँखों की कातर चावनी... वह अपनी आँखें कसकर मूँद लेती है... कहीं हिमपात हो रहा है, अगजग सफेद हो गया है - कफन की तरह, एक शव बनी पूरी दुनिया उसमें लिपटी पड़ी है। कहीं कोई हलचल नहीं, स्पंदन नहीं, बस मृत्यु का-सा अंतहीन मौन और स्तब्धता...

वह चुपचाप पड़ी रहती है। अंदर दुख पत्थर की तरह कई पर्तों में जम चुका था। उस वक्त वह सिर्फ रोना चाहती थी, बहुत-बहुत रोना चाहती थी - अपनी काजोल के लिए! एक अर्से से जो पीड़ाएँ उसके अंतस में गाँठ बाँधती रही थीं, आज उसकी गिरहें खोलना उसके लिए जरूरी हो गया था, वर्ना वह जी नहीं पाएगी, खुलकर साँस नहीं ले पाएगी। अंदर एक आहत पक्षी की-सी छटपटाहट भरी हुई है, जैसे दो टूटे पंख लगातार फरफरा रहे हैं... पसलियों में अटकी एक आँसू की बूँद धीरे-धीरे बड़ी होती जा रही है, इतनी बड़ी की उसे समूची डूबो दे...

वह अपने बिस्तर पर पड़ी रोती रही थी, शायद पूरी रात ही। लगा था, आज उसका मर्म ही आँसुओं में पिघलकर बह जाएगा। आशुतोष सामने की बाल्कनी में खड़ा देर तक सिगार पीता रहा था। तापसी ने विथोबेन का रिकार्ड लगा दिया था। शायद उसके रुदन की आवाज को दबाने के लिए। मगर उस रात उसकी आवाज दब नहीं पाई थी। पूरे घर की दीवारें, छत, दरवाजे - सब उसके आँसुओं में भीगकर तर-बतर हो गए थे। उसके रुदन में उसके पूरे जीवन के संबल के खो जाने की पीड़ा थी जो धीरे-धीरे उसके अंदर से बहकर पूरे घर में व्याप गई थी।