साप्ताहिक बाज़ार / पूजा

Gadya Kosh से
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[[पूजा, उम्र 22 साल। पूजा का जन्म 1996 दिल्ली में हुआ। बी.ए. में पढ़ती है और दक्षिणपुरी में रहती हैं। अंकुर के मोहल्ला मीडिया लेब में पिछले तीन साल से नियमित रियाज़कर्ता है.]]

वह अपनी जगह आकर बैठ चुका था। तेज़ कड़क धूप में बैठे-बैठे उसका पारा भी चढ़ रहा था। ऊपर से ट्रक वाला अभी तक नहीं आया था। मालूम किया तो जनाब कह रहे हैं कि जाम में फंसा हूँ। मूड और खराब हो गया। झल्लाते हुए उसने फोन पर ही कह दिया, ‘यार क्या बात है? मुझे सिर्फ फट्टों का ही नहीं और भी कई काम हैं। अगर फट्टे ही नहीं आए तो दुकान कैसे लगेगी।’

पीछे से उसके पिताजी कहने लगे, ‘कोई बात नहीं बेटा, यह तो रोज़ का काम है। कहीं अटक गया होगा बेचारा।’ अरसे से चल रहे इस काम ने उनके भीतर एक धैर्य ला दिया है। मगर मनोज अपने पिताजी से भी नाराज़ होता हुआ बोला, ‘पिताजी आपका ज़माना और था। ये लोग जानबूझ कर देरी करते हैं। मैंने इन्हें अच्छे से जान लिया है।’

कुछ ही देर में फट्टों से भरा ट्रक सामने खड़ा हो गया। ट्रक के अंदर मौजूद लोग टेबल-फट्टे खींच-खींचकर बाहर फेंकने लगे। मनोज फट्टे गिनता, साथ ही कहता भी रहता, ‘भाई ज़रा ध्यान से! पिछली बार भी दो फट्टे कम डाल गए थे। पूरी दुकान का गुड़-गोबर हो गया था और मैंने कहा था न कि एक तिरपाल भी ले आना। आज मौसम थोड़ा खराब है, लाये हो या नहीं?’

अपने काम में मशरूफ़ सामने वाले आदमी से जवाब आया, ‘तिरपाल तो हम लाये ही नहीं…’

मनोज उसी तरह नाराज़ अंदाज़ में बोला, ‘मुझे मालूम था। अपनी तो किस्मत ही खराब है। अब बारिश आएगी तो क्या करूंगा?’

दुकान तैयार करने के दौरान ही एमसीडी की पर्ची काटने वाले भी आ गए। यहाँ पर कोई कितना भी मशरूफ़ हो लेकिन जब भी ये पर्ची काटने वाले आते हैं तो सारे काम रोक कर पहले इन्हें देखना होता है। मनोज के बगल में खड़े एक लड़के ने कहा, ‘भाई एक बात बताओ! मुझे आज तक यह समझ में नहीं आया कि ये पर्ची काटी क्यों जाती है? न तो सड़क साफ़ मिलती और न ही कोई पानी, बिजली या बैठने का इंतज़ाम होता है। बस पर्ची देनी है तो देनी है।’

मनोज ने झुँझला कर कहा, ‘बेटा जब तू अपनी दुकान लगाएगा न तब तुझे मालूम होगा। चल अब जल्दी– जल्दी हाथ चला।’

मनोज ने उन्हें पैसे दिए और पर्ची लेकर पैंट की एक जेब से कुछ कागज़ों को निकाल कर उसे भी उनके बीच रख वापस काम में जुट गया। मनोज जब तक काम करता है तब तक उसे बात करने की आदत है। इसके बारे में उसके साथ रहने वाले सभी लोग जानते हैं। इसलिए लोग उसे प्यार से हाज़िर जवाब भी कहते हैं। वह अपने पिताजी से बोला, ‘कब से कह रहा हूँ, अब तो हमारे पास कुछ पैसा भी जुट गया है, चलो एक पक्की दुकान किराये पर ले लेते हैं। लेकिन आपको टेंट तंबूरा ही पसंद आता है। आप साफ़ नट जाते हैं।’

पिताजी ने कहा, ‘हमने भी ली थी दुकान किराए पर, कोई बिक्री नहीं होती। ऊपर से किराया, बिजली और हेल्पर का ख़र्च अलग। जितने पैसे पूरे महीने कमाए उतने तो किराए में ही निकल गए। कमाई के नाम पर हाथ कुछ भी नहीं लगा। अपना पुराना ठिया छूट गया वह अलग। यहाँ पर ठिये भी हैं। ख़रीदार भी आते हैं। कुछ तो पुराने और जान पहचान के भी हैं। कम से कम यहाँ इस बात का सुकून तो है कि सामान नहीं बिका तो किसी और बाज़ार में बेच देंगे।’ इतना कहकर मनोज के पिताजी भी अपने बेटे के साथ टेबल बिछाने में लग गए। अब वह काम खत्म हो गया था।

काम के दौरान जब भी थकान का अहसास होता तभी चाय इसी थके अंदाज़ में मंगा ली जाती है। चाय वाले को भी पूरे बाज़ार में किसे कब चाय भेजनी है इसकी पूरी परख रहती है। चाय की गरम चुस्कियों के साथ अपनी थकान वहीं किसी कोने में छोड़ वे सब फिर से काम में लग जाते हैं।

दुकान में लगाने और सजाने के सभी समान वे साथ ही लेकर चलते हैं। जिसे अब बारी-बारी बाहर निकालने का काम शुरू हो जाता। दुकान कुछ इस तरह सजाई जाती कि सामने से देखने पर ही ग्राहकों को आसानी से सभी चीज़े दिख सके। दुकान के एक तरफ़ बैग टांग दिए जाते हैं और दूसरी तरफ पैंट। सामने की तरफ़ तरह–तरह की टी-शर्ट, शर्ट और कुर्ते। नीचे की तरफ़ बिछे फट्टों-टेबल पर सेल में बिकने वाले कुर्ते लगा दिये जाते हैं। उसी के साथ एक तरफ़ रुमाल, छोटे बच्चो के अंडर-गारमेंट्स आदि। इसी तरह चार से पाँच बजे तक दुकान सज कर ग्राहकों के लिए तैयार हो जाती है। बार-बार कीमत बतानी न पड़े इसलिए वह रेट के बोर्ड भी हर लाइन में लगा देते हैं। इतने में आसमान ने काली चादर ओढ़ ली और सड़क बहुत सारी लाइटों के बीच जगमगाती दिखाई दे रही है। जगह-जगह जनरेटर लगे हुए हैं। सड़क पर बहुत सारे लोग भीड़ की शक्ल में और बहुत सारी बातें चहल-पहल की तरह सुनाई दे रही हैं।

सभी दुकान वाले अपने काम में लगे हुए है। उनसे कई गुना ज़्यादा लोग अपनी ख़रीदारी में। विराट सिनेमा के ठीक सामने की तरफ़ गरम कपड़ो की दुकान लगी है, जो लगभग बीस गज़ के दायरे में बनी है। जितनी तख़्त के ऊपर है उतनी ही ज़मीन पर भी। पूरी दुकान पर बड़े सलीखे से, पैसे के हिसाब से कपड़ों को रखा गया है। जो सस्ता माल है वो जमीन पर पटक दिया गया है। इसी सस्ते और बिखरे माल में से अपना नसीब छांटो। जैकेट, स्वेटर, गरम टी-शर्ट, विंडचीटर आदि में भीड़ ज़्यादा खोई दिख रही है। दुकान को संभालने वाले तकरीबन दस लड़के हैं, जो कपड़ों को हाथों में नचा रहे हैं। आवाज़ें लगा रहे हैं। बाज़ार में तफरी या ख़रीदारी करने आए लोगों को लुभा रहे हैं। अपनी ओर खींच रहे हैं। ये खेल हर दुकान पर चल रहा हैं। फट्टों की इस दुकान के एक किनारे पर मनोज और उनके पिताजी लोहे का छोटा सा गल्ला लिए बैठ जाते हैं। हाथ में कॉपी रहती हैं और कमीज़ की जेब में पता नहीं क्या जो काफी मोटी दिखाई देती है।

‘ऐसे काम नहीं चलेगा विकास, तुम में से एक बंदा सड़क पर खड़े हो जाओ। वहाँ से लेडीज़ को पकड़ो, उन्हें यहाँ तक लाओ।’ यह कहकर अपने गल्ले पर हाथ रखकर बैठ गए।

मनोज दक्षिणपुरी में किराए के मकान में रहता है। लेकिन बाज़ार का सफ़र पूरी दिल्ली में चलता है। उसके पिताजी और वह दिल्ली की अलग-अलग जगहों पर जाकर बाज़ार लगाता है, जैसे शेखसराय, लक्ष्मी नगर, कल्याणपुरी, त्रिलोकपुरी, मालवीय नगर, संगम विहार, चिराग दिल्ली और दक्षिणपुरी। पहले यह काम मनोज के पिताजी ने शुरू किया था और अब मनोज इस काम को आगे बढ़ा रहा है। जब वह छठी क्लास में पढ़ता था तब अपने पिताजी के साथ गली–गली घूमता था। पिताजी साइकिल पर ही साड़ी, ब्लाउज़ व बच्चों के कपड़े बेचते थे। उसका हमेशा से मन था कि वह भी साइकिल पर दुकान लगाए। उसी साइकिल पर जिस पर पिताजी चला करते थे। एक बड़ा-सा कैरिअर जिसमें साड़ियाँ, बीच के डंडे पर कुंडों में लटके बच्चों के कपड़े, हैंडल पर कपड़े, आगे टोकरी थी एक जिसमें ब्लाउज़, मानो पूरी साइकिल भरी रहती थी।

उनकी इन बातों को सुनकर लगता नहीं था कि वे बस अपना घर चलाने के लिए ये सब करते हैं। धीरे–धीरे ग्राहक आते हैं अपने मन और जेब के अनुसार समान खरीदते हैं और जाने लगते हैं।

यही सब चलता रहता है, सामान बेचने और मोल-भाव के बीच रात गहराने लगती है और बाज़ार में भीड़ छँटने लगती है। आज बाज़ार में पहले से ज़्यादा भीड़ है क्योंकि आज महीने का दूसरा शुक्रवार हैं यानी तनख्वाह की तारीख़ के बाद का पहला शुक्रबाज़ार है।