सामर्थ्य से भारी कुल्हाड़ी मत चलाइए! / कमलेश कमल

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'प्रश्न करना' और 'मजाक उड़ाना' दो ऐसी क्रियाएँ हैं जिनमें वैपरीत्य है-ठीक ऐसे ही जैसे 'तर्क करना' और 'कुतर्क करना' विविध आयामों से विरोधी संक्रियाएँ हैं। प्रश्न करना और तर्क करना आधुनिकता-सूचक है, अग्रगामिता है, ज्ञान-पिपासा है, ज्ञान का संधान है। इसके विपरीत 'मजाक उड़ाना' और 'कुतर्क करना' पश्चगामिता है, बौद्धिक विकलांगता है, मानवीय संस्कृति की विकास यात्रा में पीछे छूटने का परिचायक है।

प्रश्न कोई भी कर सकता है। उसका स्वागत हो, न कि विरोध। जो समाज जितना बन्द होता है, वहाँ प्रश्न और तर्क करने की उतनी ही कम छूट होती है। भरतीय संस्कृति तो शास्त्रार्थ की संस्कृति रही है।

किसी विश्वास में, मत में या किसी ग्रंथ में सब अच्छा ही है, यह सनातन की सोच नहीं है। नोट करें कि ग्रंथ का अक्षर-अक्षर पवित्र और दोषमुक्त हो...यह हिन्दू धर्म की भावना है ही नहीं। यहाँ तो वैभिन्न के सम्मान की परम्परा है।

वायुपुराण कहता है-

मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना कुंडे-कुंडे नवं पय,

जातौ जातौ नवाचारा: नवा वाणी मुखे मुखे।

अर्थात् जितने मनुष्य हैं, उतने ही विचार हैं। एक ही स्थान के अलग-अलग कुँओं के पानी का स्वाद अलग-अलग होता है। एक ही संस्कार के लिए अलग-अलग जातियों में अलग-अलग रिवाज होता है तथा एक ही घटना का वर्णन हर व्यक्ति अपने ढंग से अलग-अलग करता है।

स्पष्ट है कि भारतीय संस्कृति में आप तर्क कर सकते हैं, विरोध कर सकते हैं। त्याग को पकड़िए, भोग को पकड़िए... स्वतंत्रता है। लेकिन जो भी करें, गहराई में उतरकर करें, उथले न बनें। कुछ लोग गहराई में उतरकर अध्ययन नहीं करते, बस कुछ वैचारिक वमन करने, कुछ उद्धृत करने (Quote) के लिए 2-4 पंक्ति पढ़ लेते हैं, या गूगल कर लेते हैं। उन्हें उद्धृत करने (Quote) , पढ़ने (read) , अध्ययन करने (study) और मनन करने (contemplate) के क्रम और अंतर को समझने की भी आवश्यकता है। छिछला ज्ञान कभी-कभी बड़ा शोर करता है, तभी तो हिन्दी में मुहावरा बना-"थोथा चना बाजे घना।"

माना जाता है कि योग्य व्यक्ति से प्रश्न करना उत्तम मानसिक स्वास्थ्य का संकेतक है। ऐसे में, प्रश्नकर्ता को भी चाहिए कि सही व्यक्ति से सही समय पर और सही रीति से प्रश्न करे। धर्म और अध्यात्म से सम्बंधित प्रश्न को किसी से भी पूछ देना ऐसा ही है जैसे भौतिकी का प्रश्न किसी गड़ेरिए से करना।

यहाँ तक कि धर्म के मामले में भी कोई विद्वान् सभी मामले का जानकार नहीं हो सकता। यहाँ

कुछ बातें प्रतीकात्मक हैं, कुछ गूढ़ दार्शनिक, कुछ मिथकीय, कुछ विभिन्न साधना पद्धतियों से सम्बद्ध, कुछ जन-श्रुतियाँ तो कुछ प्रक्षिप्त। ऐसे में अत्यधिक सावधानी और समझदारी की अपेक्षा कि जानी चाहिए।

तथ्य यह है कि किसी पुरातन प्रथा, श्लोक, मान्यता आदि का सीधे मज़ाक उड़ाना अल्हड़ता, फूहड़ता, हीनभावना, गुस्सा आदि में से किसी एक या अनेक का परिचायक हो सकता है, लेकिन अगर बड़ी और भारी कुल्हाड़ी उठाने का अभ्यास और सामर्थ्य नहीं, तो इसे उठाने वाला स्वयं घायल होगा, यह तय है। ध्यान दें कि Philosophy के foolish use (दर्शन का मूर्खतापूर्ण प्रयोग) और logic के illogical use (तर्क का अतार्किक उपयोग) ने इस देश का बेड़ा गर्क किया है

अज्ञानता कि भट्ठी में जब तर्क पकता है, तो यह या तो फूहड़ होता है या विषैला। जब पहले से ही कुछ उत्तर सोच लिया गया हो या उद्देश्य ही किसी को तंग करना हो, तब प्रबल संभावना है कि बुद्धि की भट्ठी से विषैला धुँआ ही निकलेगा। दिक़्क़त यह भी है कि ऐसे तर्क देने वाले को इसका अंदाज़ा नहीं होता कि उसने क्या एकांगी, घटिया, अधकचरा या कचरा सोचा या उगला है। उसे तो लगता है कि उसने कोई तोप का गोला दाग दिया है।

एक तथ्य यह भी है कि धार्मिक ही नहीं किसी भी विषय की मीमांसा अध्यवसाय, वैचारिकी और तार्किकता का एक न्यूनतम स्तर और गाम्भीर्य की अपेक्षा रखती है। क्या 9वीं कक्षा कि भौतिकी में प्रकाश के अध्याय (light chapter) में अर्जित ज्ञान के स्तर पर मोतियाबिंद का ऑपरेशन किया जा सकता है? (स्मरण रहे वहाँ भी इसकी चंद पंक्तियों में चर्चा और निदान है, जिसे आगे कोई नेत्र रोग विशेषज्ञ (opthalmologist) अपने MBBS के वर्षों को सफलतापूर्वक पूर्ण करने के बाद 2-3 वर्ष और देकर सीखता है। यही बात सामाजिक विज्ञान में है, भाषा-विज्ञान में है और अध्यात्म तथा धर्म के परिक्षेत्र में भी है।

मन्तव्य यह कि वैचारिकी के जगत् में आगे बढ़ने के लिए अध्ययन की ही सीढ़ियों से ही गुजरना होता है। अध्यवसाय को व्रत बनाना होता है। इनमें बाधक तत्त्व जैसे-काम, लोभ, क्रोध, ईर्ष्या, हीनभावना आदि अज्ञान से ही उपजते हैं, जिनसे मुक्ति के लिए ज्ञान से बड़ा कोई यज्ञ नहीं।

"न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।"

आपको संशय है या आप किसी बात से असहमत हैं-अच्छी बात है, लेकिन असहमति दिखाने में अपना और दूसरों का समय नष्ट मत कीजिए। बकवास बातें जो मिलावट आपको दिखती हैं, उनपर पढ़िए, उनकी कमी निकालने, उसे छिन्न-भिन्न करने, तार-तार करने के लिए ही पढ़िए लेकिन ख़ूब पढ़िए। सोचिए कि और लोगों को भी आपसे पहले यह लगा होगा, आप अकेले इतने तार्किक पैदा नहीं हुए हैं। जो महान् तार्किक आपसे पहले हुए, उन्होंने भी पढ़कर ही इसे जाना या प्रमाण सहित इसका विरोध किया; फेसबुक या व्हाट्सअप पर ओछे वाग्विलास से नहीं।

तो ढूँढिए! उनमें कुछ ठीक होंगी और कुछ सच ही बकवास होंगी। आप कुछ नया ढूँढ पाएँ या नहीं, पर यह तय मानिए कि आप स्वयं संशय में नहीं रहेंगे और आँख बंद कर हवा में तीर नहीं मारेंगे। आपका मन दर्पण की तरह साफ हो जाएगा। इति शुभम्!