सामाजिक न्याय की राजनीति / योगेन्द्र यादव

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आज सामाजिक न्याय की राजनीति एक चौराहे पर खड़ी है। एक मायने में सामाजिक न्याय की राजनीति आज इस देश में इतनी मुखर है जितनी शायद पहले कभी नहीं थी। कहने को मायावती उसकी प्रवक्ता हैं, रामविलास पासवान हैं, लालूप्रसाद हैं, द्रमुक सत्ता में है। जब मंडल के बारे में देश में बहस होती है तो किसी बड़े राजनीतिक दल का साहस नहीं होता उसका विरोध करने का। हम जानते हैं कौन वाकई विरोध में है। लेकिन किसी की हिम्मत नहीं होती उसके खिलाफ एक भी बयान देने की। कोई कह सकता है यह सामाजिक न्याय की राजनीति की विजय है। साठ के जमाने में इतनी मुखर नहीं थी सामाजिक न्याय की राजनीति।

लेकिन इतिहास दृष्टि हमें सिखाती है कि जब कोई विचार फ़ैलता है तब वही शायद उस विचार के संकुचन की भी एक घड़ी होती है। सामाजिक न्याय का विचार जैसे-जैसे फ़ैला है, वैसे-वैसे पतला भी होता गया है। यह जो संकुचन है, वह सामाजिक न्याय के बारे में गंभीरता से सोचने वाले हर व्यक्ति के लिए बहुत चिंता का विषय होना चाहिए। खास तौर पर हम सब लोगों के लिए। हम सब जो समतामूलक समाज का नाम लेकर किसी भी नाम से किसी बैनर के तहत राजनीति करते हैं। यहाँ हमारा मतलब सिर्फ़ समाजवादियों से नहीं है। मैं समझता हूँ इस देश में पिछले पंद्रह सालों से ‘हम’ की परिभाषा थोड़ी बदल गई है। वो जो समाजवादी आंदोलन से आए, वह जो कम्युनिस्ट आंदोलन से आए, वह जो आंबेडकरवादी धारा से आए, वो जो नारीवादी धारा से आए, गांधीवादी आंदोलन का क्रांतिकारी अंश हैं वे, साथ में इस देश के पर्यावरणवादी और इस देश के तमाम जनआंदोलनों से निकली ऊर्जा। मैं उन सब ‘हम’ को संबोधित करना चाहता हूँ आज के इस व्याख्यान में। हम सब जो लोग हैं, जो नर्मदा की पीड़ा को समझते हैं, जो बाबरी मस्जिद के ध्वंस से कुछ महसूस करते हैं, जो मंडल के सवाल पर एक-दूसरे को एक ही पाले में पाते हें। उनके लिए एक बहुत बड़ी चिंता का विषय है यह। हमें तीन बुनियादी सवालों पर विचार करना चाहिए और आज अपनी बात रखते हुए मैं सिर्फ़ इन तीन बातों की ही चर्चा करूँगा।

सामाजिक न्याय की अवधारणा

पहला, सामाजिक न्याय की अवधारणा क्या है? धीरे धीरे हम सामाजिक न्याय की सबसे स्थूल अवधारणा जो हो सकती है, यानी कि हर एक को बराबर हिस्सेदारी, उसकी तरफ जा रहे हैं। दूसरा सवाल यह कि सामाजिक न्याय के लिए कौन-सी नीति सबसे उपयुक्त है? धीरे-धीरे हम सबकी मान्यता बनती जा रही है कि सामाजिक न्याय का एक ही आधार है, वह है जाति और सामाजिक न्याय का एक ही औजार है, वह है आरक्षण। ‘जाति आधारित आरक्षण कर दिया यानी हो गया’ यह एक धारणा बनती जा रही है। तीसरा सवाल, सामाजिक न्याय की राजनीति क्या है, कैसी होनी चाहिए? केवल नीति नहीं राजनीति। पिछले कुछ सालों में हम सब लोग राजनीति में इतना अकेलापन महसूस करते हैं कि मायावती जीत जाती हैं या फिर लालू प्रसाद दूसरी बार चुनाव में आ जाते हैं तो कहीं संतोष सा महसूस होने लगता है। लगता है कुछ हो गया। धीरे-धीरे हम सामाजिक न्याय की राजनीति को पिछड़े वर्गों और जातियों के साथ चलने वाले दलों के साथ जोड़ कर देखने लगे हैं। नेतृत्व में कौन लोग हैं, उनकी सामाजिक पृष्ठ भूमि क्या है यह हमारे लिए सामाजिक न्याय की राजनीति की क्रांतिकारिता का पैमाना बनता जा रहा है।

इन तीनों सवालों पर एक नए तरीके से सोचने की जरूरत है। एक-एक करके मैं इसमें अपनी बात रखना चाहूँगा। लेकिन बात रखने से पहले यह जरूर कहना चाहूँगा की यह जो विचार बना है इसका एक महत्व हैं। इसकी एक उपयोगिता थी उस जमाने में जब सामाजिक न्याय की राजनीति अपनी पहचान बनाने की कोशिश कर रही थी। लेकिन क्या आज हमें उन्हें सामाजिक न्याय की राजनीति का पर्याय मानना चाहिए?क्या हमें मानना चाहिए कि हर एक को बराबरी देना सामाजिक न्याय है? हर समुदाय को एक साथ खड़ा करना सामाजिक न्याय है? क्या हमें मानना चाहिए कि जाति आधारित आरक्षण ही एकमात्र नीति है जिससे सामाजिक न्याय हो सकता है?क्या हमें सोचना चाहिए कि पिछड़े और दलित समुदाय का किसी-न-किसी राजनीति के शीर्ष पर आ जाना सामाजिक परिवर्तन की राजनीति का पर्याय है। ये तीन प्रश्न हैं जिनके बारे में मैं आज आप सबके साथ मिलकर सोचना चाहता हॅूं।

पहला सवाल अवधारणा का और थोड़ा फलसफे का है। लेकिन मधुजी, लोहियाजी या किसी भी बड़े चिंतक से हम सीखते हैं कि फलसफा राजनीति से दूर नहीं होता। सामाजिक न्याय की हमारी अवधारणा धीरे-धीरे एक बहुत स्थूल स्वरूप लेती जा रही है कि सबको हर चीज में बराबर हिस्सा मिले। मेरे एक दलित मित्र कह रहे थे कि आरक्षण से वाल्मीकी समाज को आखिर क्या मिला? मैंने उनसे पूछा कि होना क्या चाहिए? उन्होंने कहा कि आदर्श स्थिति यह होनी चाहिए की देश की हर जात बिरादरी की जितनी प्रतिशत जनसंख्या है उसे उतनी प्रतिशत नौकरी देनी चाहिए। इस अवधारणा की दो बातों पर आप ध्यान दीजिए। पहला, यह किसी भी काम के गुणदोष से निरपेक्ष है। मैंने अपने मित्र को कहा, इससे यह भी होगा, इससे सिर्फ़ सरकारी नौकरियों का आबंटन नहीं होगा, इसका मतलब देश की खेती की जमीन का भी आबंटन होना चाहिए और सब अगड़े लोग जो शहरों में आ गए हैं, जो लोग खेती नहीं करते उनको बराबर हिस्सा मिलना चाहिए खेती की जमीन में भी। हम अगर जो काम कर रहे हैं, उसके गुणधर्म से निरपेक्ष बराबरी स्थापित करना चाहते हैं तो इसके परिणाम किस-किस क्षेत्र में क्या-क्या होंगें, क्या हम इसपर सोचते हैं? हम ‘मेरिट’ के अमूर्त विचार की आलोचना करते हुए बड़े हुए हैं। कभी-कभी चार कदम आगे बढ़कर कहते हैं ‘मेरिट’ चीज ही क्या होती है?यानी कि किसी कार्यविशेष की दक्षता का पैमाना हो ही नहीं सकता। हमें इस बात पर बारीकी से विचार करना होगा। उत्तर भारत के एक दलित चिंतक श्योराज सिंह बेचैन कहते हैं बचपन में उनके ताऊ जानवरों की खाल निकाला करते थे। और उसे बनाते थे। उनके ताऊ जिनकी इतनी बारीक समझ थी, कि किस पशु की खाल को कैसे उतारा जाए - उसमें कैसे कट मारा जाए फिर उसको किस प्रकार से तैयार किया जाए, उसको सारी दुनिया अनपढ़ गंवार मानती थी। जब आपरेशन टेबल पर पोस्ट-मार्टम का काम कोई डॉक्टर करता है, वह शायद उनके ताउजी जितना बारीक काम नहीं करता है, उसको सारी दुनिया डॉक्टर कहती है। श्योराज सिंह जी की मिसाल हमारी योग्यता की जो सामान्य समझ है, उस पर प्रश्न चिह्न लगाती है। लेकिन क्या इसका मतलब यह है योग्यता का कोई पैमाना नहीं हो सकता?

दूसरी समस्या जो इस अवधारणा में मुझे लगी है, वो यह कि हर जाति समुदाय को समान स्थान देने के लिए हर समुदाय को जड़ स्वरूप में परिभाषित करना पड़ेगा। एक बार और हमेंशा के लिए आपको कहना पड़ेगा कि देश की आबादी के इतने प्रतिशत यादव हैं अब वो शहरी भी हैं, ग्रामीण भी हैं, महिला भी हैं, पुरुष भी हैं, वो उत्तर भारत में बिहार का भूमिहीन भी है, हरियाणा का भूस्वामी भी है। आपको सबकी एक श्रेणी बनानी पड़ेगी। समाज की अस्मिताओं को जड़स्वरूप से परिभाषित करना पड़ेगा। मेरे विचार से दोनों बहुत खतरनाक चीज हैं। जाति समुदाय, या किसी भी समुदाय को इस तरह जड़स्वरूप से परिभाषित करना अपने आप में दीर्घकाल में समाज परिवर्तन की राजनीति के लिए अच्छी बात नहीं है और ऐसा कोई भी बँटवारा करना जो कि उस काम के गुणधर्म से निरपेक्ष हो। ये दोनों चीजें बहुत खतरनाक हैं। इसके बजाय समता की नई दृष्टि की तरफ हमें बढ़ाना होगा जिसे बहुत सामान्य तरीके से अवसरों की समानता कहा जाता है। हम परिणामों की नहीं अवसरों की समानता चाहते हैं।

जो मैंने दूसरा, बड़ा सवाल उठाया था कि सामाजिक न्याय की नीति क्या हो? इसमें कोई संदेह नहीं कि इस देश में जातिगत विषमता की इतनी बड़ी हकीकत को तोड़ने के लिए जाति आधारित आरक्षण की जरूरत थी और है। खासतौर पर एक समय जब देश का समतामूलक आंदोलन, जो वामपंथी आंदोलन रहा, समाजवादी आंदोलन भी इन दोनों में जाति के सवाल पर जो चुप्पी थी, उस चुप्पी को तोड़ने के लिए यह जरूरी था कि जाति के मुद्दे को प्रखरता से उठाया जाए। साठ-सत्तर के दशक में जाति के सवाल को विषमता के एक प्रमुख स्तंभ के रूप में चिह्नित करना और उसे तोड़ने का उपाय बनाना बहुत जरूरी था। यह भी हकीकत हैं कि समता स्थापित करने के लिए हमारे देश में जो तमाम किस्म की नीतियां बनी हैं उनमें से अगर कोई नीति कारगर साबित हुई हैं तो वह आरक्षण की नीति है। इन दो चीजों के देखते हुए यह स्वाभाविक रहा कि जाति पर आधारित आरक्षण को हम सामाजिक न्याय का एक प्रमुख अंग और एक प्रमुख नीति मानें। हकीकत यह भी है, खास कर दलित और आदिवासी समाज के बारे में, कि अगर आरक्षण न होता तो आज भी हमारे देश में दलित-आदिवासी समाज की थोड़ी सी भी जो भागीदारी दिखाई देती है वो भी दिखाई नहीं देती। लेकिन आज जो सवाल उठा है, वो यह है कि क्या सामाजिक न्याय की नीति को केवल आरक्षण तक सीमित रहना चाहिए? चार सवाल मुझे दिखाई देते हैं जिनका उत्तर मुझे उस नीति में नहीं दिखाई देता, जिसे आज हम चला रहे हैं।

पहला सवाल कोटा के भीतर कोटा का सवाल है। आंध्र प्रदेश का मादिगा समाज कहता है कि उन्हें आरक्षण से कुछ नहीं मिला। उत्तर भारत का वाल्मीकी कड़वाहट से कहता है कि आरक्षण ले लो वापिस। मुझे कुछ नहीं मिला है इससे। मैं समझता हूँ दलित समूह के भीतर दलित समूह देश के अलग-अलग इलाकों में रह रहे हैं। हर जगह आरक्षित समूह के भीतर एक ऐसा वर्ग है जिसे विशेष फायदा नहीं मिला है। पहला सवाल यह है कि क्या इन सब वर्गों को एक वर्ग के रूप में देखें या फिर इनके भीतर वर्गीकरण किया जाए। हमारे सामाजिक न्याय का दर्शन इस प्रश्न पर हमें निश्चित रास्ता नहीं दिखाता।

दूसरा सवाल सुप्रीम कोर्ट की भाषा में क्रीमी लेयर का सवाल है। यह नाम भद्दा सा है लेकिन सवाल सच्चा है। यह सवाल कहता है कि आरक्षण का लाभ लेने वाले वर्ग के भीतर एक छोटा सा समुदाय ऐसा है जो उस समुदाय के बाकी लोगों से सामाजिक, शैक्षणिक दृष्टि से बहुत अलग हो चुका है। एक सामान्य व्यक्ति को साधारण आँख से देखने पर यह लगता है कि इन लोगों को आरक्षण क्यों मिल रहा है? जब यह सवाल सड़क पर उठाया जाता है, अखबारों में उठाया जाता है तो इसके पीछे एक शरारत होती है। शरारत यह होती है कि सवाल क्रीमी लेयर का उठाया जाता है और क्रीमी लेयर बनाम सामान्य श्रेणी का सवाल उठाया जाता है। मेरी निगाह में वह इतना महत्त्वपूर्ण सवाल नहीं है, क्योंकि मेरी समझ में आज दलित समाज की, आदिवासी समाज की क्रीमी लेयर भी सामान्य जनसंख्या की तुलना में बहुत पिछड़ी है। लेकिन इस प्रश्न का एक दूसरा पक्ष है जिसे सामाजिक न्याय का आंदोलन नजरअंदाज नहीं कर सकता और वह है इसी समाज के भीतर क्रीमी लेयर बनाम नॉन क्रीमी लेयर के बारे में उसकी नीति क्या हो? सामाजिक न्याय आंदोलन पिछले कुछ सालों से क्रीमी लेयर की अवधारणा का विरोध करता है। क्योंकि हम मानते हैं कि यह षड्यंत्र है किसी ना किसी तरह से सामाजिक न्याय की नीति को खत्म करने का। मुझे लगता है कि यह सवाल महत्त्वपूर्ण है, हमें इसका उत्तर ढूँढना पड़ेगा।

तीसरा सवाल और भी संवदेनशील सवाल है, वो है पुनर्मूल्यांकन करने का यानी कि कुछ जाति समुदाय आज ऐसे हैं जिन्हें आरक्षण का फायदा नहीं मिलना चाहिए। ये सवाल अलग-अलग संदर्भ में उठा है। राजस्थान के मीणा समाज के बारे में प्रश्न बार-बार उठा है। गुज्जर समाज का जो आंदोलन है वो वास्तव में जाटों को ओबीसी बनाने के और मीणाओं को आदिवासी बनाने की नीति के विरुद्ध आंदोलन है। वे इस सरकारी क्लासीफिकेशन की गलतियों से उपजा हुआ आंदोलन है।

कर्नाटक के वोकालिग्गा और उत्तर भारत में मछुआरे का काम करने वाले निषाद की शैक्षणिक अवस्था में उतनी ही दूरी है, जितनी ब्राह्मण और दलित में होती है। उनको हम एक श्रेणी में कैसे डाल सकते हैं? लेकिन प्रश्न यह है कि क्या सामाजिक न्याय का आंदोलन इस प्रश्न पर विचार करने के लिए तैयार हैं? क्या हम लोग जो सामाजिक न्याय का समर्थन करते हैं वो कोई पैमाना, कोई युक्ति, कोई योजना बता सकते हैं जिससे यह तय किया जाए कि कौन-सा समुदाय पिछड़ा है, दलित है, आदिवासी है, नहीं है या किसे आरक्षण का फायदा मिलना चाहिए, किसे नहीं मिलना चाहिए।

सामाजिक न्याय के पैरोकार सोचते हैं कि ऐसी किसी बात की चर्चा करना भी खतरनाक है क्योंकि यह रास्ता फिसलन भरा है। ऐसे रास्ते पर पाँव रखना खतरनाक जरूर है। लेकिन इससे बाहर खड़े रहना तो बिल्कुल आत्मघाती है। इन सवालों का सामना करना हमें सीखना चाहिए।

चौथा सवाल, जिसका उत्तर मुझे आज सामाजिक न्याय की राजनीति में नहीं मिलता, वह है जाति के अलावा दूसरे किस्म की विषमताओं का सवाल। यह सवाल मीडिया में अक्सर बहुत स्थूल तरीके से उठाया जाता है गरीब ब्राह्मण की छवि के सहारे। यह साबित करने के लिए उठाया जाता है कि आरक्षण अप्रासंगिक है, इस देश में जाति नामक कोई चीज है ही नहीं इत्यादि। लेकिन इस सवाल को उसकी राजनीति से अलग करके देखा जाना चाहिए। समाज में गैरबराबरी के अनेक आयाम होते हैं। जाति उसका एक आयाम है, गरीबी-अमीरी उसका दूसरा आयाम है, औरत-मर्द उस गैरबराबरी का तीसरा आयाम है, रंग-भेद चौथा आयाम है। क्या हम लोहिया की सप्तक्रांति को भूल गए हैं?

पाँचवा प्रश्न प्राइवेट सेक्टर से संबंधित है। प्राइवेट सेक्टर में किसी न किसी किस्म के विशेष अवसर की आवश्यकता है, खासतौर पर इसलिए कि सार्वजनिक क्षेत्र हमारी अर्थव्यवस्था का बहुत छोटा हिस्सा बनता जा रहा है। मगर जैसे ही हम प्राइवेट क्षेत्र में कुछ करने को सोचते हैं, तब हमारी माँग का स्वरूप बनता है, प्राइवेट क्षेत्र में आरक्षण। क्या आरक्षण ही एक मात्र औजार है सामाजिक न्याय का? दूसरे किसी औजार की बात हम सोच नहीं सकते?

इसे अंग्रेजी में कहते हैं न रिफ्लेक्स एक्शन - जैसे ही सामाजिक न्याय का बटन दबाओं, वैसे ही आरक्षण की माँग सामने आ जाती है। प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण, महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए आरक्षण, शिक्षा में आरक्षण। मानो सामाजिक न्याय का और कोई औजार नहीं है।

आज सामाजिक न्याय की राजनीति जिस मोड़ पर आ गई है, वहाँ हम इन प्रश्नों से मुँह नहीं मोड़ सकते। इसलिए हमें बहुआयामी विषमता को स्वीकार करना होगा। समाज में विषमता के अनेक किस्म के आयाम हैं। कोई भी एक आयाम अन्य सभी आयामों को अपने में समा नहीं लेगा। हम जैसे लोग अपने माक्र्सवादी मित्रों को बीस साल पहले कहते थे कि भैय्या क्लास है, अमीर गरीब हैं, लेकिन अमीरी-गरीबी जाति की विषमता को खत्म नहीं कर देती।

आज वही बात पलट कर हमें खुद याद करने की जरूरत है। जाति विषमता है; लेकिन जाति विषमता अमीरी गरीबी को खत्म नहीं कर देती, वो लिंग भेद को खत्म नहीं कर देती, वो शहर-गाँव के फर्क को खत्म नहीं कर देती। और ये बात मैं केवल अमूर्त रूप में नहीं कह रहा हूँ। आज भी देश में अगर वैकल्पिक सोच बनानी है तो हमें मानना होगा कि हमारे यहाँ बहुआयामी विषमताएँ हैं जो एक दूसरे में समा नहीं जाती। समाज की इस हकीकत को हम सैद्धांतिक रूप से पिछले ३० सालों से जानते थे, पता नहीं क्यूं पिछले दस साल में भूल गए।

सामाजिक न्याय के औजारों में हमें आरक्षण के साथ-साथ अन्य औजारों का समावेश करना होगा। साथ-साथ मैं इसलिए कहता हूँ कि सरकारी नौकरियों में, खासतौर पर दलित और आदिवासी समुदाय के लिए आज की तारीख में आरक्षण ही सर्वश्रेष्ठ विकल्प है, दूसरा कोई विकल्प नहीं है। लेकिन आज सामाजिक न्याय का सवाल केवल इन्हीं श्रेणियों और सरकारी नौकरी तक सीमित नहीं है। यह सवाल कई तरह के समुदायों और कई तरह के क्षेत्रों का सवाल है।

सतीश देशपांडे और मैंने मिलकर एक सुझाव रखा था कि शिक्षण संस्थाओं में केवल ओबीसी विद्यार्थियों के लिए २७ फीसदी आरक्षण की बजाय, हम एस.सी.-एस.टी. के लिए जो सीट्स रिजर्व हैं उनके अलावा जो ७७ फीसदी सीटें बचती हैं, उन सब सीटों के लिए एक अन्य फॉर्मूला लागू करें। फॉर्मूला यह होगा, कि आपका एडमिशन केवल परीक्षा के नंबरों के आधार पर नहीं होगा। आपके नंबरों के साथ-साथ यह देखा जाएगा कि आपने यह नंबर किन स्थितियों में प्राप्त किए हैं।

तीसरा और अंतिम बड़ा सवाल मैंने शुरू में उठाया था, वह था सामाजिक न्याय की राजनीति का सवाल। हमारे देश में सामाजिक न्याय की राजनीति के दो दौर आए हैं। पहला दौर, जहाँ समता के आंदोलन ने एक बहुत निर्गुण तौर पर समता के विचार की वकालत की। चाहे जाति की भी बात की तो बड़े निर्गुण तरीके से बात की। उस दौर में समाजवाद, क्रांतिकारी राजनीति इन सबकी बात खूब हुई। लेकिन जब उस क्रांति के वाहक को देखा जाता था, तो वे वही भद्र लोग अगड़ी जाति के, वही सब लोग जो समाज के समान्य नेता थे, वही सब पलटकर समता, समाजवाद, क्रांति सब की बात कर रहे थे। इस निर्गुण समता के आंदोलन में एक खोखलापन था, जो बाद की राजनीति ने दिखाया, बहुत सख्ती से दिखाया, बहुत ईमानदारी से दिखाया, जिसकी जरूरत थी।

उसके बाद दूसरा और सगुण दौर आया। इस दौर में अगर आप समता की बात करेंगे, तो आपको ये पूछना होगा कि अपनी पार्टी के पॉलिट ब्यूरो में कहाँ के लोग आते हैं? ये बड़ा तीखा सवाल था। पूछना बड़ा मुश्किल था - आज भी पूछना बहुत मुश्किल हैं। मैंने कुछ साल पहले एक साधारण सा सवाल पूछा कि पश्चिम बंगाल की सरकार में किस जाति के लोग हैं। चार साल के बाद मुझे उत्तर मिला और उत्तर यह था कि ज्योति बाबू की सरकार और बुद्धदेव भट्टाचार्य दोनों की सरकार में दो तिहाई मंत्री केवल तीन अगड़ी जातियों से हैं!

लेकिन इस सवाल का दूसरा पहलू भी है। क्या ये समतामूलक राजनीति का अंतिम ध्येय है कि जो लोग सत्ता में आए, उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि दलित-पिछडे वर्ग से हो? क्या महिला आंदोलन की अंतिम परिणति यह है कि एक महिला राष्ट्रपति हो? मायावती के शासन के बारे में कभी तो आपको पूछना पड़ेगा कि उनके राज में दलितों की आर्थिकसामाजिक स्थिति में क्या फर्वâ पड़ा? आपको यह भी पूछना पड़ेगा कि आखिर क्यों उत्तर प्रदेश के इतने सारे लोग मुलायम सिंह यादव से नाराज थे? आपको यह तो पूछना पड़ेगा कि लालू प्रसाद यादव जब १५ साल तक बिहार के मुख्यमंत्री रहे तो बिहार के गरीबों की हालत में क्या बदलाव आया, बिहार का क्या विकास हुआ? आज इस किस्म के सवाल पूछना प्रतिक्रांतिकारी मान लिया गया है। लेकिन जो लोग समतावादी हैं उनको तो यह सवाल पूछना पड़ेगा। इसलिए कहीं न कहीं, समता की, सामाजिक न्याय की राजनीति को एक तीसरे दौर में प्रवेश करने की मैंने यहाँ जो सवाल उठाए हैं इन सवालों को उठाना हमारी कमजोरी नहीं, हमारी मजबूती की निशानी होगी। इन सवालों को उठाकर हम सामाजिक न्याय के विचार को शायद नई पीढ़ी तक पहुँचा सकते हैं सामाजिक न्याय की राजनीति को पुनस्र्थापित करने का संघर्ष केवल सामाजिक न्याय के सवाल का संघर्ष नहीं हो सकता। उसे समता के एक समग्र आंदोलन से जोड़ना होगा। ये सवाल सामाजिक न्याय के संघर्ष को समता के एक समग्र आंदोलन से जोड़ने में मददगार हो सकते हैं। जरूरत है, जो अमूर्त सिद्धांतों को नेतृत्व और नीति के सगुण सवालों से जोड़े।