सामाजिक सेफ्टी वाल्व से जुड़ी दो खबरें / जयप्रकाश चौकसे

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सामाजिक सेफ्टी वाल्व से जुड़ी दो खबरें
प्रकाशन तिथि :16 फरवरी 2015


दो खबरें एक साथ चर्चित हैं और दोनों का असल मुद्‌दा एक ही है। पहली खबर यह है कि महेश भट्‌ट को एतराज है कि रोस्ट नामक भुने हुए मनोरंजन कार्यक्रम के लिए 14 लोगों के खिलाफ पुलिस जांच कर रही है और इन लोगों में महेश भट्‌ट की बेटी आलिया तो शामिल है परंतु उसी कार्यक्रम में मौजूद सोनाक्षी सिन्हा जांच के दायरे से बाहर रखी गई हैं। जो उन्होंने नहीं कहा उसका आशय संभवत: यह है कि सोनाक्षी के पिता शत्रुघ्न सिन्हा शासक वर्ग के दल के सदस्य हैं और महेश ताउम्र ही सत्ता के विरोधी रहे हैं। उनके व्यवस्था विरोध ने उन्हें हिप्पी की तरह जीवन िबताने का अवसर दिया और उनका सतत जिज्ञासू मन उन्हें ओशो से लेकर यू.जी. कृष्णमूर्ति तक ले गया। उन्होंने हवा में भी घूंसे मारे हैं और दीवारों से भी सर टकराया है तथा 'सारांश', 'अर्थ' सड़क इत्यादि के साथ मर्डर शृंखला भी बनाई है।

शायद वे अब यह महसूस करते हों कि सारी उम्र जिन विविध बर्बर व्यवस्थाओं से वे टकराए, उन सबसे अधिक भयावह मौजूदा संघर्ष है, क्योंकि उनमें उनके अनेक लोग शामिल हैं और अर्जुन वाली दुविधा सामने है। किस पर शस्त्र चलाएं। बहरहाल, दूसरी खबर सेंसर के नवनियुक्त अध्यक्ष पहलाज निहलानी का बयान है कि भारतीय संस्कृति और संस्कार की रक्षा के लिए वे फिल्मों में अपशब्द एवं हिंसा का अतिरेक नहीं होने देंगे। दोनों ही खबरें एक ही बात से जुड़ी हैं कि अभद्रता का सार्वजनिक प्रदर्शन रोका जाएगा गोयाकि फिर अभिव्यक्ति को स्वतंत्रता का मुद्‌दा सामने आया है, क्योंकि इसी स्वतंत्रता के साथ कुछ उत्तरदायित्व भी जुड़े हैं और इसकी सर्वमान्य परिभाषा रेखांकित करना कठिन है। आज टेक्नोलॉजी ने इतनी सुविधाएं दी हैं कि एक बटन दबाते ही नीले फीते का समूचा संसार आंखों के सामने है। उपलब्ध शिक्षा में हजारों छिद्र हैं तथा पढ़े-लिखे लोग अधिक भ्रष्ट, संस्कारहीन एवं बर्बर नजर आते हैं। 'रोस्ट' और फिल्मों में अपशब्द तथा अश्लीलता एक से होकर भी अलग हैं क्योंकि 'भुना हुआ रोस्ट मनोरंजन' कभी फिल्मों में नहीं आया है, वह अश्लील नीले फीते के जहर से जुड़ा है। वह उन लोगों की रचना है जो फिल्मों से जुड़े हैं, अत: क्या यह मुमकिन है कि जो वे फिल्मों में सेंसर के भय से नहीं प्रस्तुत कर पाए और अपनी इसी भीतरी कुलबुलाहट को उन्होंने उस कार्यक्रम में प्रस्तुत किया। सिनेमा दर्शकों ने प्राय: अश्लील फिल्मों को नकारा है। यहां तक कि राजकपूर की खुली खुली-सी 'सत्यम शिवम् सुंदरम' से अधिक दर्शक उनकी कुरीतियों पर प्रहार करने वाली 'प्रेमराेग' देखने गए थे।

दरअसल, आम आदमी की समझ पर यकीन नहीं करने की गलती प्राय: सत्ता करती रही है। पहलाज निहलानी के जोश का स्वागत है परंतु उन्हें इस बात पर भी ध्यान देना है कि टेक्नोलॉजी के कारण एक तरह का मनोरंजन सबको सहज उपलब्ध है और फिल्मों को सेंसर की सुई से निकलना होता है, जिसमें से कई बार हाथी निकल जाता है परंतु दुम अटक जाती है। उन्हें सेंसर बोर्ड में फिल्म संपादक, कैमरामैन और ध्वनि विशेषज्ञों को साथ लेना चाहिए। कई बार फिल्म विधा का ज्ञान नहीं होने के कारण महत्वपूर्ण भाग भी काट दिया जाता है। सेंसर का सख्ती के साथ सहिष्णु भी होना चाहिए। सिनेमा दिल से जुड़ा है। पहलाज निहलानी दशकों से एक विशेष राजनैतिक विचारधारा से जुड़े हैं, जिसकी कुछ शाखाएं महिलाओं को पीटती पाई गई हैं। नैतिक पुलिसगिरी समाज में अमान्य है। यह व्यक्तिगत संस्कार और शिक्षा का मामला है और डंडे की इसमें गुंजाइश नहीं है। यह प्रकरण मुझे वर्षों पूर्व एक घटना की याद दिलाता है, जब सरकारी बैंक के सत्ताधारी लोगों ने अपने द्वारा दिए गए धन की वसूली के लिए किन्नरों की सेवा ली थी कि वे ढीढ कर्जदार के घर के बाहर प्रदर्शन करें ताकि शर्मसार होकर वह समर्थ व्यक्ति अपना कर्ज चुकाए। इस सरकारी दल ने अपनी स्वाभाविक भाषा में घरों पर धरने दिए गोयाकि स्वतंत्र सरकार ने अपने एजेंट के माध्यम से अपशब्द, अभद्रता का प्रयोग किया है। अपशब्द सामाजिक जीवन के कुकर का सेफ्टी वाल्व है परंतु उसकी सीमा उसके पीछे छुपा मंतव्य ही तय करता है।