सामान्य परिचय: द्वितीय उत्थान / आधुनिक काल / शुक्ल

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हिन्दी साहित्य का इतिहास
गद्य साहित्य का प्रसार: द्वितीय उत्थान (संवत् 1950 - 1975) / प्रकरण 3 - सामान्य परिचय

इस उत्थान का आरंभ हम संवत् 1950 से मान सकते हैं। इसमें हम कुछ ऐसी चिंताओं और आकांक्षाओं का आभास पाते हैं जिनका समय भारतेंदु के सामने नहीं आया था। भारतेंदु मंडल मनोरंजक साहित्यनिर्माण द्वारा हिन्दी गद्य साहित्य की स्वतंत्र सत्ता का भाव ही प्रतिष्ठित करने में अधिकतर लगा रहा। अब यह भाव पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित हो गया था और शिक्षित समाज को अपने इस नए गद्य साहित्य का बहुत कुछ परिचय भी हो गया था। प्रथम उत्थान के भीतर बहुत बड़ी शिकायत यह रहा करती थी कि अंग्रेजी की ऊँची शिक्षा पाए हुए बड़े बड़े डिग्रीधाारी लोग हिन्दी साहित्य के नूतन निर्माण में योग नहीं देते और अपनी मातृभाषा से उदासीन रहते हैं। द्वितीय उत्थान में यह शिकायत बहुत कुछ कम हुई। उच्च शिक्षाप्राप्त लोग धीरेधीरे आने लगे , पर अधिकतर यह कहते हुए कि 'मुझे तो हिन्दी आती नहीं'। इधर से जवाब मिलता था, 'तो क्या हुआ? आ न जायगी। कुछ काम तो शुरू कीजिए। अत: बहुत से लोगों ने हिन्दी आने के पहले ही काम शुरू कर दिया।' उनकी भाषा में जो दोष रहते थे, वे उनकी खातिर से दरगुजर कर दिए जाते थे। जब वे कुछ काम कर चुकते थे , दो-चार चीजें लिख चुकते थे तब तो पूरे लेखक हो जाते थे। फिर उन्हें हिन्दी आने न आने की परवाह क्यों होने लगी?

इस कालखंड के बीच हिन्दी लेखकों की तारीफ में प्राय: यह कहा सुना जाता रहा कि ये संस्कृत बहुत अच्छी जानते हैं, ये अरबी, फारसी के पूरे विद्वान हैं, ये अंग्रेजी के अच्छे पंडित हैं। यह कहने की आवश्यकता नहीं समझी जाती थी कि ये हिन्दी बहुत अच्छी जानते हैं। यह मालूम ही नहीं होता था कि हिन्दी भी कोई जानने की चीज है। परिणाम यह हुआ कि बहुतसे हिन्दी के प्रौढ़ और अच्छे लेखक भी अपने लेखों में फारसीदानी, अंग्रेजीदानी, संस्कृतदानी आदि का कुछ प्रमाण देना जरूरी समझने लगे थे।

भाषा बिगड़ने का एक और सामान दूसरी ओर खड़ा हो गया था। हिन्दी के पाठकों का अब वैसा अकाल नहीं था , विशेषत: उपन्यास पढ़नेवालों का। बँग्ला उपन्यासों के अनुवाद धाड़ाधाड़ निकलने लगे थे। बहुत से लोग हिन्दी लिखना सीखने के लिए केवल संस्कृत शब्दों की जानकारी ही आवश्यक समझते थे जो बँग्ला की पुस्तकों से प्राप्त हो जाती थी। यह जानकारी थोड़ी बहुत होते ही वे बँग्ला से अनुवाद भी कर लेते थे और हिन्दी के लेख भी लिखने लगते थे। अत: एक ओर अंग्रेजीदानाें की ओर से 'स्वार्थ लेना', 'जीवन होड़', 'कवि का संदेश', 'दृष्टिकोण' आदि आने लगे; दूसरी ओर बंगभाषाश्रित लोगों की ओर से 'सिहरना', 'काँदना', 'बसंत रोग' आदि। इतना अवश्य था कि पिछले कैंडे क़े लोगों की लिखावट उतनी अजनबी नहीं लगती थी जितनी पहले कैंड़ेवालों की। बंगभाषा फिर भी अपने देश की और हिन्दी से मिलती जुलती भाषा थी। उसके अभ्यास से प्रसंग या स्थल के अनुरूप बहुत ही सुंदर और उपयुक्त संस्कृत शब्द मिलते थे। अत: बंगभाषा की ओर जो झुकाव रहा उसके प्रभाव से बहुत ही परिमार्जित और सुंदर संस्कृत पदविन्यास की परंपरा हिन्दी में आई, यह स्वीकार करना पड़ता है।

पर 'अंग्रेजी में विचार करने वाले' जब आप्टे का अंग्रेजी संस्कृत कोश लेकर अपने विचारों का शाब्दिक अनुवाद करने बैठते थे तब तो हिन्दी बेचारी कोसों दूर जा खड़ी होती थी। वे हिन्दी और संस्कृत शब्द भर लिखते थे, हिन्दी भाषा नहीं लिखते थे। उनके बहुत से वाक्यों का तात्पर्य अंग्रेजी भाषा की भावभंगिमा से परिचित लोग ही समझ सकते थे, केवल हिन्दी या संस्कृत जाननेवाले नहीं।

यह पहले कहा जा चुका है कि भारतेंदुजी और उनके सहयोगी लेखकों की दृष्टि व्याकरण के नियमों पर अच्छी तरह जमी नहीं थी। वे 'इच्छा किया', 'आशा किया' ऐसे प्रयोग भी कर जाते थे और वाक्यविन्यास की सफाई पर भी उतना ध्यान नहीं रखते थे। पर उनकी भाषा हिन्दी ही होती थी, मुहावरे के खिलाफ प्राय: नहीं जाती थी। पर द्वितीय उत्थान के भीतर बहुत दिनों तक व्याकरण की शिथिलता और भाषा की रूपहानि दोनों साथ साथ दिखाई पड़ती रही। व्याकरण के व्यतिक्रम और भाषा की अस्थिरता पर थोड़े ही दिनों में कोप दृष्टि पड़ी, पर भाषा की रूपहानि की ओर उतना ध्यान नहीं दिया गया। पर जो कुछ हुआ वही बहुत हुआ और उसके लिए हमारा हिन्दी साहित्य पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी का सदा ऋणी रहेगा। व्याकरण की शुद्ध ता और भाषा की सफाई के प्रवर्तक द्विवेदीजी ही थे। 'सरस्वती' के संपादक के रूप में उन्होंने आई हुई पुस्तकों के भीतर व्याकरण और भाषा की अशुद्धि याँ दिखाकर लेखकों को बहुत कुछ सावधान कर दिया। यद्यपि कुछ हठी और अनाड़ी लेखक अपनी भूलों और गलतियों का समर्थन तरह-तरह की बातें बनाकर करते रहे, पर अधिकतर लेखकों ने लाभ उठाया और लिखते समय व्याकरण आदि का पूरा ध्यान रखने लगे। गद्य की भाषा पर द्विवेदीजी के इस शुभ प्रभाव का स्मरण जब तक भाषा के लिए शुद्ध ता आवश्यक समझी जायगी तब तक बना रहेगा।

व्याकरण की ओर इस प्रकार ध्यान जाने पर कुछ दिनों व्याकरण संबंधिनी बातों की चर्चा भी पत्रों में अच्छी चली। विभक्तियाँ शब्दों से मिलाकर लिखी जानी चाहिए या अलग, इसी प्रश्न को लेकर कुछ काल तक खंडनमंडन के लेख जोरशोर से निकले। इस आंदोलन के नायक हुए थे , पं. गोविंद नारायण जी मिश्र, जिन्होंने 'विभक्ति विचार' नाम की एक छोटी सी पुस्तक द्वारा हिन्दी के विभक्तियों को शुद्ध विभक्तियाँ बताकर लोगों को उन्हें मिलाकर लिखने की सलाह दी थी।

इस द्वितीय उत्थान में जैसे अधिक प्रकार के विषय, लेखकों की विस्तृत दृष्टि के भीतर आए वैसे ही शैली की अनेकरूपता का अधिक विकास भी हुआ। ऐसे लेखकों की संख्या कुछ बढ़ी जिनकी शैली में कुछ उनकी निज की शिष्टता रहती थी, जिनकी लिखावट को परखकर लोग कह सकते थे कि यह उन्हीं की है। साथ ही वाक्यविन्यास में अधिक सफाई और व्यवस्था आई। विराम चिद्दों का आवश्यक प्रयोग होने लगा। अंग्रेजी आदि अन्य समुन्नत भाषाओं की उच्च विचारधारा से परिचित और अपनी भाषा पर भी यथेष्ट अधिकार रखनेवाले कुछ लेखकों की कृपा से हिन्दी की अर्थोद्धाटिनी शक्ति की अच्छी वृद्धि और अभिव्यंजन प्रणाली का भी अच्छा प्रसार हुआ। सघन और गुंफित विचारसूत्रों को व्यक्त करनेवाली तथा सूक्ष्म और गूढ़ भावों की झलकाने वाली भाषा हिन्दी साहित्य को कुछ कुछ प्राप्त होने लगी। उसी के अनुरूप हमारे साहित्य का डौल भी बहुत कुछ ऊँचा हुआ। बँग्ला के उत्कृष्ट सामाजिक, पारिवारिक और ऐतिहासिक उपन्यासों के लगातार आते रहने से रुचि परिष्कृत होती रही जिससे कुछ दिनों की तिलस्म, ऐयारी और जासूसी के उपरांत उच्चकोटि के सच्चे साहित्यिक उपन्यासों की मौलिक रचना का दिन भी ईश्वर ने दिखाया।

नाटक के क्षेत्र में वैसी उन्नति नहीं दिखाई पड़ी। बाबू राधाकृष्णदास के 'महाराणा प्रताप' (या राजस्थान केसरी) की कुछ दिन धूम रही और उसका अभिनय भी बहुत बार हुआ। राय देवीप्रसादजी पूर्ण ने 'चंद्रकला भानुकुमार' नामक एक बहुत बड़े डीलडौल का नाटक लिखा था, पर वह साहित्य के विविधा अंगों से पूर्ण होने पर भी वस्तुवैचित्रय के अभाव तथा भाषणों की कृत्रिमता आदि के कारण उतना प्रसिद्ध न हो सका। बँग्ला के नाटकों के कुछ अनुवाद बाबू रामकृष्ण वर्मा के बाद भी होते रहे पर उतनी अधिकता से नहीं जितनी अधिकता से उपन्यासों के। इससे नाटक की गति बहुत मंद रही। हिन्दीप्रेमियों के उत्साह से स्थापित प्रयाग और काशी की नाटक मंडलियों (जैसे भारतेंदु नाटक मंडली) के लिए रंगशाला के अनुकूल दो-एक छोटे मोटे नाटक अवश्य लिखे गए, पर वे साहित्यिक प्रसिद्धि न पा सके। प्रयाग में पं. माधव शुक्लजी और काशी में पं. दुगवेकरजी अपनी रचनाओं और अनूठे अभिनयों द्वारा बहुत दिनों तक दृश्य काव्य की रुचि जगाए रहे। इसके उपरांत बँग्ला में श्री द्विजेंद्रलाल राय के नाटकों की धूम हुई और उनके अनुवाद हिन्दी में धाड़ाधाड़ हुए। इसी प्रकार रवींद्र बाबू के कुछ नाटक भी हिन्दी रूप में लाए गए। द्वितीय उत्थान के अंत में दृश्य काव्य की अवस्था यही रही।

निबंधों की ओर यद्यपि बहुत कम ध्यान दिया गया और उसकी परंपरा ऐसी न चली कि हम 5-7 उच्चकोटि के निबंध लेखकों को उसी प्रकार झट से छाँटकर बता सकें जिस प्रकार अंग्रेजी साहित्य में बता दिए जाते हैं, फिर भी बीच बीच में अच्छे और उच्चकोटि के निबंध मासिक पत्रिकाओं में दिखाई पड़ते रहे। इस द्वितीय उत्थान में साहित्य के एक एक अंग को लेकर जैसी विशिष्टता लेखकों में आ जानी चाहिए थी वैसी विशिष्टता न आ पाई। किसी विषय में अपनी सबसे अधिक शक्ति देख उसे अपनाकर बैठने की प्रवृत्ति बहुत कम दिखाई दी। बहुत लेखकों का यह हाल रहा कि कभी अखबारनवीसी करते, कभी उपन्यास लिखते, कभी नाटक में दखल देते, कभी कविता की आलोचना करने लगते और कभी इतिहास और पुरातत्व की बातें लेकर सामने आते। ऐसी अवस्था में भाषा की पूर्ण शक्ति प्रदर्शित करने वाले गूढ़ गंभीर निबंध लेखक कहाँ से तैयार होते। फिर भी भिन्न भिन्न शैलियाँ प्रदर्शित करने वाले कई अच्छे लेखक इस बीच में बताए जा सकते हैं जिन्होंने लिखा तो कम है पर जो कुछ लिखा है वह महत्व का है।

समालोचना का आरंभ यद्यपि भारतेंदु के जीवनकाल में ही कुछ न कुछ हो गया था पर उसका कुछ अधिक वैभव इस द्वितीय उत्थान में ही दिखाई पड़ा। श्रीयुत् पं. महावीर प्रसाद द्विवेदीजी ने पहले पहल विस्तृत आलोचना का रास्ता निकाला। फिर मिश्रबंधुओं और पं. पद्मसिंह शर्मा ने अपने ढंग पर कुछ पुराने कवियों के संबंध में विचार प्रकट किए। पर यह सब आलोचना बहिरंग बातों तक ही रही। भाषा के गुणदोष, रस, अलंकार आदि की समीचीनता, इन्हीं सब परंपरागत विषयों तक पहुँची। स्थायी साहित्य में परिगणित होनेवाली समालोचना जिसमें किसी कवि की अंतर्वृत्तिा का सूक्ष्म व्यवच्छेद होता है, उसकी मानसिक प्रवृत्ति की विशेषताएँ दिखाई जाती हैं, बहुत ही कम दिखाई पड़ी।

साहित्यिक मूल्य रखनेवाले तीन जीवन चरित महत्व के निकले , पं. माधवप्रसाद मिश्र की 'विशुद्ध चरितावली' (स्वामी विशुध्दानंद का जीवन चरित) तथा बाबू शिवनंदन सहाय लिखित 'हरिश्चंद्र का जीवन चरित', 'गोस्वामी तुलसीदास जी का जीवन चरित' और 'चैतन्य महाप्रभु का जीवन चरित'।