साम्राज्यवादियों से गठबंधन / कांग्रेस-तब और अब / सहजानन्द सरस्वती

Gadya Kosh से
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ऐसी दशा में समाजवाद का नारा लगानेवाले नेहरू जब अपनी वैदेशिक नीति में ब्रिटेन तथा अमेरिका के साम्राज्यवादियों से गठबंधन करते हैं तो बड़ी झल्लाहट होती है। वीतनाम और मलाया में साम्राज्यवादी नग्न नृत्य करते और जनता की आजादी के युध्द को खून में डुबाते हैं तो नेहरू तमाशा देखते हैं। मगर हिंद-एशिया के लिए दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों का सम्मेलन करते हैं जिसमें वीतनाम और मलाया को न पूछ न्यूजीलैंड तथा आस्ट्रेलिया के प्रतिनिधि बुलाए जाते हैं। जापान के विरुध्द चीन की स्वतंत्रता के नाम पर युध्द करनेवाले च्यांग कै शेक से हाथ मिलाने के लिए कभी जो नेहरू चुंकिंग तक पहुँचे आज उसी चीन में पूर्ण स्वतंत्रता का पर्दापण होते देख उनके पास एक शब्द भी बधाई का नहीं है। बल्कि उन्हें घबराहट होती है। किसान मजदूर राज्य के हामी नेहरू की यह अनोखी मनोवृत्ति है। विदेशियों पूँजीपतियों और सामंतों की सत्ता को खोदकर उसके मूल में मठा देनेवाले मावसेतुंग , शाबाश यह कहने की हिम्मत उन्हें नहीं। क्योंकि डालर देवता इससे नाखुश होंगे , यही न ? स्टर्लिंग भगवान क्रुध्द होंगे यही न ? अमेरिका और इंगलैंड के सरमायादार बुरा मानेंगे यही न ? गत महायुध्द में तुर्की जैसे देश उदासीन थे। आज वे भी साम्राज्यवादियों के क्रीड़ा क्षेत्र बन चुके। फिर भी भारत समुद्र के मालिक नेहरू तटस्थता का ही स्वप्न देखते हैं। युध्द की दृष्टि से भारत सागर का और भारत का भी बड़ा महत्तव है , खासकर तृतीय महायुध्द की दृष्टि से , जो सीधो साम्यवाद एवं साम्राज्यवाद के बीच होगा और जो भारत की सीमा पर या इसी के पास-पड़ोस में होगा। फिर भी नेहरू सरकार तटस्थ रहेगी। क्या यह भी बात है कि अगला युध्द अटलांटिक या प्रशांत महासागर में होगा ? यह तो कोई सोचता भी शायद ही हो। तब तटस्थता का क्या सवाल ? भारत की पूर्ण स्वतंत्रता के संबंध में भी जो नेहरू ब्रिटिश साम्राज्यवादियों से सौदा करने में जरा भी न हिचके और भारत को घुमा-फिराकर ब्रिटेन का उपनिवेश ही बना डाला ; जो नेहरू इसीलिए भारतीय कारखानों का राष्ट्रीयकरण करने से बाज आए कि ब्रिटिश प्रभु रंज होंगे ; छोटानागपुर की खानों की भी जमींदारी मिटाने के सिलसिले में लेने से जिस नेहरू ने इसीलिए मना कर दिया है कि देशी-विदेशी थैलीशाह रंज होंगे वही तटस्थ हैं और बीच का रास्ता चुन चुके , यह कौन मानेगा ?