साम्राज्यवादी भूमंडलीकरण (विश्वनाथ त्रिपाठी) / नागार्जुन

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विश्वनाथ त्रिपाठी »
नागार्जुन को याद करते हुये
विश्वनाथ त्रिपाठी का संस्मरण

नागार्जुन ने कई कविताओं में अपने को बुड्ढा, बुड्ढा बंदर आदि कहा है। आत्मव्यंग्य करने में कवियों में उनके साथ केवल निराला खड़े हो सकते हैं और गद्यकारों में केवल हरिशंकर परसाई। इसके साथ ही वामपंथी पार्टियों और समाजवादी विचाराधारा से संबद्ध लेखक-संगठनों पर जितने प्रहार नागार्जुन ने किये हैं, शायद और किसी कवि ने नहीं। यहां प्रगतिशील-जनवादी कवियों-लेखकों की बात की जा रही है। फिर भी वे आजीवन इन पार्टियों और संगठनों के प्रेरणा-स्रोत बने रहे। अंतिम समय में उनकी स्थिति घर के उस परम बुजुर्ग की हो गयी थी जो सबको गाली देता है और सभी गाली खाने वाले उसका पैर छूते हैं। यह अकारण नहीं था। नागार्जुन अपने को बुड्ढा कहते ही प्रमाणित कर देते थे कि वे शरीर से बुड्ढे हुए हैं, बुद्धि और चेतना से नहीं। सच्चा बुड्ढा तो बुड्ढा कहने से नाराज होता है। नागार्जुन अंत तक विवेकवान, जाग्रत और निर्मम बने रहे। ऐसी निर्ममता जो बहुत व्यापक और संगत ममता की भूि म पर ही पदै ा हाते ी ह।ै नागाजर्नु क े अंि तम काव्य-सकं लना ंे म ंे स े एक का नाम हैμभूलूल जाओ पुरुराने सपने।े सपने को भूल जाने की ऐतिहासिक व्यथा नागार्जुन ने अपने समसामयिक अनेक युवक रचनाकारों से पहले ही झेल ली थी।

क्या आज हमारे दौर की सबसे बड़ी ऐतिहासिक त्रासदी नहीं है कि उत्तरआधुनिकतावाद हममें एक ऐसा पराजय बोध पैदा कर रहा है, जिसमें स्वप्न और संघर्ष की कोई जगह नहीं है। इतिहास और विचारधारा के अंत का परिणामी फल क्या साम्राज्यवाद को सनातन सत्य बना देना नहीं है? नागार्जुन ने यह त्रासदी अपने जीवन काल के अंतिम दौर में झेली। यह सोचना कितना करुणाजनक है। नागार्जुन की पीढ़ी ने सोवियत संघ का विघटन भी झेला और सोवियत संघ के विघटन का गहरा संबंध उत्तरआधुनिकता के उत्कर्ष और हमारे मानस की स्वप्न-विहीनता से है। नागार्जुन का कृतित्व ही नहीं उनका व्यक्तित्व भी कालजयी है। नागार्जुन बुजुर्गों के साथ बुजुर्ग, जवानों के साथ जवान और बच्चों के साथ बच्चे हैं। जिन लोगों ने उन्हें महिलाओं के साथ घुल-मिलकर बातें करते देखा है वे लिस्ट को और आगे बढ़ायेंगे। अपनी एक कविता में वह कालिदास से जवाब तलब करते हैं, ‘कालिदास सच-सच बतलाना...’ उनका जीवन अनुभव व्यापक है।

कबीरदास की भांति वह अनेक परस्पर विरोधी प्रवृतियों के समुच्चय हैं। जीवन के प्रति गहरी आसिक्त है। तीव्र सौंदर्यानुभूति के रचनाकार हैं और इसीलिए गहरी घृणा और तिलमिला देने वाले व्यंग्य के सहज कवि। यह सहजता जटिल अंतर्वस्तु का रूप है। जटिल अंतर्वस्तु के बग़ैर सहजता आ ही नहीं सकती, इसीलिए सहजता मार्मिक और भेदक होती है। कविता की बात छोड़िए। जीवन में भी वह जो इतने सहज हैं, उसकी भी वजह व्यापक परस्पर-विरोधी जीवन स्थितियों को पचा सकने वाली क्षमता में ही अंतर्निहित है। मैनेजर पांडे के यहां नागार्जुन प्रायः ठहरते थे। वहां उन्हें आत्मीयता मिलती थी। वो बता रहे थेμ एक बार उन्होंने देखा, बाबा जांघों पर ताल देकर गा रहे हैं,

‘दमकिपा, दमकिपा, दमकिपा’, दमकिपा


यानी दलित मज़दूर-किसान पार्टी। उन दिनों यह पार्टी बनी थी

ग़ैर-कांग्रेसी और ग़ैर-वामपंथी दलों की।
नागार्जुन के उस गान-तान में ही इस पार्टी के प्रति गहरे व्यंग्य की अंर्तवस्तु मौजूद रही होगी। रुक-रुककर
कहिए, सामान्य ढंग से दमकिपा तो व्यंग्य नहीं होगा- ज़रा लय से गाकर बोलिए ताल के साथ तो दलित
मज़दूर किसान के प्रति प्रतिबद्धता का सारा पाखंड ढह जायेगा। यह कला जितनी नागार्जुन को आती
है, किसी को नहीं। वाचन की लय वस्तुतः बोलने की लय ही है। गद्य में भी यह लय होती है। नागार्जुन
ऐसी सर्वध्वंसक लय का उपयोग कविता में ही करते हैं। गद्य में इसका उपयोग परसाई और [[अमरकांत]
करते हैं।

एक बार नगार्जुन मेरे यहां भी आये। वह जाते, ठहरते वहीं थे, जहां उनका मन रमता था। पटना
में खगेंद्र ठाकुर के यहां, सादतपुर में वीरेंद्र जैन के घर। एक घर और जहां उनका मन रमता था। लेकिन
मैं उन सज्जन का नाम भूल रहा हूं- वहां नागार्जुन के साथ मैंने मसूर की दाल का कबाब खाया था।
सो, एक बार नागार्जुन ने मेरे घर पर भी कृपा की। घर पहुंचते ही उन्होंने परिवार के सभी लोगों
से सीधा संबंध जोड़ लिया। सबेरे दलिया में नमक कम था। बोले,

‘नमक नहीं पड़ा है दलिया में।’

पत्नी ने कहा,

‘कम डाला है, इन्हें ब्लडप्रेशर रहता है, कम खाते हैं।’


बाबा के शरीर में पता नहीं कहां से फुर्ती आ गयीμकटोरा लेकर सीधे किचन में पहुंचे। बोले,

‘खा
मैं रहा हूंμनमक का पता मुझे है या तुम्हंे ! दलिया ऐसे नहीं बनाया जाता। पहले थोड़ा घी में भून लो
फिर पकाओ तो खिलता है।’

पत्नी मुझसे अकेले में बोली,

‘यह तुम मेरी सासू कहां से ले आये। ऐसी डांट और ऐसी शिक्षा तो
अम्मा ने भी कभी नहीं दी।’


मेरी बड़ी नातिन चार-पांच साल की थी। उससे नागार्जुन की सबसे ज़्यादा पटी। एक दिन तीसरे
पहर मैं भोजनोपरांत शयन के बाद उठा तो देखा, नागार्जुन बहुत देर तक फ़र्श पर पड़ी किसी चीज़ को
बड़ी गंभीरता से देखने में तन्मय हैं। समाधि लगी हो मानो। जब उन्हें मेरी आहट मिली तो बोले,

‘देखो,
कविता है यह’।

नातिन की छोटी-छोटी चप्पलों को वह देख रहे थे। रचना- समाधि में लीन उनका चेहरा
मैं कभी नहीं भूल सकता।
तीन-चार दिनों के बाद वह जाने लगे तो पत्नी रोने लगीं, बोलीं

‘बड़े भाग्य से ऐसे लोग घर में आते
हैं, मानो सचमुच मां-बाप हों।’


उन्हीं दिनों मुझसे कहा,

‘मौक़ा मिलने पर चार-पांच महीने में एक बार दिल्ली से बाहर हो आया
करो। स्वास्थ्य ठीक रहेगा। ब्लडप्रेशर वग़ैरह के लिए अच्छा रहेगा।’

राहुल सांकृत्यायन की घुमक्कड़ी की बात होती है, मुझे लगता है, नागार्जुन की भी घुमक्कड़ी की
बात होनी चाहिए। फ़र्क़ होगा भी तो उन्नीस-बीस का होगा, नागार्जुन का यात्राी-जीवन ज़्यादा सहज होगा,
अनुकरणीय तो निश्चय ही ज़्यादा।

मैंने पहली बार नागार्जुन को बनारस में, 1951 में देखा। साहित्यिक संघ का समारोह था। उसी
में पहली बार रामविलास शर्मा, शमशेर, उपेंद्रनाथ ‘अश्क’ को देखा। समारोह के प्रारंभ में नागार्जुन ने

‘हे कोटि बाहु, हे कोटि शीश’ कविता पढ़ी। अजब पोशाक थी, शायद कंबल का कोट और पैंट पहने
थे।

दिल्ली मॉडल टाउन में रहने लगा तो अक्सर दिखलायी पड़ते कर्णसिंह चौहान, सुधीश पचौरी, अशोक
चक्रधर के सामूहिक निवास पर। मैं दो मंज़िलें पर एक बरसातीनुमा मकान में रहता था। एक दिन
सुबह-सुबह खटखट सीढ़ियां चढ़ते हुए बोले,

‘एक महीने इलाहाबाद रहकर आया हूं। रोज़ सबेरे अमरूद
खाता था। दमा ठीक हो गया है।’

बहुत प्रसन्न स्वस्थ लगे। इमरजेंसी के कुछ दिन पहले उन्होंने एक
लंबी कविता इंदिरा गांधी पर लिखी। मैं इंदिरा गांधी को फासिस्ट, तानाशाह नहीं मानता था। कविता
में उन्हें यही बताया गया था। फिर भी कविता मुझे बहुत अच्छी लगी। ख़ास तौर पर यह पंक्ति:



पूंछ उठाकर नाच रहे हैं लोकसभाई मोर

मोर आत्मसुग्धता का प्रतीक है। अंग्रेज़ी में ‘पीकाकिश’ का भी यही अर्थ है। पूंछ उठाकर नाचने में जो बिंब बनता है उसका अर्थ न भी खुले तो भी वह सुनने-पढ़ने वालों को लहालोट कर देने में समर्थ है। अर्थ खुलने पर तो व्यंग्यार्थ गजब ढाता है। आत्ममुग्ध मोर नाच रहा है। आत्ममुग्धता की चरमावस्था में उसकी पूंछ ऊपर उठ जाती है, पूंछ ऊपर उठाये वह चारों ओर घूमता है, समझता है कि दर्शक भी उस पर मुग्ध हैं और दर्शकों का यह हाल है कि या तो हंसी के मारे पेट में बल पड़ रहे हैं या घृणा- जुगुप्सा से मुंह फेरकर इधर-उधर देख रहे हैं- या आंख मूंदे, नाक दाबे हैं। पूंछ उठाने से जो अंग दिखलाई पड़ने लगता है, मोर को इसकी ख़बर ही नहीं है, उल्टे वह प्रसन्न मत्त है। आत्ममुग्ध, अहंकारी, सत्ता-मत्त शासक शोषकों का यही हश्र होता है।

नागार्जुन संपूर्ण क्रांति में शामिल हुएμजयप्रकाश नारायण और रेणु के साथ, लालू यादव से उनकी प्रगाढ़ता उसी समय हुई होगी। आपातकाल में जेल गये। फिर छूट आये। संपूर्ण क्रंति से मोहभंग हुआ। मोहभंग क्यों हुआ, संपूर्ण क्रांति के समर्थक दलों का वर्ग-चरित्रा क्या था? इस सबका प्रभाव नागार्जुन पर जेल में पड़ा होगा। उस दौर में लिखी कविताओं के संकलन का नाम हैμ

खिचड़ी विप्लव। बेलछी कांड हुआμ

दलितों को सवर्णों ने ज़िंदा आग में डाल दिया। यह अभूतपूर्व था। नागार्जुन ने कविता लिखी, ‘हरिजन-गाथा’। ‘हरिजन-गाथा’ में हरिजन बालक कलुआ को संपूर्ण क्रांति का भावी नेता कहा गया है:

श्याम सलोना यह अछूत शिशु /
हम सबका उद्धार करेगा।
आज यही संपूर्ण क्रांति का /
बेड़ा सचमुच पार करेगा।

नागार्जुन हमेशा संतुलित रहते थेμचिड़चिड़ाते वह अपनों पर ही थे। जिस पर क्रुद्ध हों, समझो वह उनका आत्मीय है। ‘नापसंदों’ को मुंह नहीं लगाते। उनके मुंह लगते भी नहीं, जिसको पंसद नहीं करें। उनके साथ खाना-पीना उन्हें अच्छा नहीं लगता। उन्हें वह अपने यहां खिलाते भी नहीं। खाने -खिलाने का बेहद शौक। जीभ-चटोर। चिउरा, मछली विशेष प्रिय। उनकी कविताओं में चिउरा, मछली, गन्ना, मखाना, शहद, कटहल, धान और भी कई-कई चीज़ों की भरमार हैμ कविताओं में इसका मज़ा अलग है। जिन कविताओं में ऐसी खाने वाली चीज़ें आती हैं, मुझे विशेष पसंद आती हैं।

संतुलन का एक वाकया 1980 ई. में भोपाल में ‘महत्व केदारनाथ अग्रवाल’ के आयोजन के दौरान हुआ। आयोजन मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ ने किया था। सभा में नागार्जुन अध्यक्ष, वक़्ताओं में त्रिलोचन, केदारनाथ सिंह, धनंजय वर्मा। इन पंक्तियांे का लेखक भी। धनंजय और पंक्ति लेखक ने पर्चा पढ़ा। किसी के पर्चे में ‘एंेद्रिय’ शब्द आया था। त्रिलोचन को बोलने कहा गया। त्रिलोचन ने लगभग 45 मिनटों तक ऐंद्रिय शब्द का अर्थ, ऐंद्रिय और ऐंद्रिक के अर्थ में अंतर, हिंदी शब्दकोशों का महत्व, उनके निर्माण का इतिहास आदि बताया। केदार का पूरे भाषण में नामोल्लेख तक नहीं। 46 वें मिनट में धैर्य टूट गया। श्रोता तो सांस दबाये रहे। केदरनाथ अग्रवाल ने डपटकर कहा,

‘त्रिलोचन तुम शब्दकोषों पर बोलने आये हो या मुझ पर, मेरी कविताओं पर, (यह उन्होंने एक चकार का प्रयोग करते हुए कहा) बंद करो।

त्रिलोचन वाक्य बीच में छोड़कर चुप बैठ गये। कुछ हुआ ही नहीं मानो। सभा में, मौन में स्पंदित विषम वातावरण छा गया। नागार्जुन अध्यक्ष थे, बोले,

‘केदार त्रिलोचन से उम्र में बड़े हैं। हमारे बीच ऐसा होता आया है। केदार जहां आदरणीय हैं, वहां हम फादरणीय हो जाते हैं। जहां हम आदरणीय होते हैं, वहां वह फादरणीय हो जाते हैं। आज तो केदार आदरणीय हैं और फादरणीय भी हो गये।’

हंसी-ठहाके से विषम मौन टूटा। एक ऐसी कविता लिखी जानी चाहिए जिसमें नागर्जुन, शमशेर, त्रिलोचन के पारस्परिक संबंध के आत्मीय संस्मरण हों, मेल और रूठने के आत्मीय चित्रांकन (क्लोज़अप) हों। एक-दूसरे की रचनाओं पर बेबाक राय हो। कुछ सामग्री तो पहले से मौजूद हैμ

जैसे नागार्जुन की केदार पर और केदार की नागार्जुन पर लिखी हुई कविता। नागार्जुन, केदार, त्रिलोचनμतीनों का काव्य जनपदीयता पर टिका है। टिका क्या है, काव्य के रेशे-रेशे में मिला है। नागार्जुन के पूर्वज कवि विद्यपति हैं। नागार्जुन की कविताओं पर अनेक आलोचना-पुस्तकें और लेख लिखे गये हैं। मुझे उनकी कविताओं की विशेषताओं का सर्वोत्तम आकलन केदारनाथ अग्रवाल की उन पर लिखी गयी इन पंक्तियों में दिखलायी पड़ता है:

आओ साथी गले लगा लूं
तुम्हें, तुम्हारी मिथिला की प्यारी धरती को,
तुममें व्यापे विद्यापति को,
और वहां की जनवाणी के छंद चूम लूं
और वहां के गढ़-पोखर का पानी छूकर नैन जुड़ा लूं
और वहां के दुखमोचन, मोहन मांझी को मित्रा बना लूं
और वहंा के हर चावल को हाथों में ले हृदय लगा लूं
और वहां की आबोहवा से वह सुख पा लूं
जो गीतों में गाया जाकर कभी न चुकता
जो नृत्यों में नाचा जाकर कभी न चुकता
जो आंखों में आंजा जाकर कभी न चुकता
जो ज्वाला में डाला जाकर कभी न जलता
जो रोटी में खाया जाकर कभी न कमता
जो गोली से मारा जाकर कभी न मरता
और वहां नदियों में बहता
नावों को ले आगे बढ़ता
और वहां फूलों में खिलता
बागों को सौरभ से भरता।

यह सब नागार्जुन की कविता में व्याप्त है। यह सब पढ़ते हुए नैनं छिंदंति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः की याद आती है। ठेठ द्वंद्वात्मक भौतिकावादी सिद्धांत का शब्द चित्राμसंसार नश्वर नहीं, मिथ्या नहीं, सत्य है, सत्य है, सत्य यानी जो हमेशा बना रहे, ऐसी कृति और ऐसे कृतिकार को कालजयी कहते हैं। नागार्जुन, केदार, त्रिलोचनμतीनों प्रगतिशील कवि हैं, किंतु वे तीनों अपने भिन्न- भिन्न जनपदीय संस्कारों के साथ-साथ प्रगतिशील हैं, उनकी विशेषताएं यानी परस्पर-भिन्नता इसी आधार पर समझी जायेगी, अस्तु। नागार्जुन की एक पंक्ति हैμजनकवि हूं मैं क्यों हकलाऊं! उनकी भाषा की सहजता का प्रतीक है यह न हकलाना। हकलाना भौतिक बाधा की अपेक्षा आत्मविश्वास की कमी ज़्यादा प्रकट करता है। आत्मविश्वास की कमी वाला आदमी सहज और स्वस्थ (मानसिक रूप से) नहीं हो सकता। जो सहज स्वस्थ नहीं वह प्रकृति, इतिहास और बोली की लयμकुछ भी नहीं पकड़ सकता। बात सुनने में अटपटी लगती है किंतु शमशेर की कविता के बारे में मुझे हमेशा लगता है कि उनमें लय की खोज बहुत है किंतु ख़ुद कविता में लय की कमी है। कारण कि उनकी बोली का प्रभाव उनकी काव्यभाषा पर कम है। उनमें जनपदीयता कम है। इस दृष्टि से मुक्तिबोध का अध्ययन विशेष रूप से किया जाना चाहिए और उनकी काव्यभाषा पर विचार उनकी मातृभाषा मराठी के संदर्भ में होना चाहिए। प्रगतिशील कवि कल्पना, स्मृति आदि की अपेक्षा देखने पर अर्थात् जो सामने दिख रहा है, उससे ज़्यादा आकृष्ट होते हैं। जो सामने है उसी में इतिहास, भविष्य सब कुछ समाया है। इसलिए देखने को कल्पना आदि से कम महत्वपूर्ण नहीं समझना चाहिए। वस्तुतः यह अंतर लोक और वेद का है। लोक और वेद के संतुलन की बात तुलसी करते थे। कबीर लोक ओर वेद के संतुलन पर नहीं, उसके अंतर पर बल देते थेμतू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आंखिन की देखी। इस देखी की रचनात्मकता में बड़ी महिमा है। नागार्जुन की एक कविता है:

‘बादल को घिरते देखा
है’।

‘देखा है’ का अर्थ प्रत्यक्ष अनुभव किया है। अपनी आंखों देखकर जाना है। किताबों में पढ़कर, सुनी-सुनायी बात नहीं। मैं अपने अनुभव को अभिव्यक्त कर रहा हूं। आंख और कान में अंतर होता है। अनुभव का सर्वाधिक विश्वसनीय इंद्रिय माध्यम आंख है। आंख प्रतीक है प्रत्यक्ष अनुभव काμअनुमान इससे कमतर है। इसी कविता में नागार्जुन ने लिखा:

कहां गया धनपति कुबेर वह
कहां गयी उसकी वह अलका
नहीं ठिकाना कालिदास के व्योम-प्रवाही गंगाजल का
ढूंढ़ा बहुत परंतु लगा क्या
मेघदूत का पता कहीं पर
.......
जाने दो वह कवि-कल्पित था
मैंने तो भीषण जाड़ों में
नभचुंबी कैलाश-शीर्ष पर महामेघ को झंझानिल से
गरज गरज भिड़ते देखा है
बादल को घिरते देखा है।

कुबेर, अलका, व्योम-प्रवाही गंगाजलμसुनी-सुनायी बातें हैं। मेघदूत किताब है। मैंने जो बादल देखे, वे किताबी नहींμआंखों से देखे हैंμये पंक्तियां उनको चित्रित करती हैं। लोग कालिदास के बादलों के बारे में लिखते होंगे। ‘मैंने तो’ में ‘तो’ के आग्रह पर विचार कीजिए। कालिदास की महानता से इंकार नहीं लेकिन उनका अनुभव नागार्जुन का भी अनुभव हो, तो नागार्जुन की कविता की क्या ज़रूरत है। सच्चे अर्थ में यह कवि की स्वायत्तता और निजता है। कविता का सौंदर्य नैतिकता की धार से खरादकर गढ़ा जाता है। कविता सर्वाधिक जनतांत्रिक संस्कृति रूप है। मानवीय नैतिकता की प्रवृति यह है कि विकास-यात्रा में जो पीछे रह गये हैं, या जो किसी तरह किसी भी कारण से साथ नहीं चल पाते, उन्हें अपने साथ ले लिया जाये। इसी प्रवृत्ति के कारण मानवता और कविता दोनों की भाव परिधि की व्याप्ति सर्वाधिक होती है। सच पूछिए तो ‘जहां न जाये रवि वहां जाये कवि’ का रहस्य यही है। भाव-योग इस नैतिकता को सौंदर्यबोध में परिणत कर देता है। सौंदर्यबोध की तह में नैतिकता होती है। मनुष्य प्रकृति को बहुत प्यार करता है। एक तरफ़ जंगल काटता है। शेर मारता है। दूसरी तरफ़ पेड़ लगाता है। पर्यावरण सुरक्षा का कारण सिर्फ़ उपयोगिता नहीं। पेड़ पौधे वनस्पतियां, पशु-पक्षी, नदी, तालाब, पर्वत, समुद्र मनुष्य को अनायास सुंदर लगते हैं। वस्तुतः मनुष्य भी प्रकृति का ही अंग है। लेकिन मनुष्य विद्या, बुद्धि से, भाषा-व्यवहार, सामाजिक चेतना आदि के कारण प्रकृति की अन्य वस्तुओं और प्राणियों को पीछे छोड़कर बहुत आगे चला आया है। वह पीछे छूटी हुई चिर-सहचरी प्रकृति को इतिहास से समकालीन में नहीं ला सकता तो भावना के क्षेत्रा में लाता हैμयानी प्रकृति सौंदर्य है।

नागार्जुन ने प्रकृति पर जो कविताएं लिखी हैं वे इसका प्रमाण हैं। प्रकृति-प्रेम की उत्कट कविता है, ‘मेरे नास्तिक को पछाड़ दिया’μयह प्रकृति-सौंदर्य का बोध है कि आत्म-बोध, कि प्रकृति के एक घटक मनुष्य के प्रकृति-मात्रा में विलीन न होने या उसे आत्म-लीन न कर पाने की पीड़ा! इसे पीड़ा नहीं करुणा कहना चाहिए। बच्चों के प्रति हमारी अपार ममता का मूल कारण यही है। हम बच्चे थे, बचपन छोड़कर हम बहुत आगे बढ़ गये हैं। हम फिर बचपन में लौटना चाहते हैं। जो छूट गया है उसकी दुर्निवार ललक है। सशरीर हम अतीत में नहीं लौट सकते। एक मन है जिसके सहारे हम बचपन से भावात्म्य कर लेते हैं। परिवार में बाबा की सबसे ज़्यादा पटरी पोते/पोती से बैठने का यह रहस्य है। नागार्जुन की कविताओं में से इसके उदाहरणों को उद्धृत करके लेख का कलेवर बढ़ाने की ज़रूरत नहीं है। वह तो चिनार के भी शिशु पर कविता लिखते हैं, ‘दंतुरित-मुस्कान’ जैसा बिंब अन्यत्रा नहीं होगा, गुलाबी चूड़ियों को याद कीजिए और इस लेख में पहले आये हुए उस उल्लेख का भी कि मेरी नातिन की छोटी-छोटी चप्पलों को देखकर समाधि में स्थित नागार्जुन उन्हें कविता कह रहे थे। अभावग्रस्त भी पिछड़े हुए हैं, हम सुविधा में हैं और वे असुविधा में। जो सार्वभौमिकता, एकता, विश्वबंधुत्व की बात करते हैं, वे प्रायः ग़रीबी-अमीरी का भेदभाव बनाये रखना चाहते हैं। फिर बंधुत्व किसका? अमीरों, धनवानों का! सच्चा मानवतावाद ग़रीबी, बेरोज़गारी, वर्ण-व्यवस्था, ऊंच-नीच को समाप्त करने में है। कोई आदमी भोजन कर रहा हो और उसके सामने कुछ लोग भूख से तड़प रहे हों तो खाने वाले को भोजन रुचेगा नहीं, अगर वह मनुष्य है।

आर्थक विषमता को बरकरार रखकर विश्वबंधुत्व, संस्कृति या मानवतावाद की बात करना पाखंड है। आर्थिक समानता मानवीय संस्कृति का अंतरंग है, सवाल उसको तीव्रता से अनुभव करने का है। बहुसंख्यक निर्धन समूह में कहीं-कहीं इक्के-दुक्के धनी दिखलाई पड़ते हैं। नागार्जुन कहते हैंμवे ऐसे लगते हैं, मानो कोढ़ी के शरीर पर सोने के आभूषण। हमारे अभावग्रस्त देश का एक और अभिशाप है। इस देश में शूद्र होने का अर्थ क्या होता है, यह शूद्र ही जानता है। वर्ण-व्यवस्था को हमारा देश सनातन मानता आया है। इसलिए तुलसीदास जैसे करुणावान कवि ने भी वर्ण-व्यवस्था का समर्थन कियाμशूद्रों को अपूज्य ठहराया। बेलछी कांड पर नागार्जुन ने जो कविता लिखी, वह हिंदी साहित्य में अभूतपूर्व है। हरिजनों के हत्याकांड की क्रूरता की जो यातना नागार्जुन ने भोगी वह किसी भी अन्य कवि ने नहीं। इस यातना का अनुभव व्यर्थ नहीं, वह इतिहास-विधाता की यातना है। ऐसी कल्पना शायद ही कहीं किसी अन्य कवि ने की हो कि अपने जनकों पर जो अत्याचार हो रहे थे, उसकी पीड़ा से उनकी संतान-भ्रूण उद्वेलित होकर पेट में दौड़ने लगी:

एक अपूर्व आकुलता उनकी गर्भ-कुक्षियों के अंदर
बार-बार उठने लगीं टीसें लगाने लगे दौड़ उनके भ्रूण /अंदर ही अंदर

अभिमन्यु ने गर्भ में चक्रव्यूह में प्रवेश करने की विधि सीखी थी। हरिजन भ्रूणों ने अपने जनकों को ज़िंदा जलाये जाने की यातना सही। उनका भाग्य उन हथियारों से नियत हो गया जिनसे उनके पिताओं को मारा गया था। हरिजन-शिशु की हथेली पर उन हथियारों के निशान थे। हथेली पर निशान यानी भाग्य रेखा। उसकी हथेलियों पर ध्वज, अंकुश, कमल, चक्र के चिद्द थे:

देख रहा है नवजातक के
दाएं कर की नरम हथेली
सोच रहा थाμइस ग़रीब ने सूक्ष्म रूप में विपदा झेली
आड़ी-तिरछी रेखाओं में
हथियारों के ही निशान हैं खुखरी हैं, बम हैं असि भी है
गंडासा-भाला प्रधान हैं।

नागार्जुन ने इस हरिजन-शिशु को वराह अवतार कहा है। वह धरती का उद्धार करने वाला होगा। बालक निम्न वर्ग का नायक होगा। वह नयी ऋचाओं का निर्माता होगा। सच्ची बात यह है कि नागार्जुन ने दलित शिशु को अतीत की सारी सांस्कृतिक संपत्ति का उत्तराधिकार भी सौंप दिया है। दलित को लोग राज्य, अर्थ, भूमि की सत्ता तो सौंप देते हैं लेकिन उसे हमारा सांस्कृतिक नायक भी बनाना है, यह बात कम लोगों के गले से नीचे उतरती है। ख़ुद दलित व्यक्ति और उसके नेताओं ने भी इस बारे में कोई बात नहीं की है। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने कहा है कि ग़रीब वर्ग का अधिकार सिर्फ़ रोटी, कपड़ा, मकान पर ही नहीं, बाल्मीकि होमर, शेक्सपियर, ग़ालिब, प्रेमचंद पर भी है। नागार्जुन ने दलित की अधिकार सीमा को फ़ैज़ से भी कहीं ज़्यादा व्याप्ति दी है। समस्त अतीत का भी वह उत्तराधिकारी है। वह अवतार हैμवैदिक मंत्रा का गायक, पृथ्वी का उद्धारक, धर्म संस्थापनाय संभवामि युगे-युगे का परंपरावाहक। और इसके लिए नागार्जुन ने कविता में कई मिथक, कई कथानक रूढ़ियां गूंथी हैं। बच्चे को अत्याचारियों के डर से स्थानांतरित कर देनाμकंस के डर से कृष्ण को स्थानांतरित करने की गाथा, गर्भावस्था में प्रभाव-ग्रहणμअभिमन्यु की कथा, वराहावतार द्वारा धरती का उद्धार आदि।

एक और रोचक एवं मार्मिक रूढ़ि ‘हरिजन गाथा’ में गूंथी गयी है जो नागार्जुन के दलित प्रेम या दलित तादात्म्य की भावना की प्रगाढ़ता व्यंजित करती है। तुलसी और सूर, दोनों अपने इष्ट के दर्शन के लिए अपने काव्य में रूप-परिवर्तन करके प्रस्तुत होते हैं। तुलसी राम-गमन के अवसर पर तापस के रूप में और सूर कृष्ण जन्मोत्सव के अवसर पर ढाढ़ी (गायक) के रूप में। ‘हरिजन गाथा’ में अधेड़ संत ग़रीब दास आते हैं। वह रैदासी कुटिया के संत हैं। उनका चित्राण दृष्टव्य है:

अगले नहीं, उससे अगले रोज़
पधारे हैं गुरु महाराज
रैदासी कुटिया के अधेड़ संत ग़रीब दास
बकरी वाली गंगा-जमनी दाढ़ी थी,
लटक रहा था गले से
अंगुठानुमा ज़रा-सा टुकड़ा तुलसी काठ का,
कद था नाटा, सूरत थी सांवली,
कपार पर, बाई तरह घोड़े के खुर का निशान था
चेहरा था गोल-मटोल, आंखे थीं घुच्ची
बदन कठमस्त था
ऐसे आप अधेड़ संत ग़रीब दास पधारे
चमरटोली में।

बाबा ग़रीब दास ने शिशु को हथेली देखी, भाग्य रेखाएं पढ़ीं। सलाह दी कि इसे फौरन मां के साथ-साथ झरिया-फरिया भेज दो। यही नहीं, बाबा ने दस-दस के छः नोट निकाले, रेल भाड़े का पैसा भी दिया। इसके बाद:

फिर तो बाबा की आंखें
बार-बार गीली हो आयीं
साफ़ सिलेटी हृदय गगन में
जाने कैसी सुधियां छाईं
नव शिशु का सिर सूंघ रहा था
विह्नल होकर बार-बार वो
सांस खींचता था रह-रहकर
गुमसुम-सा था लगातार वो।

इसी तरह सूर और तुलसी अपने इष्ट देव का दर्शन करके विह्वल होते हैं। मैथिल ब्राह्मण कवि नागार्जुन के इष्ट वराहावतार हरिजन शिशु हैं। यह संत ग़रीब दास नागार्जुन हीे हैं। कवि सूर और तुलसी के समान रूप बदलकर अपने इष्ट के जन्मोत्सव पर दर्शन करने आये हैं। दलितों को वोट बैंक बनाने वाले दलित शुभचिंतकों के व्यवहार से यह आचरण भिन्न है। नया मानवतावाद सर्जना में भी किस तरह परंपरा से अपने को समृद्ध करता है, इसका प्रमाण नागार्जुन की कविता है। दलित चेतना को सिर्फ़ प्रहार और ध्वंस ही नहीं करना है, उसे यथासंभव अपने स्रोतों से जुड़ना और विकसित भी होना है। ढांचे में सबकी समाई होनी चाहिएμख़ास तौर पर विकसित चेतना के ढांचे में। नागार्जुन की भाषा-शक्ति यह है कि उनकी अपनी कोई काव्य-भाषा शैली नहीं है। हिंदी भाषा की जितनी शैलियां हैं वे सभी नागार्जुन की शैलियां हैं। यथावसर उनका उपयोग करने की क्षमता जिसमें होती है वह सिद्ध कवि होता है। प्रबंधत्व में तो विशेष रूप से ऐसी ही सिद्धि की क्षमता चाहिए। भाषा की विविध भंगिमाओं के प्रयोग के बिना नाट्यधर्मिता नहीं आती। संभवतः नाट्यधर्मिता का सारा बल अंततोगत्वा भाषा पर ही पड़ता है। लय, अनुतान, मौन आदि के साथ। यह जो शरीर-भाषा (बॉडी लैंग्वेज) की बात की जाती है वही नाटक में बड़ी दूर तक अभिनय का काम करती है। नाटक के शब्द बोले तो अभिनेता द्वारा जाते हैं किंतु नाट्यधर्मिता का उत्कर्ष रचनाकार की भाषा में अंतर्निहित होता है। प्रगतिशील कवियों की त्रायी में प्रबंध-काव्य लिखने की क्षमता सबसे अधिक नागार्जुन में थी। उसका प्रमाण उनकी भाषा की शैली-निर्विशेषता है। ‘हरिजन गाथा’ के नायक यानी हरिजन-शिशु के बारे में एक बात और ध्यातव्य है। वह कलुआ है, काला है, वह मज़दूरों के बीच पलने वाला है, इसकी अपनी पार्टी होगी। बुद्ध और खदेरन इसकी देखरेख करते हैं। नागार्जुन ने इस दलित शिशु के विषय में लिखा:

थाम लिए विह्वल बाबा ने /
अभिनव लघु मानव के मृदु पग
पाकर इनके परस जादुई /
भूमि अकंटक होगी लगभग

समर्थ कवि मुक्तिबोध के रक्तालोक स्नात पुरुष से नागार्जुन का वराहावतार भिन्न है। रक्तालोक स्नात पुरुष दीप्तवर्ण आजानुभुज, सौम्य दृग है! कामायनी के मनु से मिलता-जुलता। भावी इतिहास पुरुष को ठीक-ठीक किसने पहचाना है? मेरा ख़्याल है, नागार्जुन ने। मैं मुक्तिबोध के बिंबों की अनेकार्थता को समझते हुए भी कह सकता हूं कि भावी युग का नायक कलुआ अधिक ऐतिहासिक चेतना से निर्मित है। नया सौंदर्य-बोध यह है। यह ‘वह तोड़ती पत्थर’, ‘एक हथोड़े-वाला घर में और हुआ’, ‘नगई महरा’ और ‘हरिजन गाथा’ के कलुआ के माध्यम से हिंदी कविता में प्रसारित हुआ है। मुक्तिबोध के यहां सौंदर्य बोध है। किंतु प्रतीकों, विबों, उपमाओं में प्रबंधात्मक रचना के किसी हाड़-मांस वाले पात्रा में नहीं। मूल दिक़्क़त वही जनपदीयता की है। मुक्तिबोध की काव्य भाषा की मराठी के प्रभाव के बारे में विचार करना चाहिए। नागार्जुन की सौंदर्य दृष्टि बहुत सूक्ष्म और बहुत व्यापक है। उनके काव्य में सारी सृष्टि का सौंदर्य-रस निचुड़ आया है। प्रकृति सौंदर्य, मानव सौंदर्य, कर्म सौंदर्य एवं श्रम सौंदर्यμसब उनके यहां भपूर मिलेगा। जो सौंदर्य का प्रेमी होगा वह कुरूपता से घृणा करेगा। नागार्जुन की घृणा ने प्रधानतः व्यंग्य का रूप लिया है। उनका व्यंग्य असंगति और विषमता बोध पर आधरित है। स्वातंत्रयोत्तर भारत में स्वाधीनता आंदोलन के सिद्धांत मुखौटे बन गये हैं। नागार्जुन ने राजनैतिक-सामाजिक व्यंग्य की अपूर्व कविताएं लिखी है। इनमें ‘आओ रानी हम ढोयेंगे पालकी’ सर्वाधिक प्रसिद्ध हुआ है।


नागार्जुन जनकवि हैं। वह प्रगतिशील कवि भी हैं। जनवादी कवि भी, नव जनवादी कवि भी और राष्ट्रीय कवि भी। वह किसी राजनीतिक दल की आलोचना कर सकते हैं और किसी की भी प्रशंसा। वह पार्टी कवि भी हो सकते हैं, पार्टीवादी नहीं। नागार्जुन कवि रूप में किसी को बख्शने वाले कवि नहीं। नागार्जुन के पास वह ठेठ निग़ाह है जो ताड़ने में अचूक है कि कौन नस कैसे फड़क रही है। भाषा का सर्वाधिक सर्जनात्मक प्रयोग लोक-जीवन में होता है। महान कवि उससे सीखते हैं और रचना में उतारते हैं। प्रसंगानुसार उसका नियोजन करते हैं। नागार्जुन ऐसा ही करते हैं। एक छुटभइया नेता को टिकट मिल गया है, उसका इतराता उल्लास देखिए:

आये दिन बहार के /
खिले हैं दांत ज्यों दाने अनार के
दिल्ली से लौटे हैं अभी टिकट मार के

‘टिकट मार के’ प्रयोग लोकवादी कवि ही कर सकता हैं। दांतों की उपमा अनार के दानों से दी जाती है। रूढ़ उपमान है लेकिन ‘खिले हैं दांत’ नेता के मुखमंडल का वीभत्स रूप दर्शाता है, जो वीभत्स, अभद्र, कांइयां, पान चबाने से गंदे दांतों का जो कुरूप बिंब उभरता है, उस सबों को एक साथ साक्षात कर देता है। जैसे कोई कुशल कार्टूनिस्ट किसी रेखा के ज़रा से बल से अंदर की सारी व्यंग्यात्मकता उभार देता है। कार्टून कला की सबसे बड़ी सिद्धि यही है कि वह अनायास और सहज लगती है मानो कार्टूनिस्ट ने ऐसे ही चलते-चलते रेखाएं खींच दी हैं। यह अनायासता बहुत गहरे जाकर प्रभावित करती है। नागार्जुन का काव्य प्रतिमान है कि पारंपरिक काव्यरूपों में, अपनी भाषा के ठेठ मुहावरे में, हिंदी और उसकी बोलियों की लय में आधुनिक जटिल अंतर्वस्तु कैसे व्यक्त की जा सकती है। नागार्जुन का काव्य प्रतिमान है परंपरा और प्रयोग के विलय का। परंपरा और प्रयोग का बहसें बहुत होतीे हैं। बहसें निरर्थक होती हैं और सार्थक भी, किंतु परंपरा और प्रयोग के संश्लेष का सर्वोत्तम उदाहरण नागार्जुन का काव्य है। हर गंगे, मंत्रा, दोहा में उन्होंने समकालीन संवेदना की अभिव्यक्ति की है। साहित्य में प्रगतिशील आंदोलन का विरोध करने वाले प्रगतिशील साहित्य पर कलाहीनता का आरोप लगाते नहीं थकते। इनमें से एक आध तो ऐसे हैं जो अपने को रूपवादी तक घोषित करते हैं। सब करते हैं लेकिन नागार्जुन की कविता के रूप पक्ष पर विचार करने का ख़तरा नहीं उठाते। हमारे विचार से निराला के बाद नागार्जुन ने कविता में सर्वाधिक प्रयोग किये हैं। उनके प्रयोग परंपरा से जुड़े हुए हैं। काव्य वस्तु की निर्मिति करते समय नागार्जुन बोलियों की भंगिमाओं, मुहावरों, मिथकों, लोक-विश्वासों इत्यादि से भपूर मसाला तैयार करते हैं। नागार्जुन आदि प्रगतिशील कवियों ने अधिकांश रचनाएं छंदोबद्ध की हैं। यह लोकोन्मुख रूप-प्रयोग वस्तुगत लाकोन्मुखता का ही आयाम है। हिंदी में बहुप्रचलित शब्द ‘भाव-बोध’ पर विचार करते समय एक गोष्ठी में डॉ. रामविलास शर्मा ने कहा था कि भाव और बोध में अंतर करना चाहिए। बुद्धिजीवी और अवकाशभोगी वर्ग निम्न वर्ग की स्थिति से सहानुभूति रखता है। उनकी दारुण स्थिति का उसे बोध होता है। भाव भी हो, यह ज़रूरी नहीं है। निम्नवर्गीय व्यक्ति को अपनी स्थिति का बोध होते ही भाव हो जाता है। भावबोध के इस अंतर को ध्यान में रखकर कविता में छंद, लय और अर्थ के महत्त्व पर विचार किया जा सकता है। यह जो काव्य-क्षेत्रा में गद्य की इतनी छटा है, उसका प्रधान कारण मध्यवर्गीय हिंदी कवियों का निम्नवर्ग की स्थिति का बोध की स्थिति तक ही रह जाना है। यह अकारण नहीं है कि हिंदी कविता में इस गद्य छटा को बिखरने का काम स्वातंत्रयोत्तर भारत में उस समय हुआ जब विदेशी कवियों का अनुवाद, उन्हें उद्धृत करने, उनकी तर्ज पर कविता करने, उनको चुराने का काम ज़ोर-शोर से शुरू हुआ। निश्चय ही गद्य में भी मार्मिकता लायी जा सकती है और विष्णु खरे, मंगलेश डबराल, असद ज़ैदी, विष्णु नागर, हरिश्चंद्र पांडेय आदि कवियों और इधर के अनेक कवियों ने उपलब्ध की है। लेकिन ऐतिहासिक अभिव्यक्तियां सामने आने के लिए छंद का सहारा लेती हैं। छंद भावावेग की गति का माप है। कवि-कर्म वैयक्तिक साधना है। लेकिन कवि के व्यक्तित्व में अनेकानेक लोगों की वैयक्तिक भावनाओं का गुणन होता है। अगणित लोगों की भावनाएं लय और, परिणामतः, छंद में व्यक्त होती हैं। प्रगतिशील कवियों के यहां छंद विधान का आग्रह इसी ऐतिहासिक भाववेग के कारण है। सामान्य अर्थ मन का अर्थ बन कर ही काव्यार्थ बनता है और मन केवल व्यक्ति का नहीं होता, समूह का होता है, जाति का होता है, वर्ग का होता है। इसीलिए जातीय भावना है, राष्ट्रीय भावना होती है। विश्व बंधुत्व का भाव होता है। इस सबकी अभिव्यक्ति में छंद अतीव साधक होता है। सामान्य अर्थ लय समन्वित होकर कितनी अर्थ समृद्धि ग्रहण कर लेता है और वही वाक्य यदि संगीत में भी रूपांतरित हो जाये तो कितनी अर्थ समृद्धि ग्रहण कर लेता है, यह जानी पहचानी बात है। लय और राग अपनी ओर से भाषा में अर्थ समृद्धि अंतर्भुक्त करते हैं। हमारे दौर के कवि रघुवीर सहाय की प्रशंसा करते नहीं थकते। रघुवीर सहाय ने छंद का आग्रह कभी नहीं छोड़ा। उन्होंने ‘रामदास’ जैसी कविता रोला छंद में लिखी। छंद को अछूत समझने वाले हमारे अनेक समकालीन कवि रघुवीर सहाय की प्रशंसा करने के बावजूद उनके इस रचनात्मक आयाम को समझने का प्रयास भी नहीं करते और अपने को रूप का पैरोकार समझते हैं। यह छंद का ही जादू था कि रघुवीर सहाय ने नागार्जुन की लगने वाली ये पंक्तियां लिखीं:

राष्ट्रगीत में भला कौन वह
भाग्य भारत विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका
गुन हरिचरना गाता है।

आज का भूमंडलीकरण नवसाम्राज्यवाद का साधन है। ‘दुनिया के मज़दूरो एक हो’ का भूमंडलीकरण सर्वहारा का था। नागार्जुन सर्वहारा के विश्व बंधुत्व के भाव-बोध से जुड़े थे। इसीलिए उन्होंने अनेकानेक अंतर्राष्ट्रीय व्यक्तियों और घटनाओं पर कविताएं लिखीं। उत्तरआधुनिकतावाद समस्याओं को प्रस्तुत करने में ज़्यादा कोताही नहीं करता। हाशिये, परिधि और उपेक्षित लोगों की बात करता है। विभिन्न अस्मिताओं की बात करता है। लेकिन इन अस्मिताओं को एक जुट कर (जिन्हें आगे बढ़ने के लिए, बेहतरी के लिए एकजुट होने की ज़रूरत है) उन्हें संघर्ष करने की प्रेरणा नहीं देता और इस तरह उत्तरआधुनिकतावाद पराजय बोध की एक ऐसी विचारधारा बन जाती है जो वंचित लोगों को कोई स्वप्न नहीं दे सकता, जिससे कि वे संघर्ष करें।

नागार्जुन ने अपने अंतिम काव्य संकलन ‘भूल जाओ पुराने सपने’ का नाम देकर इसी
व्यथा और ऐतिहासिक त्रासदी का संकेत दिया था।

आज की कविता जन-सामान्य को एक ऐसा स्वप्न देकर ही अपने को नागार्जुन से जोड़ सकती है, जो इस दुनिया को बेहतर बनाने के लिए संघर्ष की प्रेरणा दे।

मो.: 09871479790