सावन का अंधा / कुबेर

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चाहे कुछ भी हो, कितना भी जरूरी काम निकल आए, प्रत्येक रविवार को वसु अपने दोस्तों से मिलने जरूर जाता है। उन मित्रों से, जिनका हृदय इतना विशाल और इतना उदार होता है कि सारी दुनिया उसमें समा जाय और जो फिर भी न भरे; दुनिया के पवित्रतम वस्तुओं से भी पवित्र, जिनसे मिलता है सच्चा प्यार और निःश्छल व्यवहार। ऐसे मित्रों से मिलने भला किसका मन आतुर न होता होगा?

आदत अनुसार उन्होंने अपनी बाइक उस दुकान के पास रोक दी जहाँ से वह हमेशा अपने मित्रों के लिए उपहार खरीदा करता है। दुकानदार मानो वसु की ही प्रतीक्षा कर रहा हो, दूर से ही उन्होंने वसु का जोशीला अभिवादन किया। मुस्कुराते हुए कहा “अहा! वसु जी आइये-आइये; आपको देखते ही पता नहीं क्यों, मन में एक विशेष उत्साह का संचार हो जाता है। मैंने आपका सामान पहले ही निकाल कर रख दिया है। चेक कर लीजिये, फिर मैं पैक कर देता हूँ। वसु ने भी दुकानदार से उसी मुस्कुराहट और उसी गर्मजोशी से हाथ मिलाया। धन्यवाद ज्ञापित करते हुए उन्होंने सामानों की ओर देखा। हिसाब लगाया, प्रफुल्ल और प्रतीक को जो चॉकलेट पसंद है, वह है। श्वाति और शुभ्रा की भी पसंदीदा चॉकलेट रखा गया है। श्वाति और शुभ्रा का खयाल आते ही उन दोनों का चेहरा वसु की आँखों में उतर आया। पिछली बार विदा लेते समय उन दोनों ते बड़े भोले पन से मनुहार किया था - “वसु अंकल, अगले रविवार को क्या आप चॉकलेट के बदले हमारे लिये गुड़िया ला देंगे?”

ऐसे मनुहार पर तो दुनिया भी न्योछावर किया जा सकता है।

जब एक-एक पल की प्रतीक्षा पहाड़ के समान बोझिल और मन को तोड़ कर किसी दृढ विश्वासी व्यक्ति को भी निराशा के गर्त की ओर ढकेलने वाला होता है, पता नहीं प्रतीक्षा का एक सप्ताह उन बच्चियों ने कैसे बिताया होगा? सोच कर वसु का मन वेदना से भर गया। मन की वेदना को हृदय की स्वभावगत तरलता से नम करते हुए वसु ने कहा - “सेठ जी, दो बार्बी डॉल भी रख दीजिये।”

वसु ने सामानों को फिर चेक किया। बाकी बच्चों के लिए भी टॉफियों का एक डिब्बा रखा हुआ है।

और रोहित के लिये?

रोहित सबसे अलग, सबसे ज्यादा मासूम और सबसे ज्यादा प्यारा बच्चा है। न तो कभी वह खिलौनों के लिए जिद्द करता है, और न मिठाइयों के लिए। उसे तो बस बाइक की सवारी चाहिये। वसु अंकल के पीछे बाइक पर बैठ कर परिसर का चक्कर लगाना उसका प्रिय शगल है।

रोहित सबसे अलग है इसलिये उसका गिफ्ट भी सबसे अलग होना चाहिये।

और आकाश?

सबसे छोटा, सबसे प्यारा और सबका प्यारा आकाश। बाकी बच्चे तो केवल देखने में ही अक्षम हैं, पर आकाश?

आकाश चाहे देख न सकता हो, बोल न सकता हो, चल फिर भी न सकता हो, पर समझता तो सब कुछ है न? आँ.... करके और अपनी नन्हीं-नन्हीं ऊँगलियों को नचा-नचा कर अपनी बातें साफ-साफ कह तो सकता है न? वसु उसके इशारों को और उसके मन की एक-एक बात को अच्छी तरह से समझता है। वसु को संतोष हुआ, सामानों की इस छोटी सी ढेर में उसका भी पसंदीदा सामान है।

वसु ने अपनी जेब को टटोल कर देखा; वह लिफाफा भी सही सलामत मौजूद है, जिसमें उसने रोहित के लिये प्यारी सी एक कविता लिख कर रखा हुआ है। हाँ, रोहित के लिये, उसके जन्म दिन की बधाई की कविता, ब्रेल लिपि में।

वसु ने इत्मिनान की साँस ली।

सामानों को पैक करते हुए दुकानदार ने पूछा - “आज जल्दी जा रहे हैं आप?”

वसु - “हाँ, मैं चाहता हूँ कि आज वहाँ होने वाले फंक्शन से पहले ही मैं अपने मित्रों से मिल आऊँ।”

“फंक्शन?”

“हाँ, आपको पता नहीं , शुलभा जी का आज वहाँ सम्मान हो रहा है?”

“अच्छा, शहर क्लब का चेयर परसन, नगर सेठ की पत्नी, जिसे हाल ही में समाज सेवा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने के लिये राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है, वही शुलभा जी न?”

हाँ वही, अँधों में काना राजा। जिनके पति जिले भर के शराब ठेकों का मालिक है; और अनाथ, निःशक्त बच्चों की इस संस्था को, और इस तरह की अन्य संस्थाओं को भी, हमेशा लाखों रूपयों का दान दिया करता है। इसी से शायद कहावत बनी होगी; गऊ मार कर जूता दान।”

“क्यों क्या हुआ? शुलभा जी तो बराबर उन निशक्त बच्चों के बीच जाती रहती हैं। अखबारों में भी तो खूब छपता है।”

“सेवा करने के लिये नहीं भाई साहब, केवल फोटो खिंचवाने के लिये; जिन्हें अखबारों में छपवाकर वाहवाही लूटी जा सके, और जिसकी एवज में राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त किया जा सके। आप क्या समछते हैं, वह उन बच्चों से प्यार करती है?”

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जितनी अधीरता बच्चों से मिलने के लिये वसु के मन में रहता है, उससे कहीं ज्यादा अधीरता बच्चों के मन रहता है, वसु से मिलने के लिये। यद्यपि सारे बच्चे नेत्रहीन हैं, पर वसु की उपस्थिति को पता नहीं वे कैसे भांप जाते हैं? इस रहस्य को वसु अब तक नहीं समझ सका है। विचारों में इसी गुत्थी को सुलझााने का प्रयास करता हुआ वह असक्त विद्यालय की ओर जाने वाले मार्ग पर अपनी बाइक सरपट भगाए जा रहा है।

वसु सोच रहा था; यह दुनिया, जो इन बच्चों को और इन जैसे लोगों को असक्त, अपाहिज या विकलांग कहकर इनका तिरस्कार करती है, उपहास उड़ाती है, और दया की दृष्टि से देखती है, वह कितनी स्वस्थ है? क्या मिलता है इन बच्चों को इस दुनिया और इस समाज से, अपमान और घृणा के सिवाय? ईर्ष्या, द्वेष, छल-प्रपंच, और दूसरों को हीन समझने वाली दुनिया के पास जो कुछ भी होता है; चाहे ममता, करूणा और प्रेम ही क्यों न हो, सब कुछ दिखावे के लिये ही तो होता है। दुनिया अगर इनके प्रति सेवा-भाव, ममता करूणा और प्रेम दिखाती भी है तो केवल अपना स्वार्थ साधने के लिये ही तो। और आखिर शुलभा भी तो इसी समाज का अंग है; इसी दुनिया में रहती है और खुद को स्वस्थ-संपूर्णांग समझती हैं।

सोचते-सोचते वसु के मन में स्वार्थ और यश-लोलुपता के आवरण में छिपा शुलभा देवी का चित्र और चरित्र, दोनों उभर आया।

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लगभग छः महीने पहले की घटना है; अगस्त का महीना था, संस्था में पौधारोपण का कार्यक्रम रखा गया था। कार्यक्रम का चीफ गेस्ट नगर की सुप्रसिद्ध समाज सेविका और शहर क्लब की चेयर परसन शुलभा जी थी। सप्ताह भर पहले से ही कार्यक्रम का प्रचार-प्रसार किया जा रहा था। क्यों न हो, शुलभा जी के साथ नगर क्लब की तमाम पदाधिकारी, उनकी सहेलियाँ भी तो आ रहीं थी।

पौधारोपण का कार्यक्रम प्रातः दस बजे तय किया गया था। शुलभा जी की कृपा से एक दिन पहले ही रोपणी के पौधे आ चुके थे, और उन्हें रोपने के लिये संस्था परिसर में गड्ढे भी खोदे जा चुके थे। नहीं आई थी तों बस शुलभा जी और उसकी फौज।

बेहद प्रतीक्षा के बाद शुलभा जी का काफिला आया। प्राचार्य महोदय की सक्रियता देखते ही बनती थी। शुलभा जी की अहम कोें जरा भी स्पर्श करने का मतलब स्थानांतरण से लेकर निलंबन तक कुछ भी हो सकता था।

आते ही शुलभा जी ने प्राचार्य से दो टूक शब्दों में कह दिया था कि उनके पास समय नहीं है और किसी भी हालत में, दस मिनट में सारा काम निबट जाना चाहिये।

शुलभा जी की रूप-सज्जा, सुंदरता और रूतबा देखते ही बनता था। मंहगे परिधान और कीमती आभूषण से उनकी अमीरी सब पर भारी पड़ रहा था, पर साथ मे आई बाकी महिलाएँ भी किसी से कम नहीं थी। दुर्भाग्य यह था कि स्टाफ के कुछ सदस्यों के अलावा इस नजारे को देखने वाला वहाँ और कोई नहीं था। बच्चे यहाँ के देख नहीं सकते थे; वे देख सकते थे तो बस अपने मन की आँखों से, मन की सुंदरता को। महसूस कर सकते थे तो अपने हृदय की उदार भावनाओं से हृदय की उदार भावनाओं को और छू सकते थे तो बस अपनी आत्मा की पवित्रता से आत्मा की पवित्रता को।

शुलभा जी के पास ऐसा कुछ भी नहीं था।

तैयारियाँ चाक-चौबंद थी। रोपण हेतु खोदे गए प्रत्येक गड्ढे के पास रोपणी का पौधा लिये एक-एक छात्र तैयार खड़ा था। अतिथियों के नाम की पट्टिका युक्त ट्रीगार्ड भी गड्ढों तक पहुँचा दिये गए थे। रोपण के पश्चात् जल सिंचन हेतु हजारा लिए दूसरा व्यक्ति तैयार खड़ा था। हाथ धुलवाने के लिये मंहगे साबुन की टिकिया ट्रे में सजा कर फिर दूसरा व्यक्ति, तथा हाथ पोंछने के लिये भी स्वच्छ तौलिये का ट्रे लिये एक अन्य व्यक्ति तैयार खड़ा था।

शुलभा जी ने देखा, रोपण हेतु खोदे गए गड्ढों के आसपास रात में हुई बारिश के कारण कीचड़ हो गए हैं। कीचड़ देख कर उसकी नाक में सिलवटे पड़ गई। उचित जगह की तलाश करते हुए उनकी निगाहें कार्यालय के मेन गेट के पास की सूखी, पथरीली जमीन पर जाकर टिक गई। इससे अच्छी जगह उसे भला और कहाँ मिलती?

मुख्य अतिथि का इरादा भाँप कर प्राचार्य महोदय ने अपने कर्मचारियों को इशारा किया कि ऑफिस के गेट के पास पौधारोपण की तैयारी किया जाय। एक शिक्षक ने प्राचार्य के कान में कहा - “सर, वहाँ की जमीन तो पथरीली है और ऊपर रेत भी है।”

प्राचार्य ने उसे बुरी तरह झिड़क कर चुप करा दिया।

आसपास की रेत की रेत को इकत्रित करके शुलभा जी को पौधरोपण कराया गया। पानी भी सींचा गया। हाथ हटाते ही पौधा एक ओर लुड़क गया।

शुलभा जी के रेत सने गंदे हाथ धुलवाए गये।

इस बीच शुलभा जी का कैमरामैन हर एक क्षण को बड़ी तन्मयता के साथ अपने कैमरे में कैद कर रहा था।

अगला कार्यक्रम था बच्चों से मिलने का। शुलभा जी ने बच्चों की ओर देखा, और इसी के साथ इन विकलांग बच्चांे के प्रति उसके मन का छद्म प्यार उसके चेहरे पर उतर आया।

शुलभा जी ने सोचा होगा - ये दृष्टिहीन बच्चे उसके इस भाव को थोड़े ही देख सकेंगे; पर उसे क्या पता, बच्चे उसके चेहरे को पहले ही पढ़ चुके थे।

बच्चे बहुत ही शालीन और अनुशासित ढंग से कतार में खड़े थे। अपने व्हील चेयर पर आकाश भी इस कतार में शामिल था। बच्चे अनुशासन का पालन करते हुए खड़े जरूर थे पर उनके चेहरों की भाव शून्यता अपनी कहानी स्वयं कह रहे थे। बच्चों के चेहरो पर विŸाृष्णा के भाव स्पष्ट दियााई दे रहे थे।

शुलभा जी बड़े प्यार से बच्चों से मिल रही थी। किसी के साथ हाथ मिला रही थी, किसी के सिर पर हाथ फेर रही थी तो किसी को गले लगा रही थी। उसका कैमरा मैन इन क्षणों को बड़ी तन्मयता के साथ अपने आधुनिक डिजिटल कैमरे में कैद कर रहा था।

उनका यह सारा प्रेम कैमरे के आन रहते तक ही था। कैमरा बंद होते ही उनकी असलियत एक बार फिर उसके चेहरे पर तैरने लगी। अपने हाथों को वह ऐसे झटक रही थी मानो भूलवश उन्होंने किसी गंदी वस्तु को छू लिया हो। हाथ धुलाने वाला पास ही खड़ा था, उन्होंने पहल की; तभी शुलभा जी के सहायक ने उसके कानों में कुछ कहा। नाक-भौंह सिकोड़ते हुए शुलभा जी ने आकाश की ओर देखा, उसके चेहरे पर घृणा की अनेकों गहरी रेखाएँ उभर आई; पर काम जरूरी था, करना ही होगा।

आकाश को गोद में लेकर फोटो खिंचवाना निहायत जरूरी था।

चेहरे पर फिर ममता का मुखौटा लगाकर शुलभा जी ने आकाश को गोद में लेने का प्रयास किया। आकाश ने पूरे मनोयोग से, चिल्लाकर अपनी असहमति जताई।

फोटो खिंच जाने के बाद शुलभा जी के मन की घृणा और क्रोध एक साथ फूट पड़ा। आकाश को उसके व्हील चेयर पर लगभग फेंकते हुए वह हाथ धोने के लिये आगे बढ़ गई।

यह सब देख वसु का हृदय क्रोध से उबल पड़ा। मन में आया कि मन और हृदय, दोनों से ही विकलांग इस महिला को तुरंत परिसर से बाहर जाने का रास्ता दिखा देना चाहिये; पर उसके अधिकार में कुछ न था।

वसु इस संस्था का नियमित कर्मचारी नहीं है, परंतु इन बच्चों से लगाव होने के कारण उन्होंने ब्रेल लिपि सीखी, संकेत की भाषा सीखी। वह इन बच्चों की निःस्वार्थ सेवा करना चाहता है। संस्था के प्राचार्य ने वसु के इस मानवीय कर्तव्य के निर्वहन को सराहते हुए बच्चों से मिलने की उसे अनुमति दे रखी है। शुलभा जी से तकरार मोल लेकर वह अपने लिए इस परिसर का गेट हमेशा के लिए बंद नहीं करवाना चाहता था।

वसु ने शुलभा जी की तरह न तो कभी फोटो खिंचवाया और न ही प्राचार्य से किसी प्रकार का प्रशस्ति पत्र ही मांगा। उसे तो बस इन बच्चों से मिलना और उनके साथ खुशियाँ बाटना ही अच्छा लगता है।

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आज फिर वही सब कुछ होने वाला था। वह इस फंक्शन में किसी भी हालत में आना नहीं चाहता था। बच्चों की जिद्द और रोहित का जन्म दिन नहीं होता तो वह कदापि न आता। पर इसके लिए भी उसने रास्ता खोज लिया था; फंक्शन के पहले ही वह इन बच्चों से मिल कर लौट आयेगा।

वसु ने कई बार सोचा कि अचानक पहुँच कर हच्चों को सरपराइज किया जाय, पर अब तक वह सफल नहीं हो पाया है।

पहले उन्होंने सोचा था, बच्चे शायद आवाज से उन्हें पहचान जाते होंगे। पर नहीं, सरपराइज देने के लिये वह कई बार बिना कोई आवाज किये भी उनके बीच जाकर देख चुका है। पल भर देर से ही सही, वे पहचान जाते हैं। शायद बालों में लगाए गये तेल की गंध से पहचान जाते हों? उन्होंने बिना तेल के और तेल बदल कर भी इस शंका का निवारण कर लिया है। फिर उन्होंने सोचा, शायद बाइक की दूर से आती आवाज से वे पहचान लेते होंगे। हाथ कंगन को अरसी क्या? आज इसकी भी जाँच कर लिया जाय।

वसु ने बहुत पहले ही अपनी बाइक छोड़ दी। पैदल चल कर उसने संस्था में प्रवेश किया। फंक्शन की तैयारियों को अंतिम रूप दिया जा रहा था। रोहित सभा स्थल से दूर, हाथ में वाकिंग स्टिक लिये सबसे अलग, सबसे दूर खड़ा हुआ था, जैसे किसी की प्रतीक्षा कर रहा हो। दबे पाँव आकर वसु उससे कुछ दूरी पर खड़ा हो गया और उसके चेहरे पर उभर रहे भावों को पढ़ने का प्रयास करने लगा। क्षण भर बाद ही रोहित के चेहरे पर राहत और खुशी के मिलेजुले भाव तैरने लगे। उन्होंने पुकारा - “वसु अंकल?’

वसु अभी और परीक्षा लेना चाहता था, कुछ न बोला।

अब रोहित तेज कदमों से चलता हुआ आकर वसु से लिपट गया। कहा - “अंकल, आप बोलते क्यों नहीं, नराज हैं?”

“हैप्पी बर्थ डे टू यू माई फ्रैंड, हैप्पी बर्थ डे टू यू ।”

अब तो बाकी दोस्त भी रोहित के पास आ गये और मिलकर ’हैप्पी बर्थ डे टू यू माई फ्रैंड, हैप्पी बर्थ डे टू यू’; गीत गाने लगे।

वसु ने कहा - “माय डियर, नाराजगी नहीं, सरपराइज, अंडरस्टैण्ड?”

रोहित की खुशियों का ठिकाना न रहा।

वसु ने जन्म दिन की कविता रोहित के हाथ में रख दिया। पढ़कर रोहित पुनः वसु से लिपट गया। सभी मित्रों ने भी वह कविता पढ़ी -

“मित्र! तुम सबसे अच्छे हो

हाँ मित्र!

इस दुनिया की सबसे अच्छी वस्तु से भी,

और तुम सबसे सुंदर भी हो

इस दुनिया की तमाम सुंदर वस्तुओं से भी।

मित्र!

तुम्हारा मन, सबसे अधिक उजला है

चाँद-तारों से भी अधिक,

और तुम्हारा हृदय -

बहुत गहरा और बहुत विशाल है

समुद्र और आसमान से भी अधिक

क्योंकि -

ईश्वर ने अपने ही हाथों,

पवित्र मन से, और -

सृजन के पवित्रतम पलों में तुम्हें बनाया है।

मित्र!

दुनिया की हर कठिनाई को

तुम जीत सकते हो,

क्योंकि -

शिकायतों और शर्तों से भरी इस दुनिया को

बिना शिकायत तुमने अपनाया है,

दुनिया में तुमने केवल मित्र बनाया है।”

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बधाई पत्र पढ़कर बच्चे फिर चहक उठे।

बिदा होने का समय आ गया। पता नहीं कि रोहित को क्या सूझा। उसने पूछ लिया - “अंकल, सावन का अँधा क्या होता है?”

वसु के मन में आया, कह दे कि शुलभा जैसे लोग ही सावन के अँधे होते हैं; पर उसका मन राजी न हुआ। निष्कपट बच्चों के मन में दुर्भावना का बीज बोना उचित नहीं था। उन्होंने कहा - “बच्चों, गलत चीजों को देख कर भी जो नहीं देखता, वही सावन का अँधा होता है।”

वसु के विदा होते ही सावन के अँधों का काफिला पहुँच गया।