साहित्य और सिनेमा में मां की महिमा / जयप्रकाश चौकसे

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साहित्य और सिनेमा में मां की महिमा
प्रकाशन तिथि : 10 मई 2020


शहरों और कस्बों के किसी भी मोहल्ले से गुजरें तो अधिकांश मकानों के नाम में मां को शामिल किया गया है, जैसे- ‘मातृकृपा’। यह बात अलग है कि बेटा अपनी पत्नी के दबाव में उसी मां के साथ अन्याय करे। टीवी हास्य सीरियल ‘हप्पू की उलटन पलटन’ का नायक अपनी मां और पत्नी के पाटों के बीच सतत् पिसता रहता है। जब मनुष्य भयावह स्वप्न से जाता है तब उसके मुंह से निकलने वाला पहला शब्द मां होता है। जन्म के बाद अम्बिलिकल कार्ड काटकर संतान को मां से जुदा किया जाता है, परंतु रिश्ते में यह अम्बिलिकल कार्ड कभी नहीं कटती। धरती को मां कहा जाता है, केवल जर्मन लोग अपने देश को फादरलैंड कहते हैं, शेष सभी देशों में मदरलैंड कहा जाता है।

‘मदर इंडिया’ फिल्म में प्रस्तुत मां अपने लाडले पुत्र को गोली मार देती है, क्योंकि वह गांव की बेटी को उसके विवाह के समय लेकर भाग रहा था। ‘मदर इंडिया’ से श्रीदेवी अभिनीत ‘मॉम’ तक मां के चरित्र चित्रण में परिवर्तन हुए हैं। ‘मॉम’ की केंद्रीय पात्र अपनी सौतेली बेटी के साथ दुष्कर्म करने वाले चारों व्यक्तियों की हत्या कर देती है। ‘करण अर्जुन’ में मां अपने पुत्रों को हथियार की तरह इस्तेमाल करके अपने पति के हत्यारों को नष्ट करवा देती है। भारतीय माइथोलॉजी में अनेक देवता प्रस्तुत हुए हैं, परंतु मां दुर्गा सबसे अधिक शक्तिशाली हैं।

जयंतीलाल गढ़ा की विद्या बालन अभिनीत ‘कहानी’ का क्लाइमेक्स दुर्गा पूजा के साथ गूंथा गया है। साहित्य में मैक्सिम गोर्की की ‘मदर’ और पर्ल. एस. बक की ‘द अर्थ’ सर्वकालीन महान रचनाएं हैं। निदा फाजली की रचना इस तरह है- बेसन की सोंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी मां, याद आती है चौका-बासन, चिमटा फूंकनी जैसी मां, बीवी, बेटी, बहन, पड़ोसन थोड़ी-थोड़ी सी सब में, दिनभर इक रस्सी के ऊपर चलती नटनी जैसी मां, बांट के अपना चेहरा, माथा, आंखें जाने कहां गईं फटे पुराने इक एलबम में चंचल लड़की जैसी मां....।

मंगलेश डबराल कहते हैं ‘मैं अक्सर जमाने से चली आ रही पुरानी नक्काशीदार कुर्सी पर बैठा, जिस पर बैठकर तस्वीरें खिंचवाई जाती हैं, मां के चेहरे पर मुझे दिखाई देती है एक जंगल की तस्वीर, लकड़ी घास और पानी की तस्वीर। राज कपूर, दिलीप कुमार, देव आनंद की फिल्मों में दुर्गा खोटे, लीला चिटनिस, अचला सचदेव ने मां की भूमिकाएं अभिनीत की हैं। ज्ञातव्य है कि अचला सचदेव कम उम्र से ही मां की भूमिकाएं करने लगी। उन्होंने जिन अभिनेताओं की मां की भूमिका की उनसे मात्र दो या चार वर्ष ही बड़ी थीं। आभास होता है मानो वे मां की भूमिका अभिनीत करने के लिए ही जन्मी थीं। धर्मेंद्र, मनोज कुमार और राजेंद्र कुमार के दौर में कामिनी कौशल ने मां की भूमिका की। ज्ञातव्य है कि वे दिलीप कुमार के साथ प्रेम भूमिकाएं अभिनीत कर चुकी थीं। सलमान, आमिर और शाहरुख के दौर में रीमा लागू ने मां की भूमिका अभिनीत की। वर्तमान दौर की फिल्मों में मां की भूमिका कम गढ़ी जाती हैं। फिल्मों में दिवाली, होली, ईद के त्योहारों की तरह मां की भूमिकाएं भी कम रची जा रही हैं।

जिन कलाकारों ने नायिकाओं की भूमिका अभिनीत कीं, उम्रदराज होने पर उन्हें मां की भूमिकाएं अभिनीत करते हुए अपना गुजरा जमाना याद आना स्वाभाविक है। सनी देओल और निरूपा रॉय ने फिल्म ‘बेताब’ में मां और बेटे की भूमिकाएं अभिनीत की थीं। एक दृश्य में मां अपने बेटे को सीने से लगाती है। निरूपा रॉय इस दृश्य को अभिनीत करते समय गुजरे जमाने की याद में खो गईं और डायरेक्टर के कट बोलने के बाद भी नायक पुत्र को सीने से कसकर लगाए रहीं। इसी तरह कामिनी कौशल को मनोज कुमार की मां की भूमिका अभिनीत करते समय दिलीप कुमार की याद आती थी, क्योंकि मनोज कुमार स्वयं दिलीप कुमार की शैली में अभिनय करते थे। वहीदा रहमान ने भी मां की भूमिकाएं अभिनीत की हैं। ‘त्रिशूल’ में वे अमिताभ बच्चन की मां बनीं। जिनके साथ ‘रेशमा और शेरा’ कर चुकी थीं। यशराज की ‘लम्हे’ में वे अनिल कपूर की दाइजा की भूमिका अभिनीत करते हुए एक दृश्य में गीत गाती हैं- ‘तोड़कर बंधन बांधी पायल, आज फिर जीने की तमन्ना है, आज फिर मरने का इरादा है, तो दर्शक अत्यंत प्रसन्न होते हैं। उन्हें ‘गाइड’ की रोजी की याद आती है। महबूब खान की ‘आन’ में नादिरा, दिलीप कुमार की नायिका बनीं और कुछ वर्ष पश्चात राज कपूर की ‘420’ में माया नामक खलनायिका का पात्र अभिनीत करती हैं जो नायक को विधा से दूर ले जाती है। कुछ समय बाद ही बाबूराम इशारा की ‘चेतना’ में वे युवा कॉल गर्ल की मैडम बनी हैं। वे युवा कॉल गर्ल को कहती हैं कि ‘तुम मुझमें अपना आने वाला कल देख सकती हो और मैं तुममें अपना बीता हुआ कल देख रही हूं। समय चक्र में मां की भूमिका अभिनीत करने वाली कलाकार अपनी गोद में अपनी बेटी के होने के एहसास को महसूस कर सकती है।