साहित्य का सामर्थ्य / स्मृति शुक्ला

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साहित्य की महत्ता या सामर्थ्य पर विचार करने के पूर्व साहित्य शब्द पर विचार करना आवश्यक है। संस्कृत में साहित्य शब्द का व्युत्पत्ति विग्रह 'सहितस्यभावः साहित्यम्' किया गया है। इस विग्रह के अनुसार साहित्य उसे कहते हैं जिसमें अनेक वस्तुएँ समाहित हों। साहित्य में साहित्यकार के भाव और विचार समाहित होते हैं। 'श्राद्ध विवेक' के रचयिता रुद्रधर ने लिखा है-'परस्पर सापेक्षणातुल्यरूपाणां युगपदेक क्रियान्वियित्वं साहित्यम्' अर्थात परस्पर सापेक्षित तुल्य कोटि की वस्तुओं के संग्रह को साहित्य कहते हैं। इस परिभाषा के आधार पर हम साहित्य किसी भाषा विशेष के विविध प्रकार के विविध विषयों पर लिखे गये ग्रन्थ समूह को कहते हैं। वक्रोक्ति सम्प्रदाय के आचार्य कुंतक ने साहित्य के विषय के विषय में कहा है-

" साहित्यमनयो शोभाषालिताम् प्रति काव्य सौ

अन्यूनानानतिरिक्तत्वम् मनोहारिण्यवस्थितिः1

अर्थात साहित्य वह है जिसमें शब्द और अर्थ की परस्पर स्पर्धामय मनोहारिणी श्लालाघनीय स्थिति हो।

इस परिभाषा में साहित्य की स्वरूपगत व्याख्या प्रस्तुत की गई है। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने बंगला में 'साहित्य' शीर्षक से एक निबंध लिखा जिसमें वे साहित्य को बहुत सुन्दर रूप में व्याख्यातित किया है। उन्होंने लिखा है-" सहित शब्द से साहित्य की उत्पत्ति हुई है, अतएव धातुगत् अर्थ करने पर साहित्य शब्द में मिलन का भाव दृष्टिगोचर होता है। यह भाव के साथ भाव का, भाषा से भाषा का मिलना तो है ही, मनुष्य के साथ मनुष्य का अतीत के साथ वर्तमान का, दूर से निकट का मिलन कैसा होता है यह बताने वाला भी है। साहित्य का मूल कार्य समन्वय करना है।

हिन्दी साहित्य के आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 'ज्ञान राशि के संचिते कोश को साहित्य कहा है।' मुंशी प्रेमचंद ने 'साहित्य को जीवन की आलोचना कहा है।' बाबू गुलाब राय ने साहित्य की मूल भावना मंगल भावना को माना है। उन्होंने साहित्य शब्द का विग्रह "हितेन सह सहितम्, तस्य भाव'साहित्यम्" किया है। यदि हम इन सभी परिभाषाओं का एक सारभूत निष्कर्ष निकाले तो हम कह सकते हैं कि " साहित्य जीवन और जगत के गतिशील सौन्दर्य के साथ नूतन आनंद और जगत-कल्याण का विधान करता है। इस साहित्य की आवश्यकता मनुष्य को आदिकाल से आज तक रही है। आचार्य भरतमुनि ने अपने ग्रंथ' नाट्य शास्त्र' में साहित्य की प्रमुख विधा नाटक की मूल प्रवृत्तियों को स्पष्ट करते हुए लिखा है-

धर्मो धर्म प्रवृत्तानां कामः कामोप से विनाम्।

निग्रहो दुर्विनीतानां विनीतानां दमक्रिया॥

क्लीवानां धाष्टर्य जननमुत्साह शूरमनिनाम्।

अबुधानां विबोधश्च वैदुष्यं विदुषामपि॥

दुखर्तानां श्रमर्तानां शोकर्तानां, शोकार्तानां पपस्विनाम्।

विश्रानितजननं काले नाट्यमेतदभविष्यति॥

धम्र्य यशस्यमायुष्यं हितं बुद्धिविवद्र्वनम्।

वेदं विधेति हासानामाख्यानपरि कल्पनम्॥2

भारतमुनि की इन पंक्तियों का निहितार्थ साहित्य के सामर्थ्य को प्रकट करता है। भाव यह है कि साहित्य या काव्य केवल मनोरंजन ही नहीं करता वरन वह मनुष्य को धार्मिक, नैतिक और साहसिक प्रेरणा देता है। वह कायरों को साहस प्रदान करता है, वीरजनों को उत्साहित करता है, शोक ग्रस्त मनुष्य को सांत्वना देता है, उद्विग्नचित वालों को विश्रांति देता है। मनुष्य को धर्म, यश, प्रदान करता है बुद्धि को बढ़ाने वाला है।

मानव मात्र का हित साधन ही साहित्य का लक्ष्य है, जो आनंद द्वारा किया जाता है और लोक जीवन से अनुप्राणित होता है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने 'कीरति भनिति भूति भलि सोई. सुरसरि सम सबकर हित होई॥' कहकर साहित्य की महत्ता को स्पष्ट कर दिया है। सद्साहित्य की सामर्थ्य और उसका प्रभाव बहुत व्यापक होता है। आदिकवि वाल्मीकि, कालिदास, सूरदास, तुलसीदास, निराला और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी, रामधारी सिंह दिनकर आदि के साहित्य ने हमें भारतीय संस्कृति पर गौरव करना और अपनी जातीय अस्मिता के बोध से परिचित करना सिखाया। पथ प्रदर्शक के साथ साहित्य समाज का नियामक और उन्नायक बनता है। साहित्य की शक्ति के सैकड़ों उदाहरण हमारे इतिहास में भरे पड़े हैं। महाकवि केशवदास ने केवल एक छंद रचकर बीरबल को दिया था जिससे सम्राट अकबर प्रसन्न हो गये थे और उन्होंने ओरछा के राजा इन्द्रजीत का जुर्माना माफ कर दिया था। केशव की शिष्या राय प्रवीण ने केवल एक दोहा सुनाकर सम्राट अकबर को उचित अनुचित का भेद समझा दिया था और राय प्रवीण को ससम्मान विदा किया था। बिहारी के केवल एक दोहे ने महाराजा जयसिंह को मोह निद्रा से जगाकर कर्Ÿाव्य पथ पर अग्रसर किया था। 'नहीं पराग नहीं मधुर मधु नहीं विकास इहि काल, अली कली ही सौं बंध्यौ, आगे कौन हवाल।' इस दोहे में वह सामर्थ्य थी जिसने महाराजा जयसिंह को उनके मूल कर्तव्य अर्थात् राजधर्म का बोध कराया।

महाकवि भूषण की कविताओं में राष्ट्रीय चेतना जगाने का अद्भुत सामर्थ्य, थी। हमारे देश की स्वतंत्रता प्राप्ति में साहित्य की अहम् भूमिका थी। वेदों पुराणों में वर्णित दर्शन, श्रुति-स्मृतियों का ज्ञान, पौराणिक कथाएँ और नीति की गूढ़ बातें जब साहित्य की विधा कविता में सरस और सुन्दर रूप में ढलकर आती हैं, तब वे जनसामान्य के लिये अधिक ग्राह्य हो जाती हैं। सद्साहित्य से मनुष्य के चरित्र का विकास होता है। निःसंदेह सद्साहित्य अपने आप में एक मूल्य भी है और मनुष्य के बौद्विक, भावनात्मक और सांस्कृतिक विकास का मानदण्ड भी है। साहित्य को अपनी सार्थकता सिद्ध करने के लिये किसी की आवश्यकता नहीं है। मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने का आत्मीय रिश्ता साहित्य से ही विकसित होता है। प्रत्येक युग में साहित्यकार साहित्य की व्याख्या करते हुए इसी निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि मूलतः साहित्य में वर्णित मूल्य और उसका मूल धर्म मानव की भौतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक और चिरंतन प्रवृत्तियों से जुड़े हुए हैं और यही कारण है कि प्रत्येक युग में सच्चे और समाजद्रष्टा साहित्यकार को तत्कालीन समय के समस्त द्वंद्वों को, अन्तर्विरोधों को, विसंगतियों को समझना होता है, इनके कारणों की तह में जाना होता है, चुनौतियों का सामना करना होता है और अपने साहित्य के माध्यम से इन सारी समस्याओं के हल प्रस्तुत करने होते हैं।

वर्तमान समय में साहित्यकार को अधिक सजग और चेतस रहने की आवश्यकता है। आज के समय में विज्ञान और टेक्नोलॉजी के बढ़ते प्रभाव से मनुष्य की संवेदनशीलता कम हुई है। अज्ञेय ने एक परिसंवाद में कहा था कि "जीवन की प्रक्रिया का यह बढ़ता हुआ ज्ञान, जीवन-यन्त्र की यान्त्रिक गति का यह बढ़ता हुआ परिचय अपने आप में एक समस्या है। जितना ही अधिक हमारा जीवन सतह पर आता जाता है, उतनी ही सतह बढ़ती जाती है, अर्थात् उसके अनुपात में आभ्यंतर जीवन उतना ही छोटा होता जाता है। जीवन-स्फटिक में रचना ही रचना है गति ही गति है-तत्व कुछ है या नहीं, हम नहीं जानते। (सबद निरंतर-रमेशचन्द्र शाह, वाग्देवी प्रकाशन, बीमानेर, पृ.138) सद्साहित्य की सामर्थ्य के रूप में गोस्वामी तुलसीदास की 'रामचरित मानस' का उदाहरण हमारे सामने है। इस ग्रंथ ने मध्यकाल के निराशा भरे वातावरण में आशा का आलोक प्रसारित किया था आज भी यह ग्रंथ पूरे विश्व साहित्य में श्रेष्ठ ग्रंथ ठहरता है। तुलसी लोकनायक थे क्योंकि उन्होंने समाज के प्रत्येक स्तर पर समानता स्थापित करने का प्रयास किया। 'रामचरित मानस' में समन्वय की विराट चेष्टा है। तुलसी द्वारा स्थापित लोकधर्म आज भी हिन्दुओं का सर्वमान्य लोकधर्म है। तुलसी के राम, शक्ति, शील और सौन्दर्य की समन्वित प्रतिमूर्ति हैं। उनका दृष्टिकोण मानवता वादी है। उनके साहित्य में सत्यं-शिवं-सुन्दरम् का समन्वित रूप साकार हो उठा है। धर्म की जितनी सुंदर और व्यापक अर्थ वाली परिभाषा तुलसी की है वैसी किसी अन्य कवि की नहीं है-'परहित सरिस धर्म नहीं भाई. परपीड़ा सम नहिं अधमाई. कहकर तुलसी ने धर्म को परोपकार से जोड़कर उसे व्यापक अर्थ प्रदान किया। तुलसी का धर्म लोक धर्म है, विश्वधर्म है। वह परिवार, विशिष्ट समाज या राष्ट्र तक सीमित न होकर अनंत रूप से समस्त जगत को अपना लक्ष्य और क्षेत्र बनाये हुए हैं। तुलसी ने सनातन धर्म को अर्थात पूर्णधर्म को' रामचरित मानस'के माध्यम से प्रतिष्ठित किया। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने निबंध-' काव्य में लोकमंगल की साधनावस्था' (चिंतामणि भाग-एक, पृ.98) में कहा है कि" धर्म वह वृत्ति या व्यवस्था है जो कि संसार में मंगल की सृष्टि करती है। इसी धर्म स्थापना में भगवान की पूर्ण कला के दर्शन होते हैंं। अधर्म का नाश करने के लिये धर्म की प्रत्येक वृत्ति कोमल-कठोर सुन्दर, असुन्दर, उग्र, मधुर, स्वीकार की जायेगी। इस वृत्ति की विजय धर्म की विजय कहलाती है। प्रत्येक दशा में यह गति सुन्दर है। यह इसका शाश्वत गुण है। वाल्मीकि तथा व्यास ने धर्म की गति का सौन्दर्य दिखाकर धर्म की जय में ही अंत किया है। "वस्तुतः साहित्य की इससे बढ़कर कोई दूसरी भूमिका हो ही नहीं सकती। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने साहित्य की सार्थकता तभी मानी है जब वह मानव-समाज का हित-साधन कर सके. समूचे जन-समूह में भाषा और भाव की एकता और सौहार्द्र को आवश्यक मानते हैं। साहित्य के माध्यम से समाज को संगठित करने, नागरिकों को सद्आचरण करने की प्रेरणा देने का कार्य हमारे देश में बहुत प्राचीन काल से हो रहा है। हजारी प्रसाद द्विवेदी मानते हैं कि यह कोई नयी बात नहीं है। हमारे देश की साहित्यिक परंपरा अत्यंत दीर्घ, धारावाहिक और गंभीर है। साहित्य के अन्तर्गत मनुष्य जो सोच सकता है, उस सबका प्रयोग इस देश में सफलतापूर्वक हो चुका है। द्विवेदी जी साहित्य के केन्द्र में मनुष्य को रखा है। वे लिखते हैं कि" मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ। जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता और परमुखापेक्षिता से बचा न सके, जो उसकी आत्मा को तेजोद्दीप्त न बना सके, जो उसके हृदय को परदुखकातर और संवेदनशील न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है। मैं अनुभव करता हूँ कि हम लोग एक कठिन समय के भीतर से गुजर रहे हैं आज नाना भाँति के संकीर्ण स्वार्थों ने मनुष्य को अन्धा बना दिया है कि जाति-धर्म-निर्विशेष मनुष्य के हित की बात सोचना असंभव-सा हो गया है। ऐसा लग रहा है कि किसी विकट दुर्भाग्य के इंगित पर दलगत स्वार्थ के प्रेत ने मनुष्यता को दबोच लिया है। " 5

निष्कर्षतः सच्च साहित्य मनुष्य के हृदय को जाग्रत करता है, उसमें चेतना का स्फुरण करता है। अपनी संस्कृति के प्रतिदृढ़ आस्था का भाव जगाता है। मनुष्य की सामाजिक उन्नति में साहित्य सहायक है। मनुष्य का आध्यात्मिक उन्नयन भी सद्साहित्य के बिना संभव नहीं। सामाजिक समरसता स्थापित करने में साहित्य की भूमिका निर्विवाद है। मध्यकाल में मुगलसत्ता के आता तायी आतंक और हिन्दू जनता के प्रति दमनकारी रुख तथा शोषण से ग्रस्त जनता को, संपूर्ण भारत देश को संत कवियों के दोहों, साखियों और पदों ने तथा गोस्वामी तुलसीदास की 'रामचरित मानस' ने ही जीवनी शक्ति प्रदान की थी। जनता को आत्मबोध प्रदान किया था तथा अन्याय का प्रतिकार करना सिखाया था। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है शीर्षक निबंध ने साहित्य के सम्बंध में जो बात कही है वह आज भी प्रासंगिक है-"आज जब हम नये सिरे से इस पुराने देश को गढ़ने का प्रयत्न करने जा रहे हैं तो दीर्घकाल की साधना के फल इस विशाल ज्ञान भंडार की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए. जो साहित्य सर्जन में लगे हैं उन्हें आलस्य और विचिकित्सा का भाव त्यागकर इस नये और पुराने ज्ञान भंडार को (संस्कृत साहित्य) अपनी भाषा में ले आने का महान कार्य जल्दी आरंभ कर देना चाहिए. यदि हम ऐसा नहीं करते तो देश की अग्रगति में सहायता नहीं पहँुचाते और अपने प्रति देशवासियों की उपेक्षा और अवज्ञा के भाव को दृढ़ बना दंेगे। आज साहित्य सेवियों के सामने एक बड़ी चुनौती है कि वे इस प्रकार का साहित्य रचें जो मनुष्य को संवेदनशील बना सके, उसे स्व से पर की उदात्त भावभूमि पर ले जा सके उसे सदाचारी बना सके." 6

साहित्य अत्यंत सामर्थ्यशाली है। सत्साहित्य समाज निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है यह बात निर्विवाद है। इतिहास में ऐसे अनेक प्रसंग और घटनाएँ दर्ज है जिनसे यह सिद्ध होता है कि साहित्य की शक्ति अस्त्र-शास्त्र से अधिक है। भारतीय साहित्य की महत्ता पर हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने निबंध 'पुरानी पोथियों' में लिखा है कि-' पुरानी पोथियों ने भारतीय मनीषा की उज्ज्वलता संसार के सामने निर्विवाद रूप से प्रकट कर दी है। भारतीय साहित्य संसार का उत्तम और अत्यंत प्रेरणादायक साहित्य स्वीकार किया जा चुका है। इस साहित्य ने पिछले जमानों में लगभग सारे ज्ञात संसार को नानाभाव से प्रभावित किया है और आज भी सभी सभ्य देशों में कुछ न कुछ विद्वान् ऐसे हैं, जो इस साहित्य के पठन-पाठन से मनुष्यता के कल्याण का स्वप्न देखते हैं। द्विवेदी जी के इस कथन में साहित्य का असीमित सामर्थ्य छिपा हुआ है। आज के भौतिकतावादी युग में जहाँ मनुष्य अपने भौतिक जीवन में तो सफल दिखाई दे रहा है विकास की अनंत संभावनाएँ उसके सामने खुली पड़ी हैं लेकिन उसकी संवेदनाओं का, कोमल भावनाओं का क्षरण हो रहा है, वह आत्मकेन्द्रित होता जा रहा है। मनुष्य अपने स्वार्थ, अपने महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति के लिये दूसरों को हानि पहुँचाने में हिचक नहीं रहा है। आज जब संपूर्ण मानवता पर परमाणु युद्ध का खतरा मंडरा रहा है ऐसे समय साहित्य ही है जो अपनी अमोध शक्ति से हमारी संकुचित वृत्तियों का नाश कर हमारी संवेदनाओं का विस्तार कर सकता है। अंत में जयशंकरप्रसाद की महान कृति कामायनी की दो पंक्तियों से अपनी बात समाप्त करूँगी-

" समरस थे जड़ या चेतन, सुंदर साकार बना था।

चेतनता एक बिलसती, आनंद अखंड घना था। "

संदर्भ;-

1.शास्त्रीय समीक्षा के सिद्धांत भाग दो-त्रिभुवन सिंह, लोकभारती प्रकाशन इलाहाबाद, पृ.7

2.वही पृ.9

3.सबद निरंतर-रमेशचन्द्र शाह, वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर, पृ। 138

4.चिंतामणि भाग एक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, तक्षशिला प्रकाशन नई दिल्ली, पृ। 98

5.आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी संचयन-संपादक