साहित्य में नारी का योगदान / उमा अर्पिता

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नारी के योगदान का मूल्यांकन साहित्य में करना हो अथवा किसी अन्य क्षेत्र में, वह संभवतः किसी क्षेत्र में आज पीछे नहीं है। आज सभी क्षेत्रों में नारी ने पुरुष से साझेदारी निभाई है। महिलाओं में बढ़ती चेतना और जागरूकता ने उनकी पारंपरिक छवि को तोड़ा है।

साहित्य में भी महिलाओं की भागीदारी जिस तेजी से हो रही है, उसे देखते हुए नारी अभिव्यक्ति की सामर्थ्य पर हैरान होने जैसी कोई बात नहीं रहेगी। लेखन को नारी और पुरुष लेखन में बाँटने से बेहतर था कि नारी लेखन उस लेखन को कहा जाता, जिसकी नायिका के इर्द-गिर्द पूरी रचना घूमती रहती, चाहे उसे किसी ने भी लिखा होता, नारी ने या पुरुष ने।

आजादी की लड़ाई के समय जो स्वर साहित्य में उभरा, उसमें देशकालिक परिस्थितियाँ और देश-प्रेम की अभिव्यक्ति स्पष्ट लक्षित होती थी। सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, सरोजिनी नायडू, उषादेवी मित्रा आदि कई लेखिकाओं ने अपने समय को अभिव्यक्ति दी। और उनके सशक्त लेखन का योगदान हिन्दी साहित्य को प्राप्त हुआ।

स्वतंत्रता के बाद नारी-लेखन में मुक्ति के स्वर उभरे। वह नारी जिसे पुरुषों ने या तो सती सावित्री का जामा पहना रखा था या फिर वह जो उसके स्वप्नलोक में रची-बसी एक खूबसूरत देह थी, एक ऐसी बेजान देह, जिसके भीतर कोई भावना नहीं होती। जिसे पुरुष प्रधान समाज में पुरुष के इशारों पर नचाया जा सकता है। उस नारी ने अपनी पारंपरिक छवि को तोड़ा। पुरुष के लिए यह चौंकाने वाला विषय था कि नारी अभिव्यक्ति मुखर हो सकती है और वह भी स्वयं नारी के संदर्भ में।

नारी भावनाओं की यही अभिव्यक्ति थी, जो सदियों से भीतर ही भीतर छटपटा रही थी और आज नारी-लेखन में ही अभिव्यक्त हुई। नारी ने ही नारी की पीड़ा को शब्द दिये, उसके जीवन की व्यथा कथा को लिखा। मन्नू भंडारी, उषा प्रियंवदा, चंद्रकिरण सौनरिक्सा, शशिप्रभा शास्त्री का लेखन नारी अस्मिता की तलाश है।

धीरे-धीरे सामाजिक, पारंपरिक मूल्यों के बीच पिसते नारी अस्तित्व ने नए मूल्य तलाशने आरंभ कर दिए। दाम्पत्य जीवन के बदलते संबंध-संदर्भ, पारिवारिक मूल्यों व मान्यताओं में बदलाव, वैयक्तिक चेतना, परिवेश के प्रति सजगता तथा अपने पर हो रहे अन्याय का प्रतिरोध, विवाहेत्तर संबंधों का स्वीकार, नीति-अनीति, और फिर समय बीतने के साथ-साथ पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर हर क्षेत्र में कार्यरत महिला की भूमिका, घर और बाहर के दोहरे बोझ से उत्पन्न द्वंद्व-दुविधा और संघर्ष, इन सब तत्वों ने समकालीन स्त्री कथा-साहित्य के नए यथार्थ को देखा, समझा और उसे अपने लेखन में ज्यों का त्यों उतारा। दीप्ति खंडेलवाल, मेहरुन्निसा परवेज, सूर्यबाला, कृष्णा सोबती, शिवानी, निरुपमा सेवती के लेखन ने नए नारी मूल्यों को गढ़ा, उसे एक पहचान दी।

भारतीय समाज, नारी के परिवर्तन के प्रयासों को, संस्कृति का अवमूल्यन मानकर, बराबर खारिज करता आया है और आज भी कर रहा है। समाज में ही नहीं, साहित्य में भी यही संस्कार काम कर रहा है। साहित्यिक कृति में, स्थापित मूल्यों के विखंडन को अभारतीय या पश्चिमी भाव-बोध से संचलित बताकर, खारिज किया जाता रहा है।

नारी लेखन में किसी प्रकार से पुरुष से प्रतिद्वंद्वता नहीं थी। उसमें पुरुष को नकारना अथवा उसका विरोध करना न होकर स्वयं की अस्मिता की तलाश था। औरत ने अपने औरत होने के पारंपरिक अर्थ को बदला है। शिक्षा और कानून के प्रति जागरूकता ने उसे आत्मनिर्भरता दी है। नारी ने उन दोनों प्रकार की स्त्रियों को अभिव्यक्ति दी, एक तो वे, जिन्होंने दैहिक पवित्रता का ढिंढोरा नहीं पीटा और हर स्तर पर पुराने मूल्यों को विघटित कर अपने अनुसार नए मूल्यों को गढ़ा। बिना किसी मानसिक संताप के पुरुषों की तरह बेबाक जीवन जिया। और दूसरी ओर वह नारी वर्ग था जिसने अपने मर्यादित दायरे में स्त्रीयोचित गुणों की नजाकत को बनाये रखा। परंपरागत स्त्री की पहली शर्त है, पराधीनता। स्त्री घर के भीतर हो या बाहर, कहीं भी पुरुष हिंसा, दमन, उत्पीड़न और शोषण से मुक्ति नहीं। आदर्श पत्नियों के रूप में जो स्त्रियाँ सुरक्षित और सम्माननीय दिखाई देती हैं, वे भी शायद तब तक ही हैं, जब तक चुपचाप पति या घर के अन्य मर्द का हर हुक्म सिर झुका कर मानती रहें और उनके अनैतिक, अवैध और व्यभिचारी व्यवहार का प्रतिरोध न करें। विद्रोह के एक छोटे-से स्वर की भी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है।

अब अगर यह भोगा हुआ संत्रास मुखर होता है, तो पुरुषों का यह आरोप कि महिलाएँ गिने-चुने विषयों पर ही लिख सकती हैं, कहाँ तक उचित है? क्योंकि क्या भोगे हुए अनुभवों पर लिखना ओढ़े हुए को लिखने से बेहतर नहीं है? क्या भोगा हुआ यथार्थ जीवन से प्रतिबद्ध साहित्य का विषय नहीं है? नारी-लेखन में हमेशा भौतिकी का अर्थ केवल बाहरी वस्तु-जगत ही नहीं, बल्कि उसके स्वयं का शरीर और प्रकृति भी है। अपनी जमीन से कटकर लिखना तो महज लिखने के लिए लिखना होगा, जो कभी किसी को प्रभावित नहीं कर पाएगा।

महिला-लेखन में सामाजिक प्रतिबद्धता तो झलकती है, लेकिन राजनैतिक विचारधारा का प्रभाव कम दिखता है। आलोचना के क्षेत्र में जरूर नारियों की पैठ कम है। अधिक या कम की बात न करें, तो ऐसा नहीं है कि लेखिकाओं ने राजनैतिक उपन्यास, कहानियाँ लिखी ही नहीं। ‘जिंदगीनामा’, ‘महाभोज’, ‘अनित्य’, ‘सात नदियाँ-एक समंदर’ आदि प्रत्यक्ष रूप से राजनैतिक, सामाजिक चिंतन से युक्त उपन्यास हैं। कहानियाँ तो ऐसी अनेक हैं, जो नारी को जबर्दस्ती ओढ़ाये गए मुखौटों को उतारकर वर्तमान समाज के मूल प्रश्नों से सामना करती हैं।

साहित्य में नारी-लेखन के सार्थक योगदान को कैसे नकारा जा सकता है। अपने सीमित दायरे के अनुभवों को व्यक्त करता नारी-लेखन आज और दो-चार दशक पहले की पारिवारिक स्थितियों में आए बदलाव को स्पष्ट करता है, जिससे तब और अब के परिवेश का चित्रण हमारे सामने एक चित्र प्रस्तुत करता है। आजादी के बाद भारतीय समाज में शिक्षा और आर्थिक स्वतंत्रता और नारीवादी आंदोलनों का ही प्रभाव रहा, जो शिक्षित और स्वावलंबी स्त्रियों के निर्णय लेने की शक्ति में लक्षित होता है। पुरुष प्रधान परिवार व समाज में भी स्त्रियों का प्रतिरोध करना उनके अपने मैं को पहचानने की कोशिश है।

भारतीय समाज नारी के अस्तित्व बोध की समस्या से अनभिज्ञ रहा। विषमता की इन त्रासदियों की ओर समाज का ध्यान आकृष्ट करना नारी की पहली अनिवार्यता थी। एक सच्चे साहित्यिक की पहचान भी यही है कि वह अपना कर्म बखूबी निभाये, चाहे उसका दायरा कितना भी सीमित क्यों न हो परंतु वह जो कुछ अनुभव करे उसका यथार्थ चित्रण करे और वह महज कल्पनाशील न होकर यथार्थ की धरती पर खड़ा हो और एक सही तस्वीर समाज के समक्ष प्रस्तुत करे। आज की महिला कथाकार अपने कर्म को बखूबी निभा रही है।

महिला लेखन चाहे मात्र कुछ प्रतिशत साक्षर महिलाओं तक ही पहुँच रहा है, परंतु फिर भी वह अपने गंतव्य की ओर बढ़ रहा है, निरंतर प्रवाह के साथ।