सिद्धांत का सवाल / प्रभुदयाल श्रीवास्तव

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"गली गली में शोर है कल्लू बब्बा चोर है|'

"लुच्चा गुंडा बेईमान कल्लूजी की है पहचान|"

जोरदार नारों की आवाज सुनकर मैं घर से बाहर निकल आया| मैंने देखा कि मेरा एक परिचित सा व्यक्ति जोर-जोर से नारेबाजी कर रहा था और कोई चालीस पचास लोगों का हज़ूम उसके पीछे चलता हुआ इन्हीं नारों को लयबद्ध होकर दुहरा रहा था|

मैंने दिमाग पर जोर डाला तो याद आया कि वह टंटू पंडा था| कभी मेरे साथ पढ़ता था आठवीं में| पढ़ने में बहुत कमजोर था| मैं नौवीं में चला गया वह फेल होकर आठवीं में ही रह गया| फिर मैं दसवीं में पहुँच गया वह आठवीं की ही शोभा बढ़ाता रहा| इसके बाद उसका पता नहीं लगा कि वह कहां गया| हां इतना जरूर स्मरण है कि वह स्कूल में भी नारे ही लगवाता था| पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी के जलूस में वह सबसे आगे रहता और नारे लगवाता| वह कहता "महात्मा गांधी की" और हम लोग कहते "जय" वह फिर चिल्लाता "स्वतंत्रता दिवस " हम लोग कहते" अमर रहे अमर रहे|" इत्यादि|

खैर चुनाव का मौसम है और ऐसी नारेबाजी होती ही रहती है ऐसा सोचकर मैने कोई ध्यान नहीं दिया और अपने काम में लग गया|

दूसरे दिन फिर कुछ लोग जलूस की शक्ल में नारेबाजी करते निकले|

"घर घर से आई आवाज़ कल्लू बब्बा जिंदाबाद"

"जब तक सूरज चांद रहेगा कल्लूजी का नाम रहेगा"

जलूस की अगुवाई आज भी टंटू पंडा ही कर रहा था| मुझे आश्चर्य हुआ| मैंने टंटू को बुलाकर पूछा, "कल तो आप कल्लूजी के विरॊध में नारे लगा रहे थे, आज उनके पक्ष में कैसे?

टंटूजी नाराज हो गये, कहने लगे, "इतना भी नहीं जानते मैं सिद्धांतों से समझोता नहीं करता| चाहे धरती फट जाये चाहे आसमान गिर पड़े मेरे सिद्धांत अटल हैं|"

"जरा खुलकर बतायें मैं समझा नहीं" मैने पूछा|

"जो रुपये ज्यादा दे उसके पक्ष में बोलना ही मेरा सिद्धांत है|"

"मगर कल और आज में क्या अंतर आया" मैँने पूछा|

"बब्बा ने अपने विरोधी से चार गुना ज्यादा पैसे दिये हैं आज| कल नंदू भैया ने पांच सौ रुपये दिये थे इससे बब्बा के विरोध में नारे लगा रहे थे| अब बब्बा ने दो हज़ार रुपये दिये हैं तो उनके पक्ष में नारेबाजी करेंगे कि नहीं? सिद्धांत का मामला बनता है कि नहीं? वह मॆरी आंखों में आंखें डलकर जैसे मुझसे इस प्रश्न का जबाब चाह रहा था| मैं चुप था, क्या जबाब देता सिद्धांतवादियों के सिद्धांत के सवाल का|