सिनेमाई इतिहास में देशप्रेम की फिल्में / जयप्रकाश चौकसे

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सिनेमाई इतिहास में देशप्रेम की फिल्में
प्रकाशन तिथि : 18 अगस्त 2014


हिन्दुस्तानी सिनेमा में सौ वर्ष के इतिहास के हर कालखंड में देशप्रेम की फिल्में बनीं जिन्हें मोटे तौर पर तीन श्रेणियों में बांट सकते हैं। प्रारंभिक मूक फिल्मों का दौर। तब ब्रिटिश सेंसर की सख्ती से बचने के लिए देशप्रेम की भावना धार्मिक आख्यानोंं आैर इतिहास आधारित काल्पनिक कथाओं के माध्यम से अभिव्यक्त की गई। मसलन 1918 में सम्पतलाल शाह की 'महात्मा विदुर' महाभारत की कथा प्रस्तुत करती है परंतु विदुर को गांधीजी की तरह प्रस्तुत किया गया तथा दर्शक जान गए कि यह महाभारत नहीं वरन् स्वतंत्रता संग्राम की आेर संकेत है। अगर स्वतंत्रता संग्राम को महाभारत की तरह देखें तो गांधी जी इसके कृष्ण रहे हैं। 'कीचक' भी महाभारत की कथा है आैर इस पर बनी मूक फिल्म में कीचक की भूमिका एक अंग्रेज से कराकर इस पौराणिक कथा को देशभक्ति की फिल्म का माध्यम बनाया गया। भालाजी पेंढ़ारकर जो कुछ समय तक तिलक की पत्रिका के सहायक संपादक रहे, ने 'वंदे मातरम आश्रम' नामक फिल्म गांधी के शिक्षा आदर्श पर बनाई थी आैर कमोबेश वही आदर्श हमने राजकुमार हीरानी की 'थ्री इडियट्स' में देखे। गांधी के आदर्श पूरे सिनेमा इतिहास में समय-समय पर उभरे हैं। जैसे वी. शांताराम की 'दो आंखें बारह हाथ' जिसका बाजारू संस्करण थी सुभाष घई की 'कर्मा'। यह भी याद आता है कि हिमांशु राय की 1933 में आई "कर्मा' पर भी गांधी का प्रभाव था। 1913 से 1947 तक बनी संत कवियों पर आधारित फिल्मों में भी देशप्रेम के संकेत रहे। सोहराब मोदी अन्य फिल्मकारों की इतिहास आधारित फिल्मों के माध्यम से भी देशभक्ति का संदेश दिया गया जैसे सिकंदर, अदले जहांगीर, शाहजहां आैर हरिकृष्ण 'प्रेमी' की 'चित्तौड़ विजय' भी यही बात कहती थी।

गौरतलब है कि गुलामी के उस दौर में सेंसर की आंख में धूल झोंककर फिल्मकारों ने देशप्रेम का फिल्मी अलख जगाया। तब नागरिकों का चरित्र अभूतपूर्व ऊंचाई पर था आैर साहित्य भी उसी आदर्श से आेतप्रोत रहा। वह सांस्कृतिक नव जागरण का अभूतपूर्व कालखंड रहा है। फिल्में अछूती कैसे रहतीं। फिल्म संसार देश के बाहर किसी अलहिदा टापू नहीं है। गुलामी के दौर आैर आजादी के दौर की सरहद पर प्रदर्शित दिलीप कुमार अभिनीत 'शहीद' के गीत 'वतन की राह में वतन के नौजवान शहीद हो' को मोहम्मद रफी ने भावना के इस तीव्रता से गाया कि सिनेमाघर में गूंजी तालियों की ध्वनियां सदैव के लिए वातावरण में शुमार हो गईं। पंजाब के स्कूल शिक्षक पंडित सीताराम शर्मा ने भगत सिंह पर शोध करके पटकथा लिखी जिस पर मनोज कुमार ने कालजयी 'शहीद' बनाई आैर देशप्रेम उनकी फिल्मों का स्थायी भाव हो गया। परंतु 'शहीद' के बाद की फिल्मों में नारेबाजी आैर छद्म देशप्रेम की छाया पड़ गई। ये देशप्रेम बॉक्स ऑफिस संस्करण की तरह उभरा।

चेतन आनंद की चीन युद्ध से प्रेरित 'हकीकत' दरअसल युद्ध फिल्म नहीं वरन् 'रीट्रीट फिल्म' है। कितने आश्चर्य की बात है कि सिनेमा में नेहरु काल खंड की पहली फिल्म चेतन आनंद की 'नीचा नगर' आैर आखिरी 'हकीकत' है गोयाकि नेहरू नीति के फिल्मी स्वप्नों का भंग होना भी चेतन आनंद की फिल्म के साथ हुआ। फिल्म स्वर्ण काल की अंतिम फिल्म है 'हकीकत'। यह भी गौरतलब है कि आजादी के बाद राष्ट्रीय चरित्र के पतन को हम उसके छद्म देशप्रेम की फिल्मों में देख सकते हैं। यह निष्कर्ष भी निकाल सकते है कि जीवन मूल्य आदर्श की लहर गांधी काल खंड में सतह पर गई आैर बाद के काल खंड में वह सतह के नीचे प्रवाहित हुई गोयाकि वह सदैव विद्यमान है, कभी नीचे आैर कभी-कभी ऊपर दिखाई पड़ती है। यह कोई कम तसल्ली की बात नहीं कि वह अस्तित्वहीन नहीं है। आमिर की 'लगान' आैर राकेश मेहरा की 'रंग दे बसंती' ने छद्म देशप्रेम की लफ्फाजी वाली फिल्मों से मुक्त करके दर्शकों को अलग श्रेणी का देशप्रेम चखाया जिसकी कड़ी में हम 'अ वेडनसडे', 'पानसिंह तोमर' आैर 'भाग मिल्खा भाग' को देख सकते हैं। देशभक्ति की भावना जगाती बायोपिक भी बनी हैं। जैसे केतन मेहता की 'सरदार', श्याम बेनेगल की "नेताजी सुभाष चंद्र बोस', इस श्रेणी की कालजयी सर रिचर्ड एटनबरो की 'गांधी' तथा बाबा अम्बेडकर पर बनी फिल्म महान रही। श्याम बेनेगल की 'मेकिंग ऑफ महात्मा', टीवी सीरीज 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' तथा ताजा "संविधान' भी महत्वपूर्ण हैं। इस लेख में सारी फिल्मों का ब्यौरा नहीं है वरन् एक श्रेणीकरण के माध्यम से असल फिल्मों आैर छद्म देश प्रेम की फिल्मों के साथ आधुनिक कला मानदंड पर रची फिल्मों का जिक्र है आैर राष्ट्रप्रेम की उस धारा का जिक्र है जो सतह पर आैर सतह केे नीचे प्रवाहित रहती है।