सिनेमा, क्रिकेट तमाशा और पलायनवाद / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
सिनेमा, क्रिकेट तमाशा और पलायनवाद
प्रकाशन तिथि : 02 अप्रैल 2013


अप्रैल-मई में क्रिकेट तमाशे के दरमियान प्रति सप्ताह हमेशा की तरह नई फिल्मों का प्रदर्शन जारी रहेगा। ज्ञातव्य है कि पहली बार 'तमाशे' के आयोजन के समय निर्माताओं को भय था कि दर्शक नहीं मिलेंगे, परंतु धीरे-धीरे यह भय कम हो गया है। इस वर्ष इस 'तमाशे' के मौसम में 'चश्मेबद्दूर', 'एक थी डायन', शूट आउट एट वडाला, 'बॉम्बे टाकीज' और 'औरंगजेब' के साथ ही हॉलीवुड की अनेक फिल्मों का भी प्रदर्शन होने जा रहा है। इस 'क्रिकेट तमाशे' के प्रारंभ से ही इस कॉलम में यह बात उठाई गई है कि बिजली का उत्पादन खपत से कम है और अनेक छोटे शहरों में कई घंटों तक बिजली उपलब्ध नहीं होती और इस राष्ट्रीय महत्व के तथ्य के बावजूद जाने कितने लाख मेगावॉट बिजली इस 'तमाशे' पर खर्च की जाती है। यह सच है कि 'तमाशे' के आयोजक बिजली का खर्च देते हैं, परंतु यह भी सच है कि जिन शहरों में पावर कट है, वहां की जनता भी बिजली बिल देने को तत्पर रहती है।

मुंबई के क्रिकेट मैदान को खेल के लिए तैयार रखने में लगभग तेईस लाख लीटर पानी की आवश्यकता होती है और महाराष्ट्र के कुछ क्षेत्रों में अकाल जैसी दशा बन गई है। अनेक गांवों में पीने के लिए पानी उपलब्ध नहीं है। लगभग सभी उन शहरों में जहां यह 'तमाशा' आयोजित हो रहा है, इतने ही पानी का अपव्यय होने जा रहा है। बिजली के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। इस विषय में बड़े पैमाने पर कोई जनआंदोलन नहीं है। कुछ विरोध करने वालों का कहना है कि इस क्रिकेट तमाशे के आयोजक सूखा क्षेत्रों के लिए कुछ दान दें, परंतु इस तरह मुआवजे की बात मुद्दे की गंभीरता को कम कर देती है। मुआवजा तो सरकारें दंगों में मरने वालों के परिवार वालों को भी देती है। इस क्रिकेट तमाशे की संरचना सिनेमा के फॉर्मूले की तरह ही की गई है। मैदान में नाचने वाली महिलाएं भी वेतन पर नियुक्त की जाती हैं। तमाशे के पहले वर्ष उनके कपड़े कम थे और विरोध के बाद स्कर्ट की लंबाई चंद इंच बढ़ा दी गई है और कहीं-कहीं उन्हें उस क्षेत्र की पारंपरिक वेशभूषा भी दी गई है। हमारी नैतिकता के रक्षक चंद इंचों से संतुष्ट हो जाते हैं। कुछ फिल्मी सितारे तमाशे में शामिल टीमों का मालिकाना अधिकार भी रखते हैं। दरअसल, क्रिकेट की केंद्रीय सत्ता और प्रांतीय संगठनों में भी सरगना अनेक शक्तिशाली नेता हैं। अत: इस तमाशे को रोका नहीं जा सकता।

यह क्रिकेट तमाशा करोड़ों रुपए का व्यवसाय है और यह आकलन असंभव है कि इसमें कितने करोड़ का सट्टा होता है। इस पर तो अविश्वास नहीं किया जा सकता कि सट्टे के संचालक पुलिस महकमे को भारी रिश्वत देते हैं। पूरा सट बाजार काली कमाई से संचालित है। क्रिकेट सट्टे को अन्य देशों की तरह कानूनी रूप देकर सरकार लाइसेंस फीस कमा सकती है तथा काले धन के एक केंद्र को काबू में लाया जा सकता है। क्रिकेट सट्टे को जायज किए जाने का संबंध बिजली और पानी के अपव्यय से नहीं जोड़ा जा सकता। वे राष्ट्रीय ऊर्जा का मुद्दा हैं।

यह भी गौरतलब है कि यह क्रिकेट तमाशा हर वर्ष गर्मी के मौसम में आयोजित किया जाता है, क्योंकि टेलीविजन पर शीतल पेय के विज्ञापन से मोटी रकम मिलती है। क्रिकेट तमाशे के टेलीविजन अधिकार ९०० करोड़ रुपए में बिके हैं। टेलीविजन अधिकार के मामले में भी घपले की शंकाएं उजागर हुई थीं, परंतु घपलेबाजी का अघोषित राष्ट्रीयकरण पहले ही हो चुका है। अब तो यह हकीकत अफसाने का आयाम ले चुकी है। भारत में सिनेमा और क्रिकेट दोनों ही अत्यंत लोकप्रिय हैं। परीक्षाएं समाप्त होने के बाद गर्मी के अवकाश में दोनों व्यवसाय अच्छी कमाई करते हैं। यह आश्चर्य की बात है कि किसी भी संकट का असर शराब और मनोरंजन व्यवसाय पर नहीं पड़ता। मनोरंजन उद्योग के आंकड़े अजीब से हैं, मसलन इस वर्ष के पहले तीन महीनों का औसत व्यवसाय विगत तीन वर्षों से अधिक है, जबकि इन तीन महीनों में प्रदर्शित फिल्मों की गुणवत्ता की बात छोड़ भी दें तो भी उनमें मनोरंजन तत्वों की कमी थी। इसका यही अर्थ हो सकता है कि फिल्मों का बॉक्स ऑफिस दिन ब दिन पहले से अधिक कमा रहा है।

देश की आर्थिक प्रगति के धीमा हो जाने की बात से व्यवसाय पंडित और सत्ताधीन लोग भी परेशान हैं। महंगाई के बढऩे का असर सभी जगह देख सकते हैं। इस अघोषित आर्थिक मंदी और गहन सामाजिक असंतोष के दौर में भी मनोरंजन व्यवसाय में बढ़त का क्या अर्थ हो सकता है? क्या देश का जो थोड़ा-सा खुशहाल वर्ग है, वही मनोरंजन व्यवसाय को चला रहा है? एकल सिनेमा में दर्शकों की बढ़ती हुई संख्या तो कुछ और ही संकेत दे रही है। क्याबहुत अधिक हताशा भी सुन्न पड़े समाज को मनोरंजन की ओर आकर्षित करती है। यह प्रवृत्ति गंभीर शोध का विषय है। हमारा तमाशबीन होना और पलायनवादी होना भी इसका कारण हो सकता है। यह भी संभव है कि सदियों से हमें सिखाया जा रहा है कि जब-जब जो होना है, उसे टाला नहीं जा सकता अर्थात ज्वलंत समस्याओं के होते हुए भी सब किस्म के तमाशे हम देखते रहते हैं और चुनाव भी एक तमाशा है क्योंकि वह सिद्धांत आधारित नहीं है। क्या सिनेमा, क्रिकेट तमाशा और चुनाव किसी एक सूत्र से जुड़े हैं? उत्तर है सांस्कृतिक शून्य।