सिनेमा, भाषा, रेडियो: एक त्रिकोणीय इतिहास / रविकान्त

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इस लेख में जो चीज़ें मैं पेश करने जा रहा हूँ, वो विशद इलाक़ा कवर करने की कोशिश करती हैं, काफ़ी बड़े दायरे में फैली हैं, और मैं चंद इशारे ही कर पाऊँगा। मेरे लिए ये इलाक़ा अभी नया है, इसलिए आप जितनी आलोचना करेंगे, सुझाव देंगे, अच्छा रहेगा, क्योंकि अभी सब कुछ खुला है। सिनेमा, भाषा, रेडियो - आधुनिकता की ये तीन खूँटियाँ हैं,बहुत ही मज़बूत इदारे भी, लेकिन मैं जिन तीन तारों से इन पर झूल रहा हूँ, वे कमज़ोर हैं, इसलिए इनके बीच हनुमान-कूद करता हुआ अगर हास्यास्पद लगूँ कई बार, तो माफ़ करेंगे, और हौसला अफ़ज़ाई भी करेंगे[1]।

मैंने क्यों चुना ये विषय ? इसलिए कि एक फाँक नज़र आती थी मुझे फ़िल्म अध्ययन के इलाक़े में। क्रिश्चियन मेट्ज़ से लेकर लेव मानोविच तक की जो पूरी परंपरा है फ़िल्म भाषा को ख़ास मुहावरे की तरह देखने की, यह बताने की कि फ़िल्म भाषा एक अलग अंदाज़-ए-बयान लेकर आती है, जो कि हमारी नैसर्गिक, आम बोलचाल की भाषा से अलग है[2]। चूँकि उसमें दृश्य भी है, श्रव्य भी, और भी बहुत तरह के आयोजन हैं। इसके भी बड़े जटिल अध्ययन हुए हैं कि किस विधा के अंतर्गत कैमरा कहाँ रखा जाता है, उसकी पोज़ीशनिंग से कौन सी बात उभर कर आती है, सत्ता का क्या संबंध बनता है, अगर कैमरा किसी ख़ास कोण से कोई ख़ास शॉट ले रहा है तो वह दर्शक से क्या कहने की कोशिश कर रहा है, आवाज़ कहाँ से आ रही है, माइक्रोफ़ोन का कैसा इस्तेमाल है, वग़ैरह-वग़ैरह। इस प्रसंग में याद रखने की बात है कि सिनेमा को भी ख़ुद को स्थापित करने में पहले से स्थापित कलाओं से संघर्ष करना पड़ा था, जैसे कि लिखित विधाओं से। लोग उन कलाओं को कला मानते थे, जिन्हें वे कला मानने के आदी रहे थे। तो सिनेमा उद्योग है या कला, इस पर काफ़ी बहस रही है, पश्चिम में भी। महत्वपूर्ण बात ये है कि सिनेमा ग्लोबल है, और हिन्दुस्तानी भी, और लगभग एक साथ ही दोनों है। इसका वैश्विक तकनीकी पक्ष भी उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना स्थानीय रंग में रँगा सांस्कृतिक पक्ष।

लेकिन जो फाँक मुझे दीखती थी सिने-अध्ययन में वह यह कि हिन्दी सिनेमा या भारतीय सिनेमा की वाचालता, प्रगल्भता, इसके बातूनीपन को देखते हुए भी हम इसकी भाषा को नज़रअंदाज़ करते आए हैं। जबकि हम भाषा में ही सिनेमा को याद रखते हैं, इसको रिले करते हैं। इस लिहाज़ से सिनेमा का रिश्ता बाक़ी माध्यमों से बड़ा मज़ेदार बनता है - चाहे वह छप-माध्यम हो या मौखिकता का, याददाश्त का, माध्यम हो। कि हम कहते-सुनते हैं, बहस करते हैं, समीक्षा करते हैं सिनेमा हॉल से निकलते ही - सिनेमा यानि पर्दे से छूटते ही सिनेमा का क्या होता है, अपनी हमारे ज़ेहन में, हमारी वाणी में। फिर प्रिन्ट आता है, जहाँ साहित्य, पत्रकारिता या राजनीति पहले से हावी है, वहाँ सिनेमा कैसे अपनी जगह तलाशता है, पत्रिकाओं के संपादक किस तरह सिनेमा से मुखामुखम होते हैं[3]। मुझे याद है - बल्कि अभी-भी बिहार में यह होता है - जो पोस्टर लगाए जाते थे, उन्हें दृश्य-युग के पहले के पोस्टर कह सकते हैं। पोस्टरों के अपने लंबे इतिहास में ढेर-सारे परिवर्तन हुए हैं। अब दृश्य-तत्व बहुत महत्वपूर्ण हो गया है, तस्वीरों को देखकर ही आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि फ़िल्म से क्या अपेक्षाएँ की जानी चाहिए इसमें ऐक्शन है या रोमान्स, मारधाड़ है या प्यार, या कुछ और, या सब-कुछ का घालमेल। लेकिन एक और महत्वपूर्ण चीज़ होती थी कि पोस्टर में हिट गानों की सूची डाल दी जाती थी, अक्सर उनके मुखड़े की पहली पंक्ति, यह बताते हुए कि फ़िल्म के आकर्षण ये भी हैं। मुझे ये चीज़ें बहुत दिलचस्प लगती थीं कि ये कैसे हो रहा है कि सिनेमा को लोगों तक ले जाने के लिए दीगर माध्यमों का इस्तेमाल होता है, उनकी दरकार पड़ती है। रेडियो इसी शृंखला की बहुत ज़रूरी कड़ी है।

अब तो हम कल्पना भी नहीं कर सकते, अहर्निश दौर है 24x7 एफ़एम चैनलों का, और इस आपसी होड़ का कि एक घंटे में कौन 13गाने सुनवा सकता है, लेकिन ऐसा भी दौर गुज़रा है जब हम आकाशवाणी के किसी ख़ास रेडियो स्टेशन के खुलने का इंतज़ार करते थे, जब वह कूँऽऽऽऽ... की ध्वनि आती थी, हम उससे पहले ही काँटा घुमा-घुमाकर कोशिश करते थे कि वहाँ पर पहुँचा दें जहाँ वह स्टेशन लगता था, या बेहतर लगता था - वो मीटर तो हमें कंठस्थ हो ही गए थे। ज़ाहिर है कि ये एक पूरा इतिहास है ग्रामोफ़ोन और बड़े वाले रेडियो से लेकर संतोष रेडियो तक, जिस पर सदन ने एक बार लिखा था मीडियानगर में, जिसके चलते रेडियो तक लोगों की पहुँच आसान बनती चली जाती है[4]। ये उनकी माली हैसियत से भी तय होता है, सरकार की नीतियों से भी, और ये अपने-आप में दिलचस्प इतिहास है। रेडियो के अंदर ही भाषा को लेकर एक अखाड़ा खुला हुआ है, हम ये भी जानते हैं लेकिन उसका मुकम्मल इतिहास अभी लिखा जाना शेष है। तो एक तो सिनेमा के अंदर क्या होता है, और दूसरे, सिनेमा के बाहर सिने-भाषा कहाँ-कहाँ तक जाती है, किन माध्यम-रूपों में और कौन-सी तरद्दुद झेलकर जाती है।

लगे हाथ चंद बातें टेलिविज़न और इंटरनेट पर। टेलिविज़न आजकल लगता है कि फ़िल्मी पोस्टर का विस्तार-सा हो गया है, फ़र्क़ ये है कि ये पोस्टर ड्रॉइंग रूम में आ गया है[5], और दृश्य-श्रव्य सामग्री, झलकियाँ और ट्रेलर देखने के लिए हमें सिनेमा हॉल तक नहीं जाना पड़ता। ये चीज़े इंटरनेट, यू-ट्यूब और समाजिक नेटवर्किंग साइटों के ज़रिए भी हो रही हैं। इंटरनेट इतना महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि जो हमारी यादें थीं, जिन्हें अभी तक हम मौखिक संस्कृति में जी रहे थे, या कभी-कभार जब विशेषांक निकलते, जैसे कि नई दुनिया का फ़िल्म संगीत विशेषांक निकला था, उनमें उसकी कुछ चर्चा आ जाती थी[6]। तो सिनेमा-संस्कृति और सिनेमा को जीने-भोगने-समझने-सराहने के हमारे जो तमाम तौर-तरीक़े थे, उनको सँजोने की, रिकॉर्ड करने की एक नई मुहिम विश्वव्यापी वेब पर शुरू हुई है[7]। इस लिहाज़ से इंटरनेट मुझे लगता है कि मौखिक संस्कृति के जैसा है, वही नहीं है - ये कहने की भूल नहीं करूँगा कि वही है, ज़ाहिर है कि दोनों में बहुत फ़र्क़ है - पर मौखिक के सबसे ज़यादा नज़दीक है - इंटरनेट अफ़वाहों की तरह, लोगों की मुँह-ज़बानी परंपरा के ढर्रे पर चलता है, लोग बातें करते हैं, डेटा बाँटते हैं, कुछ भी लिखते हैं, और सिनेमा पर तो बहुत लिखते हैं। यही कारण है कि वही विविध भारती के जिसके अभिलेखागार में घुसने की अगर आप कोशिश करें तो कई कोशिशें करनी होंगी। उसके पहरुए अधिकारियों में गोया एक ख़ौफ़ बना हुआ है कि हमारे जैसे लोग आकाशवाणी के घोर लद्धड़ ढंग से संगठित आर्काइव में घुसकर पता नहीं क्या-क्या निकाल लाएँगे, कौन-सी ग़लत-सलत नीतियों का पर्दाफ़ाश कर डालेंगे! लेकिन इंटरनेट पर यही सब कुछ खोल कर रख दे रहे हैं लोग। ये काम वही कर रहे हैं, जो कि मिसाल के तौर पर, नए ज़माने के रेडियो-जॉकी हैं। वे एक नया आर्काइव बना रहे हैं, कि जो पुराने प्रोग्राम पेश किए जाते थे, जैसे कि विशेष जयमाला प्रोग्राम फ़ौजी भाइयों के लिए पेश किया गया था, अमुक दिन, उसका लिप्यंतर ये रहा। आप जानते ही हैं कि जयमाला कार्यक्रम को नामी-गिरामी फ़िल्मी और ग़ैर-फ़िल्मी कलाकार पेश करते थे - लेखक-शायर, संगीतकार, गायक, नायक सब आते थे कार्यक्रम पेश करने हरेक शाम को। तो उन कार्यक्रमों के ट्रांस्क्रिप्ट कुछ हद तक उपलब्ध हैं, उसी तरह जिस तरह अमीन सायानी का जो तजुर्बा और काम रहा है, वह काफ़ी हद तक अब आम जनपद में और बाज़ार में उपलब्ध है[8]। कुछ-कुछ तो किताबों की शक्ल में भी आने लगा है[9]।

मैं इशारा इस ओर करना चाह रहा हूँ कि एक पूरी संस्कृति है जिसके बारे में हम ज़्यादा नहीं जानते हैं -- रेडियो को सुनने की, उससे वाद-विवाद-संवाद करने की, शिकायतें करने की, उससे जूझने की, और ये सब जानना काफ़ी दिलचस्प हो सकता है। यहाँ ये ध्यान रखना भी ज़रूरी है कि सिनेमा की ही तरह रेडियो सिर्फ़ राष्ट्र के भूगोल में नहीं गूँजता[10]। ज़ाहिर है कि राष्ट्र को लेकर जो लड़ाइयाँ हो रही हैं, वह इसकी राजनीति को सूचित कर रही हैं, प्रभावित कर रही हैं, लेकिन उसकी आवाज़ें मीडियम और शॉर्ट वेव के ज़रिए उन लोगों तक भी जा रही हैं, जो शायद उसके 'वांछित' या 'अधिकृत' श्रोता नहीं हैं, या जिन्हें राष्ट्र अपनी लाइनें खींचकर अलग काटना चाहता है। इसीलिए शायद सिनेमा की तरह ही रेडियो की भाषा एक अलग भाषा बन पाती है। इसकी इस ताक़त का अहसास काफ़ी पहले राजनेताओं व बुद्धिजीवियों को हो चुका था, इसलिए उस पर क़ब्ज़े की लड़ाई इसके भारत आने के साथ ही, यानि पिछली सदी के तीसरे-चौथे दशक में शुरू हो गई थी।

लेकिन इस लड़ाई में जाने से पहले थोड़ी सी बात करना चाहता हूँ, सिनेमा की भाषा को लेकर, जिस पर थोड़ी अकादमिक बातचीत हो चुकी है, ख़ास तौर पर मुकुल केशवन, हरीश त्रिवेदी और रंजनी मज़ुमदार ने जो लिखा है, उसके बहाने[11]। सिनेमा की भाषा को क्या कहा जाए, क्या ये सवाल क्या अहम है? या यह कि हिन्दी सिनेमा को 'हिन्दी' सिनेमा कहके में मैं एक निहायत स्थिर कोटि को क्यों डिस्टर्ब कर रहा हूँ, क्यों मैं उसे नाहक प्रश्नांकित कर रहा हूँ? हिन्दी सिनेमा, हम जानते हैं कि हिन्दी सिनेमा है! मसला है कि क्या सिर्फ़ ये कह देने से काम चल जाएगा - वैसे त्रिवेदी जी का ये लेख "इट्स ऑल काइन्ड्स ऑफ़ हिन्दी" महत्वपूर्ण है - कि हर तरह की हिन्दी के लिए जगह है हिन्दी सिनेमा में? या ये कहना भी कहीं न कहीं एक तरह के अश्वमेधी 'इरेज़र' को दर्शाता है? क्या इस अतिलोकप्रिय हो चुके नाम के पर्दे के पीछे कुछ छुपाया या मिटाया तो नहीं गया/जा रहा है? अगर हम पीछे जाएँ, कुछ पुरानी फ़ाइलें देखें, लोगों के लेखन को टटोलें तो ज़ाहिर होगा कि काफ़ी जद्दोजहद है वहाँ भी, ये सब इतना आसान नहीं था - हिन्दी को हिन्दी कहना। मैं भी चौंक गया था जब देखा कि मुग़ल-ए-आज़म फ़िल्म (रंगीन) के सेंसर सर्टिफ़िकेट में इसकी भाषा हिन्दी है, फिर मैंने श्वेत-श्याम मूल संस्करण चेक किया, वहाँ भी हिन्दी, और इनसाइक्लोपीडिया ऑफ़ इंडियन सिनेमा देखा कि कौन सी कोटियाँ हैं भाषा की, और कौन-सी फ़िल्म कहाँ डाली गई है, तो उर्दू फ़िल्में पाँचेक से ज़्यादा नहीं दिखीं[12]। तो मुझे लगा कि ये तो एक ज़बर्दस्त 'इरेज़र' का इतिहास है। और ये इतिहास मेरे सामने यकबयक उछलकर सामने तब आया जब मैंने पाया कि 1960 के दशक में दो बार साहिर लुधियानवी पर बौद्धिक हमले होते हैं। एक बार तब जब वे कहते हैं कि हिन्दी फ़िल्मों की भाषा 97% उर्दू है। वो बिहार जाते हैं, अकाल में सहायतार्थ पैसे इकट्ठा करने के लिए और कहीं भाषण भी देते हैं। तो इस पर माधुरी नामक फ़िल्म पत्रिका उनके पीछे ही पड़ जाती है। वैसे अरविंद कुमार की माधुरी की भूमिका की मैं बहुत सराहना करना चाहूँगा कि इसने कई अहम-अद्भुत सेतु एक साथ बनाए – सिनेमा और समाज के बीच, सिनेमा और राजनिति के बीच, सिनेमा और शब्द के बीच, सिनेमा और साहित्य के बीच में। जैसे कि एक पोस्टर डाल दिया जीतेन्द्र का, डोले-शोले के साथ, और उसका शीर्षक डाल दिया उर्वशी से:

सिंधु-सा उद्दाम अपरंपार मेरा बल कहाँ है
गूँजता जिस शक्ति का सर्वत्र जय-जयकार,
उस अटल संकल्प का संबल कहाँ है?
यह शिला-सा वक्ष, ये चट्टान सी मेरी भुजाएँ
सूर्य के आलोक से दीपित समुन्नत भाल
मेरे प्यार का सागर अगम, उत्ताल उच्छल है।[13]

उसी तरह कभी कामायनी से या कभी दीवान-ए-ग़ालिब से। तो ये प्रयास अपने-आप में महत्वपूर्ण था। एक ख़ास तरह का आग्रह भी था सार्थक समांतर सिनेमा के लिए माधुरी में - साफ़ दिखता है। लकिन ये जो कशमकश है एक पुराना सा - कि हम भाषा के ख़ाली मर्तबान को भरने की कोशिश करते हैं, 19वीं सदी से लेकर आज तक, कि एक नई तकनीक आई है प्रिन्ट की, लेकिन हिन्दी का सामान यहाँ नहीं है, माधुरी समेत हिन्दी फ़िल्म पत्रकारिता उससे भी दो-चार है।

अपने कंप्यूटर-कर्म के तजुर्बे और आधुनिक भारतीय इतिहास लेखन की रिवायत के दोनों ही नुक़्तों से मुझे ये बड़ा परिचित इलाक़ा लगता है। जब हमलोग इंटरनेट पर एक दशक पहले यही काम करने निकले थे - और हमलोग से मतलब एक विशाल समुदाय से है जिसमें हिन्दी-उर्दू, तमिल-तेलुगू तमाम तरह के लोग थे - तो हमें यही चीज़ सताती थी कि ये तो ख़ाली है! अंग्रेज़ी में इतना माल है, जापानी में, चीनी में, यहाँ तक कि बांग्ला और तमिल में भी बेहतर माल है, लेकिन हिन्दी का बर्तन तो रीता है[14]। इसकी चिन्ता हिन्दी के बुद्धिजीवियों को सताती है, लेकिन ख़ालीपन को एक ख़ास ढंग से भरने की वे कोशिश भी करते हैं। जैसे राधेश्याम कथावाचक, जिनका ज़िक्र अविनाश ने किया है, 1922-24 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन को संबोधित करते हुए, वह चिंतित नज़र आते हैं[15]। उनको लगता है हिन्दी में नाटक नहीं हैं, फ़िल्में भी नहीं हैं, लोग लिख नहीं रहे हैं, और वो हिन्दी अलग ढंग की होनी चाहिए, क्योंकि मौजूदा प्रचलित भाषा में नैतिक संस्कारों की रक्षा नहीं हो पा रही हैं। मसलन, उर्दू ज़बान में हिन्दू मिथकीय नाटकों की अदायगी कैसे हो सकती है? उसके डायलॉग उर्दू जैसी पतनशील ज़बान में कैसे हो सकते हैं, ख़ास तौर पर तब जब उर्दू का एक ख़ास तरह का संबंध या एसोसिएशन बना दिया गया था ऐसी संस्कृति से, जो एक साथ सामंती थी, जो पीछे देख रही थी, आगे नहीं देख रही थी, जिसका राष्ट्रवाद से कोई ताल्लुक़ नहीं लगता था। वो एक ऐसी ज़बान क़रार दे दी गयी थी, जो लगता था कि सेक्टेरियन है, विभाजक है, न कि साथ लेकर चलने वाली। तो ये तमाम चिंताएँ एक-साथ उभर कर आती हैं, जब हम देखते हैं कि पंडित रविशंकर शुक्ल 1930-40 के दशकों में हिन्दी में तीन किताबें लिखते हैं(एक अंग्रेज़ी में भी)[16]। शुक्ल जी स्वराजी थे, फिर गांधीवादी हुए। जब गांधीजी ने मध्यप्रदेश में दौरा किया था, समाजनिर्माण वाले एजेण्डे के तहत अछूतोद्धार वाला कार्यक्रम लिया था, तो शुक्ल जी उनके साथ थे। बहुत ख्याति थी उनकी, नई दिल्ली में उनके नाम पर कस्तूरबा गांधी मार्ग से जुड़ती हुई एक गली भी है। और उनकी भाषा-नीति में बदलाव आते हैं, जब वे 1955 में मुख्यमंत्री बनते हैं, तो काफ़ी उदारमना और समावेशी लगते हैं, लेकिन उसके पहले तो बड़े 'अग्रघर्षी'('आक्रामक' का पर्याय ये शब्द इस कार्यशाला के दौरान ख़ूब चला!) क़िस्म के बयान देते हैं। उनकी इन किताबों के शीर्षकों पर ही अगर आप नज़र दौड़ाएँ - हिन्दी वालो, सावधान!, हिन्दी, उर्दू, और हिन्दुस्तानी, तथा मौलाना गांधी! - तो बात साफ़ हो जाएगी[17]। हमारे दौर में भी मुलायम सिंह यादव को 'मौलाना मुलायम' कहा गया था, तो सहज समझ में आनेवाली बात है। बहरहाल ये तीनों किताबें भाषा को संबोधित है। भाषा छप-माध्यम में, भाषा सिनेमा में, भाषा रेडियो पर। और इन सब में हिन्दुस्तानी की वकालत क्यों की जाती है! तर्क है कि ग़लत वकालत की जाती है: हिन्दुस्तानी की माँग करना दरअसल उर्दू का पिछले दरवाज़े से दाख़िले की कोशिश है। और एक बात ये भी कि हिन्दुस्तानी में चीज़ क्या उपलब्ध है? मेरे नज़दीक ये बात महत्वपूर्ण इसलिए हो उठती हैं क्योंकि हरीश त्रिवेदी भी लगभग यही बात करते हैं अपने उस लेख में हिन्दुस्तानी को ख़ारिज करते हुए। और ये भी कहते हैं कि हिन्दुस्तानी तो कोई ज़बान थी ही नहीं, उसमें कोई सामग्री ही नहीं थी। मैं ये अर्ज़ करना चाहता हूँ कि यह बात इतिहास-सम्मत नहीं है। फ़ैलन के शब्दकोशीय प्रयासों के ज़िक्र को मैं दुहराना नहीं चाहता हूँ, ताज़ा हैं आपके ज़ेहन में[18]। बहुत सारी और किताबें भी हैं, जिनको हिन्दुस्तानी ज़बान की किताबें कहा जा सकता है। और इसके ख़ूब प्रयास किए गए कि हिन्दुस्तानी भी चले। गांधी जी तो अलग हो ही गए साहित्य सम्मेलन से, इसी बात पर। और भी लोग थे[19]। अविभाजित उत्तर भारत में रेडियो प्रसारण की सर्वप्रमुख भाषा हिन्दुस्तानी ही कही जाती थी, जिसमें समाचार, वार्ताएँ व दूसरी प्रस्तुतियाँ होती थीं। जब पाँचवें दशक में झगड़ा बढ़ा तो हिन्दी व उर्दू बुलेटिनें अलग कर दी गईं। और आज़ादी के बाद तो हिन्दुस्तानी नाम से ही सदा के लिए छुट्टी पा ली गई।

लेकिन अहम बात ये कि तमाम विरोधों और नाम में बदलाव के बावजूद ये बिचौलिया, नो-मैन्स लैंड की टोबा टेक-भाषा टिक और चल जाती है। इसलिए कि वो आम जनजीवन में, सांस्कृतिक आदान-प्रदान में फलती-फूलती रही है, पारसी थिएटर से फ़िल्म में आती है, और रेडियो के ज़रिए सीमाओं के आर-पार घूमती है - 'पंछी, नदिया पवन के झोंके, कोई पर्वत ना इन्हें रोके' की तर्ज़ पर। हलाँकि लोग कहते हैं न कि 'आकाशवाणी हिन्दी' एक है, और 'फ़िल्मी हिन्दी' अलग है। डेविड लेलिवेल्ड ने इस विषय पर दो-तीन अच्छे लेख लिखे हैं और उन्हीं के सहारे मैं आगे बढ़ना चाहता हूँ[20], लेकिन पहले देखें कि सिनेमा में हो क्या रहा है? दो-तीन मिसालें देखें। दिलिप कुमार देविका रानी के पास पहुँचते हैं नौकरी की तलाश में, चालीस के दशक में। अब हम सब जानते हैं कि मशहूर लेखक भगवती चरण वर्मा की दो-तीन सलाहों में से छाँटकर देविका रानी ने युसुफ़ ख़ान का नाम दिलिप कुमार रखा था, क्योंकि वो नाम उस दौर में लगता था कि ज़्यादा स्वीकार्य होगा[21]। आज अलग बात है, कि 'ख़ान' हैं आप तो कोई मसला नहीं है। और सिनेमाई नामकरण के कई पेंच हैं – किरदारों के नामकरण, और उससे झाँकते जाति-धर्म, का भी इतिहास अपने-आप में दिलचस्प है, जिसमें मैं अभी नहीं जा सकता। तो देविका रानी ने दिलिप कुमार से पूछा, उर्दू जानते हो कि नहीं? उसी तरह बिमल राय ने 1949 में फ़िल्मइंडिया में एक विज्ञापन दिया प्रतिभा खोज की तर्ज़ पर कि हमें अपनी एक नई फ़िल्म के लिए अभिनेताओं की तलाश है। उसमें उन्होंने अभिनेताओं की अर्हताओं की जो सूची बनाई थी, उसमें हिन्दुस्तानी बोलने की क़ाबिलियत शुमार है। तो पहले उर्दू, फिर हिन्दुस्तानी, 1949 में - बीच में तक़सीम-ए-हिन्द हो चुका है। तीसरा, जब नौशाद लता का टेस्ट लेते हैं। किसी के कहने पर वे कहते हैं कि मैंने सुना है तुम्हारे बारे में, पर ख़ुद सुनना चाहता हूँ, ग़ज़ल गाके सुनाओ। लता भी पूरी तैयारी से गई थीं। उन्होंने ग़ज़ल सुनाई। लता मंगेशकर नसरीन मुन्नी कबीर से अपनी लंबी बातचीत के दौरान कहती हैं कि नौशाद साहब दरअसल मेरा तलफ़्फ़ुज़ जाँचना चाहते थे[22]। यह स्मरणीय है कि लता ने बाक़ायदा एक उस्ताद रखकर उर्दू सीखी थी। प्रसंगवश दिलचस्प यह भी है कि ख़ुद दिलीप कुमार ने लता मंगेशकर से बंबई लोकल में सफ़र करते हुए पहली ही मुलाक़ात में, यह जानने पर कि वह गायिका बनाना चाहती हैं, पूछा था कि उर्दू आती है[23]?

लब्बेलुवाब ये कि एक जो बात रज़ा मीर ने कही है कि हिन्दी सिनेमा और उर्दू के बीच में एक स्वाभाविक दोस्ताना रिश्ता रहा है[24], और दूसरी तरफ़ जब हम कहते हैं कि सिनेमा की ज़बान को 'ऑल़ काइन्ड्स ऑफ़ हिन्दी' ही कहना चाहिए, तो इन दोनों पोज़ीशनों के बीच काफ़ी कुछ अनकहा रह जाता है। हिन्दी सिनेमा से पहले दूरी बनाने और अंतत: उस पर अपना दावा ठोंकने के पीछे भाषायी कार्यकर्ताओं की अपनी राजनीतियाँ हैं, अपने संघर्ष हैं, जिनको समझते हुए हम भारतीय आधुनिकता और भाषायी राष्ट्रवाद का इतिहास बेहतर समझ पाएँगे, और इसे छपेतर माध्यमों के नए-नए इलाक़ों में देख पाएँगे। मसलन, पंडित रविशंकर शुक्ल 'सरकार द्वारा संचालित' रेडियो और 'आदर्शहीन पूँजीपतियों द्वारा संचालित' सिनेमा दोनों ही की भाषा-नीति से नाराज़ हैं, क्योंकि वहाँ हिन्दुस्तानी का वर्चस्व है। हिन्दुस्तानी, अर्थात उर्दू - हिन्दुस्तानी तो महज़ आवरण है बहुसंख्यक हिन्दू जनता को गुमराह करने के लिए:

अब तक जितने चित्र बने हैं, उनमें से अधिकांश की भाषा 'अच्छी उर्दू, ख़राब उर्दू, भद्दी उर्दू, ख़राब हिन्दी या भद्दी हिन्दी है, अच्छी हिन्दी के चित्र शायद ही कुछ बने हैं।....चित्रों में हिन्दी शब्दों के साथ-साथ लगे हुये क्लिष्ट, कर्ण-कटु अरबी फ़ारसी शब्दों को सुनकर हृदय में शूल सा चुभता है। 'रामशास्त्री', 'चित्रावली', 'हमराही' जैसे चित्रों की भाषा सुनकर अत्यंत क्लेश होता है। यह बात नहीं है कि हिन्दी लेखकों को अपनी भाषा से प्रेम न हो, परन्तु वह बहुत जल्दी, ज़रा से इशारे पर अपने शब्द छोड़ देते हैं और विदेशी शब्द झट अपना लेते हैं - लिखने में भी और बोलचाल में भी। उन्हें इस मामले में उर्दू लेखकों से शिक्षा लेनी चाहिए जो सरल से सरल उर्दू लिखना मंजूर कर लेंगे, परन्तु लिखेंगे उर्दू ही - एक भी हिन्दी शब्द अपना नहीं सकते।....[इसलिए], हिन्दियो, उठो, जागो, अपनी शक्ति एकत्र करो और हिन्दी की रक्षा में, हिन्दी की सेवा में जुट जाओ।....हिन्दी, शुद्ध हिन्दी तुम्हारी कम से कम आवश्यकता है - तुम शुद्ध हिन्दी से कम कुछ भी स्वीकार नहीं कर सकते। यदि तुमने हिन्दी को विकृत होने दिया, तो अन्य प्रान्तों के वासी तो अपनी शुद्ध संस्कारी भाषाओँ से प्रेरणा प्राप्त करेंगे, केवल एक तुम्हीं अभागे होगे।....हिन्दी के साथ, उसकी शुद्धता के साथ सम्पूर्ण भारत की, विशेष रूप से संपूर्ण हिन्दू भारत की संस्कृति जुड़ी हुई है। हिन्दी पर हिंदुत्व और हिंदुस्तान का भविष्य निर्भर है।[25]

अगर इस आह्वान के स्पर्धात्मक राष्ट्रवादी स्वर को थोड़ी देर के लिए नज़रअंदाज़ भी कर दें तो यहाँ कुछ दिलचस्प आरोप तो हैं ही, कई असमीक्षित मान्यताएँ भी हैं: हिन्दी लेखक सिर्फ़ वही हैं, जो हिन्दू हैं, और उर्दू वाले सिर्फ़ मुसलमान हैं, जबकि रेडियो और सिनेमा की दुनिया में ये विभाजन उतना आसान नहीं है, वैसे ही जैसे कि एक पीढ़ी पहले तक छपाई की दुनिया में भी तादाद में अच्छे-ख़ासे लोग धर्म=भाषा के प्रचारित अथवा वांछित समीकरण को अपने पाठकीय व लेखकीय आचार में झुठलाते देखे जा सकते थे। हलाँकि वहाँ भी तनाव बेशक पनपने लगा है, परेशानियाँ शुरू तो हो ही गई हैं। लामुहाला ये सवाल पूछना ही पड़ता है कि हिन्दी के लेखक हिन्दी सिनेमा में क्यों नहीं टिक पाते लंबे समय तक। प्रेमचंद का तजुर्बा हम जानते हैं - इस पर सब्यसाची भट्टाचार्य ने लिखा है, नागार्जुन ने भी लिखा है, प्रेमचंद की अपनी चिट्ठी-पत्री है[26], जिसे उपेन्द्रनाथ अश्क भी उद्धृत करते हैं कि कैसे उन्होंने उन्हें सिनेमा की दुनिया के ख़तरों से ख़ुद आगाह किया था। उनकी मज़दूर नामक फ़िल्म के साथ जो होता है, औपनिवेशिक सेंसरशिप से लेकर सिने-निर्माता जो काट-कूट, रद्दोबदल करते हैं, उनको लगने लगता है कि मैं अपनी कला के साथ ऐसा समझौता नहीं कर सकता। गए तो थे पैसा कमाने क्योंकि वे पत्रकारिता चलाते रहना चाह रहे थे, घाटा हो गया था, उसकी भरपाई करने, लेकिन साल-दो-साल के अंदर लौट आते हैं। अमृतलाल नागर जैसे कई और लोग हैं, जो जाते हैं, चले आते हैं। उपेन्द्रनाथ अश्क का अपना रिश्ता भी सिनेमा के साथ अल्पजीवी होने के साथ-साथ निहायत मुश्किल साबित होता है। जबकि स'आदत हसन मंटो, राजिंदर सिंह बेदी, कृष्ण चंदर जैसे लोग साहित्य-सिनेमा-रेडियो सबमें बड़े मज़े से हैं। हलाँकि मैं ये ज़रूर कहूँगा कि आम तौर पर ठेठ उर्दू साहित्य वाले भी सिनेमा को दोयम दर्ज़े की चीज़ मानते थे, एक हद तक रेडियो को भी मानते होंगे तो ताज्जुब नहीं। लेकिन दोनों के बीच एक फ़र्क़ तो मुझे दीखता है कि एक आसानी से जा रहा है, दूसरा, अपने संस्कारों से बहुत जूझ रहा है जाते हुए। और जाता भी है तो लौट के आने के लिए। इतना फ़र्क़ तो ज़रूर है। एक नाटकीय दृष्टांत देकर मैं अपनी बात ख़त्म करना चाहूँगा। अश्क से एक लिखित इंटरव्यू लिया था बीबीसी के एक पत्रकार श्रीराम विद्यार्थी ने 1970 के दशक में। बहुत अच्छी बातचीत है, यूँ भी पढ़ी जानी चाहिए। अश्क दुपहरिया हैं, उर्दू से आकर हिन्दी में लिखने वाले। तो उनसे पूछा गया वही सवाल जो मैं अभी पूछ रहा हूँ - कि क्यों नहीं टिक पाते हिन्दीवाले? तो अश्क कहते हैं कि उर्दूवाले - साहिर, मजरूह, इस्मत-जैसे लोग अलग ढंग के लोग थे - वे रात-रात भर जगकर पार्टियाँ करते थे, दारू पीते थे, साथ बैठकर फ़िल्मवालों की मस्केबाज़ी करते थे; हिन्दी वाले वैसा तो नहीं कर सकते थे:

साहिर के यहाँ फिराक़ के सत्कार में एक पार्टी मैंने देखी है, जिसमें लोग इतना पी गए थे कि होश में नहीं रहे। इस्मत शराब का गिलास हाथ में लिये नशे में कह रही थीं - अंग्रेज़ी में - कि उन्हे हराम का बच्चा जनने की बड़ी इच्छा है, बस डर यही है कि उनका पति ख़ुदकुशी कर लेगा। सरदार और कैफ़ी की बीवियाँ पीये हुए क्या बक रही थीं, मैं क्या लिखूँ, और ख़ुद सरदार शहर के लौण्डेबाज़ों की ज़बान में गालियाँ दे रहे थे, और किसी को किसी का मुँह बकोटने के लिए कह रहे थे...मैंने कई फ़िल्मी पार्टियाँ देखी हैं, वे कोई बौद्धिकों की मजलिसें तो होती नहीं। उनमें ऐसे ही लोग मौज-मज़ा ले सकते हैं, जो ख़ूब पी-पिला सकें, गन्दे लतीफ़े सुन-सुना सकें। या दूसरे बारीक ढंग से प्रोड्यूसरों को मस्का लगा सकें। सो यदि वे लोग अभी तक फ़िल्मों में बने हुए हैं तो उर्दू की हरदिलअज़ीज़ी के कारण नहीं...पटने-पटाने में माहिर और पीने-पिलाने, बैठकबाज़ी में निपुण होने के कारण![27]

तो अर्ज़ ये करना चाहता हूँ कि सिर्फ़ भाषा की दिक़्क़तें नहीं हैं, रोज़गार की तो है हीं, एक वृहत्तर, संस्कार की भी दिक़्क़तें हैं, जो उस राजनीति में शुमार हैं, जो राष्ट्र की परिकल्पना में शुमार हैं, जिसके तहत हम अपने समाज को बनाना चाहते थे, और जिसका एक मौक़ा आज़ादी के बाद 'अपनी सरकार' के आने पर मिलता है।

अब थोड़ी नज़रे-सानी आज़ादी के पहले के दौर पर। ग़ुलाम भारत के ऑल इंडिया रेडियो के पहले महानिदेशक और निहायत उदारवादी व दिलचस्प इंसान लायनेल फ़ील्डेन ने द नैचुरल बेन्ट नामक आत्मकथा लिखी है, जिसमें चौथे दशक के आख़िर में मनोरंजन के उपलब्ध उपादानों को लेकर प्रचलित सामाजिक रवैये की चर्चा है, जिसे विस्तार से देने की ज़रूरत है:

संगीत और संगीतकारों को हेय दृष्टि से देखा जाता था, जैसा कि क्वेकर्स का रवैया तक़रीबन सौ साल पहले इंग्लैंड में होता था। जब मैं भारत पहुँचा तो संगीत कर्म अमूमन पूरी तरह दलालों और रंडियों के क़ब्ज़े में था, नृत्य-नाटिका (अभिप्राय रासलीला-जैसी चीज़ों से है)जैसे अपवाद को छोड़ दें तो।हिन्दुस्तान के उच्च या मध्य वर्ग का कोई भी इंसान, चाहे मर्द या औरत, संगीत या अभिनय में उतरने की गुस्ताख़ी नहीं कर सकता था। इससे बड़ा मसला पैदा हो गया। एक मैं था कि पूरे हिन्दुस्तान के लिए एक मनोरंजन का नेटवर्क क़ायम करने के मंसूबे से आया था, दूसरी तरफ़ मेरे संभावित ग्राहक ही महज़ इस ख़याल पर आसमान में हाथ लहराकर हाय तौबा मचा रहे थे। फिर यह धारणा भी अफ़वाहों के पंख पर मिर्च-मसाला लगाके उड़ चली थी कि मैं तमाम संगीतकारों को बड़ी राशियाँ बतौर मेहनताना देने वाला हूँ। लब्बेलुवाब ये कि मैं वेश्यावृत्ति को न सिर्फ़ प्रोत्साहित कर रहा हूँ, बल्कि तवायफ़ों की दीगर सेवाएँ भी मुझे मर्ज़ी मुताबिक हासिल हैं। इन हैरतअंगेज़ अफ़वाहों से उपजे भ्रम को दूर करने में होशियार और क़ाबिल ज़ुल्फ़िकार(बुख़ारी, जो बाद में जाकर रेडियो पाकिस्तान के निदेशक बनते हैं) को बाक़ायदा एक मुहिम चलानी पड़ी कि रेडियो कलाकारों के लिए वेश्या शब्द का इस्तेमाल बिल्कुल ग़लत है। बात भी सही थी[28]।

इतिहास बताता है कि बर्तानवी उपनिवेशवाद कुछ हद तक अपनी उदार छवि के हाथों मजबूर था। लिहाज़ा वह तरह-तरह की राजनीतिक विचारधाराओं को जगह देने की कोशिश करता था। ज़ाहिर है कि वह यह तो चाहता ही था कि रेडियो का इस्तेमाल उसके अपने युद्धकालीन या सामान्य तौर पर भी प्रोपगैन्डा के औज़ार के रूप में हो, यह भी कि निरक्षर हिन्दुस्तान में दूर-दूर तक इसकी पहुँच बने, ताकि कृषि, स्वास्थ्य, साफ़-सफ़ाई संबंधी जानकारियाँ आमजन को दी जा सकें। इस सिलसिले में रेडियो के धीरे-धीरे फैलते नेटवर्क के साथ कई तरह के प्रयास हुए भी[29]। तो इस तरह के रेडियो प्रतिष्ठा‌न के ही वारिस थे फ़ील्डेन और पतरस बुख़ारी और ज़ुल्फ़िकार बुख़ारी जैसे रेडियो-प्रशासक। फ़ील्डेन ने अनथक लेकिन अंतत: असफल कोशिश की कि गांधी, नेहरू व दूसरे कॉन्ग्रेसी नेता रेडियो पर आकर अपनी जनता को संबोधित करें: औपनिवेशिक माध्यम के उपयोग के धब्बे से कलंकित होने का डर उनको ऐसा करने से रोकता है। पर ख़ास तौर पर हिन्दी वाले, बुख़ारी बंधुओं से बहुत नाराज़ हैं कि उनके ज़रिए ही उर्दूवालों ने क़ब्ज़ा जमा रखा है रेडियो पर। बहरहाल, जब हम आज़ाद होते हैं तो रेडियो को पहले से जिन देसी रियासतों में स्वायत्तता मिली हुई थी, वह भी ख़त्म हो जाती है। हम अधिग्रहण कर लेते हैं इन तमाम रेडियो स्टेशनों का, जो एक केन्द्रीय सूचना व प्रसारण मंत्रालय के अधीन आ जाते हैं। जिसके सबसे लंबे समय तक होने वाले मंत्री बनते हैं बी.वी. केसकर जो बाद में अच्छे-ख़ासे बदनाम भी हुए। बदनाम हुए इसलिए भी कि उनका एक ख़ास तरह का रवैया था संगीत को लेकर। शास्त्रीय संगीत के भक्त थे, लेकिन शास्त्रीय संगीत को भी बाँटकर देखते थे: कर्नाटक संगीत को ही शुद्ध मानते थे; हिन्दुस्तानी संगीत में बहुत-सारी मिलावट और गिरावट देखते थे - गवैयों, बजवैयों और तवायफ़ों से उसके रिवायती जुड़ाव के चलते। हारमोनियम को लेकर एक विवाद पहले से था। हारमोनियम को निकाला गया था कि वो विदेशी है। आज़ादी के बाद कहा गया कि हिन्दुस्तानी के अंतर्गत भी वही संगीत चलेगा जो हम पास करेंगे। या एक ख़ास तरह के, सिर्फ़ वाद्यवृंद-जैसे सुनियोजित कार्यक्रम चलेंगे। मैं शास्त्रीय संगीत पर कोई अनावश्यक नकारात्मक टिप्पणी न करते हुए – इसलिए कि शास्त्रीय और फ़िल्मी संगीत में आदान-प्रदान का ख़ासा गहरा रिश्ता रहा है[30], जो महमूद कृतपड़ोसन-जैसी फ़िल्मों में निहायत आड़े-तिरछे शक्ल में भी नमूदार होता है - इतिहास के आईने में ये देखना चाहता हूँ कि नए ढंग से परिभाषित 'शास्त्रीय' और 'लोकप्रिय' के बीच किस तरह की जद्दोजहद चल रही थी। जिसका ख़मियाज़ा आकाशवाणी पर एक दशक से ऊपर से बज रहे फ़िल्म संगीत को अपने ही घर से निर्वासन की शक्ल में उठाना पड़ता है। होता यह है कि 1952 में एक झगड़ा चल रहा है, रॉयल्टी को लेकर, फ़िल्म संगीत के मालिकों और आकाशवाणी के बीच में। जो चला आ रहा था अनुबंध दोनों के बीच उसका नवीकरण नहीं किया जाता है। आकाशवाणी से फ़िल्म संगीत कम होते-होते बंद कर दिया जाता है। यही कारण है, यही वह दौर है, जब बतौर रेडियो दोस्त अमीन सायानी का उदय होता है, रेडियो सीलॉन के गीतमाला कार्यक्रम के ज़रिए। वही रेडियो सीलॉन जो हिन्दुस्तान-पाकिस्तान सहित उन सब जगहों पर सुना जाता है, जहाँ भी उसकी ताक़तवर तरंगें पहुँच पाती हैं[31]।

केसकर साहब दिलचस्प इसलिए भी लगते हैं कि उनसे एक और मामला जुड़ता है उनका दिलीप कुमार की फ़िल्म गंगा जमुना (1961) के सेंसरशिप को लेकर। ये अहम है कि अब के पाकिस्तान से आए पठान दिलिप कुमार को यह 'भोजपुरी' फ़िल्म बनाने का ख़याल आता है, चूँकि उनको अपने यहाँ के सेवक दंपति की आपसी बातचीत की ज़ुबान बड़ी मधुर लगती थी। तो वे मुग़ल-ए-आज़म के लेखक वजाहत मिर्ज़ा और संगीतकार-शायर नौशाद अली के साथ बैठकर यह फ़िल्म लिखते हैं, फ़िल्म की स्क्रिप्ट व वैजयंती माला के डिक्शन को बाक़यदा लोकेशन पर जाकर टेस्ट किया जाता है। लेकिन यह फ़िल्म महीनों तक इस बिना पर सेंसर और न्यायालय में फँसी रही कि यह डाकुओं का महिमामंडन करती है। आख़िर हार कर दिलिप कुमार सौ पृष्ठ का डॉसियर लेकर नेहरू का दरवाज़ा खटखटाते हैं। नेहरू ने उनको वक़्त तो 15 मिनट का ही दिया, लेकिन एक घंटे से अधिक तक बातें करते हैं। और दिलिप कुमार को फ़िल्म के प्रदर्शन के लिए हरी झंडी मिलती है[32]। अब इस प्रसंग में मुझे ये बताना ज़रूरी लगता है कि मैं अपने गाँव में डाकुओं के नाटक – जैसे कि चंबल की क़सम, चंबल का लुटेरा, चंबल का सपूत जैसे नाटक देखकर बड़ा हुआ हूँ। वहाँ सत्तर और अस्सी के दशक में शोले भी खेला गया था। कहने का मतलब पूरी एक लोकप्रिय विधा थी नाटकों और फ़िल्मों की, जो डाकुओं के इर्द-गिर्द घूमती थी - जिसमें डाकुओं के गृहस्थ से 'बाग़ी' बनने, अमीरी-ग़रीबी का द्वंद्व, ज़मींदारों का अनाचार, अत्याचार का बदला आदि की कहानियाँ होती थी। डाकू अक्सर रॉबिन हुड टाइप के, अच्छे दिल के, ग़रीबों की मदद करने वाले हुआ करते थे। लेकिन केसकर साहब के मंत्रालय में इस तरह की लोकप्रियता को समझने का धैर्य कहाँ था!

बहरहाल, वजह चाहे ऐसे नाटकों के प्रति नैतिक अधैर्य हो या जो भी, फ़िल्मी गीत/संगीत/शब्द/संवाद को सुधार डालने पर या कम से कम उसके दुष्प्रभाव से अपनी भोली-भाली जनता को यथासंभव बचा लेने पर केसकर साहब आमादा थे, चाहे इस व्यापार में आकाशवाणी का जिस पर पहला हक़ था, वह राजस्व रेडियो सीलॉन की झोली में ही क्यों न चला जाए। तो इसका भरपूर फ़ायदा रेडियो सीलॉन और अमीन सायानी को मिला। लोग भी नहीं सुधरने पर बज़िद थे - आकाशवाणी की जगह रेडियो सीलॉन और पुर्तगाली शासन के अधीन चलने वाले रेडियो गोआ की ओर अपने एण्टिना का रुख़ करके बैठ गए, क्योंकि गाने वहीं से आते थे। अब अमीन सायानी की अपनी जीवनी भी दिलचस्प है। गुजरात के खोजा मुसलमान परिवार से हैं, सेंट ज़ेवियर कॉलेज, बंबई से पढ़े थे। अंग्रेज़ी और गुजराती बेहतर आती थी, लेकिन हिन्दुस्तानी भी उन्हें घुट्टी में यूँ मिली थी कि उनकी माँ गांधी जी से प्रेरित होकर एक नवसाक्षर पत्रिका निकालती थीं हिन्दुस्तानी में। गीतमाला की उनकी ज़बान वही हिन्दुस्तानी ज़बान थी, मिली-जुली खिचड़ी ज़बान, जो शब्द-मैत्री की शुद्धतावादी व्याकरण-सम्मत शास्त्रीयता को नहीं मानती। जिसकी एक मिसाल नामवर सिंह को तब सख़्त नागवार गुज़री थी जब उन्होंने सुनील खिलनानी की किताब आइडिया ऑफ़ इंडिया के अभय कुमार दुबे के भारतनामा नाम से हुए शीर्षक अनुवाद में हुई अनुचित शब्द-मैत्री पर आपत्ति जताई थी। लोकार्पण पर बोलते हुए उन्होंने फ़रमाया था कि सब कुछ तो ठीक है किताब में, लेकिन नाम में शब्द मैत्री नहीं है!

अमीन सायानी की आवाज़ को सुनाने से पहले रेडियो से जुड़ी एक और यादगार वाक़या सुनाना चाहूँगा बग़ैर यह बताए कि इसका इतिहास कैसे लिख पाऊँगा, क्योंकि फ़िलहाल मुझे ख़ुद समझ में नहीं आ रहा। आफ़(पा)तकाल के बाद के चुनावों की बात है। टेलिविज़न तब तक सरकारी स्टॉलों पर मेलों-ठेलों में ही दिखाई पड़ता था - वह भी श्वेत-श्याम । चुनावी नतीजे विशेष बुलेटिनों के ज़रिए हर घंटे प्रसारित होते थे आकाशवाणी पर। बुलेटिनों के बीच में फ़िल्मी गाने आते थे, वैसे ही जैसे बाद में दूरदर्शन पर फ़िल्मे आने लगी थीं, ताकि जनता जनवाद के इस भव्य तमाशे से चिपकी रह सके। और वह रहती भी थी - देर रात तक, जाग-जागकर। तो हुआ यूँ कि इंदिरा गांधी के रायबरेली से हार जाने की ख़बर बस आई ही थी, और ख़बरें ख़त्म हो गई थीं। यानि कि गानों के रूप में फ़िलर का वक़्त था। लोग तो जैसे इसी ख़बर के लिए जी रहे थे। उन्होंने सुना नहीं कि जश्न शुरू हो गया। सिर्फ़ आम लोग ही नहीं बल्कि आकाशवाणी के कर्मचारियों ने भी 'अनुशासन-पर्व' की पूर्णाहुति की संभावना भाँपते हुए चैन की साँस ली होगी, और उन्होंने अपने ही अंदाज़ में ख़ुशी का इज़हार किया। जहाँ तक मुझे याद है, मैं छठी-सातवीं क्लास में रहा हूँगा, पहला ही गाना जो बजा वह था, 'झुमका गिरा रे, बरेली के बाज़ार में, झुमका गिरा रे'। बस फिर क्या था, लोगों के रोम मानों उल्लास में सिहर उठे, मुजरा जैसे कोरस बन गया। सन 1966 के मेरा साया के इस गीत को स्वरबद्ध किया था मदन मोहन ने, बोल राजा मेंहदी अली ख़ाँ के थे, और गाया था आशा भोंसले ने, बिहार के खेत-खलिहानों, शादियों, मुजरों, नाटक-नौटंकियों के दो अंको के दरमियाने वक़्फ़े में बतौर फ़िलर, और चाय की दुकानों पर यानि कि रेडियो पर सत्तर के दशक में ये गीत ख़ूब बजता था। लेकिन ये सुनना कुछ और सुनना रहा होगा, यह बजना वाक़ई कुछ और था। वैसे तो सिनेगीतों के रसिया बड़े फ़ख़्र से ये कहते पाए जाते हैं कि हिन्दी सिनेमा में जीवन के हर रंग, हर मौक़े के लिए कोई न कोई गीत है। लेकिन नीर-क्षीर-विवेकी फ़रमाएँगे कि गीत को मौक़े से जबरन गाँठा गया है। बेशक, कहाँ बरेली, कहाँ रायबरेली! तब शायद आप मानेंगे कि असाधारण भावुकता के लम्हों में विवेक के हदबंध टूट जाते हैं, कल्पना कुलाचें भरने लगती है, और कोई सिरा कहीं से जा मिलता है।

बहरहाल, परचे में कुछ ऐसी ही बेसिर-पैर की बातें मैंने की हैं। गीतमाला के अमीन सायानी का एक श्रव्यांश पेश करता हूँ।

आपने महसूस किया होगा कि प्रस्तुति का ये अंदाज़ कितना अनूठा था। ये एक ऐसा ज़रूरी अभिलेखागार है रेडियो का, जिसे आप अनसुना नहीं कर सकते। इनका अपना ही कार्यक्रम दुनिया का शायद सबसे लंबे चलने वाला कार्यक्रम था। हलाँकि प्रारूप पुराना था, पश्चिमी पॉप संगीत के चार्टबस्टर्स का, जिसे अमीन सायानी ने फ़िल्मी गीतों के लिए अनुकूलित किया और इसकी लंबी ज़िन्दगी में नाम (सिबाका/बिनाका) के अलावे भी अनेक तरह के बदलाव आए। इसकी लोकप्रियता, और विश्वसनीयता इतनी थी कि संगीतकार या गायक या गीतकार एक-दूसरे को चिढ़ाते थे कि उनका नाम अगर पायदान नंबर एक पर आ गया तो वह उससे बेहतर है जिसका गाना नहीं आ पाया। ये सम्मान फ़िल्मफ़ेयर लेने से कम नहीं माना जाता था। कई बार पक्षपात के शक की सूई गीतमाला पर भी गई, कि इसको 'सेट' किया जाता है, जैसे कि फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार को लेकर भी बातें होती रही हैं। लेकिन लंबे दौर में एलपी रिकॉर्ड की बिक्री, जीपी सिप्पी जैसे नामी-गिरामी फ़िल्मकारों की समिति से सलाह-मशविरा और श्रोता समूहों के ख़तों के आधार पर एक अमूमन फ़ूलप्रूफ़ सिस्टम बन चला था, जो बुधवार-दर-बुधवार लगातार लोगों की भागीदारी के बग़ैर कतई संभव नहीं था। कई शहरों में बिनाका गीतमाला क्लब थे, श्रोता समूह थे, जो नियमित तौर पर चिट्ठियाँ भेजते थे। वे कौन-से गाने को टॉप पर चाहते थे इसके इसरार, और अगर नहीं आया तो हताश शिकायतों से भरी हुई। एक ख़ुसूसियत थी, 'भाइयों और बहनों' से शुरू होने वाली उनकी प्रस्तुतियों में, जिसमें गाने का एक पूरा इतिहास, उसका आस्वाद और मूड झाँक उठता था। इसमें वे फ़िल्म से जुड़ी महत्वपूर्ण सूचनाएँ भी पिरो देते थे, गाने और गाने के बीच में अल्फ़ाज़ की मज़ेदार कड़ियाँ बनाते थे, गॉसिप भी करते थे, जिस हद तक उनका अपना गांधीवादी संस्कार इजाज़त देता था। आगे चलकर विविध भारती से भी यह कार्यक्रम आने लगा, जो अगस्त 2003 तक चला[33]। आपको याद होगा कि फ़िल्मी गानों के इर्द-गिर्द कई तरह के कार्यक्रम अमीन सायानी ने रचे जिनमें 'एसकुमार का फ़िल्मी मुक़द्दमा'(7 साल) व 'संगीत के सितारों की महफ़िल' प्रमुख हैं, जिन्हें 91.1 रेड एफ़एम पर इतवार को दो बार अभी-भी सुना जा सकता है।

फिर, विविध भारती का शुरू होना और उसका व्यावसायिक सेवा बनना अपने आप में दिलचस्प इतिहास है। विविध भारती शुरू करने के लिए फ़िल्मों के लिए अपवादस्वरूप टिककर लिखने वाले हिन्दी कवि पंडित नरेन्द्र शर्मा बुलाए गए। आकाशवाणी का घाटा कम करने के लिए, गानों को जगह देने के लिए, एक कार्यक्रम की परिकल्पना की गई, जिसे अंग्रेज़ी में 'मिस्लेनियस प्रोग्राम' कहा गया, और जिसकी ख़ूबसूरत हिन्दी तर्जुमानी शर्मा जी ने विविध भारती के नाम से की[34]। अगर आप देखें तो रेडियो सुनने वालों की एक पूरी संस्कृति का एक विरसा है और रेडियो के साथ जो उनका रिश्ता बनता है, आलोचना का, प्यार-मोहब्बत का वह तो बनता ही है। ताज़िन्दगी के संबंध बनाते हैं, रेडियो-प्रस्तोताओं से लोग - लोग चाहे वो छायागीत कार्यक्रम की कान्ता गुप्ता हों, या रेडियो सीलॉन और बाद में रेडियो श्रीलंका के ही मनोहर महाजन, विजय किशोर दूबे या गोपाल शर्मा हों - आवाज़ की दुनिया के लोग रेडियो को इनके नाम और काम से जानते हैं[35]। लेकिन आकाशवाणी पर गानों की वापसी या विविध भारती पर उसके प्रसारण समय का लगातार बढ़ते जाना - बात इतनी-सी नहीं है। कुछ गाने नहीं बजाए जाएँगे क्योंकि उनके शब्द ठीक नहीं हैं, फ़ोहश हैं, यानि एक तरह की श्रव्य सेंसरशिप भी लागू थी और बाज़ मर्तबा मज़ेदार स्थितियाँ भी पेश आती थीं, जिनका समय-समय पर श्रोता वर्ग ने लुत्फ़ लिया, समर्थन किया तो विरोध भी। कई गाने रिकॉर्डों पर तो होते थे, लेकिन फ़िल्म से ग़ायब पाए जाते थे, कई गानों के कुछ अंश ही फ़िल्म या प्रसारण से उड़ा दिए जाते थे। सिर्फ़ एक ही फ़िल्म की मिसाल लेते हैं। अमेरिकावासी उद्भट सिनेसंगीत-रसिया सतीश कालरा के अनुसार, फ़िल्म छलिया(1960)

का सबसे पहला शीर्षक गीत था 'छलिया मेरा नाम'...जिस पर सेंसर बोर्ड ने आपत्ति की थी कि इससे फ़िल्म के नायक के व्यवसाय का पता चलता है कि वह जेबकतरा है। इसलिए रिकॉर्ड पर दिए गए मुखड़े - छलिया मेरा नाम, छलना मेरा काम -2 को बदलकर यूँ कर दिया गया था - छलिया मेरा नाम, छलिया मेरा नाम....इस गीत के रिकॉर्ड पर दिए गए पहले अंतरे के बोल – हम तो खाली माल के रसिया, इश्क नहीं हम सीखे, जहाँ भी देखा दाम, वहीं निकाला काम...बदलकर फ़िल्म में यूँ रखे गए थे - हम तो खाली बात के रसिया इश्क नहीं हम सीखे, जहाँ भी देखा काम, करता वहीं सलाम...इसी तरह फ़िल्म के दूसरे अंतरे - मैं हूँ गलियों का शहज़ादा मैं जो चाहूँ वो ले लूँ, शहज़ादे तलवार से खेलें, मैं कैंची से खेलूँ...को बदलकर कर दिया गया था - मैं हूँ ग़रीबों का शहज़ादा, जो माँगो वो दे दूँ, शहज़ादे तलवार से खेलें, मैं अश्कों से खेलूँ...

वास्तव में फ़िल्म में एक अतिरिक्त अंतरा भी था जो कि पहले अंतरे के रूप में शामिल किया गया था. यह अंतरा क़मर जलालाबादी ने मूल रूप से यूँ लिखा था - देखो लोगों ज़रा तो सोचो बनी कहानी कैसे, तुमने मेरी रोटी छीनी, मैंने छीने पैसे, सीखा तुमसे काम, हुआ मैं बदनाम...जिसे बदलकर फ़िल्म में यूँ रखा गया था - देखो लोगों ज़रा तो सोचो बनी कहानी कैसे, कहीं पे ख़ुशियाँ, कहीं पे ग़म हैं, क्यों होता है ऐसे, वाह रे तेरे काम, कहीं सुबह, कहीं शाम.

इसी तरह इस फ़िल्म के अन्य गीत 'डम डम डिगा डिगा' में भी हेर-फेर हुआ था। प्रथम अंतरे की अँखियाँ झुकीं-झुकीं, बातें रुकीं-रुकीं देखो लुटेरा आज लुट गया... पंक्तियों को बदलकर अँखियाँ झुकीं-झुकीं, बातें रुकीं-रुकीं, देखो कोई रे आज लुट गया कर दिया गया था। दूसरे अंतरे के बीच की पंक्तियों, धंधा खोटा सही, बन्दा छोटा सही को नसीबा खोटा सही, बंदा छोटा सही कर दिया गया था। गीत का तीसरा अंतरा - तेरी क़सम तू मेरी जान है, मुखड़ा भोला-भाला, छुपके डाका डाला...तो फ़िल्म से शायद काट ही दिया गया था क्योंकि यह वीडियो कैसेट, आदि पर भी सुनाई नहीं देता।[36]

आप ख़ुद प्रबुद्ध हैं, पाठ-पाठ में भेद करनेवाले, नुक़्ताचीनी और विखंडन बख़ूबी कर सकते हैं। इसलिए सिर्फ़ ये कहकर चलते बनता हूँ कि सेन्सर बोर्ड ने अपनी नैतिक होशियारी में एक अच्छी-ख़ासी रचना की धार कुन्द कर दी। छलिया आपको याद होगा कि विभाजन के पसमंज़र पर बनी फ़िल्म थी, जिसमें राजकपूर का किरदार भले दिलवाला छोटा-मोटा गिरह-कट है, जो पाकिस्तान से आयी उत्पीड़ित डार से बिछुड़ी बदहवास नायिका नूतन की मदद करता है, उसे अपनाता है, उसके अपनों से मिलवाता है। गाने की मूल कल्पना में सामाजिक विषमता से जेबकतरे की पैदाइश का जो समाजशास्त्र है, और वर्ग-संघर्ष की जो प्रेरणा है, उसको सेन्सरित संस्करण में नेस्तनाबूद कर दिया गया है। महज़ अल्फ़ाज़ की पहरेदारी के ज़रिए। आशय ये कि राजकीय नैतिकता चाहती है कि डाकू या जेबकतरे अपने रचनात्मक उत्स से ही सुधरे हुए पर्दे पर दाख़िल हों, वरना उन्हें आज़ाद भारत में पैदा ही नहीं होने दिया जाएगा! क्योंकि स्वतंत्र, बाल्यकालीन भारत के बालमन नागरिक भले-बुरे का भेद नहीं कर सकते, ऐसे पतनशील पाठ का रचनात्मक पाठ नहीं कर सकते!

क़िस्सा कोताह ये कि एक पूरा इतिहास लिखा जाना शेष है सिनेमा, रेडियो और भाषा के आधुनिक तिकोन पर, जिसमें यह सवाल भी पूछा जाना चाहिए कि रेडियो पाकिस्तान हिन्दी फ़िल्मों के साथ कैसा बर्ताव करता है, और छोटा-सा जवाब ये है कि पाकिस्तानी राजसत्ता भी मुस्लिम लीग की विचारधारा की लकीर पीटती हुई, वैसी ही उर्दू लादने की कोशिश करती है, जैसी हिन्दी हिन्दुस्तानी हुकूमत, और रेडियो पाकिस्तान का सांगीतिक दिशासूचक भी अपनी हिन्दुस्तानी जड़ों से मुँह मोड़कर अरब-संसार की ओर उन्मुख हो जाता है। हिन्दी फ़िल्मों के प्रदर्शन पर राजनीतिक मौसमों का असर होता रहता है, कभी दिखाई जाती हैं, कभी नहीं[37]। ये अलग बात है कि वहाँ के लोग भी रेडियो सीलॉन के साथ-साथ ऑल इंडिया रेडियो की उर्दू सर्विस पर फ़िल्मी गानों के कार्यक्रम(जैसे कि 'आवाज़ दे कहाँ है' को सुनते रहते हैं, एचएमवी(कलकत्ता, कराची) के रिकॉर्ड बजाते रहते हैं, और बक़ौल बाप्सी सिध्वा, श्वेत-श्याम ज़माने में, जब कमाल अमरोही की पाकीज़ा दूरदर्शन अमृतसर से रिले होकर लाहौर में दिखाई जाती है, तो वहाँ कर्फ़्यू का आलम तारी हो जाता है और नौकर मालिकों से अविलंब टीवी ख़रीदने की माँग को लेकर एक अनोखे सत्याग्रह पर उतर आते हैं[38]।

कहानियाँ, बहुतेरी हैं, पर बाक़ी फिर कभी। शुक्रिया।

संदर्भ

[1] पाठकों पर शायद यह ज़ाहिर हो जाएगा कि यह लेख अपने पहले जन्म में एक भाषण था, जो भारतीय उच्च संस्थान, शिमला में आयोजित एक सात-दिनी कार्यशाला के दौरान हुआ था। टिप्पणियों के लिए कार्यशाला के तमाम सहभागियों का शुक्रिया। इस अद्भुत कार्यशाला की पूरी कार्रवाई अभय कुमार दुबे के संपादन में संस्थान से हिन्दी-आधुनिकता: एक पुनर्विचार शीर्षक से तीन खंडों में शीघ्र प्रकाशनाधीन है। संपादक के अलावा संस्थान के निदेशक का भी शुक्रिया, जिन्होंने इसे पहले प्रकाशित करने की इजाज़त दी। रवि वासुदेवन, शाहिद अमीन, अवधेन्द्र दीपू शरण, सौम्या गुप्ता, पंकज झा, नरेश मोहन झा, जोज़फ़ मथाई, प्रभात कुमार झा, व विभास चंद्र वर्मा और नरेश कुमार का भी आभार, जिन्होंने इसके टुकड़े जब-तब सुने हैं। तद्भव के अखिलेश जी और गुणग्राहक मित्र पीयूष दईया का भी शुक्रिया।

[2] क्रिश्चियन मेट्ज़, फ़िल्म लैंग्वेज: अ सेमिऑटिक्स ऑफ़ द सिनेमा . अनुवाद: माइकल टेलर, युनिवर्सिटी ऑफ़ शिकागो प्रेस, शिकागो, 1975. लेव मानोविच, द लैंग्वेज ऑफ़ न्यू मीडिया, एमआईटी, केम्ब्रिज, 2001.

[3] जिस तरह पारसी थिएटर के नाटकों के प्रचार के लिए पर्चियाँ होती थीं - मशहूर नाटककार नारायण प्रसाद 'बेताब' ने अपनी औपचारिक नौकरी एक ऐसे ही प्रेस से शुरू की थी - वैसे ही फ़िल्म के 'सचित्र गीत डायलॉग' मार्का चौपतिया पुस्तिकाएँ कई भाषाओं व कई स्थानीय संस्करणों (दिल्ली, बंबई, कानपुर, पटना) में छपती थीं. देखें पंडित नारायण प्रसाद 'बेताब' की आत्मकथा, बेताबचरित, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली, (1937), 2002. पृ. 39-42, जिसमें वे क़ैसर-हिन्द प्रेस में अपने पिंगल के ज्ञान के आधार पर छपने आए एक पारसी नाटक का मिसरा दुरुस्त करते हैं, और इस तरह अपने मालिक का विश्वास तो जीतते ही हैं, आगे के खेल के पास भी हासिल करते हैं, जो नाटककार बन सकने की उनकी चाह व राह को सुगम बनाता है.

[4] सदन झा, 'संतोष रेडियो ने गढ़े इंसानी रिश्ते', मीडियानगर02: उभरता मंज़र, (संपादक: राकेश कुमार सिंह), सराय-सीएसडीएस+वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2005, पृ. 169-73.

[5] हिन्दुस्तानी पोस्टर के एक संक्षिप्त इतिहास के लिए देखें रंजनी मज़ुमदार, 'फ़िल्मी पोस्टर का सफ़र'. दीवान-ए-सराय 02: शहरनामा (सं. रविकान्त व संजय शर्मा), सराय-सीएसडीएस+वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2005, पृ. 78-85.

[6] सरगम का सफ़र: नई दुनिया, फ़िल्म विशेषांक, जून, 1989.(इसकी दुर्लभ प्रति मुहैया कराने के लिए शुक्रिया, प्रभात रंजन).

[7] वैसे तो कई दिलचस्प वेब-पते हैं जहाँ आप रेडियो के पुराने दिनों को फिर से जी सकते हैं, लेकिन कुछ मुझे ख़ास तौर पर प्रिय हैं: अतुल का http://squarecutsblog.blogspot.com/ जहाँ पर चली एक पूरी शृंखला बिनाका गीतमाला को समर्पित है. दूसरा, विविध भारती के रेडियो उद्घोषक युसुफ़ ख़ान का रेडियो वाणी: http://radiovani.blogspot.com/ व रेडियोनामा: http://radionamaa.blogspot.com/, हिन्दयुग्म की आवाज़ भी: http://podcast.hindyugm.com/ . [8] अब तक अमीन सायानी की नयी शृंखला गीतमाला की छाँव में के छ: पैक बाज़ार में गिर चुके हैं, और कहानी अभी साठ के दशक में ही चल रही है: देखें: सारेगामा+आरपीजी द्वारा प्रस्तुत ऑडियो सीडियाँ, नंबर: सीडीएफ़ 330112- 330167, वर्ष: 2009-11.

[9] मशहूर रेडियो कार्यक्रम 'गीतमाला' के सालाना पायदानों की सिलसिलेवार पेशकश के लिए देखें: अनिल भार्गव, गीतमाला का सुरीला सफ़र, वांग्मय प्रकाशन, जयपुर, 2007.

[10] हमारे यहाँ रेडियो को लेकर लिखे गए ज़्यादातर इतिहास राज्यवादी हैं, उनको सामाजिक इतिहास क़तई नहीं कहा जा सकता. इनका लेखन आम तौर पर आकाशवाणी से सेवानिवृत्त आला अधिकारियों ने सरकारी रपटों और अपने तजुर्बों के बल पर किया है। मिसाल के लिए: जीए अवस्थी, ब्रॉडकास्टिंग इन इंडिया, अलायड पब्लिशर्स, दिल्ली, 1965; के एस. मलिक, टैंगल्ड टेप्स: दि इनसाइड स्टोरी ऑफ़ इंडियन ब्रॉडकास्टिंग, स्टर्लिंग पब्लिशर्स, दिल्ली, 1974; पी.सी. चैटर्जी, ब्रॉडकास्टिंग इन इंडिया, सेज पब्लिकेशन्स, 1987; डा. ओमप्रकाश जमलोकी,आकाशवाणी एवं दूरदर्शन:उद्भव तथा विकास, अरावली प्रिंटर्स ऐण्ड पब्लिशर्स, 2002. राजकीय नज़रिए की एक हालिया आलोचना के लिए देखें, कंचन कुमार, 'मिक्स्ड सिग्नल्स:रेडियो ब्रॉडकास्टिंग पॉलिसी इन इंडिया', इकनॉमिक ऐण्ड पॉलिटिकल वीकली, वॉल्युम 38, नंबर: 22(मई 31-जून 6, 2003), पृ. 2173-2182. संस्मरणों की बात कुछ अलग है, उनमें निजी, सामाजिक व सांस्कृतिक पहलू भी लामुहाला झाँक जाते हैं. एक उदाहरण के लिए देखें, गंगाधर शुक्ल, वक़्त गुज़रता है: आकाशवाणी और दूरदर्शन के साठ साल, सारांश प्रकाशन, दिल्ली, 2005.

[11] मुकुल केशवन, 'उर्दू, अवध ऐण्ड द तवायफ़: दि इस्लामिकेट रूट्स ऑफ़ हिन्दी सिनेमा', जो ज़ोया हसन (सं.), फ़ोर्जिंग आइडेन्टिटीज़: जेन्डर, कम्युनिटीज़ ऐण्ड द स्टेट, काली फ़ॉर वीमेन, दिल्ली, 1994 में संकलित है; रंजनी मज़ुमदार, 'फ़िगर ऑफ़ द 'टपोरी': लैन्ग्वेज, जेस्चर ऐण्ड द सिनेमैटिक सिटी', इकनॉमिक ऐण्ड पॉलिटिकल वीकली, दिसंबर, 29, 2001, पृ. 4872-4880; हरीश त्रिवेदी, 'ऑल काइन्ड्स ऑफ़ हिन्दी: दि इवॉल्विंग लैन्गेवज ऑफ़ हिन्दी सिनेमा', जो विनय लाल व आशिस नंदी (सं), फ़िन्गरप्रिन्टिंग पॉपुलर कल्चर: द मिथिक ऐण्ड दि आइकॉनिक इन इण्डियन सिनेमा, ऑक्सफ़र्ड युनिवर्सिटी प्रेस, दिल्ली, 2006 में संकलित है, पृ. 51-86. हिन्दी में जबरीमल्ल पारख ने हाल में एक अच्छा आलेख लिखा है, 'फ़िल्मी गीतों की मिली जुली ज़बान में लोक-तत्व', नया पथ, जुलाई-सितंबर, 2008, पृ. 135-39. ये भी देखें, डॉ. नंदकिशोर नंदन,'गीतों की काव्यात्मकता', जो मृत्युंजय(सं.) सिनेमा के सौ बरस, शिल्पायन, दिल्ली, 2003 में संकलित है, पृ. 331-35.

[12] आशीष राजाध्यक्ष व पॉल विल्मैन, इन्साइक्लोपीडिया ऑफ़ इन्डियन सिनेमा, ऑक्सफ़र्ड युनिवर्सिटी प्रेस, दिल्ली, 1995, 1999.

[13] माधुरी, 30 जुलाई, 1965. मशहूर और मान्य फ़िल्म पत्रिकामाधुरी पर मेरे स्वतंत्र लेख के लिए देखें, 'हिन्दी फ़िल्म अध्ययन: माधुरी का राष्ट्रीय राजमार्ग', दीप भव 2011: लोकमत समाचार, दीवाली विशेषांक, या, http://kafila.org/2011/12/05/हिन्दी फ़िल्म अध्ययन.


[14] इसका मुख़्तसर-सा ज़िक्र मैंने अपने आत्मकथात्मक आलेख, 'एक भाषायी सफ़र और चंद नुस्ख़े', नया पथ, जुलाई-सितंबर, 2008, और सराय रीडर 01 व 03 के अपने लेखों में किया है, जो 'पब्लिकेशन्स' नामक टैब के तहत www.sarai.net पर उपलब्ध हैं.

[15] राधेश्याम कथावाचक द्वारा हिन्दी साहित्य सम्मेलन के लाहौर में 1922 में हुए बारहवें अधिवेशन में दिया गया भाषण 'वर्तमान नाटक तथा बायस्कोप कंपनियों द्वारा हिन्दी प्रचार', रंग दस्तावेज़ खंड-एक, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, दिल्ली, 2007, पृ. 148-54. उनकी आत्मकथा में बहुतेरे दीगर संदर्भ मिल जाएँगे: मेरा नाटक-काल: थिएटर के एक आदि व्यक्ति की आत्मकथा, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली, 2004. भाषा के मर्तबान को शुद्ध साहित्यिक हिन्दी से भरने की ये चिंता पुरानी है: देखें बालकृष्ण भट्ट, 'पारसी थिएटर', हिन्दी प्रदीप, सं. 9-12, सितंबर-दिसंबर, 1903, पृ. 8-9, जो महेश आनंद(सं), रंग दस्तावेज़: खंड-1, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, दिल्ली, 2007 में संकलित है. तुलना के लिए इसी खंड में छपीं आग़ा हश्र कश्मीरी की दो अपीलें पढ़ें: इससे लगता है कि हिन्दी व उर्दू दोनों ही हलक़ों में कुछ हद तक समान तरह की चिंताएँ व्याप्त थीं.

[16] अंग्रेज़ी किताब का नाम भी निहायत दिलचस्प है, देखें, रविशंकर शुक्ल, द लैंग्वेज पॉलिसी ऑफ़ ए.आई.आर: ऐट्रॉसिटीज़ ऑफ़ दि ए.आई.आर आन हिन्दी ऐण्ड हिन्दू कल्चर (विद अ प्रेफ़ेस बाय श्री संपूर्णानंद, एक्स मिनिस्टर फ़ॉर एडुकेशन, युनाइटेड प्रॉविन्सेज़), दि प्रॉविन्सियल हिन्दी साहित्य सम्मेलन, एलाहाबाद, 1944.

[17] पं. रविशंकर शुक्ल, हिन्दी वालो, सावधान!, प्रचार पुस्तकमाला, काशी नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, 1947; 'मौलाना' गांधी?, गंगा- ग्रंथागार, लखनऊ, 1946: वैसे शुक्ल जी के बचाव में ये कहा जाना चाहिए कि ये शीर्षक प्रति-प्रश्नवाची है, और किताब "हिन्दुस्तानी प्रचार सभा, वर्धा, के प्रधान मंत्री श्री श्रीमन्नारायण के 'मौलाना गांधी' लेख का उत्तर" थी; ये उनका गढ़ा हुआ उपनाम हरगिज़ नहीं था. ये दीगर बात है कि उन्होंने 'मौलाना गांधी' समेत हिन्दुस्तानी फैलाने वाले तमाम लोगों और रेडियो की इसमें ख़ूब ख़ाल खींची. देखें इसी विषय पर उनकी एक और किताब, राष्ट्रभाषा आंदोलन और हिन्दुस्तानी आंदोलन, गंगा ग्रंथागार, लखनऊ, सं. 2002 वि.

[18] देखें एस. डब्ल्यू. फ़ैलन के दो कोष: अ न्यू हिन्दुस्तानी-इंग्लिश डिक्शनरी, बनारस, 1879. पुनर्मुद्रण: क़ौमी उर्दू कौन्सिल, देहली, 2004, और हिन्दुस्तानी-इंग्लिश डिक्शनरी ऑफ़ इडियम्स ऐण्ड प्रॉवर्ब्स, 1886. पुनर्मुद्रण: स्टार पब्लिकेशन्स, दिल्ली, 1991. अगर आप चाहें तो फ़ैलन की मूल भूमिका का बहुलांश हिन्दी अनुवाद में पढ़ सकते हैं, नया पथ, जुलाई-सितंबर, 2008, (अनुवाद: ऐना रुथ जे व रविकान्त). अपनी इस तवील भूमिका में फ़ैलन ने हिन्दुस्तानी को पंडितों और मौलवियों के चंगुल से आज़ाद करके इसे जनता से जोड़ने की वकालत की थी, और कोष को भी लिखित व वाचिक लोकप्रिय प्रयोगों के आधार पर ही सिरजा था - कमोबेश यही ज़बान हमें सिनेमा और रेडियो जैसे जनमाध्यम में मिलती है। प्रसंगवश यह महज़ संयोग नहीं कि लोकभाषा के हिमायती फ़ैलन की दिलचस्पी लोकगीत व संगीत के संग्रह में भी थी. उनकी मुख़्तसर बौद्धिक जीवनी के लिए देखें: जेरी फ़ेरेल व नील सॉरेल, 'कोलोनियलिज़म, फ़िलॉलजी ऐण्ड म्यूज़िकल एथ्नॉग्रफ़ी इन नाइन्टीन्थ सेन्चुरी इंडिया: द केस ऑफ़ एस. डब्ल्यू फ़ैलन', म्यूज़िक ऐण्ड लेटर्स, वॉल्यूम 88, नं. 1, 1996, पृ. 107-20. फ़ैलन से त'आरुफ़ कराने के लिए शाहिद अमीन का आभार.

[19] हिन्दुस्तानी के मसले पर पक्ष-विपक्ष-समकक्ष हर नज़रिये से 1930-60 के बीच काफ़ी कुछ लिखा गया है। मिसाल के तौर पर देखें, ताराचंद, द प्रॉब्लम ऑफ़ हिन्दुस्तानी, इंडियन पीरियॉडिकल्स लि., इलाहाबाद, 1944; रामधारी सिंह दिनकर, राष्ट्रभाषा आंदोलन और गांधीजी, उदयाचल, पटना, 1968; आलोक राय, 'द घोस्ट आफ़ हिन्दुस्तानी' का संजीव कुमार द्वारा किया गया हिन्दी तर्जुमा, हिन्दुस्तानी सदाबहार ज़बान', नया पथ, जुलाई-सितंबर, 2008, पृ. 86-92. लेकिन रविशंकर शुक्ल का मुलम्मा जिस तरह रामविलास शर्मा ने उसी ज़माने में उतारा था, वह क़ाबिले तारीफ़ है, और उनकी सधी हुई लेखनी की दूरंदेशी से ही संभव था. हिन्दी वालो सावधान! की समीक्षा करते हुए वे लिखते हैं: “लेखक को हर जगह हिन्दी हारती हुई और उर्दू जीतती हुई दिखाई देती है. उर्दू की जीत का कारण उसका विशुद्धतावाद यानी हिन्दी शब्दों के बहिष्कार की प्रवृत्ति बताई गई है. अब उस विशुद्धतावाद को हिन्दी में लागू करने का हठ किया गया है. वास्तव में हार न हिन्दी रही है, न उर्दू, हार रहे हैं दोनों तरफ़ के विशुद्धतावादी जो दोनों को बोलचाल के अस्सी फ़ीसदी शब्दों के आधार पर नज़दीक आते देखकर छाती पीट रहे हैं. उनका ये काम बिल्कुल उचित भी क्योंकि दोनों के पास आने को वे बिल्कुल नहीं रोक पाते! लेखक ने कई जगह ऐसे(आमफ़हम)शब्दों की सूची बनाई है, जिन्हे वह हिन्दी से निकाल देना चाहते हैं.....जिन्हें हिन्दू संस्कृति के लिए घातक बताया गया है. अब पाठक स्वयं सोचे कि हिन्दी को इन शब्दों से ख़तरा है या रविशंकर शुक्ल जैसे उसके समर्थकों से...इन शब्दों के हिन्दी पर्यायवाची तो और भी मनोहर हैं! 'किताब' के लिए केवल 'पोथी' लिखना चाहिए और 'बीवी' के लिए 'बहू'! हिन्दी वालों को सावधान करने वाले इस सज्जन से अगर कोई पूछे कि क्या आपने यह पोथी 'अफ़ीम' खाकर लिखी थी, तो बेजा सवाल न होगा.” देखें, रामविलास शर्मा, भारत की भाषा समस्या, राजकमल प्रकाशन, (1978), 2011 संस्करण, अध्याय 6: 'हिन्दी और हिन्दू राष्ट्रवाद', पृ. 41-42. (शुक्रिया: अभय दुबे).

[20] डेविड लेलिवेल्ड, 'टॉकिंग द नैशनल लैंग्वेज: हिन्दी/उर्दू/हिन्दुस्तानी इन इंडियन ब्रॉडकास्टिंग ऐण्ड सिनेमा', जो एस. पटेल, बागची, व कृष्णराज की किताब थिंकिंग सोशल साइन्स इन इंडिया: एसेज़ इन आनर ऑफ़ एलिस थॉर्नर, सेज, दिल्ली, 2003में संकलित है; 'अपॉन द सबडॉमिनैन्ट: ऐडमिनिस्टरिंग म्यूज़िक ओवर ऑल़ इंडिया रेडियो', कैरॉल बेकेनरिज (सं.), कन्ज़्यूमिंग मॉडर्निटी: पब्लिक कल्चर इन अ साउथ एशियन वर्ल्ड, युनिवर्सिटी ऑफ़ मिनेसोटा प्रेस, मिनियापलिस, 1995.

[21] जिन दो नामों को देविका रानी और दिलिप कुमार दोनों ने ख़ारिज़ किया, वे थे: 'जहाँगीर' और 'वासुदेव'. दिलिप कुमार के दिल में अपने अब्बा का ख़ौफ़ समाया हुआ था, जिनसे चोरी-छिपे वे बंबई में काम करने आए थे. उन्होंने देखा था कि वे अपने दोस्त, पृथ्वीराज कपूर के पिता, बिशेसरनाथ की इसी बात पर कड़ी आलोचना किया करते थे. कहते थे, “बशेसरनाथ, तुम अपने बेटे को नाचनेवालियों की संगति में कैसे डाल सकते हो?”, देखें, बनी रुबेन, दिलिप कुमार: स्टार लेजेन्ड ऑफ़ इंडियन सिनेमा, हार्पर कॉलिन्स+इंडिया टुडे, नई दिल्ली, 2004, पृ. 61-62.

[22] लता मंगेशकर....इन हर ओन वॉयस: कॉन्वर्सेशन्स विद नसरीन मुन्नी कबीर, नियोगी बुक्स, दिल्ली, 2009, पृ. 46.

[23] देखें, बनी रुबेन, दिलिप कुमार: स्टार लेजेन्ड ऑफ़ इंडियन सिनेमा, हार्पर कॉलिन्स+इंडिया टुडे, नई दिल्ली, 2004, पृ. 61.

[24] अली हुसैन मीर व रज़ा मीर, ऐन्थेम्स ऑफ़ रेज़िस्टेन्स: अ सेलेब्रेशन ऑफ़ प्रोग्रेसिव उर्दू पोएट्री, इंडियाइंक/रोली बुक्स, नई दिल्ली, 2006: ख़ास तौर पर अध्याय 7: वो यार है जो ख़ुशबू की तरह, है जिसकी ज़बाँ उर्दू की तरह'.

[25] रविशंकर शुक्ल, 'हिन्दुस्तानी की बला', हिन्दी वालो, सावधान!, पृ. 192-94.

[26] देखें अजन्ता सिनेटोन से जयशंकर प्रसाद के नाम धनपतराय का पत्र(1.10.1934), प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य, खंड-दो, पृ. 26-28. संकलनकर्ता: कमल किशोर गोयनका, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, 1988. इसी किताब में मौजूद एक और लेख, 'सिनेमा और जीवन' में प्रेमचंद ने उपसंहार यूँ किया: और अब यह बात धीरे-धीरे समझ में आने लगी है कि अर्धनग्न तस्वीरें दिखाकर और नंगे नाचों का प्रदर्शन करके जनता को लूटना इतना आसान नहीं रहा. ऐसी तस्वीरें अब आम तौर पर नापसंद की जाती हैं, और यद्यपि अभी कुछ और दिनों जनता की बिगड़ी हुई रुचि आदर्श चित्रों को सफल न होने देगी लेकिन प्रतिक्रिया बहुत जल्द होने वाली है और जनमत अब सिनेमा में सच्चे और संस्कृत जीवन का प्रतिबिम्ब देखना चाहता है, राजाओं के विलासमय जीवन और उनकी ऐयाशियों और लड़ाइयों से किसी को प्रेम नहीं रहा.”, हंस, मार्च, 1935. (शुक्रिया: राजीव रंजन गिरि). हम कह सकते हैं कि प्रेमचंद के आदर्शों को सरकारी तौर पर लागू करने का वक़्त आज़ादी मिलते ही आ जाता है.

[27] देखें, श्रीराम विद्यार्थी द्वारा लिया गया साक्षात्कार, उपेन्द्रनाथ अश्क, फ़िल्मी दुनिया की झलकियाँ-2, नीलाभ प्रकाशन, इलाहाबाद, 1979, पृ. 62. अश्क उर्दू वालों के फ़िल्मी दुनिया में टिकने की एक और ग़ौरतलब वजह बताते हैं कि उनके लिए बाक़ी दुनिया में मौक़े बंद होते चले गए थे, जबकि हिन्दी वालों के लिए रोज़गार की नई खिड़कियाँ खुल रही थीं, राज्याश्रयी और सेठाश्रयी दोनों तरह के इदारों में.

[28] लायनेल फ़ील्डेन, द नैचुरल बेन्ट, आन्द्रे डूश, लंदन, 1960, पृ. 185. अनुवाद मेरा.

[29] पार्थ सारथि गुप्ता, रेडियो ऐण्ड द राज, 1920-47, एसजी देउस्कर लेक्चर आन हिस्ट्री ऐण्ड कल्चर, 1988, सीएसएसएस, केपी बागची ऐण्ड कं., कलकत्ता, 1995. जोसलिन एमी ज़िविन, द प्रॉजेक्शन ऑफ़ इंडिया: इम्पीरियल प्रौपगैण्डा, द ब्रिटिश स्टेट ऐण्ड नैशनलिस्ट इंडिया, पीएचडी शोध-प्रबंध, इतिहास विभाग, ड्यूक युनिवर्सिटी, 1994. (शुक्रिया: रवि सुंदरम).

[30] यूट्यूब या राग.कॉम पर ढेर-सारी मिसालें मिल जाएँगी. किताबें भी हैं, मिसाल के लिए, एसएम शाहिद, इम्मोर्टल फ़िल्म सॉन्ग्स इन्स्पायर्ड बाइ रागाज़, पाक-अरब रिफ़ाइनरी लि., कराची, 2004; पंकज राग , धुनों की यात्रा, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2006.

[31] देखें, अश्विन पुणतांबेकर, 'कोलम्बो कॉलिंग: रेडियो सीलॉन ऐण्ड बॉम्बे सिनेमा'ज़ "नैशनल आडिएन्स", http://flowtv.org/?p=4303.

[32] बनी रुबेन, दिलिप कुमार, पृ. 300. सेंसर बोर्ड ने कुल अश्लील व हिंसक दृश्यों के कुल 250 कट बताए थे, और दिलिप कुमार को अपने ही विभाग के मंत्री से वक़्त मिलना असंभव हो गया था. पृ. 308-09. दिलचस्प है ये जानना भी कि इस फ़िल्म को कुल सात कोटियों में फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया, और वैजयंती माला, वजाहत मिर्ज़ा(संवाद) व वी. बालासाहब(सिनेमैटॉग्रफ़ी) के हिस्से तो तीन पुरस्कार आए भी. कहना नहीं पड़ेगा कि आम जनता व फ़िल्मी दुनिया के प्रबुद्ध, दोनों की नज़र में नेहरू सही ठहरते हैं, न कि केसकर. देखें: http://www.imdb.com/title/tt0054910/awards

[33] अमीन सायानी के कार्यक्रमों पर उपलब्ध सामग्री के सबसे बड़े स्रोत वे ख़ुद हैं. और वेब पर आपको उनके कई इंटरव्यू भी मिल जाएँगे. मिसाल के तौर पर उनसे की गई ये लंबी बातचीत: http://www.archive.org/details/AmeenSayaniHindYugm. श्रीलंका ब्रॉडकास्टिंग की हिन्दी सेवा अभी-भी जारी है, हलाँकि प्रसारण समय सिकुड़ता गया है. एक हालिया प्रसारण की रिकॉर्डिंग सुनें: http://ia600601.us.archive.org/22/items/RadioCylon-theHindiBroadcasting/01-RadioCylon-slbc-october5th-2011.mp3. अमीन सायानी के वेबसाइट पर उनकी पेशेवर ज़िन्दगी के अहम मरहले दर्ज हैं: http://ameensayani.com/cv.html

[34] आगे चलकर नरेन्द्र शर्मा ने एक फ़रमाइशी पर बेहद ख़ूबसूरत लेख लिखा, जिसका शीर्षक निहायत मानीख़ेज़ है: 'सिनेसंगीत इंद्र का घोड़ा है: आकाशवाणी उसका सम्मान करती है', माधुरी, 21 अप्रैल, 1967. संपादक अरविंद कुमार के जिन सवालों के जवाब देता है यह लेख, उन्हे देखना दिलचस्प है: 'क्या सिनेसंगीत प्रभावशाली नहीं, लोकप्रिय नहीं? क्या सिने-संगीत मनोरंजन नहीं करता? क्या सिने-संगीत स्तर का नहीं होता? क्या सेन्सर बोर्ड की तीक्ष्ण दृष्टि के आगे वह नहीं गुज़रता? फिर क्या कारण है कि सेन्सर किये गीत भी कई बार रेडियो से प्रसारित नहीं होते? लीजिए 'विविध भारती' के प्रधान नियोजक और कवि नरेन्द्र शर्मा से ही अपने इन प्रश्नों का उत्तर सुनिये...'

[35] इनकी अपनी ज़िन्दगी व रेडियो से जुड़े तजुर्बों के लिए देखें, मनोहर महाजन, यादें रेडियो सिलोन की...वाङ्मय प्रकाशन, जयपुर, 2010; गोपाल शर्मा, आवाज़ की दुनिया के दोस्तो...(आत्मकथा), प्रकाशक: लेखक, बंबई, 2007.

[36] देखें, सतीश कालरा का अल्पजीवी स्तंभ, Read My Lips, लिस्नर्स बुलेटिन, अप्रैल, 2001(संपादक: हर मन्दिर सिंह 'हमराज़').

[37] देखें, निहाल अहमद, अ हिस्ट्री ऑफ़ रेडियो पाकिस्तान, ऑक्सफ़र्ड युनिवर्सिटी प्रेस, कराची, 2005;

[38] बाप्सी सिध्वा, 'टेलीविज़न सत्याग्रह के वे दिन', रविकान्त व संजय शर्मा(सं.), दीवान-ए-सराय01:मीडिया:// विमर्श हिन्दी जनपद, सराय-सीएसडीएस+वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2002, पृ. 103-05.(अनुवाद: रविकान्त).