सिनेमा और समाज में 'लक्ष्मण भाव'? / जयप्रकाश चौकसे

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सिनेमा और समाज में 'लक्ष्मण भाव'?
प्रकाशन तिथि : 24 अक्तूबर 2013


पुरानी फिल्में दर्शक की याद में समाई रहती हैं। धीरे-धीरे अनजाने ही फिल्मी यादें आपके अवचेतन का हिस्सा हो जाती हैं। हिंदुस्तानी सिनेमा ने धार्मिक आख्यानों के पात्रों की प्रेरणा से अपनी फिल्मों में चरित्र गढ़े क्योंकि वे जानते थे कि दर्शक के अवचेतन में इनके लिए पहले-सा ही स्थान आरक्षित है, इसलिए पात्र से भावनात्मक तादात्म्य बनाने में आसानी होगी। यह बात सीधे-सीधे धार्मिक आख्यान पर फिल्म बनाने की नहीं है परंतु प्रेरणा लेकर आधुनिक पात्र गढऩे की है। जैसे रामायण के पाठक लक्ष्मण के त्याग और भाई के प्रति भक्ति भाव से परिचित और प्रभावित हैं, वैसे ही फिल्मों में 'लक्ष्मण भाव' से प्रेरित पात्रों ने हमेशा दर्शक से स्नेह पाया है। महेश भट्ट की सर्वकालिक महान फिल्म 'सारांश' के नायक सेवानिवृत्त हेडमास्टर अनुपम खेर हैं। उनके बचपन के मित्र का नाम विष्णु है जिसे एक मराठी रंगमंच के अभिनेता ने जीवंत किया था। यह पात्र सारे समय अपने बड़े भाई समान हेडमास्टर की सेवा करता है, उनकी पत्नी को सीता की तरह पूजता है और हेडमास्टर के लाख क्रोध करने पर भी वह उनका साथ नहीं छोड़ता। सबसे बड़ी बात यह है कि वह अपना दु:ख या समस्याएं कभी 'बड़े भाई' को नहीं बताता। साथ चलते हुए भी पीछे चलने का प्रभाव छोड़ता है। अपने निजत्व को पूरी तरह त्याग करके अन्य के जीवन में रचना-बसना आसान नहीं होता।

देवआनंद की 'कालाबाजार' में सिनेमा टिकटों का धंधा करने वाले नायक की 'लक्ष्मण भाव' से सेवा करने वाला पात्र रशीद खान ने अभिनीत किया था। सारे साथी उसे छोड़ देते हैं, तब भी रशीद खान उसे नहीं छोड़ता। इसी तरह 'गाइड' में भी अनवर अली राजू गाइड का दोस्त है परंतु 'लक्ष्मण भाव' कभी तजता नहीं। यहां तक कि रोजी के जीवन में नायक का शामिल होना उसे पसंद नहीं परंतु लड़-झगड़कर भी साथ नहीं छोड़ता और क्लाइमैक्स में नायक का आमरण अनशन और मृत्यु का दर्द भी फिल्मकार अनवर के माध्यम से ही प्रस्तुत करता है। इसी तरह 'आनंद' की मृत्यु की भी असीम वेदना आप जॉनी वॉकर के माध्यम से ही महसूस करते हैं। दिलीपकुमार अभिनीत अनेक फिल्मों में मुकरी ने हास्य के अंदाज में 'लक्ष्मण भाव' वाली भूमिकाओं का निर्वाह किया है। यह सिलसिला कभी रुका नहीं है। यहां तक कि राजकुमार हीरानी के मवाली मुन्नाभाई की सेवा भी इसी भाव से उसका मित्र सर्किट भी करता है। आश्चर्य की बात यह है कि अपराधियों के जीवन पर बनी फिल्मों में भी 'लक्ष्मण भाव' से सेवा करने वाला एक पात्र होता है और उसकी वजेदारी पर कभी संदेह नहीं किया जा सकता। शोले में सांभा पूरी तरह गब्बर को समर्पित है। दरअसल साधु महात्माओं से लेकर अपराध सरगना तक के साथ 'लक्ष्मण भाव' से पूरी तरह समर्पित व्यक्ति रहे हैं और उनकी कोई व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा भी नहीं होती।

गौरतलब यह है कि यह एक लोकप्रिय धारणा है कि शुद्ध आचरण करने वालों की आत्मा मृत्यु के बाद भी विराट में विलीन हो जाती हैं और जन्म जन्मांतर की वेदना से मुक्त हो जाती है। यही काम अपने जीवित होते हुए 'लक्ष्मण भाव' से सेवा करने वाले करते हैं। उनका निजत्व ही विलीन हो जाता है। क्या स्वयं का निजत्व अन्य में विलीन करना स्वयं को नष्ट करना नहीं है या स्वयं को नकारना नहीं है? जब एक तरफ स्वयं को जान लेने को ज्ञान का अंतिम सोपान मान लिया जाता है तो इस 'स्वयं' को विलीन करने का क्या अर्थ है? इस विषय पर महाभारत में मृत्युशय्या पर पड़े भीष्म और युधिष्ठिर में लंबी बात का विवरण है जिसमें 'मोक्ष' के मिथ और मनुष्य की याद के महत्व पर रोशनी डाली गई है। मोक्ष भी जाकर रेजीमेंटेशन की एकरसता पर टिक जाता है। सभी विराट में विलीन हो गए तो कहीं कुछ बचा ही नहीं है। मनुष्य को जीवन और धरती से गहरे मोह के कारण ही पुनर्जन्म अवधारणा का निर्माण हुआ। हम बार-बार इस जीवन के सारे दु:ख दर्द और सुख को भोगने के लिए लौटना चाहते हैं। अनंत की एकरसता से बेहतर है जीवन की विविधता और उसकी वेदना।

बहरहाल 'लक्ष्मण भाव' से ेवा करने वाले राजनीति और साहित्य क्षेत्र में हुए हैं परंतु अब हर सांभा गब्बर बनना चाहता है। 'राम' को आज भी आदर्श मानकर उस मार्ग पर चलने की चेष्टा संभव है परंतु 'लक्ष्मण भाव' समाज से पूरी तरह लुप्त हो गया है।