सिनेमा मे 'शपथ' और 'प्रार्थना' / जयप्रकाश चौकसे

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सिनेमा मे 'शपथ' और 'प्रार्थना'
प्रकाशन तिथि : 17 नवम्बर 2012


अजय देवगन की 'सन ऑफ सरदार' में संजय दत्त की शादी जूही से हो रही है और परिवार के सदस्य की पुश्तैनी दुश्मन द्वारा हत्या का समाचार मिलने पर संजय दत्त शपथ लेते हैं कि हत्यारे के वंश का नाश करने के बाद ही वे विवाह करेंगे। कई वर्ष पश्चात आधी दुल्हन अपनी ननद हो सकने वाली सोनाक्षी का विवाह हत्यारे के पुत्र से हो सके, इसलिए ताउम्र आधी-अधूरी दुल्हन बने रहने को तैयार है और उसी समय संजय दत्त की मां, जो सारी उम्र याददाश्त की धूप-छांह के स्वांग द्वारा अपने दुख को भुलाने की चेष्टा कर रही थी, संजय दत्त को पुश्तैनी दुश्मनी भुलाने का आदेश देती है। इन दो स्त्री पात्रों के कारण पुश्तैनी दुश्मन की दास्तां समाप्त होती है। फंतासी की तरह रची यह अतिरेकपूर्ण फिल्म अपने इस आधारभूत संस्कार के कारण सफल सिद्ध हो रही है। हर फिल्म में एक आधार होता है, एक नींव होती है, जो बॉक्स ऑफिस पर निर्णायक सिद्ध होती है।

आश्चर्य इस बात का है कि भारतीय मनोरंजन में 'संस्कार' हमेशा निर्णायक रहा है, परंतु यही 'संस्कारवान' दर्शक एक आदर्श नागरिक के रूप में नजर नहीं आता। हमारी महान सांस्कृतिक विरासत पर हमें गर्व है, परंतु हम अपने जीवन में क्यों संकीर्ण विचारधारा वाले बने रहते हैं, यह समझ पाना कठिन है। भारतीय बॉक्स ऑफिस 'संस्कार' संचालित है और किसी फिल्म में पात्र संशय से घिरे हों तो वह अस्वीकृत हो जाती है, भले ही उसमें सिनेमाई गुणवत्ता हो। इस तरह का विरोधाभास सिनेमा में किसी भी देश में नहीं दिखाई पड़ता।

यह भी अजीब बात है कि हमारा समाज महिलाओं के प्रति क्रूर है, परंतु अधिकांश सफल फिल्मों में महिला पात्र ही निर्णायक या प्रेरक सिद्ध होती हैं। नायिका द्वारा अपराध जगत में आकंठ डूबे पात्र उस दलदल से उभरकर नैतिकता की राह पर आते प्रस्तुत किए गए हैं। 'जिस देश में गंगा बहती है' का ढपली बजाने वाला यायावर नायक पुलिस फोर्स और डाकुओं के बीच महिलाओं व बच्चों की कतार खड़ी करके डाकुओं के आत्म-समर्पण को संभव बनाता है। देव आनंद अभिनीत पांचवें-छठे दशक की फिल्मों में नायिका ही नायक को अपराध की दुनिया से बाहर लाती हैं।

सिनेमा में 'शपथ' का नाटकीय प्रयोग किया जाता है, 'प्रार्थना' के दृश्य भी निर्णायक होते हैं। फिरोज खान की 'जांबाज' में फिरोज अपने भाई अनिल की हिफाजत की दुआ मांगते हैं, परंतु अगले ही दृश्य में अनिल पुलिस की गोली का शिकार हो जाता है और इसी कारण फिल्म अस्वीकृत हो गई। 'आलम आरा' से लेकर 'लगान' तक फिल्मों में क्लाइमैक्स के पहले प्रार्थना गीत हैं और नायक सफल होता है। मनमोहन देसाई की फिल्मों में तर्क का सिर्फ त्याग नहीं किया जाता वरन मखौल उड़ाया जाता है, परंतु उनके सिनेमा में सारे अजूबे 'प्रार्थना' के दम पर घटित होते हैं और 'शपथ' हमेशा निभाई जाती है। क्या हमारे सिनेमा में 'शपथ' का महत्व महाभारत में भीष्म द्वारा अपने पिता के प्रेम को सफल बनाने के लिए ली गई 'प्रतिज्ञा' से जुड़ा है? उस 'प्रतिज्ञा' के कारण ही अंततोगत्वा कुरु वंश का नाश हो जाता है। अगर भीष्म शपथ न लेकर हस्तिनापुर के सिंहासन पर विराजते तो कथा कुछ और ही होती। दरअसल भीष्म पितामह पर यह अतार्किक शपथ लेने का दोष नहीं लगाया जा सकता, क्योंकि वे महज पिता के प्रति कर्तव्य निभाने के कारण नहीं, वरन विगत जन्म में स्वर्ग से गाय चुराने के कारण धरती लोक में दर्द सहने के लिए शापित थे।

बहरहाल मनोरंजन जगत में 'शपथ' और 'प्रार्थना' का कारण यह है कि भारतीय अवचेतन धार्मिक आख्यानों के रेशों से बुना है और लोकप्रियता के रसायन में ये महत्वपूर्ण घटक रहे हैं। राजनीति में भी लोकप्रियता को इन्हीं तत्वों की सहायता से रचा जाता है।

यश चोपड़ा की फिल्म 'जब तक है जान' की नायिका चर्च में ली गई शपथ को स्वयं ही अपनी मां से मिलने के पश्चात तोड़ती है और चंद रीलों बाद दुर्घटना में घायल नायक के जीवन के लिए प्रार्थना करते हुए उससे दूर रहने की शपथ लेती है। महाकाव्य के स्तर पर रची भव्य फिल्म में 'प्रार्थना' और 'शपथ' का निर्वाह सिनेमा में स्थापित परंपरा के विरुद्ध जाता है और शायद इसी कारण भारत के पारंपरिक क्षेत्रों में इसका व्यवसाय अपेक्षा से कम है, जबकि मुंबई और बेंगलुरु जैसे चुनिंदा शहरों में ठीक है, परंतु 'एक था टाइगर' से बहुत पीछे है। इस तरह यह भारत में विद्यमान 'पश्चिम' कीफिल्म है और अजय देवगन की फिल्म 'स्वदेशी' है। भारत में सिनेमाई गुणवत्ता निर्णायक नहीं है, जैसे भारतीय राजनीति में राजनीतिक सिद्धांत निर्णायक नहीं होते। 'शपथ' आत्म-अनुशासन का संस्कार है और 'प्रार्थना' एक अपरिभाषित शक्ति-स्रोत है।