सियार / जवाहर चौधरी

Gadya Kosh से
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उन दिनों दिलीप कुमार की फिल्म गंगा-जमुना चल रही थी। महीनों हो गए थे एक टाकीज में फिर भी सुविधा से टिकिट नहीं मिलते थे, फिर भी शहर जाने का जिसे भी मौका मिलता वह गंगा-जमुना को निबटा कर ही आता। ऐसे कई थे जिन्होंने फिल्म बीस से ज्यादा बार देख ली थी और अभी उनका पेट नहीं भरा था। दो आना-चार आना टिकट थे जो उस जमाने के हिसाब से कम नहीं थे। एक रुपए में सोलह आने होते थे और दिनभर की मजदूरी दस-बारह आने मिला करती थी। बड़े लोग वही सिनेमा 'गच्ची' पर लगी कुर्सियों पर बैठ कर देखते थे जिसका टिकट दो-तीन रुपए तक होता था। काला-ढुस्स गनुवा, जो अब अखाड़े में कसरत वगैरह करके पहलवान हो गया था और 'गन्नू पलवान' के नाम से उसकी कीर्ति बस्ती में फैल गई थी, उसने गंगा-जमुना सबसे ज्यादा, पैंतीस बार देख ली थी। आम तौर पर पहलवान उन दिनों लुंगी बांधा करते थे लेकिन दिलीप कुमार के प्रभाव में गनुवा पुरबिया धोती और कुर्ता पहनता था। गले में काले रंग का गुँथा हुआ डोरा भी उसकी शान में शुमार था। सारा दिन वह फिल्म के संवाद बोलता अपने को दिलीप कुमार में तब्दील करता रहता - 'एय धन्नो - अरी ओ धन्नो... ।' 'अगर तुझको कुछ होए गया ना धन्नो... तो राम कसम हम आग लगाके माटी कर देंगे संसार को...' 'ना धन्नो ना', 'मुन्ना... हट जा रे भइया... हमरे सीने मा आग लगी है आग।'

सड़क किनारे पीपल के पेड़ के नीचे छाया में लोग बस का इंतजार करते हैं सो वही बस स्टैंण्ड हो गया। पास में हरिराम बनिए की दुकान थी जिसमें सभी काम चलाऊ चीजें मिलती थीं, मसलन किराने का सामान, पूजापाठ में लगने वाली समाग्री, टावेल-पंछा, लाल-सफेद लंगोट, धोली मूसली, सांडे का तेल, एस्प्रो-एनासिन, सब कुछ। जो नहीं मिलता और यदि दो-चार ग्राहक उसके बारे में पूछ गए तो हरिराम अगली बार शहर से ले आता। उसे तो हर चीज में चार पैसा बचना चाहिए।

पिता की मौत के बाद राजस्थान से अपना सब कुछ समेट कर इकलौता हरिराम मां के साथ यहां आ बसा। लोग कहते हैं कि वहां उसके पिता की हत्या कर दी गई थी, लेकिन इस बारे में वह कभी मुंह नहीं खोलता था। चूंकि और कोई काम संभव नहीं था सो दुकान लगा ली, गुजारे लायक मिलने भी लगा। कुछ सालों में दुकान अच्छी जम गई और हरिराम भी जवान हो गया। लेकिन बिरादरी में हरिराम को लड़की देने के लिए कोई तैयार नहीं था। एक तो कामकाज मामूली, उस पर आगे-पीछे कोई रोने वाला न गाने वाला। ढूंढ़ते-देखते समय गुजर रहा था और हरिराम की उम्र बढ़ती जा रही थी। मां को चिंता होने लगी थी। संयोग से एक बिन मां-बाप की लड़की का पता चला। जिस बिरादरी में अपनी लड़की भारी पड़ती हो उसमें बिन मां-बाप की लड़की सगों के लिए किसी पहाड़ से कम नहीं। दोनों ओर लाचारी, लड़की सुन्दर थी मगर दान-दहेज को लेकर काकों ने हाथ जोड़ दिए। हरिराम की मां फिर भी खुश हुई कि चलो चांद सी बहू आएगी तो वंशबेल हरी हो जाएगी। जल्द ही मां-बेटे शुभ मुहुर्त में शगुन कर आए। विवाह दिवाली बाद का तय हुआ। लेकिन मां ज्यादा दिनों खुश नहीं रह सकीं। बरसात के मौसम में मलेरिया बिगड़ने पर हफ्ते भर बीमार रह कर चल बसी। हरिराम अकेला रह गया। मां का उत्तर कार्य पास-पड़ोस के लोगों ने करवा दिया और पुण्य कमाया। खिचड़ी-दलिया उबाल कर पेट भरते हरिराम भी परेषान था पर सवा साल पूरा होने से पहले विवाह करता तो उस जमाने में लोग थू-थू करते।

इधर दिलीप कुमार के कस्बाई अवतार के चलते गनुवा के आसपास लौंड़ों-लपाड़ों का जुड़ाव पहले से ज्यादा हो गया। सब गंगा-जमुना के संवाद सुनते खी-खी करते खड़े रहते। 'पलवान' को पता भी चल गया था कि बनिये की होने वाली जोरू बहुत सुन्दर है, एकदम बैजंतीमाला। उसके लड्डू जो धन्नो-धन्नो करके फूट रहे थे, अब ज्यादा मीठे हो गए। शादी का इंतजार जितना बनिए को था उससे कहीं ज्यादा गनुवा को होने लगा। 'पलवान' के दिमाग में एक नई 'गंगा-जमुना' बन रही थी जिसमें भी धन्नो से प्यार था और हरिराम से उठापटक। संयोग यह कि गंगा-जमुना में खलनायक का नाम भी हरिराम है। गनुवे को अपने लिए हरिराम ढूंढ़ने या रचने के लिये कहीं दूर जाने की जरुरत नहीं थी। अब उसके संवाद अर्थपूर्ण होने लगे - 'अरे मून्ना हो! मोर धन्नो आने वाली है रे... जाय के बता तो दे रे धन्नो को कि तोर गंगवा सूख के कांटा हुई गवा रे.... अरे ओ धन्नो... कहां है रे तू... कब अइए रे...य।' हरिराम ने भी गंगा-जमुना दो बार देखी थी सो उसे सब समझ में आ रहा था लेकिन गनुआ से पंगा लेना उसके बस की बात नहीं थी और न ही समझदारी। सो बेहतर यही था कि हरिराम सीधी अंगुली से घी निकालने की कोषिश करता।

सवा साल पूरे होने में अभी दो महीने हैं और चौंकन्ना हरिराम अंदर ही अंदर जरूरी तैयारी में जुटा है। लेकिन उसे बहुत डर भी लग रहा है, एक तो इसलिए कि वह अकेला है। दूसरे, शादी की जिम्मेदारी उसे बड़ी दिख पड़ रही है। तीसरे, गनुवा का दिन भर 'धन्नो-धन्नो' बजते रहना उसे खतरे की घंटी लगता। इस पहलवान से अपनी घरवाली की रक्षा करना कोई मामूली बात नहीं थी। तमाशाई बस्ती वालों से मदद की गुंजाइश भी कम थी। वह जानता था कि बस्ती का कोई भला उसके साथ क्यों खड़ा होगा। धंधे के कारण वैसे भी संबंध बस गरज के रहते हैं। किसी को उधार दे दो तो दर्शन नहीं देता और न दो तो बैर बंध जाता है। दूसरा, वह बाहरी है और गनुवा स्थानीय। समर्थ के साथ वैसे भी संसार होता है।

दिन में बैठे-बैठे उसे सपने आते कि गनुवा उसकी बीवी को 'धन्नो' कह कर छेड़ रहा है लेकिन उसकी हिम्मत जवाब दे रही है। एक दिन सबके सामने वह उसे घोड़े पर बैठा कर जंगल की ओर चला गया, जैसे दिलीप कुमार धन्नो को लेकर जंगल में गया था और वहां उसने धन्नो से जाति अलग होने के बावजूद शादी कर ली थी। गनुवा भी तो दूसरी जाति का है! उससे ज्यादा बुरी बात हरिराम को यह लगती कि उसकी बीवी गनुवा के साथ खुशी-खुशी भागी जा रही है! वह चौंक पड़ता। दुखांत दिवास्वप्न उसे बरदाश्त नहीं था सो सिनेमा के इंटरवल के बाद की फिल्म की तरह 'स्वप्न पार्ट टू' को अपने हाथ में ले लेता। अब वह देखता कि गनुवा उसकी बीवी को भगाए ले जा रहा है कि किसी मोटरगाड़ी की चपेट में आ जाता है। बीवी को बस खरोंच आती है और उधर गनुवा अधमरा अपाहिज हो जाता है। कभी लगता कि स्वयं हनुमानजी उसकी मदद के लिये आए हैं और उन्होंने अपनी गदा से पीट-पीट कर गनुवा को अधमरा कर दिया। एक दिन एक साधु आया और प्रसन्न हो कर हरिराम को एक मंत्र बता गया जिसके जाप से मनोकामना पूरी होती है। तब से जब भी गनुवा की तरफ से धन्नो-धन्नो की आवाज आती है हरिराम जाप में जुट जाता।

एक दिन हरिराम को युक्ति सूझी, लोगों के बीच खड़े गनुवा से बोला - “पलवान जी, एक दिक्कत आ गई है, आप ही पार लगा सकते हो, मना मती करियो जी।”

“अरे बोल हरिराम, तू फिलिम वाला हरिराम नहीं है जो मेरी-तेरी दुसमनी है। बोल क्या बात है ?”

“पलवान जी, आप तो जानते हो कि मेरा आगे-पीछे कोई है नहीं। अब सादी है, तो सिर पे हाथ घरै वाला कोई तो चहिए।… अब आपके होते यहां मेरा कौन बड़ा है।” कहते हुए हरिराम ने गनुवा के पैर छू दिए।

गनुवा सोच में पड़ गया। ये क्या हुआ साला!! एक झटके में पिच्चर 'दी एन्ड' हो गई। काले गन्नू के चेहरे का बचा-खुचा रंग भी पट्ट से उड़ गया। हां कहने में जान निकल रही थी, फिर भी पूछा - “तुमारी सादी में हमारा क्या काम है बे? ... नउता दोगे तो खाने आ जाएंगे नहीं दोगे तो नहीं। बनिये की हांडी से बिना उसकी मरजी के कोई खा सका है?”

“बात ये है बड़े भइया.. कि सादी में जेठ चुनरी का रिवाज है। बिना उसके सादी हो नहीं सकती। लड़की वाले बिदक रए हैं। कहीं मनै कर दी तो बहुत मुसकिल हो जाएगी।” हरिराम ने दांव मारा।

गनुवा को लगा कि अगर इसकी शादी नहीं हुई तो बात यहीं खतम हो जाएगी। आगे की आगे देखेंगे। पहले शादी तो हो - “ऐसे कैसे मनै कर देंगे बे एं ?!... अरे हम भगवान के मंत्री को, क्या कहते पंडितवा को उठा लाएंगे... और धन्नो को भी... और लगन करवा देंगे तेरा.... हो जाएगी जेठ चुनरी... जा, बेफिकिर हो जा रे हरिराम, ये गंगा बोल दिया तुझको... जा।”

शादी हो गई। जेठ चुनरी गनुवा ने किसी और से करवा दी। रिवाज के मुताबिक गौना एक महीना बाद में होता है। हरिराम चिंता में सूखता जा रहा था। आखिर एक दिन गौना भी हो ही गया। हरिराम दुकान और दुल्हन दोनों को सम्हालने में व्यस्त हो गया। किसी एक मोर्चे पर भी हाथ ढीला होता तो नुकसान तय था। इधर लोग-लुगाई उसकी नई दुल्हनिया को देखने की जुगत में आंख लगाए रहते। जो चार सामान लेने आता था अब एक-एक सामान के लिए चार बार आने लगा। दो-दो बीड़ी लेने वाले भी दिन भर 'सेठ जी-सेठ जी' करते अंदर झांकने लगे। मजबूर हो हरिराम ने दुकान और अंदर के कमरे के बीच दरवाजे के पास एक आईना इस तरह लगाया कि रानी पद्मावती की तरह वह किसी के सामने आए बगैर गल्ले पर बैठे-बैठे ही उसकी नजर में रहे। मंदिर के पास कुआं था जो गर्मी में भी नहीं सूखता था और जिससे आसपास के तमाम लोग पानी भरा करते थे। दिन में औरतों का तांता लगा रहता, सब आतीं पर हरिराम की घरवाली नहीं। पानी तो रोज की जरूरत है, सो हरिराम मंदिर की पहली घंटी की आवाज सुन कर सुबह पांच बजे उठता, कुएं पर स्नान करता, फिर मंदिर में पूजा करता और लौटते में अपनी हाथगाड़ी से एक कोठी और दो-तीन बाल्टी पानी ले कर आता। इस सब के लिए दो घंटे का समय लग ही जाता। सात बजे बेफिक्र हो कर वह दुकान पर बैठ जाता।

इस बीच गन्नू 'पलवान' हरिराम से बचता, आसपास बना रहा। अपने लौंडों को भेज-भेज कर नखशिख वर्णन का मजा लेता, संवाद बोलता, योजना बनाता रहा। कई बार सेठानी से उसकी आंख मिली लेकिन वह लजा कर रह गया। काले रंग के कारण उसका अत्मविश्वास हिल जाता। बावजूद इसके वह 'धन्नो' के सपने देखना बंद नहीं करता। वह जानता था कि किसी के न बोले के बावजूद लोग उसकी हरकतों को पसंद नहीं करते हैं। अगर उसने इतनी जल्दी हरिराम के पाले में मुंह मारने की कोशिश की तो दिक्कत हो सकती है। लौंडै छेड़ते तो वह बोलता - अरे मुन्ना, मोर भाई। गरम गरम नहीं रे, मुंह जल जाएगा। तनिक ठंडी होने दे रे... फिर खाना भइया, जल्दी क्या है... धन्नो कहीं भागी तो नहीं जा रही रे।

दिन बीते, महीने बीतने लगे, हरिराम आश्वस्त हो चला। जब से शादी हुई है गनुवा उसे दुकान के पास ज्यादा दिखा नहीं। दुकान का स्टाक खत्म होने लगा तो जरूरी हो गया कि वह शहर जाए और सामान खरीद कर लाए। शुरू में वह आधा अधूरा सामान ले कर जल्द से जल्द लौट आता। एक दिन वह पत्नी को कह कर गया कि दो घंटे बाद आएगा और लौटा पंद्रह मिनिट में ही। लेकिन सब 'व्यवस्थित' पा कर उसे बहुत खुशी हुई। उसने मान लिया कि गनुवा की समस्या उतनी नहीं है जितनी कि उसने मान ली थी। पहले की तरह वह नियमित शहर जाने लगा, जो कि जरूरी था ही।

लेकिन घटनाएं अपने तरीके से घटतीं हैं। आदमी सोचता कुछ है और होता कुछ है। राक्षसों ने कब सोचा था कि समुद्र मंथन से अमृत-कलश निकलते ही देवता बेईमानी कर उसे ले उड़ेंगे और अमर हो जाएंगे। ठीक उस वक्त जब हरिराम शहर गया हुआ था गनुआ के सितारों ने जोर मारा, देखा सेठानी उसे बुला रही है। आसपास अपरिचित मुसाफिरों के अलावा कोई नहीं था। उसे लगा कि अमृत -कलश उसे खुद बुला रहा है।

“थोड़ी मदद करो जी, मंगलसूत्र वां कोठी पर रखा था, पीछे गिर गया है। सेठ जी चिल्लाएंगे कि उतारा क्यूं... बन सके तो कोठी सरका के मंगलसूत्र निकाल दो।” कह कर सेठानी हंस दी तो गनुवा पहलवान से हनुमान हो गया। कोठी उसने ऐसे खेंच दी जैसे टिन का खाली डिब्बा हो। मंगलसूत्र निकाला और वापस खसका दी।

प्रसन्न सेठानी ने दो रुपए देने चाहे, लेकिन गनुवा लेता क्या? हंसकर मना करते हुए उसने पूछा - “तुम्हारा नाम क्या है ?”

“धन्नो।”

गनवे को लगा जैसे अचानक बरसात होने लगी और घूप भी खिल उठी है। आंखों में इतने रंग उतर आए जितने उसने कभी देखे नहीं थे। उसे एकाएक हवा में सुगंध महसूस होने लगी, शरीर उपर से नीचे तक झनझना उठा और एक ऐसी बेहोशी सी छाने लगी जिसका उसने पहले कभी अनुभव नहीं किया था।

धूप और बरसात कभी-कभी जब एक साथ होती है तो लोग कहते हैं कि जंगल में सियार-सियारिन का ब्याह हो रहा है। गनुवा को लगा कि वो सियार है। उसने सेठानी की ओर देखा...

“तुम्हारा नाम क्या है?” सेठानी ने मंगलसूत्र गले में डालते हुए पूछा।

“गंगा।”

“लोग तो कहते हैं कि गनुवा पलवान!”

“कौन लोग कहते हैं?... तुम यहां किससे मिल लीं?”

“सेठ जी ने बताया था।... अब जाओ... वो आ जाएंगे।” कहते हुए उसने गनुवा के हाथ में एक मुट्ठी बादाम रख दिया।

“और कोई काम हो तो बुला लेना।” कह कर गनुवा तीर हो गया।

आठ-दस दिन कुछ नहीं हुआ। गनुवा गंगा-जमुना के डायलाग भूल कर ट्रेजेडी-किंग हो गया। अब जब भी हरिराम की दुकान के सामने से निकलता तो मुंह फेर कर ही। लौंडों के साथ उसकी अड्डेबाजी भी बंद हो गई। जल्दी स्नान करने के बाद वह माथे पर चंदन का तिलक लगाता तो उसकी शराफत को जैसे बल मिलता। लोगों ने उसके इस बदलाव को नोट किया और खुश हुए। चलो, भगवान ने अकल तो दी, देर से ही सही। लोग पुराने गनुवा को तेजी से भूलने लगे।

एक दिन वह हरिराम के पास गया और सिर झुका कर कहा कि अब वो भी कुछ काम-धंधा करना चाहता है। हरिराम पहले तो चुप रहा, फिर सोचा कि धंधे में लग गया तो अच्छा ही है, कोल्हू के बैल को आवारागर्दी करने की फुरसत कहां मिलती है। इसे धंधा ऐसा बताना चाहिए कि सुबह से शाम तक एक खूंटे से बंधा रहे। किसी ने ठीक ही कहा है कि 'नमन नमन का फेर है, बहुत नमे नादान। दगाबाज दूना नमे, चीता, चोर, कमान।'

जल्द ही गनुवा की चाय की दुकान खुल गई। आरंभिक सहायता के तौर पर हरिराम ने चाय-पत्ती, शकर, केरोसिन वगैरह उधार दिया और मान लिया कि जिन्न बोतल में बंद हो गया।

अब गनुवा को चाय-शकर लेने के लिए हरिराम की दुकान पर जाने का परमिट मिल गया। सामान वो हरिराम से ही लेता, लेकिन उसके शहर जाने के बाद सेठानी की मदद के लिए बाकायदा मौजूद भी रहता। धीरे धीरे-सब सामान्य हो गया। कभी-कभी घूप खिलती, बरसात होती, लोग मानते कि सियार-सियारिन का ब्याह हुआ।

गरमी का मौसम आ गया। रातें छोटी होने लगीं। हरिराम अभी भी मंदिर की घंटी की आवाज सुनते ही जागता और कुएं की ओर चल देता। मंदिर और कुएं पर कुछ लोग मिल जाते थे किन्तु अब सुनसान रहता। घंटी किसी ने तो बजाई, परंतु पता नहीं चलता ! मंदिर पर अगरबत्ती जल रही होती, लगता अभी कोई पूजा करके गया है। पिछले कई दिनों से उसे लग रहा था कि कोई मंदिर पर जल्दी आने लगा है। ध्रुव तारा चमक रहा है, मतलब साढ़े तीन-चार बज रहे हैं! सप्ताह में तीन-चार बार ऐसा होता। उसका माथा ठनका जरूर, लेकिन ठीक से नहीं। क्योंकि गनुवा का घर रास्ते में ही पड़ता और अक्सर वह बाहर खाट पर सोता दिखता है। हरिराम अपनी हाथगाड़ी से हर सुबह पानी लाता रहा और दिन अपनी गति से निर्विघ्न गुजरते रहे।

एक सुबह हरिराम जब कुंए पर पहुंचा तो देखा कि वह अपने कपड़ों की जगह कुछ और ही उठा लाया है। वापस घर आया तो दरवाजे की सांकल खुली थी जबकि वह बाहर से लगा कर जाता है। इसका मतलब ये कि अंदर कोई गया है। चोर होगा! लेकिन दरवाजे पर कान लगाया तो गनुवा का ध्यान आ गया। वही हो सकता है! वो हुआ तो! उसने हौले से आगे बढ़ कर सांकल चढ़ा दी। चारों ओर सन्नाटा पसरा पड़ा था। कुत्ते भी नहीं भौंक रहे थे। उसने सोचा कि शोर मचा कर लोगों को बुला ले और इस हरामजादे को रंगे हाथों पकड़वा दे, लेकिन पता नहीं किस डर के कारण उसके गले से आवाज नहीं निकली। सोचा तमाशा स्वयं उसका बन जाएगा। पकड़े जाने के बाद पत्नी को साथ रखना संभव नहीं होगा। लोगों की बोली से आहत राम अग्निपरीक्षा के बाद भी सीता को नहीं रख पाए थे। इस जमाने में तो अग्निपरीक्षा का कोई सिस्टम भी नहीं है। लेकिन अच्छा है जो नहीं है वरना उसकी सेठानी के बचने की कोई संभावना नहीं होती। वह समझ नहीं पा रहा था कि सेठानी ने ऐसा क्यों किया। काले गनुवे से तो वह कम अच्छा नहीं है। सामने एक बड़ा पत्थर पड़ा था, हरिराम ने उसे उठा लिया। तय किया कि जैसे ही निकलेगा मार दूंगा। किन्तु क्षण भर बाद दूसरा विचार आया कि हत्या के जुर्म में उसे भी जेल जाना होगा... तब?... उसे लगा कि उसका परिवार, प्रतिष्ठा, जीवन, सब कुछ एक साथ समाप्त हो जाने वाला है! पत्थर हाथ से छूट गया और जड़ अवस्था में वह खड़ा रहा।

दरवाजा खोलने के प्रयास की आवाज सुन उसकी तंद्रा टूटी। दुकान के शटर पर बाहर से ही ताला डाला जा सकता है सो अंदर से खुल नहीं सकता है। लेकिन आवाज से पता लग रहा है कि कोई उसे खोलने का प्रयास कर रहा है। अंदर वाले पिंजरे में कैद हो गए हैं और अब किसी तरह बाहर नहीं आ सकते हैं। हरिराम इस स्थिति को अनुकूल पा रहा है किन्तु इसके बाद के हालात के लिए वह कतई तैयार नहीं है।

अचानक हरिराम के बदन में हरकत होती है और वह पूरी सावधानी से आगे बढ़ कर सांकल खोल देता है और ओट ले कर अंधेरे में छुप जाता है। दरवाजा खुलता है और एक आकृति बाहर निकल कर सड़क की ओर चली जाती है।

हताश किन्तु क्रोध में जलता हरिराम बिना कपड़े लिए वापस कुएं की ओर लौटता है। रास्ते में गनुवा का घर दिखते ही एक बार फिर उसके शरीर में आग सी उठती है... तभी उसकी नजर घर के सामने पड़ी खाट पर पड़ती है जिस पर गनुवा बेसुध-सा पड़ा सो रहा है!