सीता रावण की पुत्री थीं / प्रतिभा सक्सेना

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मई 3, 2006

रामकथा के प्रतिनायक रावण में बहुत से श्रेष्ठ गुण होते हुये भी उसका एक आचरण, उसका एक दोष उसकी सारी अच्छाइयें पर पानी फेर जाता है और उसे सबके रोष और वितृष्णा का पात्र बना देता है। यदि उस पर पर-नारी में रत रहने और सबसे बढ़कर सीता हरण का दोष न होता तो रावण के चरित्र का स्वरूप ही बदल जाता। वास्तवकता यह है कि सीता रावण की पुत्री थी और सीता स्वयंवर से पहले ही वह इस तथ्य से अवगत था।

'जब मै अज्ञान से अपनी कन्या के ही स्वीकार की इच्छा करूं तब मेरी मृत्यु हो."
-अद्भुत रामायण 8-12

रावण की इस स्वीकारोक्ति के अनुसार सीता रावण की पुत्री सिद्ध होती है।अद्धुतरामायण मे ही सीता के आविर्भाव की कथा इस कथन की पुष्टि करती है-

दण्डकारण्य मे गृत्स्मद नामक ब्राह्मण, लक्ष्मी को पुत्री रूप मे पाने की कामना से, प्रतिदिन एक कलश मे कुश के अग्र भाग से मंत्रोच्चारण के साथ दूध की बूँदें डालता था (देवों और असुरों की प्रतिद्वंद्विता शत्रुता में परिणत हो चुकी थी। वे एक दूसरे से आशंकित और भयभीत रहते थे। उत्तरी भारत मे देव-संस्कृति की प्रधानता थी। ऋषि-मुनि असुरों के विनाश हेतु राजाओं को प्रेरित करते थे और य़ज्ञ आदि आयोजनो मे एकत्र होकर अपनी संस्कृति के विरोधियों को शक्तिहीन करने के उपाय खोजते थे।ऋषियों के आयोजनो की भनक उनके प्रतिद्वंद्वियों के कानों मे पडती रहती थी,परिणामस्वरूप पारस्परिक विद्वेष और बढ जाता था)।एक दिन उसकी अनुपस्थिति मे रावण वहाँ पहुँचा और ऋषियों को तेजहत करने के लिये उन्हें घायल कर उनका रक्त उसी कलश मे एकत्र कर लंका ले गया।कलश को उसने मंदोदरी के संरक्षण मे दे दिया-यह कह कर कि यह तीक्ष्ण विष है,सावधानी से रखे।

कुछ समय पश्चात् रावण विहार करने सह्याद्रि पर्वत पर चला गया।रावण की उपेक्षा से खिन्न होकर मन्दोदरी ने मृत्यु के वरण हेतु उस कलश का पदार्थ पी लिया।लक्ष्मी के आधारभूत दूध से मिश्रित होने के कारण उसका प्रभाव पडा।मन्दोदरी मे गर्भ के लक्षण प्रकट होने लगे। अनिष्ठ की आशंकाओं से भीत मंदोदरी ने,कुरुश्क्षेत्र जाकर उस भ्रूण को धरती मे गाड दिया और सरस्वती नदी मे स्नान कर चली आई।

हिन्दी के प्रथम थिसारस(अरविन्द कुमार और कुसुम कुमार द्वारा रचित) मे भी सीता को रावण की पुत्री के रूप मे मान्यता मिली है।

अद्भुतरामायण मे सीता को सर्वोपरि शक्ति बताया गया है,जिसके बिना राम कुछ करने मे असमर्थ हेंदो अन्य प्रसंग भी इसी की पुष्टि करते हैं --

(1) रावण-वध के बाद जब चारों दिशाओं से ऋषिगण राम का अभिनन्दन करने आये तो उनकी प्रशंसा करते हुये कहाकि सीतादेवी ने महान् दुख प्राप्त किया है यही स्मरण कर हमारा चित्त उद्वेलित है।सीता हँस पडीं,बोलीं,"हे मुनियों,आपने रावण-वध के प्रति जो कहा वह प्रशंसा परिहास कहलाती है।------ किन्तु उसका वध कुछ प्रशंसा के योग्य नही।"इसके पश्चात् सीता ने सहस्रमुख-रावण का वृत्तान्त सुनाया।अपने शौर्य को प्रमाणित करने के लिये,राम अपने सहयोगियों और सीता सहित पुष्पक मे बैठकर उसे जीतने चले।

सहस्रमुख ने वायव्य-बाण से राम-सीता के अतिरिक्त अन्य सब को उन्हीं के स्थान पर पहुँचा दिया।राम के साथ उसका भीषण युद्ध हुआ और राम घायल होकर अचेत हो गये.।तब सीता ने विकटरूप धर कर अट्टहास करते हुये निमिष मात्र मे उसके सहस्र सिर काट कर उसका अंत कर दिया। सीता अत्यन्त कुपित थीं, हा-हाकार मच गया।ब्रह्मा ने राम का स्पर्श कर उन्हें स्मृति कराई। वे उठ बैठे। युद्ध-क्षेत्र मे नर्तित प्रयंकरी महाकाली को देख वे कंपित हो उठे।ब्रह्मा ने स्पष्ट किया कि राम सीता के बिना कुछ भी करने मे असमर्थ हैं।(वास्तव में ही सीता-परत्याग के पश्चात् राम का तेज कुण्ठित हो जाता है। भक्तजन भी के बाद के जीवन की चर्चा नहीं करते। वास्तविक सीता के स्थान पर स्वर्ण-मूर्ति रख ली जाती है, वनवासी पुत्रों से उनकी विशाल वाहिनी हार जाती है।रामराज्य का कथित चक्रवर्तित्व समाप्त और चारों भाइयों के आठों पुत्रों में राज्य वितरण, जैसे पुराने युग का समापन हो रहा हो।)राम ने सहस्र-नाम से उनकी स्तुति की,जानकी ने सौम्य रूप धारण किया:राम के माँगे हुये दो वर प्रदान किये और अंत मे बोलीं,"इस रूप मे सै मानस के उत्तर भाग मे निवास करूँगी।" और इस उत्तर भाग मे राम-भक्तों की रुचि दिखाई नहीं देती।

राम की प्रशंसा पर सीता के हँसने का प्रसंग भिन्न रूपों मे वर्णित हुआ है।उडिया भाषा की 'विनंका रामायण' मे सहस्रशिरा के वध के लिये, देवताओं ने खल और दुर्बल का सहयोग लेकर सीता और राम के कण्ठों मे निवास करने को कहा था (विलंका रामायण पृ.52,छन्द 2240)

(2) आनन्द रामायण (राज्यकाण्ड,पूर्वार्द्ध,अध्याय 5-6)---------

विभीषण अपनी पत्नी और मंत्रियों के साथ दौडते हुये राम की सभा में आते हैं,और बताते हैं कि कुंभकर्ण के मूल-नक्षत्र मे उत्पन्न हुए पुत्र (जिसे वन मे छोड दिया गया था) मूलकासुर ने लंका पर धावा बोला हैऔर वह भेदिये विभीषण और अपने पिता का घात करनेगाले राम को भी मार डालेगा।

राम ससैन्य गये। सात दिनो तक भीषण युद्ध हुआ पर कोई परिणाम नहीं निकला।तब ब्रह्मा जी के कहने पर कि सीता ही इसके वध मे समर्थ हैं,सीता को बुलाया गया।उनके शरीर से निकली तामसी शक्ति ने चंण्डिकास्त्र से मूलकासुर का संहार किया।

दोनो ही प्रसंगों के अनुसार सीता राम की अनुगामिनी या छाया मात्र न होकर समर्थ,विवेकशीला और तेजस्विनी नारी हैं।वे अपने निर्णय स्वयं लेती हैं।स्वयं निर्णय लेने का आभास तो तुलसी कृत रामचरित-मानस मे भी है जहाँ वे वन-गमन के समय अपने निश्चय पर अ़टल रहती हैं और अपने तर्कों से अपनी बात का औचित्य सिद्ध करती हैं।लक्ष्मण रेखा पार करने का प्रकरण भी अपने विवेक के अनुसार व्यवहार करने की बात स्पष्ट करता है।

वाल्मीकि रामायण मे सीता प्रखर बुद्धि संपन्न होने के साथ स्वाभिमानी, निर्भय और स्पष्ट-वक्ता है। अयोध्याकाण्ड के तीसवें सर्ग मे जब राम उन्हें वन ले जाने से विरत करते हैं तो वे आक्षेप करती हुई कहती हैं,"मेरे पिता ने आपको जामाता के रूप मे पाकर क्या कभी यह भी समझा था कि आप शरीर से ही पुरुष हैं, कर्यकलाप से तो स्त्री ही हैं। ..जिसके कारण आपका राज्याभिषेक रोक दिया गया उसकी वशवर्ती और आज्ञापालक बन कर मै नहीं रहूँगी", "अरण्य-काण्ड के दशम् सर्ग मे जब राम दण्डक वन को राक्षसों से मुक्त करने का निर्णय करते हैं वह राम को सावधान करती हैं कि दूसरे के प्राणों की हिंसा लोग बिना बैर-विरोध के मोह वश करते हैं,वही दोष आपके सामने उपस्थित है। एक उदाहरण देकर उन्होने राम से कहा मै आपको शिक्षा देती हूँ कि धनुष लेकर बिना बैर के ही दण्कारण्यवासी राक्षसों के वध का विचार नहीं करना चाहिये। बिना अपराध के किसी को मारना संसार के लोग अच्छा नहीं समझेंगे। वे यह भी कहती हैं कि राज्य त्याग कर वन मे आ जाने पर यदि आप मुनि- वृत्ति से ही रहें तो इससे मेरे सास-श्वसुर को अक्षय प्रसन्नता होगी। हम लोगों को देश-धर्म का आदर करना चाहिये।कहाँ शस्त्र-धारण और कहाँ वनवास!हम तपोवन मे निवास करते हैं इसलिये यहाँ के अहिंसा धर्म का पालन करना हमारा कर्तव्य है। आगे यह भी कहती हैं कि आप इस विषय मे अपने छोटे भाई के साथ बुद्धिपूर्वक विचार कर लें फिर आपको जो उचित लगे वही करें। दूसरी ओर राम यह मान कर चलते हैं कि सारी पृथ्वी इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रियों की है, इसलिये वे सबको दण्ड देने के अधिकारी हैं(वाल्मीकि रामायण, किष्किन्धा काण्ड,18 सर्ग मे ),जब कि उत्तरी भारत में ही अनेक स्वतंत्र राज्यों का उल्लेख रामायण में ही मिल जाता है।

'दक्षिण के प्रसिद्ध विद्वान इलयावुलूरि पाण्डुरंग राव, जिन्होने तेलुगु, हिन्दी और अंग्रेजी मे लगभग 500 कृतियों का प्रणयन किया है, ,और जो तुलनात्मक भरतीय साहित्य,दर्सन और भारतीय भाषाओं मे राम-कथा साहित्य के विशेष अध्येता हैं, का मत भी इस संबंध मे उल्लेखनीय है।अपनी 'वाल्मीकि 'नामक पुस्तक मे उन्होने सीता को उच्चतर नैतिक शिखरों पर प्रतिष्ठित करते हुये कहा है, -'राम इस विषय मे अपनी पति-परायणा पत्नी के साथ न्याय नहीं कर सके........वे अपनी दणडनीति मे थोडा समझौता तो कर ही सकते थे.क्योंकि उनकी पत्नी गर्भवती है,और अयोध्या के भावी नरेश(नरेशों ) को जन्म देनेवाली है। कारण कुछ भी हो साध्वी, तपस्विनी सीता पर जो कुछ बीता वह सबके लिये अशोभनीय है। "(वाल्मीकि-पृष्ठ 49)

वन-वास हेतु प्रस्थान के समय जब कौशल्या सीता को पतिव्रत- धर्म का उपदेश देती हैं तो सीता उन्हें आश्वस्त करती हुई कहती हैं, 'स्वामी के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिये यह मुझे भली प्रकार विदित है। पूजनीया माताजी, आपको मुझे असती के समान नहीं मानना चाहिये । .....मैने श्रेष्ठ स्त्रियों माता आदि के मुख से नारी के सामान्य और विशेष धर्मों का श्रवण किया है।

सामने आनेवाली हर चुनौती को सीता स्वीकार करती है। जब विराध राम-लक्षमण के तीरों से घायल हो कर सीता को छोड उन दोनो को उठा कर भागने लगता है तो वे बिना घबराये साहस पूर्वक सामने आ कर उसे नमस्कार कर राक्षसोत्तम कह कर संबोधित करती हैं और उन दोनो को छोड कर स्वयं को ले जाने को कहती हैं। राज परिवार मे पली सुकुमार युवा नारी मे इतना विश्वास,साहस धैर्य और स्थिरता उनके विरल व्यक्तित्व की द्योतक है। हनुमान ने भी सीता को अदीनभाषिणी कहा है। वह राम से भी दया की याचना नहीं करती, केवल न्याय माँगती है, जो उन्हे नहीं मिलता।

सीता के चरित्र पर संदेह करते हुये, अंतिम प्रहार के रूप मे, राम ने यहाँ तक कह डाला कि तुम लक्ष्मण, भरत, सुग्रीव, विभीषण जिसका चाहो वरण कर सकती हो। सीता तो सीता, उन चारों को, जो सीता और राम-सीता के प्रति पूज्य भाव रखते थे, ये वचन कैसे लगे होंगे !वाल्मीकि की सीता ने उत्तर दिया था,"यदि मेरे संबंध मे इतना ही निकृष्ट विचार था तो हनुमान द्वारा इसका संकेत भर करवा देते ...।"आगे उन्होने कहा, "आप ऐसी कठोर, अनुचित, कर्ण-कटु और रूखी बात मुझे क्यों सुना रहे हैं ?जैसे कोई निम्न श्रेणी का पुरुष, निम्न श्रेणी की स्त्री से न कहने योग्य बातें भी कह डालता है ऐसे ही आप भी मुझसे कह रहे हैं। ..नीच श्रेणी की स्त्रियों का आचरण देख कर यदि आप समूची स्त्री जाति पर ही सन्देह करते हैं तो यह उचित नहीं है।आपने ओछे मनुष्यों की भाँति केवल रोष का ही अनुसरण करके, मेरे शील-स्वभाव का विचार छोड केवल निम्न कोटि की स्त्रियों के स्वभाव को ही अपने सामने रखा है(युद्ध-काणड,116 सर्ग)।"

पति-पत्नी का संबंध अंतरंग और पारस्परिक विश्वास पर आधारित है। सीता की अग्नि-परीक्षा लेने और वरुण,यम, इन्द्र ब्रह्मा और स्वयं अपने पिता राजा दशरथ के प्रकट होकर राम को आश्वस्त करने के बाद भी, वे प्रजाजनो के सम्मुख सत्य को क्यों नही प्रस्तुत कर पाते ?राम अगर सीता द्वारा अग्नि-परीक्षा दी जाने की बात बता देते तो सारी प्रजा निस्संशय होकर स्वीकार कर लेती, उसी प्रकार जैसे राम के पुत्रों को सहज ही स्वीकार कर लिया था।

राजा दशरथ तो स्वयं खिन्न हैं। वे सीता को पुत्री कह कर सम्बोधित करते हैं और कहते हैं कि वह इस व्यवहार के लिये राम पर कुपित न हो। उन्हें अनुमान भी नहीं होगा निर्दोषिता सिद्ध होने के बाद भी सीता को दंडित किया जायेगा और फिर उन्हें इस स्थिति से गुजरना होगा। राम सदा परीक्षा , प्रमाण और शपथ दिलाते रहे, और विपत्ति के समय सीता अकेला छोड दिया गया। चरम सीमा तब आ गई जब उन्होने देश-देश के राजाओं, मुनियों और समाज के प्रत्येक वर्ग के लिये घोषणा करवा दी कि जिसे सीता का शपथ लेना देखना हो उपस्थित हो। उस विशालजन-समूह के सामने सीता को वाल्मीकि द्वारा आश्रम से बुलवाकर उपस्थित किया जाता है(वाल्मीकि रमायण)। दो युवा पुत्रों की वयोवृद्ध माता, जिसका परित्यक्त जीवन, वन मे पुत्रों को जन्म देकर समर्थ और योग्य बनाने की तपस्या मे बीता हो, ऐसी स्थिति मे डाले जाने पर धरती मे ही तो समा जाना चाहेगी। वाल्मीकि ने नारी मनोविज्ञान का सुन्दर निर्वाह किया है। सब कुछ जानते हुए भी पति पत्नी को विषम स्थितियों से जूझने के लिये अकेला छोड, लाँछिता नारी के पति की मानसिकता धारण किये राम विचलत होकरअपने को बचाने के लिये बार-बार समाज के सामने मिथ्या आरोंपों का,दुर्वचनों, शंकाओं का और कुतर्कों की भाषा बोलने लगे किन्तु अविचलत रह कर सीता ने सबका सामना करते हुये जिस प्रकार व्यवहार किया उससे उनकी गरिमा और बढ़ती है। प्रश्न यह है कि राम अपने इस आचरण से भारतीय संस्कृति के कौन से मान स्थापित कर सके  ?

जनता को सत्य बता कर उचित व्यवहार करने से यह गलत सन्देश लोक को न मिलता कि पत्नी पर पति का अपरमित अधिकार है और पत्नी का कर्तव्य है सदा दीन रह कर आज्ञा का पालन .!राम के इस व्यवहार ने भारतीय मानसिकता को इतना प्रभावित कर दिया कि चरित्रहीन, क्रूर और अन्यायी पति भी पत्नी में सीता का आदर्श चाहते हैं एक बार सीता के सामने आकर राम अपनी स्थिति तो स्पष्ट कर ही सकते थे। सीता को लेकर स्वयं वन भी जा सकते थे, राज्य को सँभालने के लिये तीनो भाई थे ही, संतान उत्पन्न होने तक ही साथ दे देते,बच्चे तो उनके ही थे  !

अयोध्या काण्ड के बीसवें सर्ग मे कौशल्या की स्थिति भी इसी प्रकार चित्रित की गई है।जब पुत्र को वनवास दे दिया गया है, वे चुप नहीं रह पातीं, कहती हैं, 'पति की ओर से भी मुझे अत्यंत तिरस्कार और कडी झटकार ही मिली है। मै कैकेयी की दासियों के बराबर या उससे भी गई-बाती समझी जाती हूँ। ...पति के शासन-काल मे एक ज्येष्ठ पत्नी को जो कल्याण या सुख मिलना चाहिये वह मुझे कभी नहीं मिला।

वन-गमन के लिये जब राम अपनी माताओं से बिदा लेने जाते हैं तब रनिवास मे दशरथ की 350 और पत्नियाँ हैं(वाल्मीकि रामायण,अयोध्या काण्ड 39 सर्ग)

शूर्पनखा(चन्द्रनखा ) के साथ उनका जो व्यवहार रहा उसे नीति की दृष्ट से शोभनीय नहीं कहा जा सकता। कालकेयों सेयुद्ध करते समय रावण ने प्रमादवश अपनी बहन शूर्पनखा के पति विद्युत्जिह्व का भी वध कर दिया। जब बहिन ने उसे धिक्कारा तो पश्चाताप करते हुये रावण ने उसे उसे संतुष्ट करने को दण्डकारण्य का शासन देकर खर -दूषण को उसकी आज्ञा में रहने के लिये नियुक्त कर दिया (वाल्मीकि रामायण, उत्तर खण्ड -24सर्ग)।वह विधवा थी और यौवन संपन्न थी। अपने क्षेत्र में दो शोभन पुरुषों को देख कर उसने प्रणय-निवेदन किया। उसका आचरण रक्ष संस्कृति के अनुसार ही था।पर जिस संस्कृति और आचरण में राम पले थे उसमें एक नारी का आगे बढ कर प्रेम-निवेदन करना उनके गले से नहीं उतरा। उन्होंने उसे विनोद का साधन बना लिया।उपहास करते हुये दोनों भाई मज़ा लेते हैं।एक -दूसरे के पास भेजते हुये राम-लक्ष्मण जिस प्रकार उसकी हँसी उड़ाते हैं और अप शब्द कहते हैं उससे वह क्रोधित हो उठती है। राम लक्ष्मण से उसके नाक-कान कटवा देते हैं। इलयावुलूरि पाण्डुरंग राव का कथन है-शूर्पनखा में भी गरिमा और गौरव का अभाव नहीं है। कमी उसमे केवल यही है कि राम-लक्ष्मण के परिहास को वह सही परिप्रेक्ष्य में समझ नहीं पाती। बेचारी महिला दोनों राजकुमारों में से एक को अपना पति बनाने का दयनीय प्रयास करते हुये कभी इधर और कभी उधऱ जाकर हास्यास्पद बन जाती है। अंततः सारा काण्ड उसकी अवमानना में परिणत हो जाता है (वाल्मीकि पृ.75)।

ताटका के प्रसंग मे भी देखने को मिलता है कि राम के साथ उसका कोई विरोध नहीं था य़वह राक्षसी न होकर यक्षी थी। उसके पिता सुकेतु यक्ष बडे पराक्रमी और सदाचारी थे। संतान प्राप्ति के लिये उन्होंने घोर तपस्या की। बृह्मा जी ने प्रसन्न होकर उन्हे एक हजार हाथियों के बल वाली कन्या की प्राप्ति का वर(या प्रछन्न शाप?) दिया, वही ताटका थी। अगस्त्य मुनि ने उसके दुर्जय पुत्र मारीच को राक्षस होने का शाप दिया और उसके पति सुन्द को शाप देकर मार दिया। तब वह अगस्त्य मुनि के प्रति बैर-भाव रखने लगी .और उन्होंने उसे भी नर-भक्षी होने का शाप दे दिया था (बालकाण्ड, 25 सर्ग)।पता नहीं, तपस्वी होकर भी ऋषि-मुनियों में इतना अहं क्यों था कि अपनी अवमानना की संभावना से ही, बिना वस्तुस्थिति या परिस्थिति का विचार किये शाप दे देते थे। शकुन्तला, लक्ष्मण, और भी बहुत से लोग अकारण दण्डत होते रहे। इसी प्रकार की एक कथा सौदास ब्राह्मण की है।शिव के आराधन मे लीन होने के कारण, उसने अपने गुरु को उठ कर प्रणाम नहीं किया तो उसे भी राक्षस होने का शाप मिला, ऐसा भयानक राक्षस जो निरंतर भूख-प्यास से पीडित रह कर साँप, बिच्छू, वनचर और नर-माँस का भक्षण करे।

वाल्मीकि रामायम के उत्तर काण्ड, एकादश सर्ग मे उल्लेख है कि पहले समुद्रों सहित सारी पृथ्वी दैत्यों के अधिकार मे थी।विष्णु ने युद्ध मे दैत्यों को मार कर इस पर आधिपत्य स्थापित कियाथा।ब्रह्मा की तीसरी पीढी मे उत्पन्न विश्रवा का पुत्र दशग्रीव बडा पराक्रमी और परम तपस्वी था।विष्णु के भय से पीडित अपना लंका-निवास छोड कर रसातल को भागे राक्षस कुल का रावण ने उद्धार किया और लंका को पुनः प्राप्त किया।सुन्दर काण्ड के दशम् सर्ग मे उल्लेख है कि हनुमान ने राक्षस राज रावण को तपते हुये सूर्य के समान तेज और बल से संपन्न देखा। रावण स्वरूपवान था। हनुमान विचार करते हैं, 'अहा इस राक्षस राज का स्वरूप कैसा अद्भु है!कैसा अनोखा धैर्य है, कैसी अनुपम शक्ति है और कैसा आश्चर्यजनक तेज है !यह संपूर्ण राजोचित लक्षणों से युक्त है। '

सुन्दर स्त्रियों से घिरा रावण कान्तिवान नक्षत्रपति चन्द्रमा के समान शोभा पा रहा था। राजर्षियों,ब्रह्मर्षियों,दैत्यों, गंधर्वों और राक्षसों की कन्यायें स्वेच्छा से उसके वशीभूत हो उसकी पत्नियाँ बनी थीं। वहाँ कोई ऐसी स्त्री नहीं थी, जिसे बल पराक्रम से संपन्न होने पर भी रावण उसकी इच्छा के विरुद्ध हर लाया हो। वे सब उसे अपने अलौकिक गुणों से ही उपलब्ध हुई थीं। उसकी अंग-कान्ति मेघ के समान श्याम थी।शयनागार मे सोते हुये रावण के एक मुख और दो बाहुओं का ही उल्लेख है। श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न रावण परम तपस्वी, ज्ञान-विज्ञान मे निष्णात कलाओं का मर्मज्ञ और श्रेष्ठ संगीतकार था उसके विलक्षण व्यक्तित्व के कारण ही, उसकी मृत्यु के समय राम ने लक्ष्मण को उसके समीप शिक्षा लेने भेजा था।, यह उल्लेख भी बहुत कम रचनाकारों ने किया है। ।उसके द्वारा रचित स्तोत्रो में उसके भक्ति और निष्ठा पूर्ण हृदय की झलक मिलती है। चिकित्सा-क्षेत्र मे भी उसकी विलक्षण गति थी।

रामायण के अनुसार रावण ने कभी सीता को पाने का प्रयत्न नहीं किया मानस में धनुष-यज्ञ में वह उपस्थित था पर उसने धनुष को हाथ नहीं लगाया। दोनों ही महाकाव्यों में वह सीता के समीप अकेले नहीं अपनी रानियों के साथ जाता है। यह उल्लेख भी है कि रावण ने सीता को इस प्रकार रखा जैसे पुत्र अपनी माता को रखता है। इस उल्लेख से रावण की भावना ध्वनित है। वाल्मीकि रामायण के 'सुन्दरकाण्ड' में वर्णित है कि रात्रि के पिछले प्रहर में छहों अंगों सहित वेदों के विद्वानऔर श्रेष्ठ यज्ञों को करनेवालों के कंठों की वेदपाठ-ध्वनि गूँजने लगती थी। इससे लंका के वातावरण का आभास मिलता है।

मन्दोदरी का मनोहर रूप और कान्ति देख, हनुमान उन्हें भ्रमवश सीता समझ बैठे थे। सीता और मन्दोदरी की इस समानता के पीछे महाकवि का कोई गूढ़ संकेतार्थ निहित है। हनुमान ने राम से कहा था, 'सीता जो स्वयं रावण को नहीं मार डालती हैं इससे जान पडता है कि दशमुख रावण महात्मा है, तपोबल से संपन्न होने के कारण शाप के अयोग्य है। ' वाल्मीकि ने रावण को रूप-तेज से संपन्न बताते हुये उसके तेज से तिरस्कृत होकर हनुमान को पत्तों में छिपते हुये बताया है।

'रक्ष' नामकरण के पीछे भी एक कथा है -समुद्रगत जल की सृष्टि करने के उपरांत ब्रह्मा ने सृष्टि के जीवों से उसका रक्षण करने को कहा। कुछ जीवों ने कहा हम इसका रक्षण करेंगे, वे रक्ष कहलाये और कुछ ने कहा हम इसका यक्षण(पूजन) करेंगे, वे यक्ष कहलाये(वाल्मीकि रामायण, उत्तर काण्ड, सर्ग 4)।कालान्तर में रक्ष शब्द का अर्थह्रास होता गया और अकरणीय कृत्य उसके साथ जुड़ते गये। अत्युक्ति और अतिरंजनापूर्ण वर्णनों ने उसे ऐसा रूप दे दिया क लोक मान्यता में वह दुष्टता और भयावहता का प्रतीक बन बैठा।

मय दानव की हेमा अप्सरा से उत्पन्न पुत्री मन्दोदरी से रावण ने विवाह किया था। मन्दोदरी की बड़ी बहिन का नाम माया था। अमेरिका की 'मायन कल्चर 'का मय दानव और उसकी पुत्री माया से संबद्धता,तथा रक्षसंस्कृति और 'मय संस्कृति' के अदुभुत साम्य को देख कर दोनों की अभिन्नता बहुत संभव लगती है। वहाँ की आश्चर्यजनक नगर-योजना.और विलक्षण भवन निर्माण कला इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।

'मायन कल्चर' की नगर व्यवस्था, प्रतीक-चिह्न, वेश-भूषा आदि लंका के वर्णन से बहुत मेल खाते है। मय दानव ने ही लंका पुरी का निर्माण किया था। उनकी जीवन- पद्धति और मान्यताओं मे भी काफी-कुछ समानतायें है।रक्ष ही नहीं उसका स्वरूप भारतीय संस्कृति से भी साम्य रखता है। मीलों ऊँचे कगारों के बीच बहती कलऋता (कोलरेडो) नदी और ग्रैण्ड केनियन की दृष्यावली इस धरती की वास्तविकतायें हैं। संभव है यही वह पाताल पुरी हो जहाँ दानवों को निवास प्राप्त हुआ था।

तमिल भाषा की कंब रामायण मे उल्लेख हुआ है कि मन्दोदरी रावण की मृत्यु से पूर्व ही उसकी छाती पर रोती हुई मर गई,वह विधवा और राम की कृपाकाँक्षिणी नहीं हुई।वहाँ यह भी उल्लेख है कि रावण ने सीता को पर्णकुटी सहित पञ्चवटी से उठा लिया,उसका स्पर्श नहीं किया।रामेश्वर मे शिव स्थापना के समय विपन्न और पत्नी-वंचित राम का अनुष्ठान पूर्ण करवाने,रावण सीता को लाकर स्वयं उनका पुरोहित बना था। कार्य पूर्ण होने पर वह सीता को वापस ले गया। ये सारे प्रसंग सुविदित हैं।कदम्बिनी के मई2002 के अंक के एक लेख में रावण का राम के पुरोहित बनने का उल्लेख है। रावण के पौरुष, पाण्डित्य,परम शिव-भक्त विद्याओं, कलाओं नीति,आदि का मर्मज्ञ

प्राकृत के राम-काव्य 'पउम चरिय ' और संस्कृत के 'पद्मचरितम्' मे शूर्पनखा का नाम चंद्रनखा है।इन काव्यों मे भी लोकापवाद के भय से राम सीता को त्याग देते हैं।सीता के पुत्रों को युवा होने के पश्चात् परित्याग की घटना सुन कर क्रोध आता है,वे राम पर आक्रमण करते हैं।राम ने अपने जीवन काल मे ही चारों भाइयों के आठों पुत्रों को पृथक्-पृथक् राज्यों का स्वामी बना दिया था।लक्ष्मण ने आज्ञा-भंग का अपराध स्वयं स्वीकार कर जल-समाधि ले ली थी।सीता का जो रूप बाद मे अंकित किया गया,वह इन प्रसंगों से बिल्कुल मेल नहीं खाता। किसी भी रचनाकार ने उन्हे रावण की पुत्री स्वीकार नहीं किया।कारण शायद यह हो कि इससे राम के चरित्र को आघात पहुँचता।नायक की चरित्र-रक्षा के लिये घटनाओं मे फेर-बदल करने से ले कर शापों, विस्मरणों, तथा अन्य असंभाव्य कल्पनाओं का क्रम चल निकला।उसका इतना महिमा-मंडन कि वह अलौकिक लगने लगे और और प्रति नायक का घोर निकृष्ट अंकन।अतिरंजना, चमत्कारोंऔर अति आदर्शों के समावेश ने मानव को देवता बना डाला और भक्ति के आवेश ने कुछ सोचने-विचारने की आवश्यता समाप्त कर दी कि जो है सो बहुत अच्छा।वेदों ने 'चरैवेति चरैवेति' 'कह कर मानव

बुद्धि के सदा सक्रिय रहने की बात कही हैं पर यहाँ जो मान लिया उसे ही अंतिम सत्य कह कर आगे विचार करने से ही इंकार कर दिया जाता है। कान बंद कर वहाँ से चले आओ, आलोचना (निन्दा?) सुनने से ही पाप लगेगा ) आगे विचार करना तो दूर की बात है।भारतीय चिन्ता-धारा अपने खुलेपन के लिये जानी जाती है इसीलिये वह पूर्वाग्रहों से ग्रस्त न रह कर जो विवेक सम्मत है उसे आत्मसात् करती चलती है। फिर यह दुराग्रह क्यों ?लोक में यही सन्देश जाता है कि राम ने रावण द्वारा अपहृत सीता को त्याग दिया। पत्नी की दैहिक शुद्धता की बात उठने पर यही उदाहरण सामने रखा जाता है, जब राम जैसे सामर्थ्यवान तक संदेह के कारण पत्नी का परित्याग कर देते हैं तो हम साधारणजनों की क्या बिसात।

कुछ लोगों मानने को तैयार ही नहीं राम ने सीता का परित्याग किया। ऐसे उल्लेखों को क्षेपक बताया जा रहा है। लेकिन संस्कृत और हिन्दीतर भाषा की रामायणों में राम के पुत्रों के जन्म की जैसी महत्वपूर्ण घटना की चर्चा तक कहीं नहीं मिलती। लंबे समय के बाद रघुकुल में संतान उत्पन्न हुई, राम और सीता जीवन के कितने कठोर अनुभवों से गुज़रने के बाद माता पिता बने यह कोई छोटा अवसर नहीं था। राजभवन में राजा के पुत्र उत्पन्न हो, आनन्द बधाई, मंगल-वाद्य न बजें, कौशल्यादि की प्रसन्नता, रीति -नीति, संस्कार, कहीं कुछ नहीं। प्रजा में कहीं कोई संवाद -सूचना तक नहीं।

अहल्या को पाँव से छू कर उद्धार करने की बात वाल्मीकि रामायण में नहीं है। माता के वयवाली, तपस्विनी ऋषि-पत्नी को पाँव से स्पर्श करना मर्यादा के अंतर्गत नहीं आता, राम स्वयं उनके चरण-स्पर्श कर उन्हें उस मानसिक जड़ता से उबारते और उनकी निर्दोषिता प्रमाणित करते तो उनका चरित्र नई ऊँचाइयों को छू लेता।

जो इस संसार में मानव योनि में जन्मा है, सबसे पहले वह मानव है और मानवता उसका धर्म।जीवन चेतना की अविरल धारा है उसका आकलन भी सारे पूर्वाग्रह छोड़ उसकी समग्रता में करना संतुलत दृष्टि का परिचायक है। जन्म से ही उस पर पुण्यत्मा (ईश्वर होने का )या पापी और नीच होने का ठप्पा लगा कर, उसके हर कार्य को उसी चश्मे से देखना और येन-केन प्रकारेण प्रत्येक कार्य को महिमामण्डित या निन्दित करने से अच्छा यह है कि सहज मानवीय दृष्टि से उसके पूरे जीवन के कार्यों का समग्र लेखा-जोखा करने के बाद ही, उसका मूल्यंकन हो। ईश्वरत्व के सोपान पर अधिष्ठित करना अनुचित नहीं लेकिन मानवीयता की शर्त पूरी करने के बाद। मानवी गुणों का पूर्णोत्कर्ष न कर ईश्वरत्व की ओर छलाँग लगा देने से आदर्श व्यावहारिक नहीं हो सकेंगे।

श्री इलयावुलूरि ने एक बात बहुत पते की कही है -यह विडंबना की बात है क सारा संसार सीता और राम को आदर्श दंपति मान कर उनकी पूजा करता है किन्तु उनके जैसा दाम्पत्य किसी को भी स्वीकार नहीं होगा (वाल्मीकि.संदेश .अंतिम अध्याय)।इसमें एक बात और जोड़ी जा सकती है कि राम जैसा पिता पाने को भी कोई पुत्र शायद ही तैयार हो, और कौशल्या की तरह लाचार, वधू और पौत्रविहीना होकर अकेले वृद्धावस्था बिताने की कामना भी कोई माता नहीं करेगी। अति मर्यादाशील और आज्ञाकारी लक्ष्मण, अपने पूज्य भाई के आदेशानुसार किसी स्त्री के नाक-कान काट कर भले चुप रहें पर पूज्या भाभी को, गर्भावस्था में, बिना किसी तैयारी के, जंगल में अकेला छोड़ कर कैसा अनुभव करते होंगे यह तो वे ही जाने।