सीने में कुछ-बहुत-बहुत दुखता है / ममता व्यास

Gadya Kosh से
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पिछले दिनों, मुंबई के अपार्टमेन्ट से एक महिला ने अपने ६ साल के बेटे के साथ छलांग लगा कर ख़ुदकुशी कर ली. जिस समय वो गिरी, उनके पति महोदय ने शोर सुना और ये समझ कर दौड़े की कोई अन्य महिला कूदी हैं लेकिन जब पास गए तो पता चला की वो उनकी बीबी और बेटा ही हैं. पति महोदय पर क्या गुजरी ये तो वही जाने लेकिन भीड़ में से आवाज़े आ रही थी महिला पागल थी जो बच्चे के साथ कूदी मतलब बच्चे के बिना ही कूद जाना था} कोई कह रहा था पति परमेश्वर शक करते थे

बहरहाल , जब भी आसपास इस तरह की घटनाएँ घटती हैं कुछ सवालात मेरे जहन को परेशान करने लगते हैं की इक छत के नीचे रहने वाले , इक कमरे को शेयर करने वाले अपनी जरुरत के वक्त पास आने वाले इक दूसरे के दुःख से कैसे अनजान रह जाते हैं ? ख़ुदकुशी करने वाली महिला उस दिन अपने रोजमर्रा के कार्यों को बखूबी अंजाम देती रही और मन ही मन अपने अमूल्य जीवन को समाप्त करने की योजना भी बनाती गयी . खाना बनाना घर साफ करना और सारे जरुरी काम उसके मशीनी हाथ करते गए और कमालये की किसी को उसने अपने दुःख की भनक भी नहीं लगने दी कोई भी स्त्री जब घर संभालती है तो उसकी मशीनी देह घर के हर सदस्य की जरुरत के हिसाब लचीली होती जाती है कब किसको कहाँ क्या चहिये घर के बुजुर्ग हो या बच्चे बिन कहे मन की बात समझ जाने वाली स्त्री बरसों बरस तक समर्पण भाव से अपने दायित्व निभाती चली जाती है और इक समय आने पर वो इक मशीन की तरह नो कम्प्लेंड नो डिमांड की तरह घर का इक पुर्जा हो जाती है जिसकी जरुरत सभी को है , लेकिन उसके साथ रहने वाले ये भूल जाते है की इस मशीन के अन्दर भी इक दिल धड़कता है उसे भी प्यार स्नेह और आत्मीयता की जरुरत है

आत्म ह्त्या करने वाली स्त्री के पति परमेश्वर उस पर शक करते थे उन्हें इक चाबी वाली स्त्री चहिये थी जो उनके अनुसार जितना वो चाहे उतना ही जिए ,उनके लिए हँसे उनके दुःख में रोये उनके लिए साँस ले और इक दिन उनके लिए मर जाये है न ? वो भूल गए की जो स्त्री जो उनकी बीबी है उनके बच्चों की माँ है लेकिन इन सबसे पहले वो इक इन्सान भी तो है उसका , हंसना , खिलखिलाना , महकना उसका स्वाभिमान उसकी अपनी जागीर है इन पर किसी का अधिकार नहीं और जो कोई इन्हें चोट पहुंचाए तो दिल टूटते हैं और दर्द बहता है ऐसा ही कुछ उस अभागी स्त्री के साथ भी हुआ होगा

अपनी जीवन संगनी के चेहरे पर उभरते दर्द से कोई कैसे अन्जान रह गया जिस चेहरे को आप रोज देखते हो उन पर पड़ी दर्द की बारीक़ रेखाओं को कोई क्यों नहीं पढ़ पाया?

इतने बेखबर,बेकदर बेपरवाह होकर कोई कैसे रह सकता है? देह को छूते रहे उम्र भर और मन की छांह भी नहीं पा सके. किसी शायर की पंक्तियाँ याद आ रही हैं की "जिस्म की बात नहीं है उनके दिल तक जाना था / लम्बी दूरी तय करने में वक्त तो लगता है" और जब तक ये मन तक की दूरी तय नहीं की जायेगी रिश्ते यूँ ही बिखरते रहेगे किसी के देह के मालिक होने से पहले उसके मन की रियासत तो जीत ली जाए, कहीं गहरे में कोई दिल तो नहीं दुःख रहा इसका ध्यान रखना होगा ,

"बहते- बहते रगों में जैसे

खून रुकता है

शर्म से सर खुद्दारी का

पल-पल झुकता है,

तेरी हाँ में हाँ ,ना में ना

चुप में चुप ,लेकिन

सीने में कुछ--

बहुत-बहुत दुखता है"