सीमाएँ / मोहन राकेश

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इतना बड़ा घर था, खाने-पहनने और हर तरह की सुविधा थी, फिर भी उमा के जीवन में बहुत बड़ा अभाव था जिसे कोई चीज़ नहीं भर सकती थी।

उसे लगता था, वह देखने में सुंदर नहीं है। वह जब भी शीशे के सामने खड़ी होती तो उसके मन में झुँझलाहट भर आती। उसका मन होता कि उसकी नाक लंबी हो, गाल ज़रा हलके हों, ठोड़ी आगे की ओर निकली हो और आँखें थोड़ा और बड़ी हों। परंतु अब यह परिवर्तन कैसे होता ? उसे लगता कि उसके प्राण एक गलत शरीर में फँस गए हैं, जिससे निस्तार का कोई चारा नहीं, और वह खीझकर शीशे के सामने से हट जाती।

उसकी माँ हर रोज़ गीता का पाठ करती थी। वह बैठकर गीता सुना करती थी : कभी माँ कथा सुनने जाती तो वह साथ चली जाती थी। रोज रोज पंडित की एक ही तरह की कथा होती थी-‘नाना प्रकार कर-करके नारद जी कहते भए हे राजन्..पंडित जो कुछ सुनाता था, उसमें उसकी ज़रा भी रुचि नहीं रहती थी। उसकी माँ कथा सुनते सुनते ऊँघने लगती थी। वह दरी पर बिखरे हुए फूलों को हाथों में लेकर मसलती रहती थी।

घर में माँ ने ठाकुरजी की मूर्ति रखी थी, जिसकी दोनों समय आरती होती थी। उसके पिता रात को रोटी खाने के बाद ‘चौरासी बैष्णवों की वार्ता’ में से कोई वार्ता सुनाया करते थे। वार्ता के अतिरिक्त जो चर्चा होती, उसमें सतियों के चरित्र और दाल आटे का हिसाब, निराकार की महिमा और सोने चाँदी के भाव, सभी तरह के विषय आ जाते। वह पिता द्वारा दी गई जानकारी पर कई बार आश्चर्य प्रकट करती, पर उस आश्चर्य में उत्साह नहीं होता।

उसे मिडिल पास किए चार साल हो गए थे। तब से अब तक वह उस संधिकाल में से गुजर रही थी जब सिवा विवाह की प्रतीक्षा करने के जीवन का और कोई ध्येय नहीं होता। माता पिता जिस दिन भी विवाह कर दें, उस दिन उसे पत्नी बनकर दूसरे घर में चली जाना था। यह महीने दो महीने में भी संभव हो सकता था, और दो तीन साल और भी प्रतीक्षा में निकल जा सकते थे।

उमा कुछ कर नहीं रही थी, फिर भी अपने में व्यस्त थी। बैठी थी, लेट गई। फिर उठकर कमरे में टहलने लगी। फिर खिड़की के पास खड़ी होकर गली की ओर देखने लगी और काफी देर तक देखती रही।

सवेरे रक्षा उसे सरला के ब्याह का बुलावा दे गई थी। वह कह गई थी कि वह साढ़े पाँच बजे तैयार रहे, वह उसे आकर ले जाएगी। पहले रक्षा ने उसे बताया था कि सरला का किसी लड़के से प्रेम चल रहा है, जो उसे चिट्ठियों में कविता लिखकर भेजता है और जलती दोपहर में कॉलेज के गेट के पास उसकी प्रतीक्षा में खड़ा रहता है। आज वह प्रेम फलीभूत होने जा रहा था। प्रेम यह शब्द उसे गुदगुदा देता था। राधा और कृष्ण के प्रेम की चर्चा तो रोज़ ही घर में हुआ करती थी। परंतु उस दिव्य और अलौकिक प्रेम के बखान से वह विभोर नहीं होती थी। परंतु यह प्रेम...उसकी सहेली का किसी लड़के से प्रेम...यह और चीज़ थी। इस प्रेम की चर्चा होने पर पर मलमल के जामे-सा हलका आवरण स्नायुओं को छू लेता था।

‘‘उम्मी !’’ माँ खिड़की में उसके पास आकर खड़ी हो गई।

उमा ने जरा चौंककर माँ की ओर देखा।

‘‘तुझे अभी तैयार नहीं होना ?’’ माँ ने पूछा।


‘‘अभी तैयार हो जाऊँगी, ऐसी क्या जल्दी है ?’’ और उमा की आँखें गली की ओर ही लगी रहीं।

‘‘जाना है तो अब कपड़े-अपड़े बदल ले, ’’माँ ने कहा, ‘‘बता साड़ी निकाल दूँ कि सूट ?’’

‘‘जो चाहे निकाल दो...’’ उमा अन्यमनस्क भाव से बोली।

तेरी अपनी कोई मर्जी नहीं ?’’

‘‘उसमें मर्जी का क्या है ? जो निकाल दोगी, पहन लूँगी।’’

उसे अपने शरीर पर साड़ी और सूट दोनों में से कोई चीज़ अच्छी नहीं लगती थी। कीमती से कीमती कपड़े उसके अंगों को छूकर जैसे मुरझा जाते थे। रक्षा सवेरे साधारण खादी के कपड़े पहनकर आई थी, फिर भी बहुत सुंदर लग रही थी। उमा खिड़की से हटकर शीशे के सामने चली गई। मन में फिर वही झुँझलाहट उठी। आज वह इतने लोगों के बीच जाकर कैसी लगेगी ? माँ ने सुबह मना कर दिया होता तो कितना अच्छा था ? अब भी यदि वह रक्षा से ज्वर या सिरदर्द का बहाना कर दे...?


वह अपने मन की दुर्बलता को तरह-तरह से सहारा दे रही थी। कभी चाहती कि रक्षा उसे लेने आना ही भूल जाए। कभी सोचती कि शायद यह सपना ही हो और आँख खुलने पर उसे लगे कि वह यूँ ही डर रही थी। मगर सपना होता तो कहीं से टूटता या बदलता। सुबह से अब तक इतना एकतार सपना कैसे हो सकता था ?

माँ ने सफेद साटिन का सूट लाकर उसके हाथ में दे दिया। उमा ने उसे शरीर से लगाकर देखा। उसे अच्छा नहीं लगा। मगर उसका नया सूट वही था। उसने सोचा कि एक बार पहनकर देख ले, पहनने में क्या हर्ज है ?

सूट की फिटिंग बिलकुल ठीक थी। उसे लगा कि उससे उसके अंगों का भद्दापन और व्यक्त हो आया है। यदि उसकी कमर कुछ पतली और नीचे का हिस्सा ज़रा भारी होता तो ठीक था। यदि उसकी होश में ही उसका पुनर्जन्म हो जाए और उसे रक्षा जैसा शरीर मिले तो वह सूट में कितनी अच्छी लगे ?

माँ वह लकड़ी का डिब्बा ले आई जो कभी उसकी फूफी ने उपहार में दिया। उसमें पाउडर क्रीम, लिपस्टिक और नेलपॉलिश, कितनी ही चीजें थीं। उसने उन्हें कई बार सूँघा तो था, पर अपने शरीर पर उनके प्रयोग की कल्पना नहीं की थी। उसने माँ की ओर देखा। माँ मुसकरा रही थी।

‘‘यह किसके लिए लाई हो ?’’ उमा ने पूछा।

‘‘तेरे लिए और किसके लिए ?’’ माँ बोली, ‘‘ब्याह वाले घर नहीं जाएगी ?’’

‘‘तो उसके लिए इस सबकी क्या जरूरत है ?’’

‘‘वैसे जाना लोगों को बुरा लगेगा। घड़ी दो घड़ी की ही तो बात है।’’

‘‘लालाजी ने देख लिया तो....?’’

‘‘वे देर से घर आएँगे। तू लौटकर साबुन से मुँह धो लेना।’’

‘‘परंतु...।’’


उसके मन का परंतु नहीं निकला। पर वह मना भी नहीं कर सकी। उसकी इच्छा न हो, ऐसी बात नहीं थी, पर मन में आशंका भी थी। वह उन चीजों को अनिश्चित सी देखती रही। माँ दूसरे कमरे में चली गई।

लिपस्टिक उसने होठों के पास रखकर देखी। फिर मन हुआ कि हलका सा रंग चढ़ाकर देख ले। चाहेगी। तो पल भर में तौलिए से पोंछ देगी।

ज्यों ज्यों होंठों का रंग बदलने लगा, उसके मन की उत्सुकता बढ़ने लगी। तौलिए से होंठ छिपाए हुए वह जाकर खिड़की के किवाड़ बंद कर आई। फिर शीशे के सामने आकर वह तौलिए से होठों को रगड़ने लगी। उससे रंग कुछ फीका तो हो गया, पर पूरी तरह नहीं उतरा। फिर तौलिया रखकर उसने पाउडर की डिबिया उठा ली। मन ने प्रेरणा दी कि तौलिया है, पानी है, एक मिनट में चेहरा साफ हो सकता है, और वह पफ से चेहरे पर पाउडर लगाने लगी।

पफ रखकर जब उसने चेहरे को हाथ से मलना आरंभ किया तभी सीढ़ियों पर पैरों की खट्-खट् सुनाई दी। इससे पहले कि वह तौलिए में मुँह छिपा पाती, रक्षा दरवाजा खोलकर कमरे में आ गई। उमा के लिए अपना आप भारी हो गया।

‘‘तैयार हो गई, परी रानी ?’’ रक्षा ने मुसकराकर पूछा।

‘परी रानी’ शब्द उमा को खटक गया। उसे लगा कि उस शब्द में चुभती हुई चोट है।

‘‘साढ़े पाँच बज गए ?’’

उसने कुंठित स्वर में पूछा।

‘‘अभी दस बारह मिनट बाकी हैं।’’ रक्षा ने कहा।


‘‘समझ रही थी, अभी पाँच भी नहीं बजे’’, उमा ने किसी तरह मुसकराकर कहा। उसकी आँखें रक्षा के शरीर पर स्थिर हो रही थीं। आसमानी साड़ी के साथ हीरे के टॉप्स और सोने की चूड़ियाँ पहनकर रक्षा बहुत सुंदर लग रही थी।

माँ ने अंदर से पुकारा तो उमा को जैसे वहाँ से हटने का बहाना मिल गया। अंदर गई तो माँ वह मखमली डिबिया लिए खड़ी थी, जिसमें सोने की ज़ंजीर रखी रहती थी। वह ज़ंजीर माँ के ब्याह में आई थी और उमा के ब्याह में दी जाने के लिए संदूक में सँभालकर रखी हुई थी। माँ ने जंजीर उसके गले में पहना दी तो उमा को बहुत अजीब लगने लगा। रक्षा इधर आवाज़ दे रही थी इसलिए वह माँ के साथ बाहर कमरे में आ गई। उसके बाहर आते ही रक्षा ने चलने की जल्दी मचा दी।

जब वह चलने लगी तो माँ ने पीछे से कहा, ‘‘रात को मंदिर में उत्सव भी है। हो सके तो आती हुई दर्शन करती आना।’’

वह सीढ़ियों से उतरकर रक्षा बहुत जल्दी इधर उधर लोगों से उलझ गई। वह यहाँ से वहाँ जाती, वहाँ से उसके पास और उसके पास से और किसी के पास। उमा सोफे के एक कोने में सिमटकर बैठी रही। जब उसकी रक्षा से आँख मिल जाती तो रक्षा मुसकराकर उसे उत्साहित कर देती। जब रक्षा दूर जाती तो उमा बहुत अकेली पड़ने लगती। वह बत्तियों से जगमगाता हुआ घर उसके लिए बहुत पराया था। वहाँ फैली हुई महक अपनी दीवारों की गंध से बहुत भिन्न थी। खामोश अकेलेपन के स्थान पर चारों ओर खिलखिलाता हुआ शोर सुनाई दे रहा था। वह एक प्रवाह था जिसमें निरंतर लहरें उठ रही थीं। पर वह लहरों में लहर नहीं, एक तिनके की तरह थी-अकेली और एक ओर को हटी हुई।

रक्षा कुछ और लड़कियों को लिए हुए बाहर से आई और उसने उन्हें उसका परिचय दिया, ‘‘यह हमारी उमा रानी है, तुम लोगों की तरह चंट नहीं है, बहुत सीधी लड़की है।’’

उमा को इस तरह अपना परिचय दिया जाना अच्छा नहीं लगा, फिर भी वह मुसकरा दी। रक्षा दूसरी लड़कियों का परिचय कराने लगी ‘‘यह कांता है, इंटर में पढ़ती है। अभी अभी इसने कॉलेज के नाटक में जूलिएट का अभिनय किया था, बहुत अच्छा अभिनय रहा।...यह कंचन है, आजकल कला भवन में नृत्य सीख रही है।...और मनोरमा...यह कॉलेज के किसी भी लड़के को मात दे सकती है...

परिचय पाकर उमा अपने को उनसे और भी दूर अनुभव करने लगी। उन सबके पास करने के लिए अपनी बातें थीं। ‘वह’ ‘उस दिन’, ‘वह बात’ आदि संकेतों से वे बरबस हँस देती थीं। उमा के विचार कभी फरश पर अटक, जाते कभी छत से टकराने लगते और कभी सफेद सूट पर आकर सिमट जाते।


रक्षा कांता को एक फोटो दिखा रही थी। और कह रही थी कि इस लड़के से ललिता की शादी हो रही है।

‘‘अच्छी लॉटरी है !’’ कांता तसवीर हाथ में लेकर बोली, ‘‘एक दिन की भी जान-पहचान नहीं, और कल को ये पतिदेव होंगे और ललिता जी ‘हमारे वे’ कहकर इनकी बात करेंगी-धन्य पतिदेव।’’

कांता की बात पर और सबके साथ उमा भी हँस दी। पर वह बेमतलब की हँसी थी, उसे हँसने के लिए आतंरिक गुदगुदी का ज़रा भी अनुभव नहीं हुआ था। उसके स्नायु जैसे जकड़ गए थे। खुलना चाहते थे, लेकिन खुल नहीं पा रहे थे।

बात में से बात निकल रही थी। कभी कोई बात स्पष्ट कही जाती और कभी सांकेतिक भाषा में। सहसा बात बीच में ही छोड़कर रक्षा एक नवयुवक को लक्षित करके बोली, ‘‘आइए, भाई साहब ! लाए हैं आप हमारी चीज़ ?’’

‘‘भई, माफ कर दो,’’ नवयुवक पास आता हुआ बोला, ‘‘तुम्हारी चीज़ मुझसे गुम हो गई।’’

‘‘हाँ, गुम हो गई ! साथ आप नहीं गुम हो गए ?’’ रक्षा धृष्टता के साथ बोली।

‘‘अपना भी क्या पता है ?’’ नवयुवक ने कहा, ‘‘इनसान को गुम होते देर लगती है ?’’

नवयुवक लंबा और दुबला-पतला था और देखने में काफी अच्छा लग रहा था। उमा ने एक नज़र देखकर आँखें हटा लीं।