सुंदर भ्रम / दयानंद पाण्डेय

Gadya Kosh से
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कमरे में चुपचाप अकेला उदास बैठा हूं। अंधेरा फैलने लगा है। मन में आया है कि बत्ती जला दूं। सोचता हूं, क्या होगा बत्ती जला कर ? लेकिन बत्ती जला दी है। अचानक हवा से खिड़की पर लगा परदा लहरा उठा है, और एक लड़की साइकिल से जाती हुई दिखी है....और बस तुम्हारी याद-सी आ गई है।

जानती हो कितनी ही बार तुम्हारे आने-जाने के रास्तों में टहलते हुए मैं ने बहुत देर तक तुम्हारा इंतजार किया है। यह शायद तुम्हें पता नहीं, और शायद कभी पता चल भी न सकेगा, अगर तुम्हें यह चिट्ठी नहीं, मिलती है।

अकसर जब तुम दो-दो, तीन-तीन दिन बाद दीखती तो मैं इस इंतजार की बेचैनियां तुम से बयान करने की सोचता। सोचता ही रहता कि तुम एकाएक लुप्त हो जाती। और मेरी बेचैनी और भी बढ़ जाती। फिर वह बेचैनी तब तक धधकती रहती, जब तक तुम फिर नहीं दीख जाती थी, और दीखती तो फिर वही सोचने समझने की प्रक्रिया में ही तुम फिर गायब हो जाती।

लगता है मैं कहीं उलझ गया हूं। जो मैं कहना चाहता हूं, कह नहीं पा रहा हूं और कभी कह नहीं पाऊंगा....। और जो बात कही नहीं जा सकती वह अंदर ही अंदर कितना कुरेद डालती है, कितना परेशान कर डालती है ? कभी-कभी सोचता हूं कि कहीं गिर कर, या किसी कार वगैरह के धक्के से मैं अपनी याददाश्त क्यों नहीं खो बैठता ? पर यह जानता हूं कि यह नहीं होना है और जो मैं न कह पाऊंगा, न भूल पाऊंगा, हमेशा इसी तरह परेशान होता रहूंगा।

हां, तो उस दिन तुम बहुत दिनों बाद दिखी थी। तुम्हें मालूम नहीं इस लिए एक बार फिर दुहरा दूं कि रोज तुम्हारे आने-जाने के रास्ते में घंटों तुम्हें भीड़ में हेरते-खोजते और इंतजार करने के बाद भी तुम नहीं दीखती और मैं निराश लौट जाया करता था। तुम्हारी एक झलक पा लेने को बेचैन हो उठता था, मैं। पर तुम थी कि दीखती ही न थी। हालां कि मैं ने तुम्हारा घर भी देख रखा था। लेकिन तुम्हारे घर जाना जाने क्यों मुनासिब नहीं जान पड़ता था। फिर भी न जाने कितनी बार मैं यह रोज सोचता था, बल्कि तय करता था कि अब तुम्हारे आने-जाने के रास्ते तुम्हें देखने नहीं जाऊंगा और कमोवेश हर रोज मैं यह सोचता था। पर दूसरे दिन फिर उन्हीं रास्तों पर मैं हाजिर रहता....। जब-जब जाने को होता तो शायद अब तुम आओ, अब तुम आओ, थोड़ी देर के लिए मैं और रुक जाता और इसी तरह बहुत देर तक तुम्हारा इंतजार करता खड़ा रहता....। कभी तुम दीखती, कभी न दीखती।

एक दिन तुम दिखी और हमेशा की तरह आगे बढ़ गई। इत्तफाक से मैं भी तुम्हारे साथ हो लिया। और दिनों तुम मुझे दीखती तो लगता जैसे अभी-अभी फूल खिला हो। ताजा फूल। लेकिन उस दिन तुम बहुत ख़ामोश थी, । खोई-खोई-सी साइकिल चलाए जा रही थी। जैसे तुम्हारा मन कहीं और उलझा हुआ था। अपने नारंगी रंग के पैंट और सफेद बुशर्ट पर गुलाबी स्वेटर में तुम बहुत प्यारी लग रही थी। यों तो तुम मुझे हमेशा भी वैसी ही प्यारी लगा करती थी। पर उस दिन शायद कई दिनों बाद तुम्हें देखा था, इस लिए ज्यादा अच्छी लग रही थी। लेकिन तुम्हारी ख़ामोशी मुझे बुरी लग रही थी। मैं पहले ही की तरह तुम से अपने इंतजार की बेचैनियां कहने के लिए परेशान था। पर तुम ख़ामोश थी। मैं ने तुम्हारे इस अजीब व्यवहार की कैफियत पूछनी चाही, पर तुम्हारी ठंडी ख़ामोशी देख हिम्मत नहीं कर सका।

वो तो दो-तीन दिन बाद तुम्हारे मुहल्ले के ही किसी से पता चला था कि तुम्हारे पिता जी की अकाल मृत्यु हो गई। क्या हुआ था वह यह तो नहीं बता पाया, हां, यह जरूर बताया कि तुम्हारे पिता जी सिंचाई विभाग में कोई इंजीनियर, शायद जूनियर इंजीनियर थे।

तुम्हें याद है कि नहीं ? हमें तो पूरा-पूरा याद है उस दिन अंगरेजी का पहला क्लास था। प्रोफेसर दास ने बारी-बारी सभी स्टूडेंट्स से अंगरेजी पढ़ने का मकसद पूछा था। किसी ने कंपटीशन का हवाला दिया था, किसी ने अनुवादक बनना चाहा था, तो किसी ने यूं ही शौकिया ही, किसी ने हवा में ही या कुछ और ऐसे ही चलतू जवाब दिया था। तुम्हारा जवाब भी चलतू तो था ही, बचकाना भी। लेकिन और सब से एकदम अलग-थलग। तुम ने कहा था, ‘मैं विदेश (शायद अमरीका) जाना चाहती हूं, इसी लिए....।’ और उसी दिन से तुम लड़कों के बीच ख़ासी चर्चा का विषय बन गई थी। उस में भी तुम्हारे कंडक्टरनुमा बैग ने, जो तुम अकसर बाएं कंधे पर लटकाए रहती, और इजाफा लाता। और हम जैसे देहाती लड़के तुम्हें तुम्हारे नाम से कम-कंडक्टर नाम से ज्यादा जानने लगे थे। वह तो बाद में पता चला कि तुम्हारा बायां पैर कुछ गड़बड़ है, शायद उस दोष ही को छुपाने के लिए तुम वह कंडक्टरनुमा बैग इस्तेमाल करती हो। इस रोज को तुम्हारी एक सहेली ही एक बार बात ही बात में शायद गलती से या कि अनजाने में कुछेक लड़कों के बीच खोल गई थी। फिर तो अब लड़कों का ध्यान तुम्हारे कंडक्टरनुमा बैग से हट कर तुम्हारे पैरों पर टिकने लगा था। और तुम थी कि अपने दोनों पैरों के सामंजस्य में इतनी होशियारी बरतती कि कौन-सा पैर गड़बड़ है, लड़के अटकलें ही लगाते रह जाते। कुछ लड़कों की राय थी कि तुम्हारे दाएं पैर में खोट है, तो कुछ लड़कों की राय थी कि नहीं बायें पैर में खोट है। बल्कि एक दिन तो लड़कों में बाजी लगी और नौबत हाथापाई तक आ गई थी। हां, तुम बैडमिंटन भी अच्छा खेलती थी, और सब से बड़ी ख़ासियत यह थी कि, तुम शायद बड़ी कांपलेक्सिव थीं, सुपर कांपलेक्स की शिकार। हालां कि यह कांपलेक्स तुम्हारे हावभाव या बात-चीत में जल्दी जाहिर नहीं हो पाता, अन्य लड़कियों की अपेक्षा तुम लड़कों से बेलाग-बेलौस बतियाती थी। यों तो तब के दिनों के हर क्षण संस्मरण बन रहे हैं। लेकिन अब तो वे दिन नहीं रहे न। वे बोलते- बतियाते दिन।

वह दिन भी क्या दिन था ! हां, तो उस दिन मैं ने पक्का फैसला कर लिया था कि अब चुप नहीं रहूंगा, ख़ामोशी मैं तोड़ूँगा। और बात मैं ने ही शुरू की। लेकिन वह बातचीत....

‘हलो ! कैसी हो ?’

‘ठीक हूं, तुम कैसे हो ?’ तुम ने बुझी-सी आवाज में पूछा था।

और फिर सामान्य-सी संक्षिप्त बात चीत से बात आगे नहीं बढ़ सकी। हालां कि मैं तुम से बहुत कुछ कहने को उतावला था, लेकिन वो सारा उतावलापन तुम से बात-चीत के समय जाने कहां गुम हो गया था ? वह उतावलापन जिसे मैं महीनों से सहेजे-संवारे था, मेरी बेसब्री में गुम हो गया था कि तुम्हारी बुझी-बुझी-सी आवाज में कैद हो गया, ठीक-ठाक आज भी नहीं कह सकता। तिस पर भी उस दिन सारा दिन मैं मारे खुशी के यहां-वहां बेसुध हो कर घूमता रहा और रात तुम्हारे नाम एक चिट्ठी लिखी। बड़ी मुख्तसार-सी चिट्ठी:

प्रिय अनु, मैं पिछले कई दिनों में तुम्हारे प्रति एक अजीब-सा खिंचाव महसूस कर रहा हूं, और शायद तुम भी। अगर सचमुच ऐसा है तो तुम मुझे ‘हां’ या फिर मेरा भ्रम है तो ‘ना’ लिख कर दे दो, मैं इंतजार करूंगा। तुम्हारा ही, देव

और दूसरे दिन यह चिट्ठी ले कर बहुत पहले ही तुम्हारे रास्ते पर मैं हाजिर था। बहुत इंतजार किया तुम नहीं दिखीं। दूसरे दिन, तीसरे दिन भी तुम नहीं दिखी। जानती हो मैं रोज रात को उसी चिट्ठी की इबारत को फिर से ताजे कागज पर लिखता, लिफाफे में बंद करता। दूसरे दिन तुम्हारे न मिलने पर लिफाफा फाड़ देता....। जानती हो क्यों ? सिर्फ वह अपनी लिखी इबारत पढ़ने के लिए, जो तुम तक नहीं पहुंच पाती थी। ख़ैर, तुम ने ज्यादा इंतजार नहीं कराया। चौथे नहीं पांचवें दिन तुम दिखी। उस दिन तुम साइकिल कुछ ज्यादा ही तेज चला रही थी, मैं ने भी अपनी साइकिल तुम्हारी साइकिल के पीछे कर ली। और धड़कते दिल से साइकिल लिए तुम्हारे बगल में आ गया....। तुम शायद देख कर भी मुझे अनदेखा कर रही थी। लेकिन जब मैं ने तुम्हें आवाज दी तो तुम पहले तो कुछ सहमी, लेकिन तुरंत सहज हो आई। बात-चीत में ही मैं ने वह चिट्ठी जिसे ले कर पिछले चार दिनों से बेचैन था, तुम्हें देनी चाही। लेकिन तुम कन्नी काट गई। तुम एकाएक गंभीर हो गई, और साइकिल के पैडिल तेज-तेज मारती हुई दूसरी ओर मुड़ गईं थी। मैं ने भी अपनी साइकिल तेज की, लेकिन जाने क्यों एकाएक ब्रेक लगा कर रुक गया। और ठिठक कर तुम्हें जाते हुए वहीं से देखने लगा था।

फिर जाने क्यों कुछ दिनों तक तुम्हारा सामना ही करते नहीं बन पाता। और वह रास्ता ही मैं ने छोड़ दिया। लेकिन यह क्रम ज्यादा दिन तक नहीं चल सका। कष्रीब 10-12 रोज बाद ही पहले ही की तरह उन रास्तों पर फिर से मैं हाजिर था, तुम्हारी तलाश में, तुम्हें देखने की चाह में। हालां कि उस अपमान (?) के बाद अपने को बहुत रोकने की कोशिश की लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद भी नहीं रोक पाया था, अपने आप को।

और अब मैं तुम्हें फिर रोज-रोज देखने लगा था, । जब कि तुम मुझे देख कर भी नहीं देखती थी। देखती भी थी तो एकदम ख़ामोश नजरों से। रहती भी खामोश थी, अति ख़ामोश। कि एकाएक तुम गायब हो गई। महीनों गायब। मैं ने सोचा कि बीमार-वीमार हो गई होगी। लेकिन महीना गुजरा, दो महीना, तीन महीना गुजरा, तब भी तुम नहीं दिखी। मैं अपने को रोक नहीं पा रहा था, सोचा कि क्यों न तुम्हारे घर ही चला चलूं। बहुत होगी तो तुम नाराजश् ही होगी न ! जेल तो नहीं न भिजवा दोगी ? और इस समय भी क्या मैं जेल से बाहर था ? लेकिन तुम्हारे घर नहीं जा पाया। बल्कि घर जाने के बजाय पहुंच गया यूनिवर्सिटी, तुम्हारे विभाग में। वहां तुम्हारी एक सहेली, जिसे मैं पहले से जानता था, से पता चला कि तुम यहां रेगुलर नहीं थीं। और अब तुम्हें तुम्हारे पापा की जगह नौकरी मिल गई है। सिंचाई विभाग में ही। अब सिंचाई विभाग के दर्जनों आफिस, उन की भी कइयों ब्रांच। कहां ढूंढता फिरूं मैं तुम्हें ! कुछ समझ में नहीं आता। हालां कि कुछ मेरे परिचित थे, सिंचाई विभाग में। चाहता तो पता कर सकता था, कि तुम किस आफिस में हो, । लेकिन जाने क्यों ऐसा करने में संकोच लगा और भूल गया और कुछ दिनों के लिए तुम्हारा चक्कर। हालां कि भुला नहीं पाया।

अब सोचता हूं कि तभी मैं ने क्यों नहीं अपने को तुम से अलग कर लिया? क्यों तुम से कहना चाहा कि ‘‘मैं तुम्हें....।’’ तुम ने तो कुछ कहना दूर शायद मेरी ओर ठीक से देखना भी नहीं चाहा था।

इसी बीच यह भी पता चला कि तुम्हारी बड़ी बहन, जिस कालेज में हम-तुम पढ़ते थे, उसी कालेज में ‘साइकॉलाजी’ में डिमांस्ट्रेटर हो गई। इस बीच जाने क्यों तुम्हारे प्रति मैं एकदम उदासीन हो चला था। लेकिन फिर भी कभी-कभार तुम्हें देखने की लालसा जरूर हो उठती, जिसे मैं चाहते हुए भी पूरी नहीं कर पाता था। कि एक दिन ख़बर मिली कि तुम्हारी उस डिमांस्ट्रेटर बहन की शादी हो गई। यकीन मानो मैं सचमुच घबरा गया था....। जानती हो क्यों ? ‘कि अब तुम्हारी भी शादी हो जाएगी।’ मन अजीब-अजीब शंकाओं से घिरने लगा। इस बीच मैं ने भी एक में नौकरी कर ली थी। सोचा कि तुम से एक बार फिर क्यों न मिलूं। लेकिन बहुत चाहने पर भी नहीं मिल सका था, तुम से।

जानती हो इन दिनों चांदनी रात हो या अंधेरी रात, मैं अकसर सुनसान सड़कों पर घूमने निकल जाता। उन्हीं सड़कों पर जिन पर कि तुम्हें दिन के उजाले में कभी घंटों इंतजार के बाद देखा करता था। उन सुनसान सड़कों पर, सब कुछ खोया-खोया बेसुध-सा लगता, और बस तुम्हारी याद आ जाती। ऐसे वक्त तुम्हारी याद कितने अकेलेपन का एहसास करा जाती। यह तुम्हारे न होने का एहसास कितना बेचैन बना जाता, तुम क्या जानो भला ? एक मीठी छटपटाहट से भर उठता मैं, जैसे बांहें फैला कर ढेर सारा अंधेरा बटोर लाया होऊं।

एक दिन बड़ी मुख़्तसर-सी झलक मिली थी तुम्हारी। तुम शायद अपनी बड़ी बहन के साथ कहीं रिक्शे पर जा रही थी। मैं ने तुम्हें बुलाना चाहा, लेकिन मेरी आवाज मेरे गले में ही फंसी रह गई और ठगा-ठगा-सा मैं तुम्हें देखता खड़ा रहा, तब तक खड़ा रहा जब तक कि तुम आंखों से ओझल नहीं हो गई।

तुम्हें यह सब कुछ भी पता नहीं होगा। इसी लिए कहे जा रहा हूं। तुम से कभी यह सब मैं कह नहीं पाया था। तुम ने मौका ही कब दिया, यह सब कहने के लिए ?

इन दिनों फिर मैं तुम्हारे आफिस जाते-आते वक्त नियत समय से तुम्हारे रास्ते पर जाने कब से फिर हाजिर होने लगा, पता ही नहीं चला। अकसर तुम्हें देखता और देखता ही रह जाता। सोचता कि तुम्हें रोकूं। कुछ कहूं। लेकिन ऐसा लाख चाहने पर भी कभी कुछ संभव नहीं बन पाया।

कि इसी बीच मैं बीमार पड़ा, गैस्टिक ट्रबुल हो गया था। जब ‘पेन’ शुरू हुआ तो आफिस में ही था। कर्मचारियों ने ही अस्पताल पहुंचाया। डाक्टरों की गलत दवा से मेरी हालत काफी बिगड़ गई। सिंपैथी में डाक्टर्स कंपोज, मार्फिया के इंजेक्शन लगा-लगा कर मुझे सुलाने लगे। मैं ने सुना लोग दबी जुबान कह रहे हैं कि मैं पागल हो गया....। नर्स-वार्ड ब्वाय सब मुझे अजीब नजरों से देखते। डाक्टर्स भी परिचित होने के बावजूद पीठ पीछे टांट करने लगे थे, । सब के लिए मैं एक तमाशा बन गया था। घर के लोग भी मेरी अजीब हरकतों से तंग आ चुके थे, ख़ास कर पिता जी। मां तो रो-रो कर ही बेहाल हुई जाती थी। तमाम मनौतियां मानती जाती। लोगों का अनुमान था कि अब मैं जिंदा नहीं बचूंगा, बचूंगा भी तो सही-सलामत नहीं पागलपन में जिंदगी गुजरेगी।

लोग बताते हैं कि मैं अकसर सोते-जागते तुम्हारा नाम ले-ले बड़बड़ाता था। इतना ही नहीं, ठीक होने के बाद तो यह भी पता लगा कि मैं ने कुछ लोगों को तुम्हारे घर का पता दे कर तुम्हें बुलाया भी था। लोग बताते हैं कि मैं इन दिनों तुम्हारा नाम ले-ले कर हमेशा बड़बड़ाता तो था ही, जो ही मुझे देखने आता उस से मैं तुम्हारा जिक्र कर तुम्हें बुला लाने को कहता। यहां तक कि एक महिला प्राध्यापिका जो हमें तुम्हें पढ़ाती थीं, वे भी देखने आई थीं, तो मैं ने उन से भी तुम्हारा जिक्र किया, बल्कि जिद कर बैठा कि नहीं वे तुम्हें बुला ही लावें। लोग बताते हैं कि वे उस समय काफी नाराज हो कर गई थीं, हमारे पास से। ऐसे ही रेडियो में एक एनाउंसर है। ‘इंटरकास्ट मैरिज’ की है। मैं उन्हें भाभी-भाभी कहता हूं, उन से भी जिद कर गया था, तुम्हें बुलाने को ले कर....। वे नाराज नहीं हुईं और बड़े प्यार से मुझे दिलासा दे गईं कि अच्छा बुला लाऊंगी, और मैं ने तुम्हारा पता दे दिया। हालां कि वह तुम्हें बुलाने नहीं गईं। लेकिन जानती हो, वे आज भी जब-तब उस प्रसंग को याद दिला-दिला चिढ़ाया क्या ‘टीज’ किया करती हैं। ख़ैर, तब भी मेरी जिद के जोर से कुछ लोग तुम्हारे वहां पहुंच गए थे। उस समय मैं मेडिकल कालेज में भर्ती था। फिर भी तुम आई तो नहीं, अलबत्ता तुम और तुम्हारे परिवार के लोग काफी बुरा मान गए थे। बुरा मानने की बात ही थी। लेकिन बुरा मुझे भी लगा, कि एक तो तुम आई नहीं, दूसरे गए लोगों को झिड़कते हुए कहा कि ‘मैं फला नाम के किसी भी व्यक्ति को नहीं जानती....।’ सच बताओ, क्या सचमुच तुम मुझे नहीं जानती ?

ख़ैर, ठीक होने के बाद मैं ने बतौर क्षमा-याचना तुम्हें एक चिट्टी लिखी थी, तुम्हारे पड़ोस के प्रोफेसर सिनहा के ‘केयर आफ’। पता नहीं तुम्हें वह चिट्ठी मिली कि नहीं, नहीं जानता। वैसे यह जान लो कि वह चिट्ठी मुख़्तसर सी नहीं वरन् जरा लंबी हो गई थी।

ठीक होने के बाद ही कुछ लोगों ने मुझे यह सूचना दी कि तुम्हारी शादी हो गई। यह जान कर मुझ पर बाहर से तो कोई ख़ास प्रतिक्रिया नहीं हुई लेकिन, भीतर एक अनगूंज-सी हलचल जरूर हुई। वह तो हफ्ते-भर बाद ही मालूम हो गया , कि शादी तुम्हारी नहीं, तुम्हारी छोटी बहन की हुई थी। यह जान कर अलबत्ता थोड़ा आश्चर्य हुआ कि तुम से पहले ही तुम्हारी छोटी बहन की शादी क्यों हो गई? इस का भी स्पष्टीकरण जल्दी ही तुम्हारे निकट के सूत्रों ने दिया कि ‘उसे किसी लड़के ने पसंद कर लिया था, इस लिए शादी कर दी गई।’ लोग बताते हैं कि वह बड़ी ख़ूबसूरत थी। मैं पूछता हूं कि क्या वह सचमुच ही तुम से भी....?

अब भी तुम कभी-कभी रास्ते में दिख जाती। मैं तुम्हारी ओर कोई ख़ास ध्यान दिए बगैर निकल जाता। इस बीच तुम्हें देख कर लगता कि तुम भी बीमार रही हो, पिछले दिनों। अब तुम ने साइकिल चलाना बंद कर दिया था। आफिस रिक्शे से जाने लगी थी। वो भी देर-सबेर। कि एकाएक तुम फिर गायब हो गई। रास्तों में लाख हेरने-खोजने पर भी तुम नहीं दीखती। शायद बार-बार कई-कई वक्त और रास्ते बदल-बदल कर तुम आने-जाने लगी।

कि पिछले दिनों सिंचाई क्लब की ओर से एक सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किया गया। मैं भी आमंत्रित था। इत्तफाक से जहां मुझे बैठाया गया, ठीक पीछे तुम अपने छोटे भाई-बहन और मां के साथ बैठी थी। मैं क्षण-भर के लिए तो हकबक रह गया था। लेकिन जल्दी ही अपने को संभाल लिया, और तुम्हें आभास भी नहीं होने दिया था कि, मैं ने तुम्हें देखा है। अलबत्ता एक बार कनखियों से यह जरूर देख लिया कि कहीं सचमुच तो तुम्हारी शादी नहीं हो गई ? तुम्हारे माथे पर पर सिंदूर न देख कर मैं आश्वस्त-सा हो गया।

लेकिन पिछले दिनों तुम्हारे मुहल्ले के एक लड़के ने बताया कि तुम अपने घर के सामने के ही एक लड़के से....। लड़का जूनियर इंजीनियर है, तुम्हारी जाति का नहीं हैं, आदि-आदि। और भी बहुत-सी पकी-अधपकी बातें बताईं उस ने तुम्हारे बारे में। मैं यह जान कर हैरान था कि उसे इतनी सारी जानकारी कैसे ? उस ने ही बताया कि ‘अरे मैं भी कभी उस के चक्कर लगाया करता था, लेकिन उस ने तो उस जूनियर इंजीनियर के बच्चे से पहले ही से दोस्ती कर रखी है, यह जान कर मैं ने ख़ुद ही अपनी छुट्टी कर ली।’

संदेह मुझे भी था, तब भी उस लड़के की बात पर विश्वास नहीं हो पा रहा था। लेकिन तुम्हारे एक निकट के सूत्र ने भी इस बात को प्रकारांतर से पुष्ट किया। सुना है, वह लड़का भी स्पोर्टसमैन था। हां, तुम भी तो स्पोर्टर थी....। बातों-घटनाओं का विवरण इतना ही नहीं और भी बहुत है, जिसे मैं विस्तार नहीं दे पा रहा, कि शायद विस्तार देना नहीं चाहता। जैसे कि तुम....? ख़ैर, छोड़ो भी....।

अरे हां, तुम्हारा वह विदेश जाने का ख़्वाब कहीं धुंधला तो नहीं हो गया, कि तुम ने ही भुला दिया, या कि टूट गया ? हो सकता है। कुछ भी हो सकता है, इस तेज रफ्तार जमाने में। फिर भी यकीन करो तुम्हारा वह विदेश जाने का ख़्वाब भले बचकाना ही सही, था दमदार। उसे पूरा कर डालो। लोग तो खुश होंगे ही, मुझे भी तसल्ली होगी, शायद तुम्हें भी हो। रही बात तुम्हें देखने की मेरी बेचैनी की, तो सच मानो, तुम्हें देखने के लिए मुझ से कहीं अधिक बेचैन मेरी मां की आंखें हैं, जिस ने कभी तुम्हें देखा नहीं, सिर्फ तुम्हारा नाम सुना है।

और हां, सुनो यह कहानी नहीं सच है, कोरा सच !!

फिर कभी।

तुम्हारा ही,

देव

पुनश्चः

यह चिट्ठी तुम तक कैसे पहुंचाऊं ? आज तक नहीं तय कर पाया हूं। तुम्हारा शहर छोड़े भी अरसा हो गया है। तुम अपनी ख़बर ख़ुद नहीं देती हो फिर भी मिल जाती हैं सूचनाएं तुम्हारे बारे में। भेजते रहते हैं लोग। जो तुम्हारे भी दोस्त हैं और मेरे भी। जाता भी रहता हूं कभी-कभार तुम्हारे शहर। हां, तुम्हारा शहर। मेरा शहर नहीं रहा वह। तुम ने रहने ही नहीं दिया । हालां कि यह ख़बर मिले बहुत दिन हुए। बासी है। फिर भी मुझे हिला देने के लिए काफी है। और ताजी भी। एक गहरे जख्म की तरह। मुझे विश्वास नहीं हो रहा इस ख़बर पर कि उस पड़ोसी जूनियर इंजीनियर से भी तुम्हारी दोस्ती टूट गई है।

मैं तो जैसे हूं, हूं। महानगरीय तनाव बहुत होता है, आदमी को ख़बर करने के लिए। सोचता हूं तुम उम्र के एक ख़ास पड़ाव पर हो। कैसे सहे जाती होगी अपने आप को। सच तुम्हारी बड़ी फिक्र लगी रहती है। तुम नहीं समझ सकोगी। बहुत करोगी तो मेरी इस जोकरई पर एक खिसियानी हंसी चेहरे पर ओढ़ लोगी। मैं भी मामूली बेहया नहीं हूं अनु ! देखता हूं इस खिसियाने की कितनी दकियानूस परतें चढ़ाती हो। सब का हिसाब रहेगा मेरे पास और एक न एक दिन उघाडूंगा जरूर। चाहे जैसे। यह वक्त पर छोड़ता हूं। तब तक के लिए वक्त से तुम्हारी सलामती की दुआ के सिवा और क्या कर सकता हूं भला ? इतने बरसों तक सहेज (?) कर रखी यह चिट्ठी तुम्हें आखि़रकार भेज रहा हूं। अन्यथा नहीं लेना, इस देरी पर।

तुम्हारा,

देव