सुआ पढ़ावत गणिका तरि गई / अमृतलाल नागर

Gadya Kosh से
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वेश्‍या या गणिका का अर्थ स्‍पष्‍ट है। जन और गण की पत्‍नी केवल इस देश के प्राचीन इतिहास से ही नहीं वरन सारी दुनिया में मानव-सभ्‍यता के पितृसत्‍तात्‍मक युग में एक आवश्‍यक और महत्‍वपूर्ण संस्‍था बन गई। बाइबिल में केडेशोथ (Kede shoth) वेश्‍याओं का वर्णन आता है। ये लोग (Canaanite) मंदिरों से संबद्ध थीं; मोआबाइट और असीरियन मंदिरों में भी इनका बड़ा आदर होता था। अर्मीनिया देश में पुराने समय में यह आम प्रथा थी कि लोग अपनी बेटियों को देवदासी बना देते थे। प्राचीन बेबिलोनिया में इन देवदासियों का बड़ा रुतबा था। प्राचीन एथेंस और रोम में भी वेश्‍याओं को सम्‍मान की दृष्टि से देखा जाता था। ये सूचनाएँ जॉर्ज रैले स्‍कॉट की प्रसिद्ध पुस्‍तक 'वेश्‍या जीवन का इतिहास' से प्राप्‍त हैं।

हमारे देश में सालवती, मथुरा की बसंत-सेना तथा वैशाली की नगरवधू अंबपाली के वृत्तांत अब तक भारतीय साहित्‍य में अनेक काव्‍य, नाटक और कहानी-उपन्‍यासों की विषय-वस्‍तु बनकर लोक प्रसिद्धि प्राप्‍त कर चुके हैं।

पितृसत्‍तात्‍मक सभ्‍यता के विकास के साथ-साथ पुरुष समाज ने स्‍त्री-समाज को खाने और दिखाने के दाँतों की तरह दो वर्गों में बाँट लिया था। पितृसत्‍तात्‍मक सभ्‍यता के विकास में पुरुष के उत्‍तराधिकार की समस्‍या ही प्रमुखतम थी। अपने उत्‍तराधिकारी को पाने के लिए वह अपने अधीन स्त्रियों को अन्‍य पुरुषों का संग करने से रोकने लगा। पतिव्रत धर्म की महिमा हुई। इससे एक नई समस्‍या सामने आई, क्‍योंकि तब तक स्त्रियों और पुरुषों को परस्‍पर इच्‍छामत मिलने में किसी प्रकार की सामाजिक बाधा नहीं थी। स्त्रियों पर व्‍यक्ति का पूरा अधिकार हो जाने से व्‍यक्ति-व्‍यक्ति में फूट पड़ जाना स्‍वाभाविक ही था। मान लीजिए एक बड़ी सुंदर स्‍त्री है, उसे सब चाहते हैं, परंतु उस पर अधिकार केवल एक ही व्‍यक्ति का है, तो स्‍वाभाविक रूप से सिर-कुटव्‍वल हो जाएगी। इस तरह जातीय संगठनों के बंधन शिथिल पड़ जाने की संभावना होती थी। आत्‍म-रक्षा के लिए कोई भी जाति अपने हेतु यह स्थिति पसंद नहीं कर सकती थी। समझौते के लिए एक ही मार्ग था। जाति की सर्वश्रेष्‍ठ सुंदरियाँ जाति के सभी पुरुषों की वधुएँ मान ली गईं।

'सालवती' प्रसंग पर प्रसादजी एक बड़ी अनूठी कहानी हमें दे गए हैं! एक राष्‍ट्रीयता के नागरिक दूसरी राष्‍ट्रीयता के एक बड़े नगर में जाते हैं। वहाँ उन्‍हें कला-निपुण, सुंदर, वाक् चतुर नगर-वधुओं के दर्शन होते हैं। उन्‍होंने वहाँ यह भी देखा कि नगर-वधुएँ बनाने के लिए वहाँ सौंदर्य-प्रतियोगिता भी होती है। उन नागरिकों ने अपने यहाँ आकर उसी प्रकार का सामाजिक नियम बनाने और सौंदर्य-प्रतियोगिता आरंभ करने की माँग अपनी राष्‍ट्रीय संसद से की। नगर-वधुओं की निर्धारित फीस देकर कोई भी उन्‍हें पा सके अर्थात वे पण्‍यविलासिनी, पण्‍य-वधू, पण्‍यांगना हों। अनेक असफल और ईर्ष्‍यालु प्रेमियों की लारें चू पड़ीं। इस प्रस्‍ताव का जवानों में इतना समर्थन हुआ कि पुरानों को अपनी-अपनी पगड़ियों की लाज सम्‍हालते ही बनी। राष्‍ट्र में फूट पड़ने के भय से उस राष्‍ट्र की देखा-देखी इस राष्‍ट्र में भी सौंदर्य प्रतियोगिता हुई। व्‍यक्ति की प्रेमिका जीती और बरबस सार्वजनिक पण्‍य-प्रेमिका बना दी गई। यों समाज में वेश्‍या का उदय हुआ।

मोहनजोदड़ो से एक नर्तकी की नग्‍न मूर्ति भी प्राप्‍त हुई है। रामायण-महाभारत के युग में भी नाचने गाने वालियों के प्रमाण मिलते हैं। कौटिल्‍य के अर्थशास्‍त्र द्वारा मौर्यकाल और उसके आस-पास युग में राजदरबार एवं संपन्‍न प्रजाजनों के लिए गणिका की अनिवार्यता का पता भी चल जाता है। आज से लगभग दो हजार दो सौ बयासी वर्ष पहले का वह जमाना और था। जहाँ तक मानव की वेश्‍या संबंधी मान्‍यताओं की बात है, आज की दृष्टि से ठीक उलटी राह पर चल रहा था। आज वेश्‍या संस्‍था को समाप्‍त किया जा रहा है और उस काल में सरकार द्वारा ही वेश्‍याओं की प्रतिष्‍ठापना होती थी; उनके लिए एक अलग सरकारी विभाग खुला था। कौटिल्‍य के अर्थशास्‍त्र में सरकारी गणिकाध्‍यक्ष के लिए यह आदेश है कि वह सुंदर, जवान और कला-निपुण युवतियों को एक हजार 'पणम' (तत्‍कालीन सिक्‍कों) के वार्षिक वेतन पर गणिका की हैसियत से नियुक्‍त करें। यही नहीं, बल्कि गणिकाओं में प्रतिस्‍पर्धा जगाने के लिए कौटिल्‍य महाराज यह आदेश भी देते हैं कि रूप गुण-कला में उसकी प्रतिद्वंद्विनी गणिका को उससे आधे वेतन अर्थात पाँच सौ पणम वार्षिक आय पर नियुक्‍त किया जाय। वेश्‍या यदि कभी बीमार पड़े, विदेश में हो अथवा मर जाए तो उसकी बहन या पुत्री को उसका वेतन और जायदाद मिले। सुंदर नर्तकियों की भरती भी की जाती थी राज्‍य-चिह्न, चैबर, छत्र आदि की सेवा का उत्‍तरदायित्‍व नर्तकियों को ही दिया जाता था। गणिका मंगलामुखी थी। प्रातःकाल उसका मुख देखना शुभ शकुन माना जाता था।

जब एक माल की इतनी आवश्‍यकता हो तो उसके सौदागर भी बाजार में अपने-आप ही आ जाते हैं। आज जो बुर्दाफरोश और उनके गुंडों, कुटनियों तथा दलालों को अपना काम करते हुए पग-पग पर कानून का भय और बाधा सताती है वह उस काल में कदापि नहीं थी। ऐसे पेशेवर 'स्‍त्री-व्‍यवहारिण्‍यः' कहलाते थे।

कौटिल्‍य के अर्थशास्‍त्र में देवदासियों का जिक्र तो अवश्‍य आता है, परंतु नर्तकियों, गणिकाओं के रूप में नहीं, इसलिए यह अनुमान होता है कि तब तक देवदासियों की मर्यादा इस हद तक नीचे नहीं उतरी थी। मेरा अनुमान है कि मंदिरों में मूर्तियों के रूप में प्रतिष्ठित भगवान् को जब से राजसी ठाट-बाट दिया जाने लगा तब से ही देवदासियों में गणिकाओं, नर्तकियों की भरती भी की जाने लगी। पद्यपुराण एवं भविष्‍यपुराण में मंदिरों में पुण्‍यार्थ समर्पित करने के लिए देवदासियाँ खरीदने की बात के प्रमाण मिलते भी हैं।

ई. थस्‍टर्न-लिखित 'कास्‍ट्स एंड ट्राइब्ज ऑफ सदर्न इंडिया' पुस्‍तक के दूसरे भाग में देवदासियों का विशद वर्णन है। उक्‍त पुस्‍तक के अनुसार दक्षिण के प्राचीन ग्रंथों में सात प्रकार की देवदासियों का उल्‍लेख मिलता है -

1. दत्‍ता वह स्‍त्री कहलाती जो अपने-आपको मंदिर की सेवा के लिए किसी प्रकार के मूल्‍य की चाहना के बिना अर्पित करती थीं;

2. विक्रीता अपने-आपको इसी काम के लिए बेचती;

3. भृत्‍या, वह स्‍त्री कहलाती जो अपने पारिवारिक मंगल हेतु मंदिर की सेविका बनती;

4. भक्‍त देवदासी अपनी भक्ति-भावना के कारण मंदिरों में भरती होती थीं;

5. हृता‍ उन देवदासियों को कहते थे जिन्‍हें कहीं से भगा लाकर मंदिरों में अर्पित किया जाता था;

6. अलंकार वर्ग की देवदासियाँ वे कहलाती थीं जो नृत्‍य-संगीत आदि ललित-कलाओं में दक्ष होकर किसी राजा या रईस द्वारा मंदिरों की भेंट चढ़ाई जाती थीं; और

7. रुद्र गणिका या गोपिका वर्ग की देवदासियों को अपने नृत्‍य-संगीत की सेवा के लिए मंदिरों से वेतन दिया जाता था।

सन 1901 ई. की मद्रास सेन्‍सस रिपोर्ट में देवदासियों के संबंध में यथेष्‍ट सूचनाएँ दी गई हैं। उक्‍त रिपोर्ट के लेखक ने इस पेशे का भविष्‍य दो जातियों के अवैध नाते से माना है। ऐसे नातों की अवैध संतानें सभ्‍यता के आदिम विकास में ललित-कलाओं से संबद्ध होकर इस पेशे में आईं! उक्‍त सेन्‍सस रिपोर्ट में लिखा है, हिंदू धर्म की अनेक असंगत बातों में एक यह भी है कि यद्यपि इनका (देवदासियों का) पेशा उनके शास्‍त्रों द्वारा बार-बार हीन दृष्टि से देखा और धिक्‍कारा जाता रहा है, तथापि दूसरी ओर उनके देव-मंदिरों ने सदा इसे प्रोत्‍साहन दिया है। इस जाति का संगठन उक्‍त लेखक के अनुसार ईसा की नवीं-दसवीं शताब्दियों में हुआ था। वेश्‍याओं को मंगल-भाषी नाम 'देवदासी' भी संभवत: इसी काल में दिया गया। उन दिनों दक्षिण भारत में अनेक भव्‍य मंदिरों का निर्माण हुआ था।

उक्‍त लेखक की बात में कुछ भ्रम अवश्‍य दिखलाई देता है, क्‍योंकि तंजावूर के वृहदीश्‍वर मंदिर के एक शिला लेखानुसार सन 1004 ई. में चीन महाराज राजराज द्वारा उक्‍त मंदिर की सेवा के लिए चार सौ देवदासियाँ अर्पित की गई थीं। उन्‍हें मंदिर की चारदीवारी के अंदर ही रहने को स्‍थान भी दिया गया था। इससे अनुमान होता है कि देवदासियों का संगठन ईसवी शताब्दियों के पूर्व ही हो चुका था। ईसा की तीसरी शताब्‍दी में उज्‍जयिनी के महाकालेश्‍वर के मंदिर में देवदासियाँ प्रतिष्ठित थीं। सत्रहवीं-अठारहवीं शताब्‍दी तक दक्षिण भारत में हिंदू राजाओं, सामंतों और धनिकों की कृपा से यह संगठन अधिकाधिक फलता-फूलता रहा। पंद्रहवीं शताब्‍दी में दक्षिण के विजयनगर दरबार में तुर्किस्‍तान का अब्‍दुर्रज्‍़जाक नामक राजदूत आया था। उसके अनुसार वेश्‍यावृत्ति राजकीय नियंत्रण में होती थी तथा उसकी आय से पुलिस को वेतन मिलता था। इस प्रकार अपने सदियों के अस्तित्‍व को लेकर देवदासियों की एक जाति ही अलग बन गई। जाति के चौधरी-चौधराइन नियुक्‍त हुए, लड़के-लड़कियों द्वारा उत्‍तराधिकार प्राप्‍त करने के लिए सामाजिक नियम भी बने। वेश्‍याओं की यह पंचायत व्‍यवस्‍था विश्‍व में अपने ढंग की एक ही है। देवदासियों की लड़कियाँ पेशा करती थीं और उनके लड़कों की पत्नियाँ कुलवधुओं के समान ही गृहस्‍थी की मर्यादा में रहती थीं। जो लड़कियाँ सुंदर और गुणवती होती थीं उन्‍हें देवदासी बनने की शिक्षा दी जाती थी और जो कुरूप या बुद्धू होती थीं उन्‍हें अपनी ही बिरादरी के युवकों से ब्‍याह दिया जाता था। इनके लड़कों में से कुछ तो इनके साजिंदे बन जाते थे और कुछ संगीत-नृत्‍य के शिक्षक हो जाते थे। इन्‍हें नट्टुवन कहा जाता था। देवदासियों के कुछ लड़के अपना विवाह कर दूसरे रोजगार-धंधों में भी निकल जाते थे। वे अपने को 'पिल्‍ले' अथवा 'मुदलि' कहकर प्रतिष्ठित करते थे। ये पदवियाँ वेल्‍लाज और कैकोल जातियों की होती थीं और आम तौर पर इन्‍हीं दो जातियों से देवदासियों की भरती भी होती थीं।

देवदासी बनाने के लिए लड़की को धूमधाम से मंदिर में ले जाया जाता था, तलवार अथवा देवमूर्ति के साथ उसका विवाह संपन्‍न होता था और इस विवाह के प्रमाणस्‍वरूप देवदासी की स्‍वजाति का कोई पुरुष देवपति की ओर से उसके गले में 'ताली' बाँधता था। इनकी जो लड़कियाँ देव-मंदिरों में भरती नहीं होती थीं वे इस धंधे के सब गुण सीखकर साधारण गणिका अथवा तमिल भाषानुसार 'मेलक्‍कारन' बन जाती थीं। इन स्त्रियों को साहित्‍य, संगीत, नृत्‍यकला, व्‍यवहार-वाक् चातुरी, पाँसे आदि के खेल और काम-कला की उत्‍तम शिक्षा दी जाती थी। भारतीय गृहिणियों के तीरथ-बरत, नोन-तेल, लकड़ी और नाते-गोते की चर्चाभरे व्‍यवहार के विपरीत वह अलबेली गणिका पुरुषों पर जादू-बान चलाकर, उसके दिन-भर के काम-काज, गृह-काज अर्थात जीवन के गंभीर पक्ष की थकन से उबारकर एक ललित लोक में ले जाती थी। यही वेश्‍या का महत्‍व था और किसी हद तक अब भी है। हमारे पुरखे बड़े नंबरी रसिया थे, पहाड़ों तक को रूहे-आफ्ज़ा शरबत बनाकर खुद भी पी गए और आने वाली सदियों को भी पिला गए। साहित्‍य, संगीत, नृत्‍य, सभी दिशाओं में उन्‍होंने अभूतपूर्व मार्मिक गति पाई थी, फिर काम-कला को ही क्‍यों न ब्रह्मानंद सहोदर बना जाते! मानव-सभ्‍यता के इतिहास में वात्‍स्‍यायन का 'कामसूत्र' अपने रचे जाने के बाद सदियों तक इस विषय का विश्‍व-साहित्‍य में एकमात्र शास्‍त्र-ग्रंथ रहा है; आज तो सारा विश्‍व उस ग्रंथ की प्रामाणिकता का आदर करता है।

एक बात कई बरस से मेरे मन में अटकती है, आज प्रसंगवश उसे कह ही डालूँ। भारतीय शिल्‍प में खजुराहो, जगन्‍नाथ आदि कौलतंत्रमार्गी मंदिरों के चौरासी काम-आसनों वाली मूर्तियों की बात तनिक देर को भूल भी जाइए तो भी यह ध्‍यान में अटकता है कि भारतीय शिल्‍पकारों ने, या उन्‍हें प्रेरणा और पैसा देने वालों ने कुछ पूजनीय पात्रों को छोड़कर नारी-मूर्तियाँ प्रायः सर्वांग नग्‍न ही बनाईं। मोहनजोदड़ों की नग्‍न नर्तकी मूर्ति से लेकर मौर्य गुप्‍तकाल के वैभव तक यह परंपरा बड़े ठाठ से चलती चली आई है। अगर आज के मानस में रहूँ तो समझ में नहीं आता कि‍ किस प्रकार माता-पिता, बेटी-बेटे, नाती-पोते, सब मिलकर उन मंदिरों में जाते होंगे या उन महल-हवेलियों में रहते होंगे, जिनकी चारदीवारियों में तथा जगह-जगह सजावट में औरतों की नंगी और मादक आकृतियाँ अंकित होती थीं। शायद उस समय सेक्‍स के मामले में हमारी दृष्टि यह न रही हो। वाल्‍मीकि जिस ठाठ से भगवती सीता का शारीरिक सौंदर्य बखान गए वह तुलसीदास की सांस्‍कृतिक चेतना के लिए घृणापूर्ण अकल्‍पनीय था। जिन खुले शब्‍दों में वाल्‍मीकि के राम अपने छोटे भाई लक्ष्‍मण के सामने सीता के विरह में विलाप कर सकते थे वे तुलसी के राम की मर्यादा से बाहर के हैं।

खैर यह तो चलते की बात हो गई, मगर भारतीय गणिकाओं की अन्‍य कलाओं के अतिरिक्‍त काम-कला प्रवीणता पर एक सर्टीफिकेट चौदहवीं शताब्‍दी में यहाँ आने वाला अरब यात्री इब्‍नेबत्‍तूता भी दे गया है। डॉक्‍टर अतहर अब्‍बास रिजवी द्वारा अनुवादित 'तुगलककालीन भारत' में इब्‍नेबत्‍तूता का कलाम है, 'दौलताबाद के निवासी मरहठे हैं। ईश्‍वर ने उनकी स्त्रियों को विशेष रूप से सुंदरता प्रदान की है। उनकी नाकें तथा भृकुटियाँ बड़ी ही सुंदर होती हैं। उनसे संभोग में विशेष आनंद प्राप्‍त होता है। उन्‍हें अन्‍य स्त्रियों की अपेक्षा प्रेम संबंधी बातों का अधिक ज्ञान होता है। ...दौलताबाद में गायकों तथा गायिकाओं का अत्यंत सुंदर तथा बड़ा बाजार है जो तरबाबाद कहलाता है। इसमें बहुत सी दुकानें हैं। प्रत्‍येक का एक द्वार दुकान के स्‍वामी के घर में खुलता है। प्रत्‍येक घर में एक अन्‍य द्वार भी होता है। दुकानें कालीनों से सजी रहती हैं। इसके मध्‍य में एक बड़ा-सा झूला होता है जिसमें कोई गायिका बैठी अथवा लेटी रहती है। वह नाना प्रकार के आभूषणों से श्रृंगार किए रहती है। उसकी दासियाँ झूला झुलाया करती हैं। बाजार के मध्‍य में कालीनों तथा फर्शों से सुसज्जित एक बहुत बड़ा गुंबद है। इसमें वृहस्‍पतिवार को (अमीरूल मुतरिबीन) गायकों का सरदार अस्‍त्र की नमाज के पश्‍चात् बैठता है। उसके सेवक तथा दास भी उसके साथ रहते हैं। गायिकाएँ बारी-बारी से आकर उसके समक्ष सायंकाल की नमाज के समय तक गायन तथा नृत्‍य करती हैं। तत्‍पश्‍चात् वे चली जाती हैं। उसी बाजार में नमाज के लिए मस्जिदें हैं। उनमें रमजान के महीनों में इमाम 'तरावीह' पढ़ाता है। हिंदुस्‍तान के कुछ हिंदू राजा जब इस बाजार में से गुजरते तो वह गुंबद में रुककर गायिकाओं का गायन सुना करते थे। कुछ मुसलमान बादशाह भी ऐसा ही करते हैं।

हुमायूँ बादशाह के साथी बैरमखाँ फरमाया करते थे कि अमीर के लिए चार बीवियाँ चाहिएँ, मुसीबत और बातचीत के लिए ईरानी, खाना पकाने के लिए खुरासानी; सेज के लिए हिंदुस्‍तानी और चौथी तुरकानी हो जिसे हर वक्‍त मारते-डाँटते रहें कि और बीबियाँ डरती रहें।

ये सर्वकला-निपुण सुंदर गणिकाएँ और नर्तकियाँ तथा उनके धंधे की सहगामिनी देवदासी पुत्री 'मेलक्‍कारन' - मद्रास सेन्‍सस रिपोर्ट (सन १९०१) के लेखक के शब्‍दों में -उस भारतीय संगीत-पद्धति की आज प्रायः एकमात्र कोषाधिकारिणी हैं, जो विश्‍व की प्राचीनतम पद्धतियों में से एक है। इनके और ब्राह्मणों के सिवा अन्‍य लोग इस विद्या का विधिवत् अध्‍ययन प्रायः कम ही करते हैं। उक्‍त सेन्‍सस रिपोर्ट के अनुसार ही इन देवदासियों के दो वर्ग होते हैं - उक वलंगापि (दक्षिण पथ) और इलंगापि (वाम पक्ष)। इन दोनों पक्षों में खास अंतर यह है कि जो दासियाँ शिल्‍पकार या साधारण कर्मकारों, तमिल भाषानुसार 'कम्‍मालनों' के यहाँ नाचने-गाने जाती थीं वे इलंगापि कहलाती थीं। इन्‍हें कम्‍माल दासी भी कहा जाता था।

ई.थर्स्‍टन महोदय ने अपनी 'दक्षिण भारतीय जातियों और कबीलों के इतिहास' नामक पुस्‍तक में एबेडुबॉय नामक एक पादरी का यह मंतव्‍य नोट किया है कि 'भारतीय नारियों में गणिकाएँ ही श्रेष्‍ठ रूप से सुसज्जित होती हैं।' घरेलू औरतों को पुरुष साल की दो धोतियों पर रखता और अनुभव ने वेश्‍याओं को सजावट का यह गुर सिखलाया कि अपनी सारी सुंदरता को उघाड़कर रख देने से सौंदर्य-बोध की काम-सुगंध फीकी पड़ जाती है। पुरुष की उत्‍तेजना नारी के अधझलके सौंदर्य के रहस्‍य में होती है। भारतीय गणिकाएँ ऐसा साज सँवारना जानती थीं जो पुरुष की नजरों को भी बाँधे और कल्‍पना को भी। उपर्युक्‍त पुस्‍तक में एक अंग्रेज की डायरी का हवाला देते हुए लिखा है कि यहाँ की नर्तकियाँ ऐसा कमाल दिखलाती हैं कि उनके नृत्‍य की तीव्रता, चंचलता और मादकता से पुरुष का पौरुष रंगीन हो उठता है। मैं भी इस बात की दाद दे सकता हूँ। नर्तकी जब महफिल को बाँधने वाला नाच नाचती है तो हर एक को ऐसा लगता है कि वह उसे ही रिझा रही है, उसके पास अब आई, यो दुपट्टे के पल्‍लू से छू गई या कि आई और अब गोद में गिरी। इस तरह वह अपने जादू से बाँध लेती है। अंग्रेजों ने भारतीय 'नाच-गर्ल' की बड़ी चर्चा की है, कहीं रंगीन, कहीं पुरमजाक। लखनऊ की नवाबी में भी अधिकतर या तो बटेरों की हुकूमत रही या फिर तवायफों की, अम्‍मन और अमामन-जैसी कुटनियों-दल्‍लालाओं की, उनके भाँड़-भगतुओं की। वाजिद अली शाह के काल में अवध के अंग्रेज रेजिडेंट मेजर जनरल सर डब्‍लयू.एच. स्‍लीमैन ने अपनी प्रसिद्ध डायरी 'ए जर्नी थ्रू द किंगडम ऑफ अवध' में दरबारी वेश्‍या-विलासिता का राजनीतिक रूप वर्णन किया है।

जे. टालबॉय ह्वीलर की 'हिस्‍ट्री ऑफ इंडिया' में एक शाहंशाह की वेश्‍या प्रेमिका और उसकी सखी के साथ दिल्‍ली के अमीर सरदारों की नोक झोंक का रोचक वर्णन है। मुगल शासन के पराभव काल में जहाँदारशाह दिल्‍ली के सिंहासन पर बैठा था। वह लाल कुँवर नामक एक तवायफ के बस में था। लाल कुँवर ने अपना अच्‍छा समय देखकर बड़े अच्‍छे-अच्‍छों को उँगलियों पर नचा दिया, उसके जितने भाई भतीजे, भाँड़ भगतुए थे, सब नवाब हो गए; सब बड़े-बड़े सरकारी ओहदों पर बैठा दिए गए। वंश परंपरागत दरबारियों, मनसबदारों को इससे बड़े अपमान का बोध होता था, पर कर कुछ भी न पाते थे। किसी लुगाई के सैया कोतवाल हो गए तो उसकी हेकड़ी पर कहावत बन गई, और यहाँ तो मुसम्‍मात लाल कुँवर ने शाहंशाहए हिंदोस्‍तान को अपने तलवे सहलाने वाला बना रखा था। शाहंशाह जहाँदारशाह दिल्‍ली के तख्‍त पर गो नवाब जुल्फिकार खाँ वजीर ए हिंद के द्वारा मिट्टी के माधो-से ही बिठाए गए थे, फिर भी तफ्त पर तो बैठे ही थे। वजीर और दरबारियों को लाख बुरा लगे, मगर तख्‍तोताज के आगे उन्‍हें सिर तो झुकाना ही पड़ता था। लाल कुँवर बँदरिया के हाथ में सामंतों रूपों शानदार मणिधर नागों के फन पड़ गए थे। उनकी मणिसी जगमगाती आबरू को छीनकर, उसे ओछे और कमीने समझे जाने वाले आदमियों को सौंपकर, नागों का फन अपने हठ के पत्‍थर पर रगड़-रगड़कर वह उन्‍हें मार डालती थी। जैसे अंदर बार-बार सूँघकर देखता है कि साँप मरा या नहीं, उसी तरह अपनी एक एक फरमायश आगे रखकर लाल कुँवर भी आजमाती जाती थी। एक बार उससे बड़ी बात उठाई, यानी कि अपने भाई को आगरे का सूबेदार बनाना चाहा। जहाँदारशाह राजी हो गया। लेकिन एक मजबूरी थी, शाही मुहूर वजीर जुल्फिकार खाँ के पास रहती थी। वजीर अड़ गया। लाल कुँवर तड़पने लगी। जहाँदारशाह दो चक्‍की के पाटों में पिसने लगे। आखिरकार लाल कुँवर के मारे-फटकारी बेचारे बादशाह ने वजीर को बुलवाकर अपना तेहा दिखलाया। लाल कुँवर पास ही बैठी थी। वजीर के लिए कठिन अवसर था, लेकिन वह भी मौका न चुका, बोला कि जहाँपनाह के हुक्म को टाल सकूँ इतनी मेरी मजाल कहाँ, मगर हक नजराना तो मुझे मिलना ही चाहिए। नजराने की फीस के तौर पर वजीर ने बादशाह से एक हजार तानपूरे माँगे। उसने कहा कि जब से जिन सरदारों को अपनी पदोन्‍नति की चाह होगी उन्‍हें तानपूरा बजाने की प्रैक्टिस भी लाजिमी तौर पर करनी ही पड़ेगी। सुनार की सौ ठक ठक पर लुहार के एक घन हथौड़े चढ़ बैठी। लाल कुँवर बड़ी लाल पीली हुई, क्‍योंकि उसका भाई पहले महफिलों में तानपूरे की संगत ही किया करता था। मगर इसके बाद जहाँदारशाह फिर अपनी माशूका के भाई को आगरे का सूबेदार न बना सके।

लाल कुँवर का प्रताप यहीं अंत न हो गया, बल्कि उसने आगे भी सामंतों से करारी मात खाई। लाल कुँवर की एक सहेली थी, उसका नाम जोहरा था। जोहरा कुँजड़िन थी; दिल्‍ली के किसी बाजार में उसकी तरकारियों की दुकान थी। जब लाल कुँवर लाल किले की मालकिन बनी तो उसकी बचपन की सहेली जोहरा कुँजड़िन का सितारा भी बुलंद हो गया। बड़े-बड़े और नवाब, जो बादशाह से अपना काम करवाना चाहते थे, जोहरा को और उसकी मारफत लाल कुँवर को भी लाखों की रिश्‍वतें चटाया करते थे। शाही महलों में जोहरा कुँजड़िन शाहजादियों की सी शान शौकत से जाया आता करती थी। बादशाह लाल कुँवर और जोहरा के साथ नशे में धुत्त होकर भद्रता की सारी सीमाएँ तोड़ा करता था। जोहरा और लाल कुँवर के हाली-मवाली स्‍वभावतया सब लोगों से बड़ी बदतमीजी से पेश आया करते थे।

एक दिन निजाम उल मुल्‍क की सवारी बाजार से गुजर रही थी। निजाम औरंगजेब के जमाने के ओहदेदार थे और उनकी बहुत बड़ी प्रतिष्‍ठा थी। आगे चलकर उन्‍होंने ही हैदराबाद दक्षिण का निजाम राज्‍य स्‍थापित किया। ऐसे बड़े पदाधिकारी से जोहरा की सरे बाजार मुठभेड़ हो गई। एक तरफ से निजाम की सवारी आ रही थी और दूसरी तरफ से जोहरा कुँजड़िन की सवारी आ रही थी। मार्ग सँकरा था, जब तक एक की सवारी रुककर और सड़क किनारे हटकर दूसरी को आगे जाने की सुविधा न दे तब तक दोनों का निकलना असंभव था। पुराने समय में इन छोटी-छोटी बातों के लिए रईसों का आपसी मन मुटाव और युद्ध तक हो जाता था, फिर यहाँ तो निजाम और कुँजड़िन के बीच की बात थी। कुँजड़िन बादशाह की मुँहलगी होने के कारण अपने आपको बहुत बड़ा मानती थी, इसलिए उसके आदमियों ने निजाम के आदमियों को रास्‍ता देने के लिए कड़ककर हुक्‍म दिया। अपने स्‍वामी का संकेत पाकर निजाम के आदमियों ने कह दिया कि कुँजड़िनों-खवासिनों के लिए अमीरों की सवारियाँ नहीं रुका करतीं। जोहरा उस समय हाथी के हौदे पर सवार थी, परदे में थी, परंतु यह सुनते ही अपनी-सी पर आ गई। परदा हटा और हाथ बढ़ा बढ़ाकर उसने निजाम की शान में मल्‍लाही गालियाँ बकनी आरंभ कर दीं। निजाम यह सहन न कर सके। उन्‍होंने अपने आदमियों को संकेत दिया, जिसके परिणामस्‍वरूप जोहरा हाथी के हौदे से घसीटकर उतारी गई और उसे जूतियों पीटा गया।

इसके बाद निजाम को चिंता भी पड़ी। जोहरा यों कोई भी हो, पर उस समय तो लाल कुँवर, बादशाह की चहेती थी और बादशाह यों चाहे कुछ भी हो परंतु अपने दरबार के किसी भी रईस का मान मर्दन तो कर ही सकता था। यों तो निजाम उल मुल्क तथा वजीर उल मुल्क में आपसी मनमुटाव था, पर इस बात में दोनों ही सहमत थे कि इस घटना के लिए बादशाह लाल कुँवर के आग्रह पर जोहरा का पक्ष समर्थन कदापि न कर पाए। ये दोनों स्त्रियाँ यदि निजाम को दंड दिलवाने में सफल हो जाएँगी तो नगर में फिर किसी भी रईस की आबरू न बचने पाएगी। वजीर ने तुरंत ही बादशाह को पूरा विवरण लिखकर अंत में यह सूचना भी दे दी कि यदि बादशाह निजाम को दंडित करेंगे तो वजीर निजाम का साथ देगा। वजीर का पत्र बादशाह की सेवा में ठीक समय पर पहुँचा। उसी समय जोहरा सिर के बाल खोले उन पर राख, धूल डालकर दोनों हाथों से छाती कूटती हुई महलों में पहुँची। लाल कुँवर ने अपनी सहेली का जब यह हाल देखा और बातें सुनीं तो आगबबूला हो उठी। दोनों मिलकर बादशाह के पास पहुँचीं। जोहरा ने बड़े बड़े टेसुवे बहाए, लाल कुँवर ने बादशाह को तरह तरह से उभारने का जतन किया, पर वजीर की धमकी के आगे उन दोनों का काम न बन सका।

अंग्रेजी राज की भारतीय रियासतों में रंडियों और रखैलों ने अपने पिया के जोम में बड़े बड़े उत्‍पात किए भी हैं और भोगे भी हैं। महर्षि दयानंद को काँच का चूरा पिलाकर मारने वाली भी एक रियासी वेश्‍या ही थी। श्री के.एल. गाँबा की दो पुस्‍तकों 'हिज हाईनेस' और 'फेमस ट्रायल्‍स' में उनके अनेक किस्‍से लिखे हैं। उत्‍सुक पाठक चाहें तो उन्‍हें पढ़ सकते हैं। दुर्भाग्‍यवश इस इस समय मेरे पास वे पुस्‍तकें नहीं, फिर भी एक मुमताज बेगम का किस्‍सा कुछ कुछ याद आ रहा है। मुमताज बेगम शायद लाहौर की एक नाचने वाली थी। अपनी उठती उमर के साथ ही उसने न जाने कितने अमीरों के दिल उजाड़े और होते-करते किसी हिज हाइनेस महाराजा की प्राण-प्रिया बन गई। मुमताज बेगम की उँगलियों के इशारे पर महाराज नाचते थे। महाराज ने उसे लाखों रुपये के हीरे-जवाहरात दिए। शायद मुमताज बेगम के अद्वितीय प्रभाव के कारण ही रियासत में उससे जलने वाले भी पैदा हो गए थे। महलों की चाल-ढाल देखते हुए अपनी कमाई और जान बचाने के लिए वह और उसके साथी किसी तरकीब से रातों-रात उस रियासत से भाग निकले। इससे महाराजा साहब को बड़ी बेचैनी हुई। अवसर देखकर मुमताज बेगम के विरोधियों ने कान भरे। महाराजा साहब का हुक्म हुआ कि मुमताज बेगम को पकड़कर फिर रियासत में लाने के लिए कोई कीमत और कोई उपाय न उठा रखा जाए। बंबई में मुमताज बेगम का पता मिला। और एक दिन, दिन-दहाड़े ही बंबई की एक भीड़-भरी सड़क पर महाराज साहब के गुंडों ने मुमताज बेगम की गाड़ी घेर ली, कहा-सुनी, छीना-झपटी, चीख-पुकार मची और मुमताज की हत्‍या हो गई। महाराजा साहब को अपने तख्‍त से भी हाथ धोना पड़ा।

शाही नवाबी के पतन-कान से होते चले आते विलासिता के तांडव के कारण गदर के बाद वाले नई चेतना के भारत ने वेश्‍याओं के विरुद्ध आवाज उठाई। प्रतिक्रिया में वेश्‍या-जीवन की कारण भी आगे चलकर उभरी। भारतेंदु से लेकर सरशार, कौशिक और उग्र तक ने सुधारक के रूप में वेश्‍या-गामिता के विरुद्ध आवाज उठाई है। उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के अंतिम और बीसवीं के प्रथम तीन दशकों में नया सत्ताधारी अंग्रेजी पढ़ा-लिखा मिडल क्‍लास बाबू अपनी घर-घुस्‍सू फूहड़ औरत से ऊबकर मेमों जैसी विलायती संगिनियों के अभाव में वेश्‍यागामी बना। शादी-ब्‍याह के अवसरों पर घरेलू औरतों द्वारा गाए जाने वाले ढोलक-गीतों में सैयाँ से रंडी नटिनी के यहाँ न जाने की बड़ी बड़ी प्रार्थनाएँ की गई हैं। रंडी घरेलू औरतों का काल थी। इसीलिए सन 21 के राष्‍ट्रीय आंदोलन के पश्‍चात वेश्‍या-संग और महफिलों का चलन उठ गया।

इसके बाद तो पढ़ने लिखने के बहाने घरेलू लड़कियाँ परदे के बाहर आने लगी थीं, युवकों का ध्‍यान उस ओर बँटने लगा और होते करते आज यह दिन आया कि समाज को वेश्‍या की आवश्‍यकता ही न रही।