सुनंदा की डायरी / अंतराल-1 / राजकिशोर

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज सुबह नहीं उठ पाई। शरीर से ज्यादा मन में आलस था। बिस्तर पर पड़ी रही। न कुछ करने को मन रहा था, न कुछ सोचने का। जैसे मेरा अस्तित्व ठहर गया हो। कभी सीलिंग पर आँख गड़ाए रहती तो कभी कमरे की एक-एक चीज को गौर से देखती। लेकिन मन कहीं टिकता ही नहीं था। मेज पर आज के कई अखबार रखे हुए थे। पर उन्हें पलटने की तबीयत नहीं हो रही थी। कई दिनों से काफ्का का उपन्यास 'केसिल' पढ़ रही थी। आज उसे हाथ में लेते भी नहीं बना।

चाय पीने के बाद नहा-धो कर तैयार होने में कोई दिलचस्पी नहीं पैदा हो रही थी। नाश्ते की तो याद भी नहीं आई। इंटरकॉम पर फोन करके थर्मस भर चाय माँगा ली और बीच-बीच में पीती रही।

ऐसी मनस्थिति से दो-तीन बार साबका पड़ चुका है। जब मैं छोटी थी, मुझे टायफायड हो गया था। उन दिनों टायफायड को खतरनाक बीमारी समझा जाता था। मेरा एक चचेरा भाई इस बीमारी से मर चुका था। इसलिए जैसे ही डॉक्टर ने मुझे टायफायड बताया, घर में स्तब्धता छा गई। पापा तो क्लिनिक में ही रोने लगे थे। डॉक्टर ने बहुत समझाया कि अब बहुत कारगर दवाएँ आ गई हैं, ठीक होने में बस दो-तीन हफ्ते लगेंगे। पर घर का वातावरण नहीं बदला। माँ बूटिक चलाती थीं। महीने में कई लाख की बिक्री थी। पर उन्होंने दुकान जाना छोड़ दिया। पापा दफ्तर से तीन-चार बार फोन करते थे - अब तबीयत कैसी है? बुखार कितना है? फलों का जूस दिया कि नहीं? मुझे बिस्तर से उठने तक की इजाजत नहीं थी।

बीमारी के उन दिनों में मैं सीलिंग पर नजर टिकाए रखती थी। मुझे टायफायड से ज्यादा घर का वातावरण परेशान कर रहा था। पापा-मम्मी को लग रहा था कि मौत दरवाजे के बाहर बैठी है और मौका मिलते ही झपट्टा मार कर मुझे ले जाएगी। शायद इसी डर से दरवाजे हमेशा बंद रखे जाते थे। खिड़कियाँ खुली रहती थीं, पर उन पर परदे लगे रहते थे, ताकि बाहर से कोई इन्फेक्शन न आ जाए। इससे मेरी दुनिया मेरे कमरे तक ही सिमट कर रह गई थी। परदे न भी लगे होते, तो क्या था? मैं बिस्तर पर लेटे-लेटे बाहर का क्या देख सकती थी?

डर संक्रामक होता है। कभी-कभी मेरी भी हिम्मत टूट जाती थी। ऐसे क्षणों में मुझे लगता था, दो-चार दिनों में मेरी मृत्यु होने वाली है। मैं कल्पना करने लगती थी कि माँ तो सन्न रह जाएगी। उनका शरीर पत्थर हो जाएगा। पापा आँसू बहाते-बहाते फर्श पर गिर जाएँगे। लेकिन मैं यह सोच नहीं पाती थी कि जब मेरी अरथी निकलेगी, उस समय का दृश्य कैसा होगा। इसके पहले मैं किसी शव यात्रा में शामिल नहीं हुई थी, इसलिए कल्पना करने में भी असमर्थ थी। तब मेरे मन में सवाल उठता - वे मेरा क्या करेंगे? मुझे जलाएँगे? या, कब्रिस्तान में गाड़ देंगे? यह भी सुना था कि छोटे बच्चों के शव को नदी में बहा देते हैं।

मैं पापा से कहना चाहती थी - मुझे जलाना मत। आग से झुलस जाऊँगी। मुझे बहुत तकलीफ होगी। जमीन में गाड़ना भी मत। मेरी साँस घुट जाएगी। सबसे अच्छा होगा नदी में बहा देना। उसके बाद मैं कल्पना करने लगती कि पानी पर तैरते-तैरते पता नहीं कहाँ-कहाँ से गुजरूँगी। क्या पता, कोई मछली ही खा जाए। या, कोई बड़ी नौका मुझसे टकरा जाए और मैं वहीं दम तोड़ दूँ। फिर भी नदी में बहा देने का विकल्प मुझे अच्छा लग रहा था। उन दिनों मैं तैरना सीख रही थी। मन में आता था कि ज्यादा मुश्किल हुई तो तैर कर किनारे पर आ जाऊँगी। पर मुझमें इतना साहस नहीं था कि मम्मी-पापा से यह प्रसंग छेड़ सकूँ। पापा पहले से ही इतने आतंकित थे कि उन्हें और दुख देना मेरे लिए संभव नहीं था। माँ से तो इस बारे में बात करने का सवाल ही नहीं था। वे बहुत भावुक और कमजोर दिल की थीं। सुनते ही अलाय-बलाय बकने लगतीं।

उन सूने और उदास दिनों में स्कूल का मेरा दोस्त दिनेश बहुत याद आता था। वह मेरा बेस्ट फ्रेंड था। एक बार मुझे देखने भी आया था। उस पर क्या बीत रही होगी? क्या वह भी मुझे इतनी ही तीव्रता से याद कर रहा होगा जितनी तीव्रता से मैं उसे याद कर रही थी? उसकी आँखें हलके नीले रंग की थीं। उन आँखों में आँखें डाल कर बहुत सुकून मिलता था। फिर धीरे-धीरे उसकी याद भी मद्धिम पड़ने लगी।

बिना ठोस आधार के कल्पना करने की सीमा होती है। सो धीरे-धीरे मेरा मन निस्पंद होता गया। जिंदगी जैसे रुक-सी गई थी। प्रत्येक दिन की दिनचर्या एक जैसी थी - समय पर दवा खाना, दिन में तीन बार बुखार नपवाना, दोनों बेला एक जैसा बेस्वाद भोजन करना, फलों का रस पीना और बिस्तर पर चुपचाप पड़े रहना।

ऐसा ही अनुभव तब हुआ था, जब मलय से मेरा संबंध अचानक टूट गया था। कई हफ्ते तक मैं अनमनी रही। कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। पहले कई दिनों तक मलय और अपने संबंध के बारे में सोचती रही। गलती कहाँ हुई? किसका दोष ज्यादा था? क्या सचमुच हमारे बीच कुछ भी साझा नहीं था? हर तरह से तर्क-वितर्क करके देख लिया। कोई समाधान नहीं मिला। यह भी स्पष्ट नहीं हुआ कि समस्या क्या थी। जब दिमाग थकने लगा, तो उसने काम करना बंद कर दिया। मैं शून्य में चली गई। उस शून्य से निकलने में मुझे कई महीने लग गए। शुरू में तो लगा, अब मैं इस शून्य से निकल नहीं पाऊँगी। पर जिंदगी की अपनी गति होती है। एक दिन अचानक मैंने तय किया, मुझे जीना है। जो हुआ, वह दुर्घटना थी।

अब भी जब उन दिनों की याद आती है, मेरा कलेजा मुँह को आने लगता है। लेकिन सिर्फ कुछ पलों के लिए। जैसे कोई सड़क पर गिर पड़े और उठ कर खड़ा हो जाए। जख्म सूखा नहीं था। शायद कभी सूखेगा भी नहीं। पर उसकी टीस खत्म हो चुकी थी।

आज फिर कुछ वैसा ही शून्य दिमाग पर उतर आया था। नहीं, वह शून्य नहीं था। धुँधलका था, जिसमें हाथ-पैर भी नहीं मारा जा सकता। शाम तक ऐसी ही मनस्थिति बनी रही। इस बीच दो बार सुमित का फोन आया। मैंने बहाना बना दिया कि तबीयत ठीक नहीं लग रही है। उसने पूछा भी - कुछ दवा ले आऊँ? मैंने मना कर दिया। थोड़ी देर बाद मैंने खुद फोन किया - सुमित, आज मुझे अपने ही साथ रहने दो। कल मिलेंगे। सुमित ने कहा - कभी-कभी ऐसा भी होता है। आराम करो।

शाम घिरने लगी, तो अचरज हुआ कि अरे, पूरा दिन यों ही बीत गया। मैं उठ बैठी। सोचा, कुछ खाने को मँगाऊँ। पर आलस कर गई। भूख थी, पर बेचैन करने वाली नहीं। फिर मन किया, बाहर टहल आऊँ। पर इसके लिए भी उत्साह पैदा नहीं हुआ। उठ कर बत्ती जलाई - सारी नहीं, एक कम रोशनी वाला बल्ब। तभी जैसे पेट ऐंठता है, वैसे ही दिमाग में ऐंठन-सी हुई। अचानक मेरे मन पर एक डर ने दस्तक दिया। क्या सुमित और मेरा साथ कुछ ही दिनों का है है? जैसे दो मुसाफिर रेल के डब्बे में पास-पास बैठे हों और दिलचस्प बातें कर रहे हों, अंतरंग भी हो उठे हों और एक-दूसरे को अपने भेद भी बता रहे हों - यह जानते हुए भी कि दोनों को अलग-अलग स्टेशनों पर उतरना है और कौन जाने कि भविष्य में कभी मुलाकात होगी या नहीं। या, फिर कभी मुलाकात नहीं होगी, इस निश्चय से ही दोनों अचानक इतने अंतरंग हो आए हों?

सुमित ने मेरे जीवन में झंझावात-सा ला दिया था। इतना सहज, सरल और दिलचस्प आदमी मैंने नहीं देखा था। उसके पास विचार थे, पर विचारों का बोझ नहीं था। हृदय था, जो किसी पर भी लुटाया जा सकता था, पर लिजलिजी भावुकता नहीं थी। चरित्र था, पर उसका अहंकार नहीं। रस भी था, पर संयम से पगा हुआ। सबसे बड़ी बात यह थी कि सब कुछ होते हुए भी कुछ नहीं था। अर्थात वह चिड़िया की तरह हवा में तैरता नजर आता था - चिड़िया, जिसके पास कोई माल-असबाब नहीं होता, जो आसमान में अकेले विचरण करती रहती है, जिसे कहीं जाना नहीं है, बस अस्तित्व का सहज, जीते रहने मात्र से पैदा होने वाला सुख लेना है। एक ही बार में सारा सुख निचोड़ लेने की इच्छा नहीं, बल्कि धीरे-धीरे, चुस्कियों में, सततता के साथ, पर हौले-हौले। दुख की तरह सुख का भी अपना बोझ होता है। दुख का बोझ हमें गिराता है, सुख का बोझ दूसरों से अलग करता है। सुमित को मैंने जब भी देखा, समरस पाया। यह ठंडी समरसता नहीं थी। इसमें गरमाहट थी।

यह गरमाहट ही मुझे उसके नजदीक से नजदीक ले जा रही थी। उसकी ओर से भी कोई प्रतिरोध नहीं था। जैसे कोई बहुत लंबा रास्ता हो, जिस पर चलते हुए मैं कितनी ही दूर जा सकती थी। वह भी धीरे-धीरे, पर दृढ़ कदमों से मेरी ओर खिंचा आ रहा था। अधीरता थी, तो मेरे ही भीतर। उसके लिए यह अंत्यानुप्रास की तरह था, जिसमें एक तुक के बाद दूसरे तुक को आना ही होता है।

लेकिन यह मैं क्या कर रही हूँ? एक ऐसी स्थिति का विश्लेषण, जिसका विश्लेषण हो ही नहीं सकता। कोई भी गहरा अनुभव विश्लेषण की कसौटी स्वीकार नहीं करता। बल्कि मुझे तो लग रहा है कि विश्लेषण करने की कोशिश कर मैं पानी में छपाके मार रही हूँ, जिसका अपना आनंद है, पर जिससे अंततः कुछ हासिल नहीं होता। पर इस इनसानी आदत का क्या किया जाए कि वह हर चीज को समझने की कोशिश करता है। मैं भी यही कर रही हूँ। पर इससे कोई बात बनती नजर नहीं आती।

मैं बात शायद यह बनाना चाहती हूँ कि इस संबंध को स्थायित्व कैसे दिया जाए। मेरे कई पुरुष मित्र थे, पर कोई ऐसा नहीं जिसके साथ लगातार रहने को मन करे। सुमित इन सबसे अलग और अनोखा था। पर वह परफ्यूम की सुगंध की तरह था, जिसे अनुभव तो किया जा सकता है, पर मुट्ठी में बाँधा नहीं जा सकता। यही मेरी दुश्चिंता का कारण था। आनंद की आवक के साथ-साथ इस दुश्चिंता के बादल उड़ते हुए एक जगह घनीभूत हो रहे थे और आज उमड़ आए थे।

मैं वर्तमान को भविष्य के साथ जोड़ने की कोशिश कर रही थी। पर भविष्य किसी दूर के तारे की तरह झिलमिला रहा था - उसे दौड़ कर अपनी मुट्ठी में भरना संभव नहीं था। भविष्य का कोई ढाँचा बनाने की कोशिश करते-करते थक गई तो पसीने की अदृश्य बूँदों से लथपथ हो कर बिस्तर पर ऐसी गिरी कि अगले दिन दोपहर तक सोती रही।

वह एक शांत, श्लथ नींद थी, बिना किसी विषयवस्तु के - न कोई सपना, न कोई आशंका, न कोई द्वंद्व, न कोई तसल्ली। बस एक खामोश सफर, जिसका न आदि था न अंत।