सुनंदा की डायरी / प्रस्थान / राजकिशोर

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ठीक तीन दिनों के बाद मैंने नैनीताल छोड़ दिया। अब वहाँ मेरे लिए क्या रह गया था?

ये तीन दिन कैसे बीते? मैं एक तरह से ध्यान में थी। प्रतिक्षण सुमित की याद आती रही।

वह एक तारे की तरह मेरे आकाश में अचानक उगा और अचानक ही अस्त हो गया। मेरे पास मात्र उसका प्रकाश था।

मैंने सोचा, इस प्रकाश को सँजो लेना चाहिए। वैसे तो हर बातचीत के बाद मैं उसके नोट बना लेती थी। अब मैंने सोचा कि उसे व्यवस्थित रूप दे कर लिख लेना चाहिए। दो दिनों तक दिन-रात जग कर मैंने यही किया।

तीसरे दिन एक-एक पन्ना दुबारा-तिबारा पढ़ती रही।

दुख से छुटकारा पाने का एक तरीका यह भी है : उससे बार-बार गुजरो। इतनी बार कि तुम उसे आत्मसात कर लो। वह तुम्हारा अंग बन जाए। इसके बाद हठात वह तुम्हारा पीछा करना छोड़ देगा।

लेकिन मेरे दुख के साथ सुख भी लिपटा हुआ था। बल्कि सुख उस पर भारी पड़ रहा था। जब तक हम साथ रहे, देश और दुनिया का भ्रमण करते रहे। हमने किस विषय पर चर्चा नहीं की? सुमित से मिलने के पहले मैं मूर्ख नहीं थी। कम से कम अपने को मूर्ख नहीं समझती थी। लेकिन सुमित ने मेरे लिए एक नई और पूरी दुनिया खोल दी। अब मैं जिंदगी को एक नए नजरिए से देख रही थी। यह दावा नहीं करती कि मेरे सामने सब कुछ स्पष्ट हो गया था। शायद सब कुछ कभी स्पष्ट नहीं होता। जीवन रहस्यमय है। दुनिया भी कम रहस्यमय नहीं है। सुमित ने मेरे लिए जो निर्णायक काम किया, वह था चीजों को समझने की नजर पैदा करना। यह नजर ही असली चीज है। हर नई घटना को समझने में मदद करती है। इस प्रक्रिया में वह खुद भी बदलती जाती है। पहले से ज्यादा नुकीली होती जाती है।

मैं पूरी जिंदगी सुमित की एहसानमंद रहूँगी।

शायद वह इसीलिए मुझे छोड़ गया था कि मैं अपनी जिंदगी जी सकूँ। अपना रास्ता बना सकूँ। सुमित ने अपना रास्ता खोज लिया है। या कहूँ कि लगभग खोज लिया है।

वह रास्ता क्या हो सकता है, इसकी ओर वह अपने विदा पत्र में संकेत कर गया था।

क्या वही रास्ता मेरे लिए भी ठीक नहीं है? मैं उस रास्ते पर चल सकूँगी? कोशिश करके देखने में क्या हर्ज है? अभी तक मैं निरुद्देश्य जी रही थी। मेरे पीछे एक घायल अतीत था और सामने एक बहुत बड़ा शून्य। अब इस शून्य को भरा जा सकता है।

काश, सुमित किसी शब्दकोश की तरह मेरे साथ रहता। या, मेरी पहुँच की सीमा में रहता। तब जो भी शब्द मेरी समझ में नहीं आता, उसका अर्थ इस शब्दकोश में देख लेती।

अब मैं पूरी तरह अकेली थी। इतनी अकेली भी नहीं, क्योंकि उसने अपना शब्दकोश मेरे सामने उड़ेल दिया था।

उसके शब्द मेरी डायरी में दर्ज हो कर अमर हो गए थे। अब यह डायरी हमेशा मेरे साथ रहेगी।

लेकिन डायरी भी क्यों? जब वह चला गया, तो उसकी याद भी क्यों रहे? जब भी यह डायरी पढ़ूँगी, वह मेरे सामने प्रत्यक्ष हो उठेगा। आँसुओं का एक सैलाब आएगा और मैं उसमें बह जाऊँगी। जब तक डायरी मेरे पास रहेगी, वह मेरे आसपास टहलता रहेगा। अपनी जिंदगी पर इतनी बड़ी छाया ले कर क्या मैं बिना लटपटाए चल पाऊँगी? क्या मेरे कदम बार-बार ठिठक नहीं जाएँगे?

मैंने सुमित को जितना जज्ब किया है, वही मेरे लिए काफी है। बाकी तो मोह है। लेकिन क्या मोह भी जिंदगी का अंग नहीं है? मुझे वीतराग नहीं बनना है। राग है तो है। हर चीज के पीछे कोई तर्क होना चाहिए, जो ऐसा मानते हैं, मानें। मेरे तर्क मेरे होंगे।

यह सोच कर मैंने अपनी डायरी अपने कमरे में ऐसी जगह छिपा दी, जिसका पता किसी को न चल सके। जब कभी मुझे जरूरत होगी, मैं नैनीताल आऊँगी और इसी कमरे में ठहरूँगी। इस तरह मैं कभी भी सुमित के साथ संवाद कर सकूँगी। इस संवाद का बोझ उठाए चलना एक सतत यातना होगी। जैसे कोई गरीब मुसाफिर बार-बार अपनी गठरी को टटोलता रहे कि उसमें रखी हुई उसकी जमा-पूँजी सुरक्षित है न।

जब मैं गेस्ट हाउस से निकल कर टैक्सी पर बैठी, तो टैक्सी आगे जा रही थी और मैं मुड़-मुड़ कर पीछे देख रही थी।

अलविदा । सब कुछ अलविदा।

बेटी मायके से ससुराल जा रही थी। मायके में हर चीज अपनी थी। सभी लोग अपने थे। ससुराल में सब कुछ नया होगा। सभी लोग पराए होंगे।

फिर भी जाना तो पड़ता ही है।

इस झूठी दुनिया में यही एक सच्चाई है।