सुनंदा की डायरी / लोकतंत्र / राजकिशोर

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सवेरे-सवेरे एक लेख पढ़ा, जिसने मुझे झकझोर दिया। लेखक का कहना था - 'लोग लोकतंत्र-लोकतंत्र चिल्लाते हैं। पर मैं लोकतंत्र को नहीं मानता। इतिहास में इससे बड़ा फ्रॉड कोई और नहीं मिलता। पहले राजा ईश्वर के नाम पर शासन करते थे, आजकल वे जनता के नाम पर शासन करते हैं। जनता के बारे में मुझे कोई खुशफहमी नहीं है। वह बुनियादी रूप से मूर्ख होती है। इसीलिए बदमाश लोग बहुत आसानी से उसका मन जीत लेते हैं और अपना उल्लू सीधा करते हैं। जब तक लोकतंत्र है, दुनिया की हालत में कोई सुधार नहीं हो सकता। मार्क्स ने धर्म को अफीम कहा था। यह पुरानी चीज हो गई। आज का अफीम लोकतंत्र है।'

लेखक ने इन पंक्तियों से अपने लेख का उपसंहार किया था - 'लेकिन मुझसे यह मत पूछिए कि लोकतंत्र का विकल्प क्या है। इसका कोई उत्तर मेरे पास नहीं है। यह अकेले मेरा काम भी नहीं है। समस्या दुनिया भर की है, तो दुनिया भर के लोग सोचें।'

लोकतंत्र पर मैंने कभी विचार नहीं किया था। दूसरों की तरह मैं भी यही मानती रही हूँ कि इस पर विचार करने की जरूरत ही नहीं है, क्योंकि इससे बेहतर कोई व्यवस्था अभी तक सामने आई नहीं है। शायद आ भी नहीं सकती, क्योंकि लोक और उसके तंत्र का विकल्प क्या हो सकता है? अगर कहीं कोई कमी है, तो यह लोकतंत्र का नहीं, बल्कि उनकी है जो इसका संचालन कर रहे हैं। हारमोनियम से अच्छा सुर नहीं निकल रहा है तो उसे बजाने वाला अनाड़ी है। उसे बदल दो, तो यही हारमोनियम अच्छा बजने लगेगा। लेकिन यह लेख पढ़ने के बाद मेरे मन में यह कठिन सवाल पैदा होने लगा कि कहीं दोष हारमोनियम में ही तो नहीं है? अगर ऐसा है, तो अच्छे से अच्छा बजाने वाला कुछ नहीं कर सकता।

सुमित से मुलाकात हुई, तो मैंने इस लेख की चर्चा की। उसने मुसकराते हुए कहा, 'यह कोई नई बात नहीं है। इसके पहले बहुत-से लोग लोकतंत्र का मजाक उड़ा चुके हैं।'


जैसे ?

जैसे उर्दू के एक बड़े शायर हुए हैं, अकबर इलाहाबादी। उनका यह शेर अभी भी मेरे कानों में गूँजता रहता है - जमहूरियत इक तर्जे-हुकूमत है कि जिसमें, बंदों को गिना करते हैं तौला नहीं करते।


क्या खूब ! बंदों को गिना करते हैं तौला नहीं करते।


गांधी जी ने भी इस संसदीय लोकतंत्र की कठोर आलोचना की है। उन्होंने ब्रिटेन की संसद को बेसवा और बाँझ तक कह डाला है।

अच्छा? लेकिन क्यों?

असल में, यह पूँजीवादी लोकतंत्र है। इस लोकतंत्र में आर्थिक विषमता होती ही है। इस विषमता के कारण समाज कई वर्गों में विभाजित हो जाता है। सबको सब तरह की आजादी रहती है, पर व्यवहार में अपनी आजादियों का इस्तेमाल वही कर पाते हैं जिनके पास साधन हैं। यही लोग राजनीति की दिशा भी तय करते हैं। पूँजीपति के सामने कोई सामाजिक आदर्श नहीं होता। पैसा ही उसका एकमात्र देवता होता है। सो समाज में दूसरे मूल्य कमजोर होते जाते हैं और ज्यादा से ज्यादा पैसा हासिल करने के लिए मारामारी बनी रहती है। इस तरह हर आदमी पैसे का गुलाम हो जाता है। उत्पादन मुनाफे के लिए होता है, समाज की जरूरतें पूरी करने के लिए नहीं। इसलिए आम जनता की जरूरतों की उपेक्षा की जाती है और संपत्तिशाली वर्ग के ऐश्वर्य के लिए अनोखी-अनोखी और महँगी चीजें तैयार की जाती हैं। मुगलों ने एक ही ताजमहल बनवाया था। आज हर पूँजीपति अपना अलग ताजमहल बनाने पर तुला हुआ है।


लेकिन नेता तो पूँजीपतियों का नहीं, जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं। किसी भी समाज में अमीरों की तुलना में गरीबों के वोट ज्यादा होते हैं। फिर सरकार गरीबों के हितों की अनदेखी कैसे कर सकती है ?

तुम्हारे सवाल एकदम जायज हैं। कोई भी नेता, भूल से भी, यह स्वीकार नहीं कर सकता कि वह पूँजीपतियों का सेवक है। सभी नेता जनता का सेवक होने का दम भरते हैं। लेकिन यथार्थ यह नहीं है। यथार्थ यह है कि चुनाव प्रणाली को जान-बूझ कर इतना महँगा बना दिया है कि कोई ईमानदार व्यक्ति चुनाव लड़ने की हिम्मत नहीं कर सकता। राजनीतिक दलों को पार्टी चलाने के लिए जितना पैसा चाहिए, वह ईमानदार तरीकों से हासिल नहीं किया जा सकता। इसलिए चुनाव के दौरान नाम हमेशा जनता का लिया जाएगा, पर चुनाव के बाद काम उनका किया जाएगा जो जनता के दुश्मन हैं। चूँकि पूँजीपति खुद चुनाव नहीं लड़ सकते - उनकी सदाशयता पर कोई यकीन नहीं करेगा, इसलिए वे अपने पिट्ठू खड़ा करते हैं। मतदाता के सामने कोई वास्तविक विकल्प नहीं होता। उसे इतनी ही छूट होती है कि यह पिट्ठू पसंद नहीं है, तो उस पिट्ठू को वोट दे दो।


फिर हमारा संविधान बनाने वालों ने यह रास्ता क्यों चुना ? आखिर वे आजादी की लड़ाई के तपे-तपाए नायक थे। महात्मा गांधी उनके नेता थे।

यह भ्रम गांधी जी को भी था। आजादी के बाद देश में जिस तरह का तांडव मचा और सरकार जिस तरह से काम करने लगी, उससे गांधी जी का मोहभंग हो गया। उन्होंने बार-बार यह बात कही कि आज मैं पूरी तरह अकेला हूँ। कोई मेरे साथ नहीं है। मैं समझता था कि कांग्रेस के लोगों ने अहिंसा को अपना लिया है। पर यह उनका स्वाँग था।


लेकिन संविधान निर्माता ? वे तो पढ़े-लिखे और समझदार लोग थे।

थे, जरूर थे। हमारे संविधान निर्माता निश्चय ही इस तरह का लोकतंत्र स्थापित करना नहीं चाहते थे जैसा हम आज देख रहे हैं। वे सदाशयी लोग थे। उन्होंने अपनी श्रेष्ठतम इच्छाओं की अभिव्यक्ति नीति निदेशक सिद्धांतों वाले अध्याय में की थी। यह समस्त अध्याय एक तरह से राष्ट्रीय गीता की तरह है। इस गीता में कहा गया है कि राज्य एक ऐसी समाजिक व्यवस्था का निर्माण करेगा जो जनसाधारण के कल्याण पर आधारित हो। खास तौर पर वह अपनी नीतियाँ इस लक्ष्य से बनाएगा कि सभी नागरिकों को जीविका के पर्याप्त साधन मिलें। वह संपत्ति का केंद्रीकरण नहीं होने देगा और भौतिक संसाधनों का वितरण इस तरह करेगा जिससे सामूहिक हितों का संरक्षण हो। साफ है कि हमारे संविधान निर्माता भारत में समाजवादी समाज का निर्माण करना चाहते थे। यही किसी भी देश का स्वाभाविक ध्येय होना चाहिए। पर वे सदाशयी महानुभाव भीतर से कमजोर भी थे। वे विचार से समाजवादी थे, पर कर्म से नहीं। सारी गीता सुनाने के बाद उन्होंने यह कह कर उस पर पानी फेर दिया कि राज्य को इस सिद्धांतों को अमल में लाने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकेगा। इस एक वाक्य ने पूरे भारतीय संविधान को नपुंसक बना दिया।


लेकिन सुमित, यही लोकतंत्र पश्चिमी देशों के लिए वरदान साबित हुआ है। उन्होंने अपने यहाँ एक ऐसी व्यवस्था बनाई है जिसमें कोई भूखा न मरे। वे जिन्हें रोजगार नहीं दे पाते, उन्हें अच्छा-खासा बेकारी भत्ता देते हैं। क्या यह दावा नहीं किया जा सकता कि उनके यहाँ लोकतांत्रिक प्रणाली कारगर और सफल है ?

प्रगट रूप से तो ऐसा ही लगता है कि जिसे पूँजीवाद लोकतंत्र कहा जाता है, वह अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी आदि में सफल साबित हुआ है। पर मुझे इसमें गहरा शक है। मैं यह जानना चाहता हूँ कि यह सफलता लोकतंत्र की है या संपन्नता की? अगर ये देश भारत, बांग्लादेश और नेपाल की तरह गरीब होते, जहाँ भूख, कुपोषण और बीमारी से मरना आम बात है, तब भी क्या वहाँ लोकतंत्र सफल हो पाता?

यह एक नई बात है। इस तरह शायद किसी और ने नहीं सोचा है। ।

पता नहीं। पर मुझे तो ऐसा ही लगता है। यूरोप में शुरू से ही लोकतंत्र नहीं रहा है। औद्योगिक क्रांति के पहले यूरोप की आर्थिक हालत खस्ता थी। लंदन, पेरिस जैसे शहर हमारे आगरा, ढाका, लाहौर के सामने पानी भरते थे। यह बात खुद यूरोप के इतिहासकारों ने लिखी है। तब वहाँ लोकतंत्र नहीं था जैसे हमारे यहाँ या दुनिया के किसी भी हिस्से में लोकतंत्र नहीं था। औद्योगिक क्रांति ने अचानक संपन्नता के वे औजार पैदा कर दिए जो इसके पहले दुनिया में कहीं और न देखे गए थे न शुने गए थे। यह एक ऐसी क्रांति थी जिसने दुनिया का नक्शा ही बदल दिया। उन्हीं दिनों लोकतंत्र की माँग पैदा हुई, क्योंकि सामंती शासन में पूँजीवाद की यह नई व्यवस्था अच्छी तरह नहीं चलाई जा सकती थी। कारखानों में ऐसे मजदूर चाहिए थे जिनसे सोलह-सोलह, अठारह-अठारह घंटे काम लिया जा सके और जब वे कमजोर, बीमार हो जाएँ, तो उन्हें मरने के लिए अकेला छोड़ दिया जाए। उनकी जगह काम पर आने वालों की तादाद बहुत बड़ी थी।


अच्छा ! मुझे यह सब मालूम ही नहीं था।

वैसे शुरू में लोकतंत्र की माँग सामंतवाद के खिलाफ और नागरिक अधिकारों के लिए थी। आखिर हर क्रांति जनता के ही नाम पर होती है। पर सामंतवाद को खत्म कर जो समाज बनाया गया, वह पूँजी के वर्चस्व पर आधारित था। साधनहीन लोगों को वोट देने का अधिकार नहीं था। स्त्रियों को वोट देने का अधिकार नहीं था। संसद पर धनी लोगों का कब्जा था। उन दिनों तो संसद की सीट की नीलामी भी होती थी - जो सबसे ज्यादा पैसा देता था, वह संसद सदस्य हो जाता था। यह पूँजीवाद किसी भी तरह से लोकतांत्रिक नहीं था - न अपने देश के लोगों के लिए, न उन देशों के लिए जिन पर उनकी सरकारों ने हथियार के बल पर कब्जा कर लिया था। जो लोकतंत्र में यकीन करता है, वह उपनिवेशवादी कैसे हो सकता है? अंग्रेज भारत में लोकतंत्र स्थापित करने आए थे या इसे लूटने? ब्रिटेन की संसद को दुनिया भर की संसदों की माँ कहा जाता है। 1947 के पहले क्या इस संसद ने कभी यह प्रस्ताव पास किया कि अंग्रेजों को भारत से लौट आना चाहिए और भारत की सत्ता भारतीयों को सौंप देनी चाहिए? यह हुआ 1947 में, जब अंग्रेजों के लिए भारत पर शासन करना असंभव हो गया।

इतिहास में जो भी हुआ हो, अब तो ये देश लोकतंत्र को मानने लगे हैं।

हाँ, तब, जब पूँजीवाद निश्चिंत हो गया कि अब उसे लोकतंत्र से कोई खतरा नहीं है। इसके साथ ही, दुनिया भर का शोषण करने और टेक्नोलॉजी में एक से बढ़ कर एक विकास करने के बाद पूँजीवाद ने अपने को इतना कुशल कर लिया कि अपने नागरिकों को रहन-सहन का ऊँचा स्तर दे सके और जिन्हें रोजगार नहीं मिल सकता, उनके लिए बेरोजगारी भत्ता का इंतजाम कर सके। इसी को पश्चिमी देशों के लोकतंत्र की सफलता कहा जाता है।

जो भी कहो, उनका लोकतंत्र हमारे लोकतंत्र से तो बेहतर है ही।

एक तरह से। लेकिन लोकतंत्र की सफलता इस बात में नहीं है कि वह मुट्ठी भर लोगों को धनकुबेर बना दे, आधी से ज्यादा आबादी को मध्य वर्गीय सुविधाएँ प्रदान करे तथा शेष के लिए नून-रोटी का इंतजाम कर दे। लोकतंत्र से भी संपन्नता आ सकती है, पर यह उसका बुनियादी ध्येय नहीं है। बुनियादी ध्येय है, समानता। गरीबी में भी समानता और संपन्नता में भी समानता। और यह कोई नई कामना नहीं है। यही ध्येय धार्मिक विचारधाराओं का भी था। उनके हिसाब से, हम सब एक ही ईश्वर की संतानें हैं और हममें से किसी को भी दूसरों से ज्यादा उपभोग करने का अधिकार नहीं है। धर्म इस लक्ष्य को प्राप्त करने में विफल रहा, इसीलिए नए सिद्धांतों की जरूरत हुई, जो राजनीतिक चिंतन से पैदा हुए। समाजवाद ऐसी ही विचारधारा थी। कार्ल मार्क्स ने इसे बहुत ही मजबूत ढंग से और तर्कों के आधार पर प्रतिपादित किया।


तब तो हम कह सकते हैं कि जिन-जिन देशों ने मार्क्सवाद को अपनाया, वहाँ-वहाँ सच्चे लोकतंत्र की स्थापना हुई।

बकवास करके मेरा मूड खराब मत करो। मार्क्स लोकतंत्रवादी था, इसमें मुझे संदेह नहीं है। उसकी अपनी निगरानी में किसी देश में साम्यवादी व्यवस्था कायम हुई होती, तो शायद वहाँ सच्चा लोकतंत्र स्थापित हो सकता था। लेकिन जैसे गांधी के शिष्य उनके रास्ते पर नहीं चले, वैसे ही मार्क्स के शिष्यों ने भी उसके साथ विश्वासघात किया। उन्होंने मार्क्सवाद के नाम पर जो व्यवस्थाएँ कायम कीं, उनमें रोजी-रोटी, आवास, इलाज और शिक्षा के लगभग समान अवसर तो पैदा किए गए, पर नागरिक आजादियों को छीन लिया गया। न अभिव्यक्ति की आजादी थी, न विरोध करने की। चुनाव होते थे, पर मतदाता के सामने कोई विकल्प नहीं रहता था। उम्मीदवार कई होते थे, पर सभी उम्मीदवारों को कम्युनिस्ट पार्टी ही खड़ा करती थी। असहमति प्रगट करने वालों को तरह-तरह से सताया जाता था। वैचारिक दमन के आधार पर टिकी हुई कोई भी व्यवस्था ज्यादा दिनों तक टिक नहीं सकती। सोवियत संघ में साम्यवाद साठ-सत्तर साल तक चल गया, यही आश्चर्य की बात है।

लेकिन चीन में तो टिका हुआ है, सुमित।

चीन में टिका हुआ है, क्योंकि वहाँ सरकार का शिकंजा बहुत मजबूत है। दमन का तो पूछना ही क्या ! विरोध करने वाले को सीधे गोली मार दी जाती है। लोग दबे-सहमे रहते हैं। लेकिन कब तक? एक न एक दिन चीन में भी विद्रोह होगा ही। मनुष्य आतंकित हो कर जीने के लिए नहीं पैदा हुआ है।


तो क्या लोकतंत्र के विचार में ही कुछ बुनियादी खामी है ?

लोकतंत्र की सबसे बड़ा सुख है इसका लोक-आधारित होना। लेकिन यही उसकी सबसे बड़ी समस्या भी है। अब्राहम लिंकन ने लोकतांत्रिक शासन की कितनी सुंदर परिभाषा की थी - जनता का, जनता के लिए और जनता के द्वारा। पर दुनिया में कहीं भी ऐसा दिखाई नहीं पड़ता, क्योंकि कहीं भी जनता यह जिम्मेदारी अपने ऊपर लेना नहीं चाहती। वह अपनी जिम्मेदारी नेताओं को सौंप देती है। ये नेता उसे उल्लू बनाते हैं। दरअसल, ये वास्तविक नेता नहीं, प्रोफेशनल नेता हैं। इन्हें हमेशा अपनी पड़ी होती है। ये चुने तो जाते हैं जनता के वोट से, पर काम हमेशा सामंतों और पूँजीपतियों का करते हैं। इनकी मुट्ठी में जनता होती है और ये खुद कॉरपोरेट घरानों की मुट्ठी में होते हैं। जहाँ तक तानाशाहों का सवाल है, तो हिटलर और स्टालिन भी अपने को जनता का प्रतिनिधि ही बताते थे।

लेकिन जनता सही लोगों को क्यों नहीं चुन पाती ?

क्योंकि पेशेवर राजनीतिज्ञों ने राजनीति को इतना विकृत कर दिया है कि सही और ईमानदार लोग, जो जनता के वोट के सच्चे पात्र हैं, राजनीति में आना ही नहीं चाहते। आते भी हैं, तो पेशेवर राजनीतिज्ञों के सामने टिक नहीं पाते। पेशेवर क्रांतिकारियों की तरह पेशेवर राजनीतिज्ञ लोकतंत्र की सबसे बड़ी समस्या हैं। यह वर्ग खटमल या पिस्सू का डायनासोर संस्करण है। जब तक किसी भी देश में पेशेवर राजनीतिज्ञ रहेंगे, वहाँ लोकतंत्र हो ही नहीं सकता। जिसकी जीविका राजकाज से चले, वह भ्रष्ट होने को बाध्य है। दरअसल, पेशेवर राजनीतिज्ञ के लिए सत्ता हासिल करना और सत्ता में बने रहना ही मुख्य चुनौती हो जाती है और इसके लिए वे अलाय-बलाय कुछ भी कर सकते हैं। लोकतंत्र का सबसे सच्चा रूप यह होगा कि शासन देश के सबसे योग्य व्यक्तियों के हाथ में हो। लेकिन योग्य लोग राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता की धूल-मिट्टी में सनना पसंद नहीं करते। न वे अपनी हथेली पर यह प्रार्थना पत्र ले कर घूमते हैं कि हमें शासन करने की जिम्मेदारी दो। मेरी नजर में, नोम चॉम्स्की इस समय संयुक्त राज्य अमेरिका के सबसे काबिल आदमी हैं। कायदे से अमेरिका का राष्ट्रपति उन्हें ही होना चाहिए। लेकिन क्या यह किसी तरह संभव है? इसलिए मेरी समझ से, लोकतंत्र का असली सवाल यह है कि ईश्वर बेदखल हुआ, राजा बेदखल हुए, धर्म बेदखल हुआ, अब पेशेवर राजनीतिज्ञों से कैसे निजात पाई जाए?

तुम क्या सोचते हो, यह कैसे हो सकता है ?

मुझे तो लगता है, लोकतंत्र बड़े-बड़े राज्यों के लिए नहीं है। औद्योगिक सभ्यता विशाल तंत्र में यकीन करती है - बड़े शहर, बड़े कारखाने, बड़ी मशीनें, बड़े बाजार, बड़ी इमारतें, बड़े समारोह, बड़ी गाड़ियाँ यानी जो कुछ भी हो, बड़े पैमाने पर हो। ऐसे तंत्र में जनता अपने को लघु और तुच्छ पाती है। उसे लगता है, वह इस व्यवस्था को बदल नहीं सकती - उसे इसी के भीतर जीना है।


तो ?

तो यह कि लोकतंत्र की व्यवस्था शायद छोटे समुदायों के लिए ही उपयुक्त है जहाँ हर आदमी सत्ता पर सीधे नियंत्रण रख सकता है। बड़े राज्यों और बड़ी व्यवस्थाओं में लोकतंत्र का दम घुटता है। सत्ता का कोई एक केंद्र नहीं बनने देना है, उसे विकेंद्रित करना है, तो जीवन व्यवस्था को भी विकेंद्रित करना होगा। जहाँ बड़े-बड़े कारखाने हों, विशाल फौज हो, पुलिस समाज के लिए नहीं, सरकार के लिए काम करती हो, जन संचार माध्यमों पर पूँजी, पार्टी या सरकार का एकाधिकार हो, ज्ञान का उत्पादन धंधा बन चुका हो, वैज्ञानिक अपनी मर्जी से काम न कर सकें, वहाँ लोकतंत्र दोनों पैरों पर नहीं चल सकता।

यानी फिर वही गांधी ?

गांधी ही क्यों, मार्क्स का दर्शन भी यही पहुँचाता है। बड़ी-बड़ी व्यवस्थाओं में मार्क्सवाद को भी लागू नहीं किया जा सकता।

तो रास्ता यही है - प्रकृति की ओर वापसी ?

नहीं, संस्कृति की ओर वापसी।

बातचीत लंबी हो गई थी। दो बार कॉफी पीने के बाद भी नींद आने लगी थी। मैंने सुमित का हाथ अपने हाथ में ले कर कहा, 'आज मैंने तुमसे बहुत कुछ सीखा। अब पलकें भारी हो रही हैं। सोने का मन कर रहा है।'

सुमित ने कहा, 'मुझे भी नींद आ रही है। शाम को मिलते हैं।'

मैंने जवाब दिया, 'जरूर।'


हम दोनों अपने-अपने कमरे की ओर बढ़ चले।