सुनहरी खिड़कियाँ / भाग 2 / गुरदीप सिंह सोहल

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वन्दना ने जब गृह प्रवेश किया था तो एकबारगी मुझे लगा था कि मेर्रा इंट, गारे, सीमेण्ट और लोहे का बना घर भी एक बार तो सोने का हो गया था और वह सुनहरी खिड़की परन्तु समय के बदलने के साथ साथ उसने भी अपना रंग बदलना प्रारम्भ किया था, असलियत दिखाई देने लगी थी। सर्वप्रथम सुनहरी खिड़की समय से प्रभावित होकर, समय के अन्तराल पर चांदी में बदल गई, फिर चांदी से पीतल में, उसके बाद पीतल से कांसे में, कांसे से लोहे में और अन्त में लोहे से पत्थर में। अब वह एक पत्थर और लोहे की खिड़की है जो कभी भी पिघल नहीं सकती। दिमाग का उपयोग करने की बजाय हमेशा पत्थर जैसी जुबान और लोहे जैसी भाषा का उपयोग ही करती है और फिर शब्द सुनकर एैसा लगता है जैसे कि लोहे के चने चबाये जा रहे हों। मैंने जब कभी भी इस लोहे की खिडकी की मुरम्मत कर सुधारने की कोशिश की तो वह और भी निर्जीव हो गई, दिन-ब-दिन जड़ होती जा रही है उससे टकराकर मेरे अरमान लहू के आंसू बहाने लगते है और मेै खून के घूंट पीने पर मजबूर हो जाता हूं। जितना उसे प्यार से समझाने की कोशिश करता हूं या कोशिश की उसने उतना ही मुझे आंखे दिखाना शुरू कर दिया जैसे कि पूरे परिवार की वही एक मां हो। कभी भी किसी का लिहाज नहीं करती। छोटा बडा नहीं देखती। अपना पराया नहीं देखती। यहां तक कि बच्चों तक को बिना मतलब पीटने में बिल्कुल भी देर नहीं करती, लज्जा भी महसूस नहीं करती। कई कई बार तो मेरे दादाजी तक को भी नहीं बख्शती। मैं भगवान से यही प्रार्थना हमेशा करता रहता हूं कि हे भगवान। तुम पत्थर की इन खिडकियांे में ऐक झरोखा भी बना देना ताकि ज्ञान का प्रकाश इनमें से अन्दर आ सके तथा इन्हे कुछ ज्ञान हो सके, इतनी बुद्धि अवश्य ही देना ताकि ये कभी तो अक्ल से काम लेना सीखें और अपना सुनहरापन सदा के लिए बनाये रखें।

दूसरी तरफ मुंह किए हुए उसकी सिसकियां अभी भी जारी है और इधर मैं इसी उधेडबुन में खोया हुआ हूं। यह रिश्ता दिन प्रतिदिन उधड़ता ही चला जा रहा है फिर से कब बुना जा सकेगा वह केवल वंदना पर ही निर्भर करता है। मेरी तरफ से कोई भी प्रतिक्रिया होती हुई न देख कर वह घुमाई हुई पीठ का आसन बदलती है, पीठ के बल होकर छत की तरफ देखती हुई कुछ न कुछ बडबडाती तो हैे। इस समय मेरी समझ में यह नहीं आता कि एैसे वक्त में जब बीवी आंसू बहाये, आंसुओं को अपना ब्रहास्त्र बना ले तो मुझे क्या करना चाहिये। उसे यूं ही आंसू बहाते हुए देखते रहना चाहिये या कुछ सोचना और करना भी चाहिये। आंसू पोंछने चाहिए, रोती हुई बीवी को चुप करवाना चाहिये या उसे देर तक रोते हुए देखते और प्रतिक्षा करते रहना चाहिए। वह हमेशा मुझे ही दोष देती रहती है और मैं उसे। हम दोनो एक दूसरे पर दोषारोपण करते रहते हैं, एक दूसरे को दोष देते रहते है बल्कि होना तो यह चाहिए कि हमें अपने अपने अवगुण खुद ही देखने चाहिये लेकिन वास्तव में एैसा बिल्कुल भी नहीं होता। खुद की फोटो उतारने की बजाये हम औरों की फोटो उतार कर मीन मेख निकालते रहते हेैं। मैं भगवान से हमेशा ही नाराज रहता हूं कि क्यों उसने समस्या खड़ी की, क्यों उसने एैसी शय, एक एैसी पहेली की रचना की जिसे समझते समझते पूरी उम्र ही बीत जाये और अगर तिनका मात्र समझ में भी आ जाये तो अर्थ का अनर्थ हो जाये। समझने की कोशिश भी करे तो कभी भी सफलता न मिले। भगवान तूने क्यों ऐसी रचना की, व्याकरण रूपी एैसे अलंकार लगाये कि किसी भी शब्द का अर्थ हमेशा ही उलटा निकाल लेती है। हमेशा हार ही पल्ले पड़ती है। हार के आगे जीत है और जीत के आगे फूलों का हार। पत्नि मनौविज्ञान की एक एैसी कठिन पुस्तक है जिसे उम्र भर में धीरे धीरे करके पढ़ा तो जा सकता है लेकिन उसका भावार्थ कभी भी समझ में नहीं आता। अगर समझ में आ भी जाये तो हमेशा ही उल्टा। जैसे कि धूम अर्थात धुंआ या उपद्रव, आंदोलन और पर अर्थात परन्तु यंा पंख आदि। अपना अपना अपराध स्वीकार करने की बजाये हम दोनो ही हमेशा एक दूसरे को ही दोष देते रहते है, अपराधी ठहराते रहते है। वास्तव में दोषी कौन है ये तो केवल भगवान ही जानता है। दुबारा फिर वह कुछ सुस्पष्ट शब्दों में दोहराती है, शब्दों का उपयोग इस प्रकार से करती है कि अबकी बार मेैं समझने से इनकार नहीं कर सकता। मुझे कुछ न कुछ तो बोलना ही पडे़गा। मैं समझ में नहीं आने का बहाना नहीं कर सकूंगा।

“पता नहीं कैसे पत्थर दिल हैं आप। अब बिल्कुल भी परवाह नहीं करते मेरी। पहले तो मुझे जरा सा भी रोने नहीं देते थे तुरन्त चुप करवा लेते थे, पुचकारते थे, गले लगा लेते थे, प्यार करते थे। पता नहीं अब वो पहले वाला प्यार कहां चला गया। अब तो आलम यह है कि मैं पिछले चार दिन से लगातार रोती ही रही हूं, मेरी सुध ही नहीं लेते। पत्थर दिल इनसान कहीं के। पता नहीं आपकों क्या हो गया है आजकल। पूछते ही नहीं कि मैं जीवित भी हूं या नहीं। जिन्दा हूं या मर गई।”

”भागवान तुझे बार बार समझा समझा कर मैं पागल हो गया हूं कि रोज रोज इस प्रकार की हरकतें अच्छी नहीं लगती, शोभा नहीं देती। कभी कभार की बात हो तो अलग बात है। मगर तुम तो किसी भड़वे की सुनती ही नहीं हो।ं तुम्हारा तो रोज रोज का एक ही काम रह गया है। नाराज हो जाओ और जी भर कर आंसू बहाओ। वक्त बेवक्त जब भी जी में आये नाराज हो जाती हो, रोना शुरू कर देती हो, आंसू बहाने लगती हो। रोज रोज परीक्षा लेती रहती हो मेरी। तुम्हे तो पता ही है कि मैं हमेशा तुम्हारी कसौटी पर खरा नहीं उतर सकता, रोज रोज परीक्षा में पास नहीं हो सकता। फेल होने के बाद ही पास होने की खुशी होती है, लगातार असफलता के बाद मिली सफलता का मजा आता है।” उसकी बातों पर मुझे भी कभी कभी ध्यान देना ही पड़ता है।

”आप तो काम पर चले जाते हो घर में एक पल भी नहीं रूकते, घर पर आपका जी नहीं लगता। सुबह जाकर शाम को आते हो और रह जाती हूं मैं अकेली घर में कैदियों की तरह। उस पर तुम्हारी मां की पाबन्दियां। हर काम में रोड़ा अटकाती है। बाधा खड़ी करती है। फालतू की नुक्ताचीनी होती रहती है। मनोरंजन का कोई भी साधन नहीं है। टीवी देखती हूं तो आंखों में खटकती हूं। दिन भर काम में पिसते रहते है। बोर होते रहते है।” काफी देर तक रोने के बाद शायद वह कुछ हल्कापन महसूस करती है। अब उसकी सिसकियां बंद होने लग रही है।

”देखो अगर कहीं पर चार बर्तन होंगे तो आपस मे बजते ही रहंेंगे न। कभी कभार एैसा तो हो ही जाता है कि आपस में कहा सुनी हो जाती है। बर्तनों के बजने का समय आ जाता है। इन छोटी छोटी बातों को लेकर तुम अपना दिमाग तो खराब करती ही हो और साथ में मेरा भी। मेरा मूड खराब करके तुम मेरे मातापिता के लिए मेरे दिल में जहर भरने का काम करती रहती हो। थके हारे शाम को घर आते हुए मैं तुम्हारा खिला हुआ चेहरा देखना पसन्द करता हूं न कि सड़े हुए टमाटर जैसा। लेकिन यहां तो माजरा कुछ और ही देखने को मिलता है। मेरी सोच के विपरीत रोज रोज तुम्हारा चेहरा सूजा हुआ रहता है, मुरझाया हुआ रहता है। अगर तुम रोज रोज यूं ही करती रहोगी तो मैं तो घुन की तरह पिसकर रह जाउंगा तुम दोनो की, सास बहू की चक्की के बीच में। मेरा हाल दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय वाला हो जायेगा। एक तरफ तुम हो और दूसरी तरफ मेरे माता पिता। तुम्हारी शिकायतें अलग है और उन सब की अलग।ं तुम ही बताओ कि मैं किसकी तरफ जाउ। किसको देखूं और किस को अनदेखा। ऐ गमे जिंदगी कुछ तो दे मशविरा, एक तरफ है उसका घर एक तरफ मैकदा। तुम दोनो में से मैं किसी को भी नहीं छोड़ सकता। मैं उनका सहारा हूं और तुम मेरा। सांप के मुंह में छछूंदर वाली बात हो रही है न छोड़ते बनता है और न ही निगलते। तुम दोनो की समस्याओं ने छछूंदर बनकर मेरे जीवन को नरक बना डाला है, खुशियों में जहर घोल दिया है। मेरे गले की हडडी बन गया है। इससे पहले तो मैं एैसे ही ठीक था कुंवारा। न कोई चिन्ता थी और न कोई फिकर। आराम की खाते थे, चैन की बंसी बजाकर सोते थे। 20 बरस पहले खाये हुए मोतीचूर के मीठे लडडू का असली स्वाद तो मुझे अब आने लगा है। खाना और सोना बस ये काम थे और अब तुमने मेरे सोने को चांदी और लोहे से भी बदतर कर दिया है और सारी मस्ती उतार दी है। अब मैं पागल होने लगा हूं तुम दोनो की रोज रोज की बातों से तंग आ गया हूं, दिल मर चुका है, मेरे अरमानों की चिता जला दी है तुमने। अब मैं इस रिश्ते की अर्थी ही तो ढो रहा हूं। जीवन के बाकी साल अब तो श्मशान भूमि की तरह नजर आ रहे है। पता नहीं कब तक चलेगा एैसा। उसकी बातों पर मुझे भी गुस्सा आने लगा है।”

इस गुस्से से मैं हमेशा ही बचकर निकलना चाहता हूं परन्तु कभी कभी यही गुस्सा बैरियर बन कर मेरी सोच के वाहनो को रोक लेता है। फलस्वरूप नकारात्मक विचारों की लाइन लगकर अरमानों का टैªफिक जाम हो जाता है। यही बात कभी कभी विचारों को गति अवरोधक की तरह रोकने का प्रयास करती है। इन्ही सब बातों के कारण दुर्घटना होने की प्रबल संभावना बनी रहती है।

”पागल तुम नहीं हो केवल मैं हूं। तुम तो अपने माता पिता के साथ हो, अपने शहर में हो, अपने घर में हो, अपने भाई बहनों के बीच में हो, अपने साथियों के बीच में दोस्तों के बीच में। तुम्हारे लिए मैंने अपने माता पिता को छोड़ा, अपना परिवार छोड़ा, अपने भाई बहन छोड़े, अपनी सखियां आदि को सब कुछ छोड़ दिया। फिर भी तुम्हे मेरी बिल्कुल भी फिकर नहीं। ऊपर से अपने मां बाप की अलग अलापते हो। उसकी बातों से बगावत की बू आने लगती है। टूटने का आभास होने लगा है जैसे कि उसके माता पिता ने उसे यह सब सिखा कर पढ़ा लिखा कर, अलग होने का प्रषिक्षण देकर भेजा है ठीक विदेशी आतंकियों की तरह जो किसी की भी एकता को बर्दाशत नहीं कर सकते तथा हमेशा ही तोड़ने की कूट नीतियां बनाते रहते है।

”तुमने क्या कोई नया काम किया है जो इस तरह से कह रही हो। ये तो हमारे समाज का, पूर्वजों का बनाया हुआ नियम है, रिवाज है, हमारी परम्परा है। सामाजिक आवश्यकता, व्यवस्था है। हमारी बहनों ने भी तो घर छोड़ा है। तुम्हारी तरह वो भी अपना सब कुछ छोड़ कर ससुराल गई हैं। उन्हाने भी तो अपना फर्ज निभाया है, अपने दायित्व समझे है। तुम्हे भी अपनी मर्यादा का ख्याल रखना चाहिए, अपना दायित्व समझ कर जीवन निर्वाह करना चाहिये। तुम भी यही चाहती हो कि तुम्हारी तरह मै भी अपने माता पिता को छोड़ दू, उन्हे बेसहारा कर दूं।”

अब वह पूरी बहस करने पर आमादा है। लड़ाई करने पर उतारू है।

”हर्ज ही क्या है। हमेशा एैसा ही होता आया है और होना भी तो चाहिए। बच्चे मां-बाप के साथ हमेशा कहां रहते है भला। शादी के बाद अलग होना भी तो एक आम बात है। लोग एैसा करते ही आये है। तुम्हे भी तो एैसा करना चाहिये। आज नही तो कल अलग होना ही पड़ेगा। तो क्यों न अभी से यह व्यवस्था कर दी जाये अलग होने की कार्यवाही कर दी जाये। जो काम बाद में करना पड़े उसे पहले ही कर लेना चाहिये। बाद में भी तो करना ही है। अलग से रहेंगे तो सारे अरमान पूरे करेंगे। जब जी चाहे पिक्चर जायेंगे, पिकनिक पर जायेंगे, घूमेंगे, दोस्तों मित्रों से मिलेंगे जबकि यहां पर इस घर में, संयुक्त परिवार में साथ साथ रहते हुए कभी भी हमारे अरमान पूरे होते हुए नजर नहीं आते। हर चीज को तरसते रहते है। हर इच्छा अधूरी ही रह जाती है। दिल के अरमान आंसुओं में रोज ही बहते रहते है। अगले जन्म में भी पूरे होने की उम्मीद नहीं। अरमान घनघोर बादलों की तरह तो आते रहते है लेकिन बरस नहीं पाते। बेचारे बिन बरसे ही चले जाते हैं क्योंकि यहां पर पाबन्दियों का इतना विशाल सहारा का रेगिस्तान है जिसमें दूर दूर तक बड़े बड़े दुखों के टीले ही टीले पसरे हुए नजर आते है। सिवाय रेत के इसमें कुछ भी नहीं जो मेरे अरमानों की घटाओं को आकर्षित कर सकते। मन का मयूर नाच सके। आशाओं की दूब नहीं, आशाओं के पूरे होने की वनस्पति उग ही नहीं सकती। विशाल पेड़ नहीं। जिनसे कभी भी अरमानों के पूरे होने की उम्मीद लगाई जा सके। पाबन्दियों के भयानक तूफान हैं जो अरमानों के बादलों को उड़ाकर पता नहीं कितनी दूर तक ले जाते है। बिना अरमानों के जीवन कैसा। ठीक वैसे ही जैसे कि बना वर्षा के फसल या बारानी जमीन जो कभी कभी पानी के अभाव में हमेशा के लिए बंजर हो जाती है। मेरा जीवन कुछ काम न आया जैसेे सूखे पेड़ की छाया। जीवन में अरमानों का होना, उन अरमानों का पूरा किया जाना बहुत ही आवश्यक है ताकि मरते दम तक अरमान केवल अरमान ही बनकर न रह जायें। कभी तो पूरे होने ही चाहिए न। वरना अरमान केवल अरमान ही रह जायेंगे और जिंदगी एक मुसाफिर। कुछ कुछ अरमान पूरे होते रहें तो जिंदगी को ढोना ही पड़ता वरना जिंदगी हमें ढोयेगी। वह बखान करना भी जानती है। साथ ही यह एक कटु सत्य भी है कि संयुक्त परिवार में अलग से अरमान पूरे करना कितना मुश्किल काम है और नुक्सानदायक। ये तो बुजुर्गों को खुद ही सोचना चाहिये कि किसी के भी अरमान बेकार न जाये और उनका खून नहीं होना चाहिये। संयुक्त परिवार के सौ सुख है लेकिन एक दुख सबसे बड़ा है जो सबको तोड़ देता है स्वतन्त्रता का विरोधी।”

”देखो मैं तुम्हे साफ साफ बता देना चाहता हूं कि इस शहर में एक हीं शहर में रहकर मैं अपने माता पिता से अलग घर लेकर नहीं रह सकता। तुम इसे मेरी मजबूरी समझों या कायरता। चेतावनी समझो या कुछ जो भी तुम्हे अच्छा लगे। अलग होने के विषय पर भी भविष्य में कभी भी बात सुनना नहीं चाहता। हां, अगर कभी प्रमोशन या स्थानान्तरण हुआ तो मेरे माता-पिता स्वेच्छा से तुम्हे मेरे साथ भेज दंेगे। वे इस बात को जरा भी महसूस नहीं करेंगे कि तुम उन्हे छोड़कर मेरे साथ जा रही हो। लेकिन एक ही शहर में रहते हुए जो लोग एैसा करते है या करने की इच्छा करते हैं वे सब के सब पागल है, बिल्कुल ही नासमझ है। वो यह सब नहीं जानते कि वो किसकी इच्छा रखते है। और क्या क्या काम करना चाहते है। वे यह नहीं जानते कि संयुक्त परिवार में कितने फायदे है। उन्हे जब अक्ल आती है तो सिर थाम लेते है, रोते हैं अपनी करतूतों पर। मेेरे पास इस इस प्रकार के कितने ही फायदे है। जिन्हे मैं तुम्हे गिनवा सकता हूं लेकिन तुम फिर भी न समझना चाहो तो तुम्हारी मर्जी। तुम्हे तो ये सब फायदे नजर ही नहीं आते क्योंकि तुम्हे एक एक फायदा नजर आता है आजादी का और नुक्सान लगता है साथ साथ रहने का।” संयुक्त परिवार में साथ साथ रहने का नुक्सान वह हमेशा ही गिनाती रहती है। मौका मिलते ही सबसे पहले नुक्सान ही गिनाने लगती है। वैसे भी हर चीज के दो पहलू होते है। हर काम के कुछ फायदे होते हो तो कुछ नुक्सान। केवला फायदा ही हो या केवल नुक्सान यह बिल्कुल असंभव बात है। दूर दूर रहते हों तो रिश्ते चुम्बक की तरह आकर्षित करते रहते है और अगर पास पास हों तो रिश्तों में घर्षण पैदा होने का खतरा बढ़ जाता है जो बाद में आग लगा देता है। रिश्ते बिल्कुल चुम्बक की तरह होते है। पास पास वालों का दूर भेजते रहते है और दूर वालों को पास करते रहते है।

”साथ साथ रहने के अगर सौ फायदे है तो कुछ न कुछ नुक्सान भी तो है। न ढंग से खाना, न ढंग से पहनना। न अपनी मर्जी से कहीं आ सकना और न कहीं जा सकना। बात बात के लिए आज्ञा लेना, पूछ पूछ कर काम करो और आधे से ज्यादा कामों में इनकार ही होती है। पूछो तो इनकार और न पूछो तो अपनी मर्जी चलाने का आरोप लग जाता है। दोनो तरफ से बुरे। बात बात पर अगर इनकार ही होता रहे तो मन मार कर ही रहना पड़ता है।” पता नहीं उसके एैसे कौन कौन से अरमान हैं जो आज तक पूरे नहीं हुए हैं, जिन्हें वह पूरा करना चाहती है।

”बड़ों से पूछ कर काम करना हमारा कर्तव्य है। उन्हें जो अच्छा लगेगा उसे तो करने देंगे ही और जो अच्छा नहीं लगेगा उसे नहीं करने देंगे। अगर हमें ये इनकार य नुक्ताचीनी लगती है तो यह हमारी नासमझी है। हमारी इस कमअक्ली और नासमझी के कारण ही हम अक्सर उन्हे गलत समझने की भूल कर बेैठते है।” जैसे जैसे मैं उसे समझाने की कोशिश करता हूं लेकिन वह है कि शायद अपने दिल का गुबार निकाल ही लेना चाहती है और उसे यही शिकायत है कि बुर्जुग युवाओं को समझने को कोशिश ही नहीं करते। वो यह जानना ही नहीं चाहते कि हम क्या चाहते है।

”हर काम गलत तो नहीं होता। हर काम में अपनी टांग अड़ाना ये अपना ज्ञान और जन्मसिद्ध अधिकार समझते है जैसे कि हम उनके गुलाम हो। ये यही तो चाहते हैं कि बात बात में हम उनसे पूछें और वे इनकार करें, उनकी इज्जत हो। उनका दबदबा हम पर हमेशा कायम रहे। मगर यूं ही चलता रहा तो हम जिंदगी में कभी भी अपनी मर्जी से किसी भी प्रकार का फैसला करने की स्थिति में नहीं रहेंगे। हमेशा ही गलत फैसले लिया करेंगें।ं हमें भले और बुरे का बिल्कुल भी ज्ञान नहीं रहेगा। हमारे इस दिमाग को इन लोगों ने धोकर रख दिया है जो बाद में किसी के भी काम का नहीं रहेगा। हमें अपने दिमाग का प्रयोग या उपयोग करने की बिल्कुल भी इजाजत नहीं दी गई है। अपना खुद का स्वस्थ दिमाग होते हुए भी हम उन पर निर्भर कर रहे है। बात बात पर हमें उनकी तरफ देखना पड़ता है।” वह यह भी भली भांति जानती है कि हम बंधुआ मजदूरों की जिंदगी जीने पर विवश है।

”ये तो वे ही बता सकते है। गलत सही का फैसला भी तो वो ही कर सकते है। अब मैं क्या कहूं और हम इस विषय में कर ही क्या सकते है। उनके खिलाफ हम कुछ नहीं कर सकते।” मैं कितने भी तर्क क्यों न कर लूं आखिर हथियार डालने ही पड़ जाते है। चुप हो ही जाना पड़ता है जब तक कि मेरे पास कोई ठोस दलील न हो। ये सब बातें सही भी है और गलत भी। सही इसलिये हैं कि हम स्वतन्त्र नहीं हैं और गलत इसलिये कि हमारी सुरक्षा नहीं रहेगी। मैं यह सब भी अच्छी तरह से जानता हूं। पांचों अंगुलियां हमेशा ही घी में रहें एैसा कतई संभव नहीं। इतने सारे फायदे गिनाकर शायद मैं भी अपने आपको झूठी तसल्ली ही दे रहा हूं। साथ साथ रहना है तो कुछ न कुछ नुक्सान तो सहन करना ही पडे़गा। मुझे यह सब मानने को मजबूर ही ही पड़ेगा। कभी कभी पत्नी की सूरत में मुझे खलनायिका मंथरा नजर आने लगती है जो मुझसे भयंकर अन्याय करवा देना चाहती है। राजा राम के बनवास की बजाये वो मुझे ही बनवासी यानि घर से निकलने को मजबूर कर देती है। कभी कभी मुझे नायिका द्रोपदी लगने लग जाती है जो अपने बालों रूपी अरमानों के साथ न्याय करवाने का प्रयास करती रहती है। मैं स्वयं भी एक पक्का फैसला नहीं कर पाता कि मैं पत्नी को क्या समझूं मंथरा या द्रोपदी। उसके साथ कैसा बर्ताव करूं। कैसे उसे न्याय दिलवाउ। अपनों के इस कुरूक्षेत्र में जी करता है कि मैं भी श्री कृष्ण से गीता उपदेश का ज्ञान प्राप्त करूं और अर्जुन की तरह तीर कमान संभाल लूं। इस महाभारत में कोई भी अपना नहीं है। सब के सब कौरव सैना के महारथी हैं जिनसे हर तरफ से खतरा ही खतरा बना हुआ है।”

कई बार कुछ इस तरह का संयोग हो जाता है कि जब कभी उसकी तरफ मैं उचित ध्यान नहीं दे पाता था तो उसके दिमाग में षक का कीड़ा कुलबुलाने लग जाता कि कहीं न कहीं दाल में अवष्य ही कुछ न कुछ काला है और दाल के इसी कालेपन की कल्पना को ध्यान में रखते हुए वह कहने लग जाती:-

”आजकल तुम मुझमें बिल्कुल भी रूचि नहीं दिखा रहे। मुझ से दिल भर चुका है क्या। मुझसे पिण्ड छुड़ाने का इरादा तो नहीं कर रखा कहीं। या कोई दूसरी देख ली है जिसके कारण तुम मेरी तरफ देखते ही नहीं, तुम्हें मेरी सुध ही नहीं रहती।”

”अगर रोज रोज तुम्हारा यही हाल रहा तो मुझे एैसा सोचना भी पड़ सकता है। मैं इस महाभारत से जितना ही दूर रहना चाहता हूं तुम उसे उतना ही मेरे नजदीक लाने में प्रयत्नशील रहती हो। रोज रोज एक ही महाभारत। द्रोपदी की तरह जुल्फो के अरमान बिखराकर उन्हे समेटने की मांग करती रहती हो और रिशतों की जंघा को तोड़ने का कूटनीति लगाती हो। द्रोपदी की जुल्फों को भी तो भीम ने दुर्योधन की जंघा तोड़ कर उसके खून से संवार कर समेट दिया था लेकिन तुम्हारे अरमानों को पूरा करने के लिए मैं कौन कौन से दुर्योधन की कौन सी जंघा तोड़ दूं। तुम्हारे अरमान हमेशा ही द्रोपदी की जुल्फों की तरह बिखरे रहते हैं। मैं क्या क्या उपाय करूं।” उसके संदेह का मेरे पास कितना भी ठोस जबाव क्यों न हो मगर संदेह तो संदेह ही रहता है। इसका कोई भी पुख्ता आधार नहीं होता। अगर होता भी तो बिल्कुल ही कमजोर, बेबुनियाद। वहम का कोई निदान नहीं होता।

”तो क्या मेरी सौत लाओगे।” उसका वहम शायद कभी नहीं जायेगा।

”हां, इसके बारे में भी सोच सकता हूं और फिर सोचने पर कोैन सा टैक्स लगता है। जरूरत हुई तो लानी ही पड़ेंगी। रिश्तों का ठण्डापन भी तो एक कारण हो सकता है। अगर तुम प्यार से पेश नहीं आओगी तो।” मैं मजाक करता हूं और वह परेशान हो जाती है।

”दूसरी शादी करने का विचार है क्या?”

”मुस्लिम अगर पांच शादियां कर सकते हैं तो हम क्यों नहीं।”

”उन्हे तो धार्मिक तौर पर आजादी है।”

”तलाक देकर तो कर ही सकता हूं न। तुम अगर तलाक दे दोगी या मेरी मदद कर दोगी तो यह काम भी कर लूंगा।ं तुम्हारी इच्छा हो तो सब कुछ संभव हो सकता है। शादी भी हो जायेगी।

”पहले मुझे तलाक दे देना या मायके भेज देना। बाद में चाहे कुछ भी करते रहना। उसके बाद में तुम्हे हर काम की आजादी होगी। कोई तुम्हे रोकने या टोकने वाला नहीं होगा। तलाक देने के बाद तुम दूसरी शादी करने के लिए आजाद हो जाओगे।” पता नहीं वह केवल मजाक करती है या वास्तव में नाराज होती है।

”इस जन्म में तो संभव नहीं हो सकता। इसके बारे में अगले जन्म में ही सोचा जा सकेगा। जीते जी मैं तुम्हारा पीछा नहीं छोडूंगा। मरना ही पड़ा तो एक साथ ही मरेंगे लेकिन दूसरी शादी के बारे में तो सोच भी नहीं सकता।”

”तो फिर गुमसुम क्यों रहते हो इस तरह। तुम्हारा ठीक से न बोलना भी तो शक ही पैदा करता रहता है। मेरी उलझन बढ़ाता रहता है।” मैं भी उसे तंग करने की बात करता हूं।

”तुम अगर सुनना नही चाहती हो तो क्या मैं पागल हूं कि यूंही बकवास करता रहूं। मैं तुम्हारी पीठ से कैसे और क्यों कहूं कि तुम मेरी जान हो, तुम मेरी तरफ अगर प्यार से देखो तो मैं दिन भर यही कहता रहूंगा कि तुम्हारी आंखों की झील में डूब मरूं।ं तुम्हारी आंखों में मैं अपना चेहरा देखने की इच्छा हमेशा ही रखता हूं लेकिन मुझे हमेशा ही काली काली चटटाने नजर आती हैं और मेरा चेहरा भी चटटानों से टकरा टकरा कर लहू लुहान हो जाया करता है। तुम्हारी आंखों से आग बरसती है और मेरा चेहरा भी झुलस जाता है। तुम्हारी आंखों की झील को मैं प्यार का समन्दर बनते हुए देखना चाहता हूं जिसमें से हमेशा प्यार का ज्वार भाटा उठकर शान्त होता रहे और तूफान आये तो सिर्फ प्यार का न कि नफरत के भंवर का। हर बात में केवल प्यार ही प्यार होना चाहिये चाहे जो भी हो नफरत किसी भी लहर में नहीं होनी चाहिये।”

”तो फिर कसम खाओं कि तुम कभी भी एैसा नहीं करोगे।” उसे हमेशा मेरे कम या न बोलने पर शिकायत ही रहती है।

”अगर तुम यह सब बन्द कर दो तो मुझे क्या पड़ी है दूसरी शादी करने की और कसम खाने की, तुम्हे तलाक देने की, तुम्हारी सौतन लाने की। मैं तो यही चाहता हूं कि तुम सातों जन्म, केवल तुम ही मेरी सहचरी बनी रहो। केवल तुम्हारी आंखों के समन्दर में मेरे दिल की नैया डूबे, तुम्हारे प्यार के भंवर में ही मैं डूब मरूं। तुम्हारी फालतू की बातों से मेरा दिमाग खराब होता रहता है। तुम ये सब फालतू की बातें मत किया करो। इनसे परहेज करो तो रिश्तों का स्वास्थ्य हमेशा ही ठीक रहेगा। ज्यादा मिर्च मसाले वाली बातें भी मानसिक बदहजमी का कारण बर जाती हैं। तुम हमेशा ही मेरी रहोगी और मैं सिर्फ और सिर्फ तुम्हारा। तुम्हारे सिवा किसी और को अपने जीवन में न आने दूंगा।” मेरे इस प्रकार के प्यार के शब्दों से उसके चेहरे पर थोड़ी सी मुस्कान दिखाई देने लगती है। आंखों में शरारत की चमक और होंठो पर हरकत।

”चाहती तो मैं भी यही हूं कि तुम ही सातों जन्म तक मेरे रहो, हम में कभी भी झगड़ा न हो लेकिन मैं भी क्या करूं कई बार बच्चों को लेकर, कई बार घर बार की बातों को लेकर, कई बार हमारी आपसी तकरार को लेकर एैसा हो ही जाया करता है और उस पर दिन भी घर में कैदियों की तरह बोरियत से गुजरना पड़ता है। बोरियत और नुक्ताचीनी के कारण ही दिमाग खराब रहता है। तुम तो जब भी जी चाहे बाहर चले जाते हो, बाजार में घूम आया करते हो, सिनेमा देख सकते हो, तफरी भी कर सकते हो लेकिन मुझे तो यूंही जिंदगी काटनी पड़ेगी उम्र कैदी कर तरह। कैदी तो फिर भी कभी न कभी बरी हो सकता है लेकिन मेरी यह कैद उम्र की है जो मरने के बाद की अर्थी के साथ खत्म होगी। तब तक मुझे कैदी बनकर जीना पड़ेगा। इस कैद को अलग होकर ही खत्म किया जा सकता है और वो जीते जी कभी हो नहीं पायेगा।”

”ये आपसी तकरार तो एक आम बात है। यदि एक चुप रहे तो तकरार बढ़ने का मतलब ही नहीं रहता। एक चुप तो सौ सुख। ठण्डा लोहा हमेशा ही गर्म को काट देता है। तुम भी ठण्डे लोहे की तरह हो जाओ। हर समस्या का यही मात्र एक हल है। हमारी समस्यायें खत्म होती रहेंगी। ठण्डा लोहा बनना सीख जाओ तो समय अपने आप ही कटता चला जायेगा और तुम्हे मालूम ही नहीं पड़ेगा कि कब हम बुजुर्गो की कतार में लगकर खड़े हो जायेंगे। हमारे बच्चे भी हमसे पूछ पूछ कर हर काम किया करेंगे। तुम कल्पना करो कि तब हम कितना खुश हुआ करेंगे। हमें उनकी बातों पर कितनी खुशी हुआ करेगी। बिना मतलब सोच सोच कर तुम अपने दिमाग तो फालतू में खराब करती ही हो और साथ में सबका मूड भी खराब होता रहता है। वैसे भी कभी कभार तकरार हो भी जाये तो ठीक है, रिश्तों का स्वाद बदलता रहता है वरना कभी कभी ये रिश्ते ही मूंग की दाल की तरह बेस्वाद हो जाते हैं। वक्त बेवक्त अगर बर्तन बजते रहें तो उनकी खनक बनी रहती है। अगर बर्तन कभी न बजें अल्मारी में ही सजे रहे तो उनकी खनक का पता ही नहीं लगेगा। अल्मारी में पड़े हुए बर्तनों पर धूल मिटटी जम जाती है और पड़े पडे बेकार हो जाते है। यह भी पता नहीं चल पायेगा कि कौन सी खनक किस बर्तन की है। खनक क्या चीज है और खनकना क्या होता है। खनकते बर्तन ही अच्छे लगते हैं जिससे बाहरी वालों को भी पता चलता रहे कि किस घर में कितने बर्तन है, किस धातु के है और कैसे बजते है। खनकना किसे कहते है। तुम ही सोचो क्या कभी थाली को परात से, बाल्टी को गिलास से, मटके को लोटे से, पतीली को कड़छी से अलग किया जा सकता है। अगर कभी भी एैसा किया गया तो वे अलग अलग कैसे और कितने दिन तक रह पायेंगें। बिना एक दूसरे को देखे, बिना खनके कैसे जी पायेंगे भला। वे सब के सब अपनी अपनी खनक ही भूल जायेंगे और दूसरे की खनक सुनने को तरस जायेंगे और फिर सबकी जरूरत भी तो हमेशा रहती है। आज के युग में एैसा कोई भी इनसान नहीं जिसे कभी किसी की जरूरत न रही हो। बिना खनक के जीना भी कोई जीना है, खनकना ही जिंदगी है और जिंदगी ही खनकना। जीवन में खनकना बहुत ही जरूरी है। मौहल्लें में जब कभी भी थाली बजती है तो उसका मतलब हर आदमी मौहल्ले का हर निवासी समझ जाता है। तुम भी थाली बन जाओ। बजना ही है तो केवल थाली बनकर बजना प्रारम्भ कर दोगी तो घर तो क्या पूरा मोहल्ला ही खुश नजर आने लगेगा। थालीको छोडकर कोई दूसरा बर्तन कभी बजे तो उसका मतलब अलग होता है।”

”मैं भी बहुत कोशिश करती हूं कि न बोलूं लेकिन तुम ही बोलो कि मैं कब तक यह सब सहन करती रहूं। कब तक चुप रहूंगी भला। कभी न कभी तो किसी न किसी बात में बोलना पड़ ही जाता है। हर बात में चुप भी तो नहीं रहा जा सकता न। कई कई बार तो बोलना मेरी मजबूरी ही होती है। वह यह सब भली प्रकार से समझती तो है लेकिन कभी कभी आदत से मजबूर हो जाया करती है।”

”मिलकर रहना है तो चुप रहने में ही भलाई है, हम सब का फायदा है। जब तुम्हे गुस्सा आये तो ठण्डा पानी पिया करो या तुरन्त एक, दो, तीन, चार गिनना शुरू कर दिया करो ताकि गुस्से से तुम अपना ध्यान हटा सको। जैसे ही गुस्सा आये वैसे ही चला भी जाये बिना किसी नुकसान के।” मैं उसे अब खुश करने का जी भर प्रयत्न करता हूं।

”मुझसे यह सब बर्दाश्त नहीं होता। ठण्डा पानी पीकर तुम जीआ करों। मुझे तो गर्म पानी पीने की आदत है। पता है गर्म पानी सेहत के लिए कितना अच्छा होता है। ”

”अच्छा हो या बुरा मुझे नहीं पता लेकिन तुम पिओ या न पिओ मुझे तो ठण्डा पानी पीकर ही गुजारा करना पडे़गा। तुम दोनो के बीच में रहना है तो मुझे ही एक, दो, तीन या चार गिलास नहीं पूरा मटका ही पीना पड़ेगा ताकि तुम दो चक्की के दो पाटो के बीच में मैं बेचारा मुफ्त में न पिस सकूं। मुझ पर कबीर का दोहा लागू न हो सके। पानी में रहना हैे तो मगर से दोस्ती तो करनी ही पड़ेगी। चाहे वो कितनी भी नुक्सानदायक क्यों न हो।”

”यहां तो पूरा का पूरा तालाब ही घडियालों और अजगरों का है। जिसे देखो वो ही नाग की तरह फंुफकारता है और अजगर की तरह बिना डसे कस कर मार देना चाहता है। बिना लाठी तोड़े संाप मारने की तरकीब आजमाना चाहता है।”

”तुम सपेरा बन जाओ, डिस्कवरी चैनल देखा करो और हर प्रकार के सांप या अजगर को वश में करके विष और जहरीले दांत निकालने की कला सीख लो फिर देखो वही विष तुम्हारे लिए कितना फायदे मंद हो जायेगा। कितनी ही बिमारियों का इलाज भी कर देगा। समय आने पर सब संाप और अजगर तुम्हारे दोस्त बन जायेंगे।” मैं उसकी हर बात को मजाक में टालने का हर संभव कोशिश करने लगता हूं।

इतनी सारी बातें होते होते वह धीरे धीरे मेरी तरफ करवट बदलना प्रारम्भ कर देती है, अपने पांव से मेरे पांव पर छेड़छाड़ करने लगती है। लगता है अब उसका जी कुछ हल्का हो गया है ठीक हो चुका है। नाराजगी का जहर उतरने लग रहा है, लगता है जैसे कि अब गुस्सा थूका जा रहा है। उसकी हालत अब सामान्य होती जा रही है। वरना जहां पहले उसकी जुबान से पत्थर बरस रहे थे वही अब पत्थरों का स्थान फूलों ने ले लिया है, स्वर में रूखापन बदलकर मिठास आने लगती है। वातावरण में मदहोशी छा रही है।

”वैसे तुम भी तो बहुत अच्छे हो परन्तु जब मेरी तरफ ठीक से ध्यान नहीं देते तो मुझे बहुत बुरा लगता है और शक होने लगाता है और कई कई बार तो एैसा महसूस होने लगता है जैसे कि तुम मेरी उपेक्षा कर रहे हो। जैसे कि इस घर में मेरा कोई नहीं है या मैं किसी होटल या धर्मशाला में रह रही हूं। केवल तुम ही तो मेरे हो जिससे मैं अपने दिल की बात कह सकती हूं। तुम ही न सुनो तो तुम ही बताओ मैं अपनी बात किससे जाकर कहूं। बाकी सब तो यहां पर जैसे पत्थर के बुत्त हैं जिनमेें से किसी में भी दिल नाम की चीज नहीं है। किस बुत पर अपना माथा पटकूं। अगर दिल वाले होते तो मेरी बात अवश्य ही समझते। इन्ही बातों को तो सोचकर कई बार दिल में आत्महत्या करने तक की बात आ जाती है।” अब उसका मूड कुछ कुछ सुधर रहा है।

”जानेमन। अच्छी तो तुम भी बहुत हो परन्तु जब बिना मतलब बोलती हो, भाषण देती रहती हो या अकारण ही बच्चों को डांटती पीटती रहती हो तो मुझे भी कितना बुरा लगता है यह तुम कभी भी नहीं सोचती हो। घर का वातावरण बिल्कुल चिड़ियाघर की तरह हो जाता है। कई बार जी में आता है कि तुम दोनो में से किसी एक को पागलखाने में भिजवा दूं या दाखिल करवा दूं या इंतजाम करवा देना चाहिये ताकि झगड़े की जड़ को ही खत्म किया जा सके। बिजली के दो चार झटके लगवाने चाहिये। दिमाग ठिकाने आ जायेगा तुम दोनो का।”

”इससे बढ़िया क्या बात हो सकती है। अपनी मां को ही दाखिल करवा दो। उसे ही झटके लगाने की जरूरत है। मेरा दिमाग तो बचपन से ही ठीक है।” अब उसे मजाक सूझने लगा है।

”हर पागल भी तो यही कहा करता है। ये तो मुझे ही पता लगाना है कि तुम दोनो में से वास्तव में कौन ज्यादा पागल है। किसका दिमाग ज्यादा खराब है। किसे झटके देने की जरूरत है। तुम्हारे साथ मुझे भी तो पागल होना पड़ेगा न। या फिर यह पता लगाना पड़ेगा कि खराब हो चुका दिमाग कैसे कैसे और कितने दिन में ठीक किया जा सकता है।” अब मुझे भी उसकी तरफ करवट बदलने को मजबूर होना पड़ रहा है। मेरी अंगुलियां उसके गालों को टटोलती हुई आंखों तक पहुंचने की कोशिश करने लगती हैं। आंसुओं की चिपचिपाहट महसूस करने की कोशिश करती हैं। वैसे तो उसकी आंखों से बहने वाले आंसू काफी पहले ही सूख चुके हैं परन्तु फिर भी जैसे जैसे बचे खुचे आंसू पोंछे जाने लगते हैं, गालों पर अंगुलियां चलकर सहलाने लगती हैं वैसे वैसे वह मेरे करीब और करीब सरकती जाती है। बिल्कुल चिपट कर आलिंगनबद्ध हो जाती है और मुझें उसकी गर्म गर्म सांसे महसूस होने लगती है।

”मुझे सब कुछ मंजूर है लेकिन तुम्हारा इस तरह चुपचाप रहना, कई कई दिन तक न बोलना, रूठे रहना बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता। तुम कभी भी एैसे बर्ताव मत किया करो।” उसकी आंखों में से दुबारा आंसू छलकने लगते हैं। उसकी अंगुलियां भी मेरे माथे पर से गुजरती हुई बालों में घूमने लगती है।

”ठीक है बाबा। मैं कान पकड़ता हूं। आज से क्या अभी से वायदा करता हूं। कसम खाता हूं। मुझे भी सब कुछ मंजूर है लेकिन शर्त ये है कि बदले में तुम्हारा चेहरा भी गुलाब की तरह हमेशा खिला हुआ रहना चाहिये न कि कभी कभी। मुरझाया हुआ चेहरा देखना मुझे भी अच्छा नहीं लगता। तुम हमेशा बन-ठन कर रहा करो बिजलियां गिराती रहा करो। चाहे तो मुझसे अभी पांव पकड़वा लो।” अब मुझे भी उसकी चापलूसी करने पर उतारू होना पड़ता है।

”अरे अरे ये क्या कर रहे हो। बस बस रहने भी दो। पांव पकड़ने की ड्यूटी तो मेरी है तुम्हारी नहीं। तुम मेरे दिल के सरताज हो और तनमन के मालिक।” इतनी सारी बातें होते होते वह मेरे माथे पर प्यार से चुम्बन अंकित कर देती है। अपनी बाहों में कस लेती है और समझोते की खुशी मेरी आंखों मे से भी आंसू बन कर छलकने लगती है। शक और विवाद की तमाम दीवारें पल भर में गिर जाती हैं। सारे गिले शिकवे पल में दूर हो जाते है।

”और तुम मेरे दिल की मल्लिका। हमेशा मल्लिका बनकर ही रहो, जीवन भर।” मेरी बाहें भी उसे आलिंगन में कसने को तैयार हो रही हैं, होंठ चूमने को बेकरार। काली स्याह रात गुलाबी हो चुकी है। लगता है जैसे आज ही असली सुहागरात है। चुम्बनों का आदान प्रदान आरम्भ होने लगता है। एक, दो, तीन, चार पांच और कभी न समाप्त होने वाला सिलसिला।

अब में वास्तव में लगने लगा है कि बरसों से मेरे घर की पत्थर या लोहे में परिवर्तित हुई यही खिड़की फिर से पीतल में, पीतल से चांदी में, चांदी से सोने में बदल गई है और बाकी का घर सोने का महल। यदि वह हमेषा ही इसी तरह से सुनहरी खिड़की बन कर रहना सीख जाये तो मैं किसी दूसरे के घर की खिड़की की तरफ देखने, सोचने और पाने की इच्छा ही क्यों करूं भला। किसी भी दूसरी खिड़की को देखना बुरा नहीं है जितना कि उसे पाने की तमन्ना करना या पा लेना।

(उस सभी खिड़कियों को समर्तित जिनका रूप चिरकाल तक सुनहरा, अपरिवर्तनीय, किसी भी प्रकार के मौसम में अप्रभावित रहना और जो हमेषा ही आकर्शित करते हुए रहस्यमयी रहेंगी और जिनका राज कोई भी कभी भी न जान सकेगा)