सुन रहे हो? / एक्वेरियम / ममता व्यास

Gadya Kosh से
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तुम्हें जब भी देखती हूँ, तुम्हें बिखरा-बिखरा-सा पाती हूँ। लगता है जैसे असमान में किसी देवदूत के गले से टूट कर गिरी हुई माला के मोती हो तुम। जो धरती पर आते-आते बिखर गयी। तुम कुछ इस तरह टूट कर गिरे कि माला का वह धागा उस देवदूत के गले में ही छूट गया और सभी कीमती मोती इधर-उधर हो गए, जिनसे अलौकिक प्रकाश और खुशबू निकल रही है।

मैं उन्हें छूने जाती हूँ तो वह जुगनू बन जाते हैं और दर्द के स्याह अंधेरों में लुका-छिपी खेलने लगते हैं।

कभी मैंने चाहा कि तुम्हें समेट लूं अपने दोनों हाथों में और फिर से एक सुन्दर माला बना दूं, लेकिन उन्हें समेटना मेरे बस की बात भी तो नहीं...छूते ही गायब होते हैं वह मोती।

सुनो...ऐसा करो तुम खुद को समेट लो, हर मोती को सहेज लो। मैं अपनी सांसों का अनमोल धागा तुम्हें दे सकती हूँ।

दरअसल, जब में आई थी न इस धरती पर, तब से ये मेरे पास बेकार ही पड़ा है मेरे पास कीमती मोती भी नहीं जिन्हें मैं इनमें पिरोकर कोई माला बना सकूं।

तुम अब ऐसा करो इस धागे में अपने सभी मोतियों को आहिस्ता-आहिस्ता पिरो लो। यहां-वहाँ बिखरे मोती अच्छे नहीं लगते।

देखो ज़रा आराम से, धागे में गांठ न पड़े।

सुनो न...सुन रहे हो न तुम?